मंगलवार, 31 मई 2011

दाऊ ढाल सिंह दिल्लीवार

शब्द संसार की अपनी सीमाएँ हैं पर शब्द ही अभिव्यक्ति के संबल और साक्षी होते हैं समय के! संसार के शब्द प्रतिभा और क्षमता की उँचाईयाँ नापने में सदा असमर्थ रहे हैं! हमें सूझता नहीं कि दाऊजी के विराट व्यक्तित्व और प्रतिभा की, मेधा की उँचाईयों को किन शब्दों में व्यक्त करें..।

सामाजिक, राजनैतिक क्षेत्रों में आपकी अनेक कीर्तिमान उपलब्धियाँ और आपके गौरवशाली अवदान का साक्षी न केवल समाज बल्कि समूचा छत्तीसगढ़ व देश है। दाऊ ढाल सिंह दिल्लीवार दुर्ग जिले की जमीनी राजनीतिके प्रथम पुरूष थे। दाऊ ढाल सिंह दिल्लीवार जी का जन्म दुर्ग जिले के गुण्डरदेही तहसील के ग्राम पिरीद के मालगुजार परिवार में दाऊ श्री बलराम सिंह के यहाँ 27 नवबंर 1897 में हुआ था। अंग्रेजों की हुकुमत के दौर में जब छत्तीसगढ़ काफी पिछड़ा हुआ था।

दाऊ ढाल सिंह उस काल में मेट्रिक उत्तीर्ण थे। उन्होंने मीडिल तक की शिक्षा अरजुन्दा में और हार्इस्कूल की शिक्षा राजनांदगाँव से पूरी की। वे बचपन से ही गाँधीजी से प्रभावित थे। दाऊ ढाल सिंह की किशोरावस्था में गाँधी जी का सत्य, अहिंसा और असहयोग पर आधारित आंदोलन चरम पर था। दाऊ ढाल सिंह का किशोर मन आजादी की लड़ाई में कूदने को मचल उठा और सन् 1926 में दाऊ ढाल सिंह जी भारत को आजाद कराने स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। अंग्रेजों के प्रति मन में अपार घृणा और फिरंगियों के विरूद्ध दिल में लगी आग को बुझाने क्रांतिकारियों की टोली में शामिल हो गये।

दाऊ ढाल सिंह जी की बेजोड़ नेतृत्व क्षमता ने उन्हें रातों रात क्रांतिकारियों का अगुवा बना दिया। उन्होंने गाँव-गाँव जाकर सत्याग्रहियों की टोलियाँ बनाई इस दौरान वे प्रमुख युवा क्रांतिकारी ठाकुर प्यारेलाल सिंह, डॉ. खूबचंद बघेल, घनश्याम सिंह गुप्ता, द्वारिकानाथ तिवारी, रामप्रसाद देशमुख, छोटेलाल साहू, अंजोर राव, गोपाल राव, यमुना प्रसाद कसार, रोहणी कुमार चौबे, डॉ. पाटणकर, दोनगाँवकर, पंडित रत्नाकर झा, विष्णु चौबे, गंगा चौबे, ररूहा महराज और तामस्कर जी के निरंतर संपर्क में रहे। अपनी जीवटता, जुझारूपन, अदम्य साहस, नेतृत्व क्षमता के बदौलत सभी प्रमुख क्रांतिकारियों के चहेते बन गये। सन् 1935 में महात्मा गाँधी के सत्याग्रह आंदोलन से प्रेरित होकर काँग्रेस सेवादल की सदस्यता ग्रहण की।

दुर्ग जिले के ग्रामीण परिवेश से भली-भॉंति परिचित होने और उनकी अपार लोकप्रियता के चलते सन् 1937 में प्रांतीय (म.प्र.) काँग्रेस कमेटी के सदस्य एवं दुर्ग जिला लोकल बोर्ड के चेयरमेन बनाये गये। दाऊ ढाल सिंह के धुआँधार दौरे से घबराकर अंग्रेजों ने 12 मई 1941 को गिरतार कर नागपुर जेल भेज दिया। 1941 से 1945 तक वे देश के विभिन्न जेलों (नागपुर, दमोह, जबलपुर) में रहे।

जेल में सर्वोदय के महान क्रांतिदूत सन्त विनोबा भावे और अब्दुल कलाम आजाद जैसे क्रांतिकारियों के साथ एक ही कोठरी में लंबे समय तक रहे। उन दिनों जेल में वेद-पुराण, समाज, देश, इतिहास, भारतीय दर्शन, पाश्‍चात्य दर्शन, रामायण, महाभारत, गीता आदि पर प्रचुरता से चर्चा में जीवंत होती थी। जेलों में कुन्दन तपता गया और खरा होता गया। जेल यात्रा पश्‍चात तात्कालीन मध्यप्रदेश की राजनीति और स्वतंत्रता सेनानियों में बेहद प्रभावशाली हो चुके थे। इस बात की जिक्र 1948 में प्रकाशित नवभारत जयपुर काँग्रेस अंक में है जिसमें दाऊ ढाल सिंह को मध्यप्रांत के प्रधान नक्षत्र की संज्ञा दी गई है। उस पृष्ठ पर विभाजित मध्यप्रदेश से दाऊ ढाल सिंह के अलावा पंडित रत्नाकार झा को ही स्थान मिला था।

वरिष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री जमुना प्रसाद कसार जी ने अपनी किताब में दाऊ ढाल सिंह को प्रथम पंक्ति के क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी बताते हुए सन् 1941 में गाँधी चौक की सभा से बलपूर्वक गिरतारी का विस्तार से उल्लेख किया है। दाऊ ढाल सिंह स्वतंत्रता पश्‍चात् सन् 1955 से 1962 तक दुर्ग जनपद सभा के अध्यक्ष रहे। सन् 1961 में दाऊ ढाल सिंह दुर्ग जिला काँग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गये। उस समय दुर्ग जिले में राजनांदगाँव, कवर्धा, बेमेतरा, खैरागढ़, बालोद आदि तहसीलें थी। इस तरह उनका का कार्यक्षेत्र बेहद व्यापक था। उनकी सूझबूझ और कुशल प्रशासनिक क्षमता के मद्देनजर 1962 में दुर्ग विधानसभा से काँग्रेस प्रत्याशी बनाये गये। जिसमें भारी मतों से विजयी हुये। 1967 तक उन्होंने दुर्ग विधानसभा का प्रतिनिधित्व किया। उनके कार्यकाल में बहुत से मीडिल और हाईस्कूलों की स्थापना हुई।

तात्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और मुख्यमंत्री (मध्यप्रदेश) पंडित रविशंकर शुक्ल जी भी उनकी प्रतिभा और प्रभाव के कायल थे। भिलाई इस्पात संयंत्र हेतु स्थल निरीक्षण एवं चयन हेतु जब पं. नेहरू और शुक्ल जी ने भ्रमण किया तब उन्होंने सिर्फ दाऊ ढाल सिंह को ही अपने साथ रखा। आज यही संयंत्र समूचे देश का गौरव है।

दुर्ग स्थित सांइस कॉलेज दाऊ ढाल सिंह की ही देन है। साइंस कॉलेज की शुरूआत हिन्दी भवन में चंद विद्यार्थियों के साथ हुई थी। सन् 1967 में इनके के सद्प्रयासों से विशाल भूखण्ड पर विशाल महाविद्यालय भवन तैयार हुआ, जो कि आज छत्तीसगढ़ के प्रमुख महाविद्यालयों में से एक है।

पंडित नेहरू जी के पास तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी जी भी दाऊ ढाल सिंह का बेहद सम्मान करती थी। जब श्रीमती गाँधी दुर्ग प्रवास के समय गंज मंडी प्रांगण में एक धार्मिक कार्यक्रम में व्याख्यान सुनने रूकी थी तब दाऊ ढाल सिंह का पूरा परिवार उनके साथ रहा।

दाऊ ढाल सिंह अपने राजनीतिक जीवन में निष्पक्षता, ईमानदारी, न्यायप्रियता, सच्चे जनसेवक के रूप में याद किये जाते है। उनके समकालीन यह मानते थे कि वे राजनीति नहीं बल्कि समाजनीतिमें विश्‍वास रखते थे। उनका यही सदाचरण उन्हें इतना प्रभावी बना दिया कि वे सिगरेट या बीड़ी के पन्ने पर किसी की सिफारिश कर देते थे तो उन्हें नौकरी मिल जाती थी। विभिन्न जातियों के अनेक लोग ऐसी ही सिफारिशों का लाभ लेकर विभिन्न पदों पर नौकरी में रहे। वे जन-जन के अजीज और अगुवा बन गये। दाऊ ढाल सिंह के बढ़ते प्रभाव से तात्कालीन क्षेत्रीय राजनीतिज्ञों ने उन्हें हाशिये पर ढकेलने की साजिशें रची परन्तु दाऊजी ने कभी भी पलटवार नहीं किया।

जिन्दादिल, आदर्शवादी, ईमानदार, निष्पक्ष, न्यायप्रिय, उदारमन:, मृदुभाषी, नेतृत्व व प्रशासनिक क्षमता के धनी, परदुखकातर, सादगी के प्रतीक दाऊ ढाल सिंह 10 अगस्त 1969 को इस दुनिया से विदा हो गये। 

डॉ. राजेन्द्र हरमुख
ग्राम-थनौद, दुर्ग



अजन्मी बेटी का पत्र

         मेरी प्यारी माँमैं खुश हूँ और भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि आप भी खुश रहें। यह पत्र मैं इसलिए लिख रही हूँ क्योंकि मैंने एक सनसनी खेज खबर सुनी हैजिसे सुनकर मैं सिर से पाँव तक काँप उठी हूँ। स्नेहदात्री माँआपको मेरे कन्या होने का पता चल गया हैऔर मुझे मालूम है कि आप मेरे को जन्म लेने से रोकने जा रही है- यह सुनकर मुझे यकीन ही नहीं हुआभला मेरी प्यारी-प्यारी कोमल हृदय माँ ऐसा कर सकती हैकोख में पल रही लाडली के सुकुमार शरीर पर नश्तरों की चुभन एक माँ कैसे सह सकती है?

         पुण्यशीला माँ! बसआप एक बार कह दीजिए कि यह जो कुछ मैंने सुना वह सब कुछ झूठ है। दरअसल यह सब सुनकर मैं दहल सी गई हूँ। मेरे तो हाथ भी इतने सुकोमल है कि इनसे डॉक्टर की क्लीनिक की तरफ जाते वक्त आपकी चुन्नी को जोर से नहीं खींच सकती ताकि आपको रोक लूं। मेरी बाँहे भी इतनी पतली और कमजोर है कि इन्हें आपके गले में डालकर लिपट भी नहीं सकती। हेमधुमय माँ! मुझे मारने के लिये आप जो दवा लेना चाहती हैं वह मेरे नन्हें शरीर को बहुत कष्ट देंगी। स्नेहमयी माँ। मुझे दर्द होगा। आप तो देख भी नहीं पायेंगी कि वह दवाई आपके पेट के अंदर मुझे कितनी बेरहमी से मार डालेगी। डॉक्टर की हथौड़ी कितनी क्रूरता से मेरी कोमल खोपड़ी के टुकड़े-टकड़े कर डालेगीउसकी कैची मेरे नाजुक हाथ पैंरों को काट डालेगी। अगर आप यह दृश्य देखती तो ऐसा करने का कभी सोचती भी नहीं। 

         सुखदात्री माँ! मुझे बचाओ... कृपा करोदयामयी माँ! मुझे बचाओ... यह दवा मुझे आपके शरीर से इस तरह फिसला देगी जैसे गीले हाथों से साबुन की टिकिया फिसलती है। भगवान के लिए माँऐसा मत करनामैं यह पत्र इसीलिए लिख रही हूँ क्योंकि अभी तो मेरी आवाज भी नहीं निकलती। कहूँ भी तो किससे और कैसेमुझे जन्म लेने की बड़ी ललक है माँ। अभी तो आपके आँगन में मुझे नन्हें पैरों से छम-छम नाचना हैआपकी ममता भरी गोद में खेलना है। चिन्ता नहीं करो माँ! मैं आपका खर्चा नहीं बढ़ाऊँगी। मत लेकर देना मुझे पायल...। मैं दीदी की छोटी पड़ चुकी पायल पहन लूँगी। भैया के छोटे पड़ चुके कपड़ों से तन ढँक लूँगी। बस एक बार... मुझे इस कोख से निकालकर चाँद तारों से भरे आसमान तले जीने का मौका दीजिए। मुझे भगवान की मंगलमय सृष्टि को तो देखने दीजिये। मैं आपकी बेटी हूँ आपकी लाडली शहजादी! मुझे अपने घर में आने दोमाँ! बेटा होता तो आप पाल लेती फिर मुझमें क्या बुराई हैक्या आप दहेज के डर से मुझे नहीं चाहतीना... ना... आप दहेज से मत डरना। यह सब भुलावा है। कुछ कोशिश आप करनाकुछ मैं करूँगी। बड़ी होकर मैं अपनी पैरों पर खड़ी हो जाऊँगीफिर दहेज क्या चीज हैइसका भय तो फुर्र हो जायेगा। देखना..! मेरे हाथों पर भी मेंहदी रचेगीशगुन भरी डोली निकलेगी और आपके आँगन से चिड़िया बनकर मैं उड़ जाऊँगी। आप अभी से मुझे मत उड़ाइये। मैं आपका प्यार चाहती हूँ। एक बेटे के लिए मासूम बेटियों की बलि देना कहाँ तक उचित हैआखिर यह महापाप भी तो आप और आपके चहेते बेटे के सिर पर ही चढ़ेगा। ना... ना... ऐसा कभी मत होने देना। माँ... मेरी प्यारी माँ! बस अब कृपा करके मुझे जन्म दे दीजिये। मुझे मत मारियेअपनी बगल की डाल पर फूल बनकर खिल लेने दीजिये। 

-आपकी नन्हीं सी अजन्मी बेटी



भारतीय गणना

आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!