शनिवार, 25 जून 2011

छत्तिसगढ़ ल बचाय अउ बनाय बर

मितान परम्परा 
गंगाजलमहापरसादभोजलीजँवारागंगा-बारुतुलसी-जलनरियर फूलमितान अउ फूल-फूलवारी बधके अपन मया के बँधना लापोट करे जाय।

गउ अउ धरती महतारी के सेवा
दूधदहीघीगोबर अउ गउ मूत जइसे अउसधी के संगे-संग किसान के संगवारीबइला देवइय्या गउ माता अउ हमर जिनगी के सिरजइय्या धरती महतारी के जी जान ले सेवाकरे जाय। ऋषि-कृषि ल बढ़ावा देय जाय।

सियान मन के असीस
सियान मनखे मन कना अनुभवअउ गियान के अड़बड़ भंडार रथे। ऊँच-नीचसुख-दुखअउ दुनियादारी सबला देखे सुने अउ सहे हे वोमन।ऊँखर छाइत अउ आसीरवाद हमर ताकत ए। वोला बिसराना नइहे।

खेती बँटवारा उचित नइहे
खेती के बँटवारा नइ करकेउपज ल बाँटे म जादा भलई हे।

पुरखउती खेल अउ लोक साहित्य के चलन
हमर पुरखउती खेल कबड्डी, गोंटाखो-खो, फुगड़ी, सुरगोटा के संग-संग लोक साहित्य कहानी, कंथलीहाना- बाना, जनउला, लोकगीत ल जादा ले जादा चलन म लाये बर परही।

नसा के नास अउ सापर भाव के आस
बिनास के जर नसा अउजुआ-चित्ती ले दुरिहा रहना जरुरी हे। सहकारसापर के भावना ल पनपा के साहूकार मनके चंगुल लेबचे बर परही।


केशवराम साहू

जनउला

1)         बीच तरिया में टेड़गी रूख ।

2)         फाँदे के बेर एक ठन
ढीले के बेर दू ठन । 

3)         एक महल के दू दरवाजा
वहाँ से निकले संभू राजा । 

4)         ठुड़गा रूख म बुड़गा नाचे । 

5)         कारी गाय कलिन्दर खाय
दुहते जाय पनहाते जाय ।

6)         कोठा में अब्बड़ अकन छेरी
फेर हागे त लेड़ी नहीं । 

7)         अँउर न मँउर
बिन फोकला के चउँर । 

8)         नानचून टूरा
कूद-कूद के पार बाँधे । 

9)         नानूक टूरा
राजा संग खाय ल बैठे । 

10)      नानचून बियारा में,
खीरा बीजा । 

11)      तरिया पार में फट-फीट
तेकर गुदा बड़ मिठ । 

12)      तरी बटलोही उपर डंडा,
नइ जानही तेला परही डंडा । 

13)      छुए म नरम
ओड़े म गरम
धरे म शरम । 

14)      सुत उठ के लड़ँगा नाच । 

15)      एकझन कहे संझातिस झन
दूसर कहे पहातिस झन । 

16)      एकठन थारी में दु ठन अंडा
एक गरम एक ठंडा । 

17)      पूछी में पानी पियय
मूँड़ी ललीयाय । 

18)      जरकुल ददा,
निरासा दाई,
फूलमत बहिनी,
फोदेला भाई । 

19)      डबरा मताय हस
कि करार ओदारे हस । 

20)      ददा के एक ठन
दाई के दुठन । 

21)      पाँच भाई नांगर जोते
दस भाई कोप्पर तीरे । 

22)      करिया बईला बैठे हे
लाल बईला भागत हे । 

23)      कका ल काकी चाबे
काकी ल
सब लोग लइका चाबे । 

24)      दुरूग के डोकरी,
पाछु डाहर मोटरी । 

25)      चार चौकड़ी गोल बजार,
सोला रानी तीन यार । 

26)      पीठ कुबरा पेट चिरहा
नई जानही तेकर चाल किरहा ।

27)      थोकिन एला थोकिन
ओला धर बैठेंव तोला । 

28)      दू झन में उचथे
पाव भर न छटाक भर । 

29)      तोर घर के जुनना सियान कोन ए । 

30)      छिटका कुरिया में बाघ गुर्राय ।

31)      बाप लड़ँगाबेटा पोण्डानाती निंधा ।

32)      हरियर भाजी,
साग में न भात में
खाय बर सुवाद में । 

33)      काँटे मा कटाय नहीं
भोंगे मा भोंगाय नहीं । 

34)      उपर पचरी नीचे पचरी
बीच में मोंगरी मछरी । 

35)      पानी के तीर-तीर चर बोकरा
पानी अँटागे मर बोकरा । 

36)      तीन गोड़ के टेटका
मेरेर-मेरेर नरियाय
पाछू डाहर खुँदे
त आगू डाहर हड़बड़ाय । 

37)      बाप अउ बेटा के नाम एके
नाती के नाम औरे ।
ए जनउला ल जानबे
तब मुहँ म डारबे कौंरे ।। 

38)      नानकुन टूरागोटानी असन पेट
कहाँ जाथस टूरारतनपुर देश । 

39)      दिखे में लाल लाल
छिये में गूज-गूज
चाबदिस दाई
बड़ जन बूबू । 

40)      ओमनाथ के बारी म
सोमनाथ के काँटा
एक फूल फूले
त पचीस पेंड़ भाँटा । 

41)      एक सींग के बोकरा
मेरेर-मेरेर नरीयाय
मुहु डाहन चारा चरे
पाछु डाहन पघुराय । 

42)      सुलुँग सपेटा फुनगी में गाँठ
नई जानही तेकर नाक ल काँट ।

43)      टेंड़ेग बेंड़ेग बाँसुरी
बजाने वाला कौन
भऊजी गेहे मइके
मनानेवाला कौन । 

44)      फूल-फूले रिंगी-चिंगी
फर फरे कटघेरा,
एक हानी ल जानबे
तभे जाबे अपन डेरा ।

45)      नीलकंठ राजा नहीं
चार गोड़ घोड़ा नहीं
लाम लँगूर बानर नहीं । 

46)      लाल मुहँ के छोकरी
हरियर फीता गंथाय
निकले कहुँ बजार में
त हाँथो हाँथ बेचाय । 

47)      पानी भीतर के कमनीन
बपरीलम्बा-लम्बा केंस । 
बारा लइका के महतारी होगे
फेर नइ हे पुरूष संग भेंट । 
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 उत्तर - 1. चिंगरी मछरी  2. दतवन 3. रेमट  4. टँगिया  5.  कुआँ 6. चाँटी 7. मउहा 8.  सूजी 9. माछी 10. दाँत 11. नरियर 12. जिमीकाँदा 13. कथरी 14. बाहरी 15. दिन-रात 16. सुरूज चंदा 17.  दीया 18. कुम्हड़ा 19. बासी-भात 20. गोत्र 21. दतवन 22. आगी 23. कांड़-भदरी 24. मेकरा 25. पासा 26. कउ़ड़ी 27. सील-लोड़हा 28. झगड़ा 29. पाटी 30. जांता 31. मउहा 32. पान 33. छइँहा 34. जीभ 35. दीया 36. ढेंकी 37. मउहा 38. नरियल 39. मिरचा 40. भसकटिया 41. जांता 42. बाँस 43. नदिया 44. भसकटिया 45. टेटका 46. बंगाला 47. ढुलेना काँदा



गुरुवार, 16 जून 2011

सौ चुहे खाकर बिल्ली हज को चली...

हिन्दी साहित्य का यदि हम अध्ययन करें तो यह कहावत उसके बारे में कहा गया है जो कि अपने अतीत में बुरे काम किये होते हैंवर्तमान में उपदेशक की भाँति किसी को भी सलाह देता फिरता है। समाज उसे हेय की दृष्टि से देखता है तथा उसके कारनामें पर हँसते हैंखिल्ली उड़ाते हैं क्योंकि वह पहले कुछ और था आज रामनाम का चादर ओढ़ा हुआ है। शाब्दिक अर्थों पर जायें तो बिल्ली समाज की अज्ञानता पर हँस रही है। समाज बिल्ली के हज जाने पर हँस रहे हैं। समाज और बिल्ली दोनों एक दूसरे को देखकर हँस रहे हैं। हँस तो दोनों रहे हैं लेकिन हँस ने में सार्थकता किसकी है ये देखने वाली बात है। 

पहले बिल्ली के बारे में अध्ययन करें कि समाज पर वे हँस क्यों रही है? बिल्ली कहती है कि मुझे बचपन से परंपरागत संस्कार दी गई थी कि चूहे हमारी भोजन है। आज मुझे बोध हो गई है कि ये गलत है। किसी की हिंसा कर पेट की आग बुझाना अधर्म है। आज मुझे बोध ही नहीं बल्कि गहरी बोध हो गई है कि चुहे खाना अधार्मिक कार्य है और मैं हज को चली गई। मैं हँस इसलिए रही हूँ कि समाज के पास रूपांतरित होने का कोई उपाय नहीं। समाज को अपनी गहराई का पता नहीं है। समाज मुझ पर भले ही हँसे लेकिन उसका हँसना केवल अज्ञानता है। बुद्ध के पास जाओगे तो रूपांतरित होने का एकमात्र उपाय गहरी बोध ही बतायेंगे। पाप का कारण अचेतन एवं अज्ञानता है। जिन्होंने जीवन को पूरे होश से जिया है वही समस्त विकारों से छुटकारा पाकर समग्र जीवन को उपलब्ध हुए हैं। परम् शान्ति एवं आनंद उसी की झोली में गया है। इसीलिए आज हज करके अपने आप को धन्य मानती हूँ। लेकिन समाज उसके रूपांतरित होने के न ही कारण समझ पाती है और न ही उसके अनुभव से कुछ सीख पाती है। उसके लिए सिर्फ एक लोकोक्ति रह जाती है कि सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली... कहने का आशय यह है कि आनंदित एवं हँसने का अधिकार सबको हैलेकिन हँसना एवं आनंदित होना किसका जायज है यह तो परमात्मा ही जानता है। 

आज के महत्वाकांक्षा की दौड़ में यह घटना सामान्य सा हो गया है। किसी की दुर्दशा पर हँसने वाला बहुत मिलेंगे। समाज किसी की असफलता पर हँसती है या फिर व्यंग्य कसती है। सफल लोगों को पुरस्कृत करती है। क्या ऐसा समाज जीवन के अस्तित्व बचाने में सफल हो पायेगा? वास्तविक समाज का निर्माण तब हो पायेगा जब असफल लोगों को समाज अपने शरण में लेकर सही दिशा देने में समर्थ हो सके। असफल लोगों के अनुभव को जानने का प्रयास करें। इस संसार के अस्तित्व को वही बचा सकता है जो अपने आप से प्रेम करेजीवन से प्रेम करे साथ ही साथ दूसरों से भी प्रेम करना सीखे। वर्तमान विद्यालय में ऐसा आदमी प्रशिक्षित होकर निकलेगा इसकी कोई गारंटी नहींक्योंकि सफलता और सबसे आगे निकल जाने की परंपरा जो निकल पड़ी है। इस दौर में दो आदमी पैदा हो सकते हैंपहला आत्महीनदूसरा अहंकारी। 

असफल आदमी प्रायः आत्महीन के शिकार होते हैं। सफल व्यक्तियों में कुछ को छोड़कर सभी अहंकारी होते हैं। अपने से बड़े सफल आदमी को देखकर अपने आप को आत्महीनता महसूस करते हैं। प्रतियोगिता की भावना सभी में हैं। एक दूसरे की सफलता को बर्दास्त करने की क्षमता नहीं है। पूरे समाज इस बीमारी से लत है। ईर्ष्या की केन्द्र बिन्दु भी यहीं से है। वास्तव में ईर्ष्या पूरे समाज को खा रही है। उसका एकमात्र कारण दूसरों से महत्वाकांक्षा है। दूसरों के प्रति महत्वाकांक्षा रखने वाले व्यक्ति कभी किसी से प्रेम नहीं कर सकता। वर्तमान विद्यालय आत्मप्रेमीप्रकृति प्रेमी बनाने में असफल हैजो व्यक्ति दूसरों से महत्वाकांक्षा न रखते हुए सिर्फ अपने आप से आगे बढ़ने की चेष्टा की है वही व्यक्ति प्रकृति एवं परमात्मा से प्रेम करने में सफल हुए हैं। पूरा समाज आत्महीनता से ग्रसित है। एक देशदूसरे देश के विकास को देखने में समर्थ नहीं है। एक देशदूसरे देश से आगे बढ़ने की चेष्टा कर रहा है। इसी प्रकार हर व्यक्ति अपने पड़ोसीअपने साथीअपने गुरू या और व्यक्ति से महत्वाकांक्षा करने से नहीं चूकते। ईर्ष्या से कोई व्यक्ति अछूता नहीं है। यह अवगुण महिलाओं में ज्यादा पायी जाती है। छोटी-छोटी बातों पर ईर्ष्या देखने को मिलती है। 

जिस समाज में ईर्ष्या के सिवाय कुछ है ही नहीं वहाँ आगे जीवन की अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। हिंसाप्रतिहिंसाचोरीडकैती,  मुनाफाखोरी, भ्रष्टाचार, वेश्यावृत्ति, बलात्कारवार्गिक भेद एवं लूट-पाट आदि जैसी घटनाएँ महत्वाकांक्षा पर आधारित शिक्षा के ही कारण है। हर मानव का लक्ष्य सुखसमृद्धि और शांति है। आर्थिक रूप से समृद्धि हो चुके लेकिन हमारा साधन महत्वाकांक्षा का है इसलिए शाँत होने में असमर्थ हैं। शाँत आदमी ही जीवन में क्रांति ला सकते हैं। धार्मिकता एवं अधार्मिकता के तथ्य को भलीभाँति समझ सकता है। जीवन के वास्तविक उद्देश्य तक पहुँचा सकता है। समाज को इस उद्देश्य तक पहुँचना है तो साधन बदलना होगा। किसी विषय पर प्रेम केन्द्रित शिक्षा लागू करना होगा। किसी से महत्वाकांक्षा या प्रतिस्पर्धा की भावना खत्म करना होगा। किसी विषय से प्रेम हो जाये यही विकल्प काफी है। तथापि उपर्युक्त कहावत का अर्थ सही मायने में समझा जा सकता है।

डी. के. देशमुख 


भारतीय गणना

आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!