गुरुवार, 30 जून 2016

गुजरात के प्रोफेसर गोलकिया ने बनाया गौमूत्र से सोना


गुजरात के जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर डॉ. बी.ए. गोलकिया ने गोमूत्र से सोना निकालने का दावा किया है। चार सालों की रिसर्च के बाद डॉ. बी.ए. गोलकिया ने गुजरात में पायी जाने वाली प्रसिद्ध गीर नस्ल की गायों के मूत्र से सोना निकालने का दावा किया है।

टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी रिपोर्ट के मुताबिक विश्वविद्यालय के बाॅयोटेक्नोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डॉ.गोलकिया ने अपने चार सालों की रिसर्च के दौरान गीर नस्ल की 400 से अधिक गायों के मूत्र की लगातार जाँच करने के बाद उन्होंने एक लीटर गोमूत्र से 3 मिलीग्राम से 10 मिलीग्राम तक सोना निकालने का दावा किया है। उन्होंने कहा कि यह धातु आयन के रूप में पाया गया और यह पानी में घुलनशील है।

गोमूत्र परीक्षण के लिए डॉ. गोलकिया और उनकी टीम ने क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री विधि का इस्तेमाल किया था। डॉ. गोलकिया ने कहा- ‘‘अभी तक हम प्राचीन ग्रंथों में ही गो-मूत्र में स्वर्ण पाये जाने की बात सुनते थे, लेकिन इसका कोई वैज्ञानिक सबूत नहीं था। हम लोगों ने इस पर शोध करने का फैसला किया। हमने गिर नस्ल की 400 गायों के मूत्र का परीक्षण किया और हमने उसमें सोने को खोज निकाला।’’

उन्होंने कहा कि-गोमूत्र से सोना सिर्फ रासायनिक प्रक्रिया के जरिये ही निकाला जा सकता है जिसमें एक स्वस्थ गाय के मूत्र से एक दिन में कम से कम 3000 हजार रुपये कीमत का एक ग्राम सोना अर्थात महीने भर में लगभग एक लाख रुपये की कीमत का सोना निकाला जा सकता है।

डॉ. गोलकिया ने कहा कि- ‘शोध के दौरान हमने गाय के अलावा, भैंस, ऊँट, भेड़ों के मूत्र का भी परीक्षण किया था लेकिन किसी में सोना नहीं मिला। इसके अलावा शोध में यह भी पाया गया है कि गो-मूत्र में 388 ऐसे औषधीय गुण होते है जिससे कई बीमारियों को ठीक किया जा सकता है। गोलकिया के मुताबिक, गीर गायों के मूत्र में 5,100 पदार्थ मिले हैं जिनमें से 388 में कई बीमारियाँ दूर करने के चिकित्सकीय गुण हैं।

डॉ. गोलकिया की टीम अब भारत में पाये जाने वाली अन्य देसी गायों के गो-मूत्र पर शोध करेंगे।

मंगलवार, 28 जून 2016

वो दिन भी दूर नहीं...


बिच्छु काटने पर तुरंत आराम के लिए 4 रामबाण उपाय

गाँवों या शहरों में अक्सर कच्ची जगह या बरसात में घर में बिच्छू निकल आते हैं, अगर ये काट ले तो भयंकर पीड़ा होती है, और इनके ज़हर चढ़ने का भी खतरा रहता है, ऐसे में ये रामबाण उपाय सिर्फ 2 मिनट में ज़हर को उतार देगा और दर्द शांत कर देगा...! आइये जाने इस रामबाण उपचार को-

1. बिच्छू के काटने पर रामबाण फिटकरी का प्रयोग
  • फिटकरी को किसी साफ़ किये हुए पत्थर पर, थोड़ा सा पानी डालकर चंदन की तरह घिसें... फिर जहाँ पर बिच्छु ने काटा हो वहाँ पर इस फिटकरी का लेप लगाकर, आग से थोड़ा सेंकें। कैसा भी जहरीला बिच्छु का काटा क्यों न हो, इस फिटकरी के प्रयोग से जहर सिर्फ दो ही मिनट में उतर जाता है।
  • फिटकरी को चिमटी से पकड़ कर थोडा गर्म कर लीजिये, जैसे ही फिटकरी पिघलने लगे तो फिटकरी को बिच्छू के काटे हुए स्थान पर लगा दीजिये, फिटकरी तुरंत वहाँ चिपक जायेगी, और पूरा ज़हर चूसकर अपने आप उतर जायेगी।


2. बिच्छु काटने पर इमली का बीज
इमली के बीज को साफ़ पत्थर पर घिंसें, घिसते-घिसते अन्दर का सफ़ेद भाग निकल आयेगा तो उसे भी बिच्छु के काटने के स्थान पर लगा देंगे तो यह चिपक जायेगा, जैसे ही नीचे गिरे तो दूसरा बीज घिसकर लगाइये... इस प्रकार बिच्छु का ज़हर उतर जाता है।


3. बिच्छु काटने पर माचिस का मसाला
बिच्छु के डंक मारने पर माचिस की 5-6 तीलियों के मसाले को निकालकर पानी में घोलकरर बिच्छु के डंक लगे स्थान पर लगाने से तत्काल बिच्छु का जहर उतर जाता है। इससे मधुमक्खी व बर्रे के काटने पर लगाने से भी जहर नहीं फैलता और तुरन्त आराम मिलता है।


4. बिच्छू काटने पर सेंधा नमक
बिच्छू के डंक मार जाने पर अगर ज़हर का स्थान ना मिले तो ऐसे में ये उपाय बेहद लाभकारी है। लाहोरी (सेंधा नमक) पंद्रह ग्राम और साफ़ पानी 75 ग्राम आपस में मिलकर साफ़ शीशी में भर कर रखे लें... बस दवा तैयार है... बिच्छु काटने पर आँखों में सलाई (सुरमा लगाने वाली) की सहायता से आँखों में एक एक बूँद डाल दीजिये, कुछ ही मिनटों में ज़हर उतर जायेगा... ये प्रयोग अन्य प्रयोगों के साथ भी किया जा सकता है।

बिच्छु काटने पर विशेष

1. उग्र विष वाले बिच्छु जिसकी दुम धरती पर घिसटती चलती है, के काटने पर, अगर किसी ऐसी जगह काटा हो जहाँ पटी बांध सकें तो बांध दें जैसे की हाथ, पैर या जाँघ पर, जहाँ काटा गया हो वहाँ से चार ऊँगली ऊपर बाँध देना चाहिये फिर उसके चार ऊँगली ऊपर फिर से बाँध दें। ऐसा करने से विष पूरे शरीर में नहीं फैलेगा।

2.यदि डंक दंश स्थान में रह गया हो तो किसी सेफ्टीपिन या चिमटी को आग की लौ में गर्म करने के बाद त्वचा में घुसे हुए डंक को उसकी सहायता से निकाल देना चाहिए और बिना समय नष्ट करें उपरोक्त उपचारों में से एक उपचार कर लेना चाहिये।

3. बारीक़ पिसा हुआ सेंधा नमक को प्याज के टुकड़े से उठाकर दंश-स्थान पर मले, इससे जहर और डंक दोनों दूर होंगे।

रविवार, 19 जून 2016

मंगलवार, 14 जून 2016

डॉ.खूबचंद बघेल

भारत की आजादी के आंदोलन में सक्रिय योगदान देकर एवं तत्कालीन भारत में चल रहे राजनैतिक-सामाजिक परिवर्तन तथा आर्थिक मुक्ति आंदोलन में हिस्सा लेकर जिन्होंने इतिहास रचा है, उनमें एक सशक्त हस्ताक्षर डॉ. खूबचंद बघेल जी का भी है। छत्तीसगढ़-राज्य जो अस्तित्व में नवम्बर 2000 से आया है, उसके प्रथम स्वप्न दृष्टा, डॉ. खूबचंद बघेल जी ही थे। आज भले ही उन्हें इसकी मान्यता देने में उच्चवर्ण एवं वर्ग के लोगों को हिचकिचाहट होती है, लेकिन यही ऐतिहासिक सत्य/तथ्य है। ब्राम्हणवादी जाति व्यवस्था को विछिन्न कर समस्त मानव जाति को एक जाति के रूप में देखने की चाहत रखने वाले डॉ. बघेल के व्यक्तित्व में छत्तीसगढ़ की खुशबू रची-बसी थी। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिये त्याग और बलिदान करने वालों में डॉ. साहब का नाम अग्रिम पंक्ति पर है।

छत्तीसगढ़ के संस्कृति कला एवं रीति रिवाजों की महक, उनमें रची बसी थी, जो उनके द्वारा लिखित “जनरैल सिंग” नामक नाटक के इस कविता में झलकती है-

नादानी से फूल उठा मैं, ओछो की शाबासी में,
फसल उन्हारी बोई मैंने, असमय हाय मटासी में।
अंतिम बासी को सांधा, निज यौवन पूरन मासी में,
बुद्ध-कबीर मिले मुझको, बस छत्तीसगढ़ के बासी में।
बासी के गुण कहुँ कहाँ तक...
विद्वतजन को हरि दर्शन मिले, जो राजाज्ञा की फाँसी में,
राजनीति भर देती है यह, बुढ़े में सन्यासी में,
विदुषी भी प्रख्यात यहाँ थी, जो लक्ष्मी थी झाँसी में,
स्वर्गीय नेता की लंबी मुंछे भी बढ़ी हुई थी बासी में ।।
गजब विटामिन भरे हुए हे ....
डॉ. खूबचंद बघेल का जन्म छत्तीसगढ़ (तत्कालीन सी. पी. एवं बरार) के रायपुर, जिले के ग्राम पथरी में 19 जुलाई सन 1900 ईस्वी में हुआ था। ग्राम पथरी रायपुर-बिलासपुर (मुम्बई- हावड़ा रेल लाईन व्हाया नागपुर) रेल मार्ग पर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 15 किलोमीटर दूर मांढर (द.पु.रे.) सीमेंट फैक्टरी से 10 कि.मी. पूर्व में स्थित है। पिता का नाम जुड़ावन प्रसाद एवं माता का नाम केतकी बाई था। जुड़ावन प्रसाद पथरी के मालगुजार परिवार से थे। ब्राम्हणवादी जाति व्यवस्था के तहत कूर्मि जाति के होने के नाते खेती किसानी ही उनका पुश्तैनी पेशा था । पिता की मुत्यु डॉ. साहब के बाल्यकाल में ही हो गई थी। प्राथमिक शिक्षा डॉ. साहब ने अपने चाचा नकुल एवं सादेव प्रसाद बघेल के कुशल निर्देशन में गाँव के प्राथमिक शाला में पायी । प्राथमिक शिक्षा समाप्त करने के बाद गवर्नमेंट हाई स्कूल, रायपुर में भर्ती हो गये। वे एक मेघावी छात्र में, उन्हें छात्रवृत्ति मिलती थी। छात्र जीवन से ही देश सेवा के कार्य में जुड़े रहे। देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता की भावनाने हृदय में जगह बना लिया था। 

डॉ. साहब का विवाह लगभग दस वर्ष की उम्र में अपने से तीन वर्ष छोटी राजकुँवर से, प्राथमिक शिक्षा प्राप्ति के दौरान ही हो गयी थी। उनकी पत्नी राजकुँवर से उनकी तीन पुत्रियों क्रमशः पार्वती, राधा एवं सरस्वती का जन्म हुआ। राजकुँवर बाई निरक्षर थी। कलान्तर में डॉ. भारत भूषण बघेल को पुत्र के अभाव में डॉ. साहब ने गोद लिया। 

सन् 1920 में जब नागपुर के राबर्ट्‌सन मेडिकल कालेज में डॉ. साहब शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब नागपुर में विजय राघवाचार्य की अध्यक्षता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में मेडिकल कोर के सदस्य के रूप में सम्मिलित हुये थे। सन् 1921-22 के ‘असहयोग आंदोलन’ से प्रभावित होकर डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़ आंदोलन का प्रचार-प्रसार, रायपुर जिले के, गाँव में घूम-घूमकर करने लगे। विशेषकर डॉक्टर साहब ने छात्रों को संगठित कर, उसमें राष्ट्रीय चेतना के बीज बोने का बीड़ा उठाया। डॉक्टरी की पढाई अधुरी छोड़ नागपुर से लौट आने एवं स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रियता को देख, माता एवं परिवारजनों को बड़ी निराशा हुई थी, लेकिन सबके समझाने के बाद, पुनः नागपुर एल.एम.पी. की डिग्री हासिल करने पहुँचे, तभी झंडा सत्याग्रह प्रारंभ हो गया। छत्तीसगढ़ से सैकड़ों की संख्या में स्वयंसेवकों ने ‘झंडा सत्याग्रह‘ में डॉ. साहब के नेतृत्व में भाग लिया। 

सन्‌ 1923 में एल.एम.पी. (लजिसलेटिव मेडीकल प्रेक्टिशनर) की परीक्षा पास कर ली, कालांतर में एल.एम.पी. को एम.बी.बी.एस. में परिवर्तित किया गया। एल.एम.पी. की परीक्षा पास कर स्वास्थ्य विभाग में नौकरी कर ली। डॉ. साहब की प्रथम पोस्टिंग रायगढ़ शासकीय अस्पताल में हुई। 1931 में ‘जंगल सत्याग्रह’ प्रारंभ हो गया, इसमें शामिल होने डॉ. साहब ने शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे दिया और संपूर्ण भारत में चल रहे स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलन के प्रति पूर्णतया समर्पित हो गये। दलितों एवं शोषितों के सामाजिक अपमान, छूआछुत, भेदभाव के विरूद्ध संगठन की शुरूआत की एवं 1932 में तत्कालीन “मध्यभारत एवं बरार प्रांत” (सी.पी. एंड बरार प्रोविन्स) के ‘हरिजन सेवक संघ’ ईकाई के मंत्री नियुक्त किये गये। मिनीमाता एवं छत्तीसगढ़ के अन्य दलित नेताओं के साथ मिलकर शैक्षणिक, सामाजिक, राजनैतिक स्तर में सुधार के लिये काम किये। 
सन् 1932 के ‘विदेशी वस्त्र बहिष्कार आंदोलन’ में पुनः जेल गये । उनके साथ उनके 18 सहयोगियों में एक उनकी माता श्रीमती केतकी बाई भी थी। सन् 1932 के बाद “रायपुर जिला काँग्रेस कमेटी” के साथ, डिस्ट्रिक्ट कौंसिल रायपुर में फिजिकल इंस्ट्रक्टर के पद पर कार्य किया।


सामाजिक कार्य 

ऊँच-नीच, छूआछूत के चलते छत्तीसगढ़ के गाँवों में नाई, सतनामी समाज के भाईयों का बाल नहीं काटते थे। उनके मुहल्ले की सफाई भी नहीं होती थी। ग्राम-चन्दखुरी, मंदिरहसौद, ब्लाक – आरंग, जिला-रायपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, जो आगे चलकर विधायक भी चुने गये, जिन्हें दुकान का धंधा करने के कारण लोग सेठ कहकर पुकारते थे - ‘स्व. अनंत राम बर्छिहा‘ ने सतनामी समाज के लोगों का बाल काटने, दाढ़ी बनाने (साँवर बनाने) एवं उनके मुहल्ले की सफाई करने का काम किया। इससे उनका अपना कूर्मि समाज नाराज हो गया, उन्हें कूर्मि जाति से बहिष्कृत कर दिया । डॉ. साहब ने इस कार्य के महत्व बताने एवं नाराज समाज को अपने गलती का एहसास करवाने के लिये “ऊँच-नीच” नामक नाटक लिखकर उसका सफल मंचन करवाया । इस नाटक का असर यह हुआ, बर्छिहा जी का सामाजिक बहिष्कार रद्द हुआ एवं उनके कार्य की सर्वत्र प्रशंसा हुई।

भारतीय मानव समाज के वर्ण से वर्ग, वर्ग से जाति, जाति से उपजाति एवं उपजाति से गोत्र के टूटन को उन्होंने अंतरआत्मा तक महसूस किया और इस सड़ी-गली जाति प्रथा को तोड़ने का संकल्प ले, सर्वप्रथम उपजाति बंधन को तोड़ा। 1936 में उपजाति बंधन तोड़कर स्वयं मनवा कूर्मि उपजाति के होने के बावजूद, दिल्लीवार कूर्मि समाज के रामचन्द्र देशमुख (संस्थापक - चंदैनी गोंदा) ग्राम-बघेरा, जिला-दुर्ग वाले के साथ अपनी द्वितीय पुत्री राधाबाई का विवाह सम्पन्न किया। उपजाति बंधन तोड़ने पर उनके स्वयं के मनवा कूर्मि समाज ने उन्हें मनवा कूर्मि उपजाति से बहिष्कृत किया, उन्हें सजा मिली। अपने मनवा कूर्मि उपजाति से बहिष्कृत होने पर उन्होंने कहा, ‘आप भले ही मुझे छोड़ दे, लेकिन मैं आप लोगों को नहीं छोड़ सकता’, इस अवसर पर अपनी बात उन्होंने कवि अतीश की एक कविता के माध्यम से कही जो निम्नलिखित है -
ये हो बिटप (वट -वृक्ष), हम पुहुप (फुल) तिहारो है । राखिहौ तो रहेंगे, शोभा रावरी (तुम्हारी) ही बढ़ायेंगे ।। बिलग किये ते, बिलग ना माने कछु, चढ़ेगे, सुर सिर न चढ़ेगें जाय सुकव अतीश हाट बाटन बिकायेंगे । देश हुँ रहेंगे, परदेश हॅुं रहेंगे जाय, जऊ देश हुँ रहे, पर रउरे (आपके ही) कहायेंगे ।
डॉ. बघेल ने अपने लेख में उपजातीय शादियों के संबंध में लिखा है, कि “जो अन्तर उपजातीय विवाह को टेढ़ी नजर से देखते हैं, यह तो संजीवनी बुटी को ‘चरौटा-भाजी’ समझने के समान मूर्खता है। जो हमें संकीर्णता से विशालता की ओर, जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जावे, ऐसे कदम का विरोध करने वाले लोगों के लिय हृदय में एक भारी वेदना पैदा होती है।”

उपजाति शादी की मान्यता के लिये, वर्षों तक संघर्ष कर, अंततः विजयी हुये। इसी का परिणाम है, कि आज छत्तीसगढ़ के कूर्मियों में अन्तर उपजातिय शादियों को मान्यता प्राप्त है। कुर्मियों के अखिल भारतीय स्वरूप को उन्होंने सामने लाया, पटना (बिहार) के राजेश्वर पटेल (जो सांसद भी रहे एवं 1953 ‘प्रथम राष्ट्रीय अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग’ जिसके अध्यक्ष काका कालेलकर को नियुक्त किया गया था, के पटेल जी सदस्य रहे।) के साथ अपनी तृतीय पुत्री सरस्वती का विवाह किया । “अखिल भारतीय कूर्मि क्षत्रिय महासभा” के 24 वें अधिवेशन जो कि दिनांक 7,8 एवं 9 मई 1948 यू.पी., कानपुर के जनपद हारामऊ ग्राम-पुखराया में एवं 28 वाँ अधिवेशन जो महाराष्ट्र, नागपुर में दिनांक 10,11 एवं 12 दिसम्बर 1966 को आयोजित था, कि अध्यक्षता की।

कानपुर के अध्यक्षीय भाषण का यह अंश उनके समस्त मानव जाति को एकजुट करने की इच्छा को प्रदर्शित करता है “उपजातियों का भेदभाव मिटाना इस युग का छोटे से छोटा, हल्के से हल्का कदम होगा। सही मायने में तो हमको और आपको समस्त मानव जाति के अंदर रहने वाली ब्राम्हणवादी जाति-पाति की सड़ी एवं खड़ी व्यवस्था को ही पहले दूर करना होगा। वर्ण व्यवस्था रूपी शरीर में जाति व्यवस्था एक कोढ़ है, जो सारे भारतीय मानव समाज को नष्ट कर रहा है।”

सामाजिक परिवर्तन की दिशा में उनके उपर्युक्त उद्‌गार आज भी प्रासंगिक है। क्योंकि शोषित एवं पिछड़ा अपने हित की जब बात करता है, तो उच्च वर्ण के लोग उन्हें जातिवादी करार देते हैं। क्या अपने-अपने परिवार के, जाति के, वर्ग के एवं वर्ण के हित में कार्य करना जातिवाद है? यदि ब्राम्हणवादियों का आरोप सहीं है, तो वे स्वयं, वही कार्य क्यों करते हैं?

जाति प्रथा के आधार पर छत्तीसगढ़ में एक रिवाज प्रचलित थी, जिसके तहत, किसी बारात में उपस्थिति भिन्न-भिन्न जाति के लोगों को अलग-अलग पंक्ति में बैठाकर भोजन करवाया जाता था। अर्थात्‌ व्यक्ति के जाति के, आधार पर उसकी पंक्ति तय होती थी। कूर्मि व्यक्ति तेली के साथ एक ‘पंक्ति‘ में बैठकर भोजन ग्रहण नहीं कर सकता था। यह व्यवस्था डॉ. साहब को भेदभाव पूर्ण लगी और उन्होंने इसे तोड़ने के लिये ‘पंक्ति तोड़ो‘ आंदोलन चलाया, अर्थात्‌ कोई व्यक्ति किसी के भी साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकता है। जाति के आधार पर पंक्ति नहीं होनी चाहिये। पंक्ति तोड़ो आंदोलन में वो सफल रहे।

सन् 1952 में होली त्यौहार के समय कराये जाने वाले ‘किसबिन नाच‘ बंद कराने के लिये ग्राम महुदा (तरपोंगी) ब्लाक-तिल्दा, जिला-रायपुर में सत्याग्रह किया पूर्णतया सफल रहे। किसबा जाति जिनका पुश्तैनी धंधा ही अपनी बहन-बेटियों को तवायफ की तरह नाच-गाने में लगाने का था, उनमें यह चलन बंद करने के लिये आपने ‘भारतवंशी, जातिय सम्मेलन’, मुंगेली, जिला-बिलासपुर में समाज सुधार की दृष्टि से किया। इस सम्मेलन का व्यापक प्रभाव उक्त जाति पर पड़ा और किसबा जातीय जीवन धारा में परिवर्तन आया । सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन में उनके आदर्श महात्मा ज्योतिबा फुले थे। डॉ. साहब बताते थे कि महात्मा गाँधी, फुले को असली महात्मा कहते थे। शैक्षणिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़ों के आर्थिक मुक्ति के लिये सिलयारी में ‘ग्राम उद्योग संघ’ का निर्माण, तेल पेराई उद्योग, घानी निर्माण, हाथ करघा, धान कुटाई कार्य और साबुन साजी के गृह उद्योग का प्रशिक्षण और उत्पादन तथा मार्केटिंग कार्य का संचालन आपने सहकारिता के माध्यम से किया।

सन् 1958-59 में सिलयारी में ‘जनता हाईस्कूल’ की स्थापना की। जो आज उनके नाम पर शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय है। यह कदम उन्होंने आसपास के गाँवों के शैक्षणिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिये किया। इस स्कूल को खोलने का दूसरा कारण था, प्रदेश शासन द्वारा धरसीवाँ विधानसभा क्षेत्र की उपेक्षा। चूँकि 1952 एवं 57 में डॉ. बघेल, यहाँ से विरोधी दल के प्रत्याशी की हैसियत से एम.एल.ए. बने थे, काँग्रेस के प्रत्याशी को हराकर। 

राजनैतिक कार्य
डॉ. साहब सन् 1931 तक शासकीय अस्पताल में डॉक्टर रहे, शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे पूरी तरह से स्वाधीनता आंदोलन में कूद गये। 1931 में “जंगल सत्याग्रह” में पुनः जेल गये, काँग्रेस के पूर्णकालिक सदस्य बन, स्वतंत्रता संग्राम के लिये, महात्मा गाँधी द्वारा चलाये जाने वाले आंदोलन में शामिल हुये। 1932 में रायपुर जिला काँग्रेस कमेटी के डिस्ट्रिक्ट कौंसिल रायपुर में फिजिकल इन्सट्रक्टर के पद पर नियुक्ति किये गये। “भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस” द्वारा चलाये जा रहे स्वाधीनता संग्राम में समय-समय पर आयोजित विभिन्न आंदोनल में सक्रियता से भाग लिया। 1932 में “द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन” में शामिल हुये। सन् 1935 के अधिनियम 'The Govt. of India Act' के आधार पर भारत में संघात्मक प्रणाली स्थापित की गई, जिसके फलस्वरूप 1937 में निर्वाचन हुये काँग्रेस को अभुतपूर्ण सफलता मिली। डॉ. साहब ने काँग्रेस कार्यकर्ता के रूप में सक्रियता से इन चुनावें में हिस्सा लिया। ग्यारह प्रांतों में से 8 प्रांतों में काँग्रेस को बहुमत मिला, जिसमें “सी.पी.एवं बरार” भी शामिल था। द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार को सहयोग कर, पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रस्ताव काँग्रेस द्वारा 1940 में पास किया गया परंतु ब्रिटिश सरकार ने युद्ध के बाद 1942 में भारत को आजाद करने से इंकार कर दिया। जिसके फलस्वरूप गाँधी जी ने 1941 में सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया। “करो या मरो आंदोलन” 'Do or Die' में सक्रियता से भाग लिया और जेल गये। 8 अगस्त 1942 में शुरू “भारत छोड़ो आंदोलन” में अपने साथियों सहित 21 अगस्त 1942 को जेल गये एवं ढाई वर्षों तक जेल में रहे।

जून 1946 में प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा के निर्वाचन हुये सी.पी. एवं बरार में काँग्रेस को 112 स्थानों में से 92, स्थान मिले। रविशंकर शुक्ला के प्रधान मंत्रित्व (तब मुख्यमंत्रियों को इसी नाम से जाना जाता था) में सी. पी. एवं बरार, प्रांत में सरकार बनी। डॉ. साहब इस चुनाव में धरसींवा विधानसभा से विधायक चुने गये। काँग्रेस की अंतरिम सरकार में संसदीय सचिव के रूप में कार्य किया। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हसन के साथ, उन्होंने स्वास्थ्य विभाग का भी काम सम्हाला। तत्कालीन मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल से “किसानों से प्रशासन द्वारा चंदा वसुली” के प्रकरण में मतभेद हो गया, और अपने पद से इस्तीफा दे दिया । 19 मई 1951 में आचार्य कृपलानी के नेतृत्व में बने “किसान मजदूर प्रजा पार्टी” में शामिल हो गये। सन्‌ 1952 का आम चुनाव हुआ, डॉ. खूबचंद बघेल “किसान मजदूर प्रजा पार्टी” से पुनः धरसींवा विधानसभा क्षेत्र के विधायक चुने गये, उन्होंने काँग्रेस को 53.21 प्रतिशत मत प्राप्त कर हराया था। सन् 1952 में जयप्रकाश नारायण के समाजवादी पार्टी एवं आचार्य कृपलानी के “किसान मजदूर प्रजा पार्टी” को मिलाकर “प्रजा सोशलिस्ट पार्टी” का गठन किया गया। सन् 1957 के आम चुनाव में “प्रजा शोलिस्ट पार्टी” प्रसोपा (झोपड़ी छाप) के बैनर तले पुनः धरसींवा विधानसभा से निर्वाचित घोषित किये गये। सन् 1954 में ठाकुर प्यारेलाल सिंग के निधन के पश्चात छत्तीसगढ़ में समाजवादी आंदोलन एवं प्रसोपा का कमान डॉ. खूबचंद बघेल के हाथों सौंपा गया।

राजनीति के महत्व को बताते हुये डॉ. साहब ने सन 1965 की अपनी डायरी में लिखा है, कि- “राजनीति को रचनात्मक कार्यकर्ता पाप समझते हैं, किन्तु आज राजनीति राष्ट्र की दिशा-निर्देश, नीति निर्धारण करती है। क्या इसे ऐसे लोगों के हाथ सौंपकर निश्चिंत हो जाया जाय जो जाने-अनजाने रचनात्मक कार्यों का नाश कर देगें? ऐसी स्थिति में क्या मात्र निष्ठा से काम चल जायेगा ? अतः राजनीति को पाप समझना छोड़ दें। राजनीति उतनी ही गंदी होती है, जितना हम उसे बनाते हैं। मैं सत्तालोलुप राजनीति का समर्थक नहीं पर आधारभूत राजनीति का समर्थक हूँ, जिसका प्रभाव आम जनता के जीवन की जड़ों तक पहुँचता है। अतः चुनौती देने वाली समस्याओं को राजनीति का नाम देकर, उससे पीछा छुड़ाने का प्रयास सामाजिक कार्यकर्ता ना करें यही मेरी उनसे अपेक्षा है।”

भारत के राजनैतिक परिदृष्य पर, इतिहास के पन्नों से सन् 1955 की डायरी में लिखते हैं- “मुट्ठी भर लोगों की जगह ‘बहुजन समाज’ का राज पहिले आदिम काल में सहज स्वाभाविक रूप से स्वतंत्र था।” सन् 1951 में काँग्रेस से त्यागपत्र देकर जब आचार्य कृपलानी के साथ “किसान मजदुर प्रजा पार्टी” में आये तो पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने उन्हें धमकाते हुये कहा था- “डॉ. सोच लो तुम्हें मिटा दिया जायेगा।” इसका जवाब डॉ. साहब ने कुछ इस तरह दिया था- “आप मुझसे मेरा सब कुछ छीन सकते हो, मेरी गरीबी नहीं छीन सकते। मेरी बूची टांडी के पसिया को नहीं छीन सकते।” आचार्य कृपलानी के साथ काँग्रेस त्यागने वाले छत्तीसगढ़ में ठाकुर प्यारेलाल सिंह (रायपुर), ज्वाला प्रसाद मिश्रा (अकलतरा) विश्वनाथ यादव, तामस्कर वकील (दुर्ग) आदि थे। ये सभी नेता अपने समय के प्रखर स्वतंत्रता सेनानी एवं गाँधीवादी थे।

छुईखदान तहसील कार्यालय हटाये जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे, निहत्थे लोगों पर शासन द्वारा गोली चलाई गई। जिसमें कुछ महिलायें भी शहीद हुई, अनेक घायल हुये। इस गोली चालन के विरूद्ध में उन्होंने ठाकुर प्यारेलाल सिंह के साथ मिलकर प्रांतव्यापी आंदोलन चलाया। इसी प्रकार लोहाँडीगुड़ा जिला-बस्तर में आदिवासियों पर दिनांक 31/03/1961 में हुये अत्याचार, गोली चालन का उन्होंने प्रभावी ढंग से विरोध किया।

डॉ. बघेल ने रायपुर का कुप्रसिद्ध तकाबी कांड, जिसमें किसानों को लूटा गया था, के विरूद्ध अपनी आवाज बुलंद की। तकाबी कांड में फंसे अधिकारियों को अंत में सजा मिली, सजा से बचने, संबंधित व्यक्तियों ने डॉ. बघेल की अनुपस्थिति में, उनके घर डाका डलवाकर, कांड से संबंधित कई फाइलें गायब करवा ली थी।

बैतूल जिले के कुछ लोगों ने डॉ. बघेल को “सायना बांध” में हुए घपले की खबर दी, डॉ. साहब ने वहाँ पहुँचकर घपले की पूरी फाइल बनाई। मुख्यमंत्री काटजू के पास चर्चा के लिय स्वयं गये। पूरी चर्चा के बाद कैलाशनाथ काटजू, मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश ने पूछा “डॉ. बघेल आखिर आप सायना गये क्यों थे ? क्या वहाँ आपकी कोई रिश्तेदारी है ?” डॉ. बघेल बोल - डॉ. काटजू आप ठीक-ठीक बताएँ की आप जाँच कराने तैयार हैं, कि नहीं ? अन्यथा मैं इस घपले को आमजनता तक ले जाऊँगा, और वह स्वयं निर्णय लेगी। 

एक उच्चपुलिस अधिकारी ने रायपुर के अपने कार्यकाल में किसी मामले की डॉक्टर साहब द्वारा आलोचना किये जाने को लेकर इंदौर में उन पर मुकदमा चलाया। डॉ. साहब इंदौर जाकर मुकद्मा लड़े और विजयी हुये।

डॉ. कैलाशनाथ काटजू के मुख्यमंत्रित्व के दौरान सन् 1960-61 में विन्ध्यप्रदेश, मध्यभारत एवं छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा। विन्ध्य एवं मध्यभारत को गेहूँ निर्यात की छूट और छत्तीसगढ़ के धान निर्यात पर पाबंदी लगा दी गई। डॉ. साहब ने मुख्यमंत्री से, छत्तीसगढ़ के किसानों के हित में प्रतिबंध हटाने की अपील की, मुख्यमंत्री नहीं माने। डॉ. साहब ने इस तुगलकी, आदेश का उल्लंघन करते हुये, अपने साथियों के साथ ‘धान सत्याग्रह’ आंदोलन चलाया। महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश सीमा पर स्थिति बाघ नदीं से 1 बोरा धान को स्वयं नाव द्वारा निर्यात कर (म.प्र. से महाराष्ट्र ले जाकर) आंदोलन की शुरूवात की और जेल गये। इस आंदोलन में स्व. बृजलाल वर्मा, पूर्व केन्द्रीय मंत्री, हरिप्रेम बघेल पूर्व विधायक एवं अन्य साथीगण शामिल थे।

सन् 1962 में विद्याचरण शुक्ल के विरूद्ध “महासमुंद लोकसभा” सीट से चुनाव लड़ा, जिसमें विद्याचरण 2,500 मतों से विजयी हुये थे। इस लोकसभा चुनाव में (आमचुनाव) महासमुंद लोकसभा के अन्तर्गत आने वाले, सारंगढ़ विधानसभा से, वहाँ के राजा साहब ने चुनाव लड़ा। उनके विरूद्ध केवल प्रसोपा का एक प्रत्याशी ही था, जिसकी उम्मीद्वारी वापस लेने से, वे निर्विरोध निर्वाचित हो सकते थे। इसके लिये राजा साहब ने डॉ. बघेल को 30,000/- रूपया (तीस हजार) घूस के रूप में देने की पेशकश की। सिद्धांत के पक्के डॉ. बघेल देवभोग से सराईपाली तक विद्याचरण से आगे रहे पर सारंगढ़ में 12,000 मतों से पिछड़कर 2500 (ढाई हजार ) मतों से हार गये। डॉ. बघेल ने विद्याचरण के विरूद्ध चुनाव याचिका दायर की और विद्याचरण का निर्वाचन रद्द कर दिया गया।

“मांछी खोजे घाव अऊ राजा खोजे दाँव” वाली काहवत चरितार्थ करने, पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र (जिसके विरूद्ध भी 1962 के चुनाव जीतने में कदाचरण की याचिका न्यायालय में दायर कर दी गई थी।) ने कोचक कर घाव बनाया एवं समाजवादी पार्टी के मुखिया डॉ. बघेल को घेरा। इस षड़यंत्र में विद्याचरण को भी शामिल किया गया, क्योंकि उनके विरूद्ध भी चुनाव याचिका थी, दुश्मन (डॉ. बघेल) का दुश्मन (विद्याचरण) दोस्त बन गये। सिलयारी घानी संघ जो सहकारी क्षेत्र में था, की जाँच (ऑडिट) करवाकर कुछ गलतियाँ निकाली गई।

डॉ. बघेल का इसमें कोई हाथ नहीं था, उन्हें तो राजनीति से ही फुर्सत नहीं थी। पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने डॉ. बघेल को कहा, कि आपके द्वारा संचालित संघ में पैसे की गड़बड़ी है और इससे आपके प्रतिष्ठा को गहरा आघात लग सकता है। आप काँग्रेस में आते हैं, तो इसे नजर अंदाज किया जा सकता है। डॉ. बघेल ने सोचा जिस छत्तीसगढ़ की सेवा विरोधी पार्टी में रहकर वो नहीं कर नहीं पा रहे है, वह सत्ता के माध्यम से अच्छा हो पायेगा। प्रतिष्ठा भी बची रहेगी। डॉ. बघेल ने काँग्रेस प्रवेश करना स्वीकार कर लिया, लेकिन कभी भी काँग्रेस में चैन से नहीं रह पाये। सन्1966 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्र थे, बस्तर में राजा प्रवीरचंद भंजदेव के कारण बस्तर के 12 विधा सभा सीटों में काँग्रेस की दाल नहीं गलने वाली थी। राजा प्रवीरचंद भंजदेव ने न केवल बस्तर जिला काँग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया था, वरन्‌ काँग्रेस भी छोड़ दी। द्वारिका प्रसाद मिश्रा बस्तर के 12 सीट काँग्रेस की झोली में डालकर, इंदिरा गाँधी को खुश करना चाहते थे। प्रवीरचंद भंजदेव एवं 300 आदिवासियों की पुलिस गोली चालन कर हत्या करवा दी गई। इस घटना का मार्मिक चित्रण डॉ. बघेल ने लोगों के सामने रखा, आम जनता को इस काण्ड की बर्बरता का विवरण दिया। इस कांड से दुखी डॉ. साहब ने काँग्रेस से इस्तीफा दे दिया।

भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना में जिन किसानों की जमीन अर्जित की गई, उनके परिवार से एक व्यक्ति को अनिवार्य रूप से कारखाने में रोजगार दिलवाने श्री तामस्कर जी के साथ मिलकर किसानों एवं मजदूरों का विशाल प्रदर्शन डॉ. बघेल के नेतृत्व में किया गया। शासन ने स्थानीय लोगों को प्राथमिकता देना स्वीकार किया। हीराकुंड बांध निर्माण से जिन किसानों की जमीन, डुबान में आ गई थी, उसके मुआवजे के लिये आंदोलन चलाया, इस आंदोलन में श्री रामकुमार अग्रवाल रायगढ़ ने साथ दिया। किसानों को उनका हक मिला।

1964 में जब ‘सी.पी.एवं बरार‘ प्रांत के प्रधानमंत्री (मुख्यमंत्री तब इसी नाम से जाने जाते थे। ) के चुनाव में बृजलाल बियानी भी एक उम्मीद्वार थे, पं. रविशंकर शुक्ला के विरूद्ध, बियानी को समर्थन देने के बदले डॉ. बघेल को 3 लाख रूपये देने का प्रस्ताव गोपाल दास मेहता ने रखा। डॉ. बघेल उसूल के पक्के, निष्ठावान राजनीतिज्ञ थे, यह प्रस्ताव ठुकराकर, पं. रविशंकर शुक्ल के लिये प्रधानमंत्री पद का रास्ता प्रशस्त किया। 1964 में स्वास्थ्य विभाग के सचिव आई.सी.एस., मि. सिन्हा थे, डॉ. हसन, स्वास्थ्य मंत्री (केबिनेट) थे। सचिव की लापरवाही से विधानसभा में डॉक्टरों की नियुक्ति को लेकर प्रश्न उठने की नौबत आ गई। मि. सिन्हा को बुलाकर डॉ. साहब ने खरीखोटी सुनाई, सिन्हा जी ने अपनी पत्नी के माध्यम से काजू किसमिस, अंगुर सेवफल से भरी टोकरी राजकुँवर देवी (डॉ. साहब की पत्नी) तक डॉ. साहब की अनुपस्थिति में पहुँचवाई।

डॉ. बघेल ने पत्नि से पूछा इसे कौन लाया ? तुरंत अपने चपरासी गोपाल के हाथ उस टोकरी को सिन्हा के घर वापस पहुँचवा दिया। गाँधी जयंती के उपलक्ष्य में चंदा इकट्ठा करने नेवरा, लखनलाल मिश्र, भुजबल सिंह एवं जगन्नाथ बघेल के साथ गये। एक राईसमिल के मालिक ने उनसे कहा, आप कोड़हा मध्यप्रदेश से बाहर भेजने का परमिट मुझे दिला दीजिये, मैं अकेला 7500/- (साढ़े सात हजार रूपये) चंदा देता हूँ। डॉ. बघेल ने इंकार कर दिया। घर-घर जाकर रूपये इकट्ठा कर लाये। गाँधी जयंती सम्पन्न हुई।

डॉ. बघेल ने पं. रविशंकर शुक्ला से मतभेद के कारण मंत्री मण्डल से इस्तीफा दिया था। कारण पं. जी के प्रधानमंत्री बनने की खुशी में, महासमुंद के सेठ नेमीचंद श्री श्रीमाल ने उन्हें चाँदी से तौलने की योजना बनाई। इसे मूर्तरूप देने के लिये प्रशासन के माध्यम से आदिवासी क्षेत्र पिथौरा, सराईपाली, बसना, महासमुंद, बागबाहरा के किसानों से चंदा जबरदस्ती वसूल किया जाने लगा। लोगों ने अपना खेती-बाड़ी गाय-बकरी-मुर्गी यहाँ तक कि घर के जेवर एवं बर्तन बेचकर चंदा चुकाया। इसकी तिखी प्रतिक्रिया हुई, कुछ आदिवासियों ने नागपुर (सी.पी. एवं बरार की राजधानी) जाकर डॉ. बघेल को अपनी व्यथा कथा सुनाई। उन्हें परस्पर विश्वांस नहीं हुआ उन्होंने प्रधानमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल से मिलकर इस विषय में चर्चा की, पंडितजी ने कहा- “राजनीति में यह सब चलता है हालांकि मैंने शासकीय कर्मचारियों को ऐसा कोई आदेश नहीं दिया है, इसलिये रोक लगाने के आदेश की जरूरत नहीं है। “डॉ. बघेल ने छत्तीसगढ़ के इसी शोषण, पीड़ा, लूट के विरूद्ध व्यथित दुखी होकर अपना इस्तीफा दिया था।

ग्राम-मौहागाँव सिलयारी त. व जि. रायपुर के एक अनुसूचित जाति के किसान को सरकार द्वारा पंप लगाने के लिये 6,000/- (छः हजार) रूपये मंजूर किया गया। तत्कालीन तहसीलदार ने उसे 4,000/- (चार हजार) रूपये ही देकर, बाँकी अपने पास रख लिया, इसकी शिकायत उक्त किसान ने डॉ. साहब से की। वे उस समय धरसींवा के विधायक थे। तहसीलदार के विरूद्ध मामला दायर किया, रायपुर के वकील डॉ. बघेल के तरफ से खड़ा होने तैयार नहीं हुये, दुर्ग से तामस्कर वकील को लाकर भ्रष्टाचार का मुकदमा जीते। तहसीलदार को बर्खास्त कर दिया गया।

डॉ. बघेल का जीवन, ऐसे कितनों ही घटनाओं से भरा पड़ा है। उन्होंने अपने 39 वर्ष (सन् 1931 से 1969) के राजनैतिक जीवन में जीवन पर्यंत दलित-शोषित, मजदूर, किसानों एवं गरीब जनता की आवाज बुलंद की और बदले में कभी भी कुछ पाने की कामना नहीं की। खासकर आर्थिक लाभ कभी नहीं उठाया। प्रजातंत्र की महत्ता को आमजनता तक पहुँचाने सतत्‌ संघर्ष किया ।

छत्तीसगढ़-राज्य आंदोलन
वैसे सप्रे स्कूल में सन् 1946 में आयोजित ‘प्रदेश काँग्रेस कमेटी‘ की बैठक में तामस्कर वी.वाय. ने, छत्तीसगढ़ को अलग राज्य का दर्जा दिलाने की बात रखी थी, लेकिन “प्रदेश काँग्रेस कमेटी” में, जिसके अध्यक्ष पं. रविशंकर शुक्ला थे, वी.वाय.तामस्कर के प्रस्ताव को अनसुनी कर दी।

डॉ. बघेल के मन में पृथक छत्तीसगढ़-राज्य के माँग ने, तब घर कर लिया, जब सन् 1948 में उन्होंने रविशंकर शुक्ल मंत्री मंडल से, पिथौरा, बसना-सरायपाली के पिछड़े, आदिवासियों से जबरन चंदा वसूल की गई थी। डॉ. बघेल इस प्रकरण से इतने द्रवित हुये, कि उन्होंने शुक्ल मंत्रीमंडल से ही इस्तीफा दे दिया। उन्होंने एक लेख लिखा, र्शीर्षक था- “क्षुब्ध-छत्तीसगढ़” इस लेख से रायपुर-बिलासपुर और दुर्ग ये तीन जिले और हाल के विलीनीकरण से शामिल हुये, 14 राजवाड़े यही छत्तीसगढ़ का इलाका है। सत्ता के मद में माते लोगों को भुलावे में डालने के लिये, छत्तीसगढ़ के परम पुनीत जागरण के कोलाहल को पाकिस्तानी नारा कहकर दफना देना चाहते हैं। वे कहते हैं “छत्तीसगढ़िया चेतना की आवाज लगाने वाले देश के दुश्मन हैं। उनके साथ शासन रियायत ना करेगा। उन्हें कुचल देगा। देखो खबरदार कोई साथ मत देना, नहीं तो आफत मोल लोगे।”

छत्तीसगढ़ के हित में जो अपना हित समझते है, वे हमारे भाई है, जो छत्तीसगढ़ का राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं अन्य तरीकों से शोषण करना चाहते है, हमारे प्रेम के पात्र नहीं हो सकते। क्या यह विचार देशद्रोह पूर्ण है? यदि हो, तो हम अपना बचाव नहीं करना चाहते। यदि हमारे विचार में भूल हो तो, हमें प्रेम से समझाया जाय। हम वायदा करते हैं, कि समझ लेने पर हम अपनी भूल सुधार लेगें, परंतु यदि धमकी के बल पर हमें दबाने की कोशिश की गई, तो हमारा हृदय स्वीकार नहीं कर सकेगा।

डॉ. रामलाल कश्यप जी (पूर्व कुलपति पं.र.वि.वि. रायपुर) ने जब वे जबलपुर कृषि महाविद्यालय में अध्ययनरत थे, तो डॉ. बघेल से पूछा- आप छत्तीसगढ़ी आंदोलन के प्रेणता माने जाते हैं, तो आपके छत्तीसगढि़या की परिभाषा क्या है ? डॉ. बघेल ने उत्तर दिया “जो छत्तीसगढ़ के हित में अपना हित समझता है। छत्तीसगढ़ के मान- सम्मान को अपना मान-सम्मान समझता है और छत्तीसगढ़ के अपमान को अपना अपमान समझता है, वह छत्तीसगढि़या है। चाहे वह किसी भी धर्म, भाषा, प्रांत जाति का क्यों न हो।”

ठाकुर प्यारेलाल सिंह द्वारा सम्पादित, प्रकाशित अर्ध सप्ताहिक पत्र “राष्ट्रबंधु” में डॉ. बघेल के लेख प्रमुखता से प्रकाश्ज्ञित होते थे। अन्होने आचार्य कृपलानी के लेखों का, अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद, भी किया। बलौद की एक सभा में डॉ. साहब ने कहा था- “आज प्रत्येक छत्तीसगढ़िया समझ रहा है, कि आज प्रजातांत्रिक राज्य हो गया है, किन्तु असली स्वराज तो कोषों दूर है।” वे मानते थे कि छत्तीसगढ़-राज्य के असली शोषक एवं शोषित कभी एक साथ नहीं रह सकते। शोषण, अन्याय और दमन जहाँ है, वहाँ स्वराज्य हो नहीं सकता, यह उनकी निश्चित धारणा थी। उनका तो बस एक ही लक्ष्य था- “छत्तीसगढ़ के सोये स्वाभिमान को जगाना उसके गौरव गरिमा को उजागर करना उसे शोषण, अन्याय और दमन से मुक्त करना।” 

सन् 1956 में छत्तीसगढ़ राज्य की कल्पना को साकार रुप देने जुझारु एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं का एक वृहद सम्मेलन राजनांदगाँव में आयोजित किया गया। दाऊ चन्द्रभूषण दास इसके संयोजक थे। पहले सत्र की अध्यक्षता बैरिस्टर मोरध्वजलाल श्रीवास्तव एवं दूसरे सत्र की अध्यक्षता बाबू पदुमलाल पन्नालाल बक्शी ने की। इसमें सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ से लगभग दो हजार सक्रिय कार्यकर्ता शामिल हुये। सम्मेलन में 'छत्तीसगढ़ी महासभा'' का गठन हुआ और डॉ. खूबचन्द बघेल इस महासभा के सर्वसम्मति से अध्यक्ष निर्वाचित हुये। दशरथलाल चौबे सचिव तथा केयूर भूषण एवं हरि ठाकुर को संयुक्त सचिव के पद पर मनोनित किया गया। डॉ. साहब ने अपने अध्यक्षीय भाषण में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के माँग पर (औचित्य पर) व्यापक प्रकाश डाला फलस्वरुप सर्वसम्मति से ''छत्तीसगढ़ राज्य'' निर्माण का प्रस्ताव पारित किया गया। इतिहास ने एक नया मोड़ लिया। पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के स्थापना के संघर्ष की नींव डल गई। 

25 सितम्बर 1967 को 'छत्तीसगढ़ी महासभा' को पुनर्गठित करने भोला कूर्मि छात्रावास, रायपुर में एक सभा आयोजित की गई। इसमें छत्तीसगढ़ के 500 सक्रिय कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। अध्यक्षता साहित्यकार बाबू मावली प्रसाद श्रीवास्तव ने की। डॉ. खूबचन्द बघेल सर्वसम्मति से इसके अध्यक्ष चुने गये। तथा परसराम यदु, रेशमलाल जाँगड़े, पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी ‘विप्र’, तथा पं. गंगाधर दुबे उपाध्याय चुने गये। साहित्यकार हरि ठाकुर सचिव तथा रामाधार चन्द्रवंशी कोषाध्यक्ष निर्वाचित हुये। डॉ. साहब, राज्यसभा सदस्य केन्द्रीय स्टील माइन्स एवं मिनरल समिति एवं नेशनल रेल्वे यूजर्स सलाहकार समिति के सदस्य थे। स्थानीय लोगों को सरकारी एवं गैरसरकारी संस्थाओं के नौकरियों में प्राथमिकता दिलवाने कई आंदोलन छेड़े। दिनांक 8 फरवरी 1967 को दुर्ग जिले के अहिवारा में भातृसंघ का विशाल सम्मेलन बृजलाल वर्मा जी, की मुख्यआतिथ्य में राजा नरेशचन्द्र सिंह ने उद्धाटन किया। छत्तीसगढ़ राज्य की माँग को लेकर डॉ. साहब ने पूरे छत्तीसगढ़ का सघन दौरा कर प्रचार-प्रसार किया। आज छत्तीसगढ़ में जो जनचेतना दिखाई देती है, उसके पीछे डॉ. साहब का पसीना एवं परिश्रम है। ''छत्तीसगढ़ भातृ संघ'' आगे चलकर इतना प्रभावी हुआ कि पं. श्यामाचरण शुक्ल की सरकार ने शासकीय कर्मचारियों को इसकी सदस्यता ग्रहणकर कार्यकलापों में हिस्सा लेने पर पाबंदी, सामान्य प्रशासन विभाग के ज्ञापन क्रं 0527/567/ध/62 दिनांक 23.09.1971 द्वारा लगायी थी। इस ज्ञापन को श्री प्रकाश चन्द्र सेठी की सरकार (म.प्र.शासन) ने दिनांक 19.05.1974 के ज्ञापन क्रमांक 5-/75/3/1 द्वारा निरस्त किया। आज डॉ. बघेल संपूर्ण छत्तीसगढ़ शासन ने उनके नाम से प्रतिवर्ष 2 लाख रुपये के पुरुस्कार दिये जाने की घोषण की है।

सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कार्य
छत्तीसगढ़ी साहित्य के क्षेत्र में उनका विशेष योगदान रहा है। डॉ. बघेल मौलिक चिंतक थे। नित्य सुबह चार बजे उठकर ध्यान और चिंतन में मग्न हो जाते थे। उनकी लेखनी काफी सशक्त थी। डॉ. बघेल को हर वक्त छत्तीसगढ़ियों की पिछड़ी मानसिकता, दब्बुपन, आर्थिक गुलामी की पीड़ा सताती थी। आखिर मेरे छत्तीसगढ़ में क्या कमी है? यह हमेशा वो चिंतन करते रहते थे। छत्तीसगढ़ी में उन्होंने तीन नाटक लिखे पहला 'ऊंच-नीच' समाज में व्याप्त छुआ-छूत और जातिवाद पर करार प्रहार करते हुये। दूसरा 'करम-छँड़हा' छत्तीसगढ़ के आम आदमी की गाथा उसकी बेबसी का वर्णन एवं तीसरा ''जनरैल सिंग'' जो छत्तीसगढ़ के दब्बुपन को दूर करने का रास्ता सुझाया। इन नाटकों को मंचित करने का दायित्व भी उन्होंने स्वयं निभाया। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय ''भारतमाता'' नामक नाटक लिखकर मंचित करवाया। मंचन के माध्यम से पथरी, कुरुद आदि गाँवों से धन एवं सहयोग एकत्रित कर प्रधानमंत्री राहत कोष में भिजवाया। रायपुर के समाचार-पत्रों अन्य प्रचार माध्यमों में लेख लिखकर हमेशा अपने विचारों से लोगों को अवगत कराते रहते थे। महात्मा ज्योतिबा फुले, महात्मा गाँधी एवं डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारधाराओं से ओतप्रोत ये लेख रायपुर से प्रकाशित साप्ताहिक ''राष्ट्रबंधु'' के माध्यम से प्रसारित होते रहते थे।

अपने विचारों को लिपिबद्ध करने के लिये रोज डायरी एवं रजिस्टर का इस्तेमाल किया करते थे। अपने लेखन में डॉ. साहब ने अपने विचारों के अलावा महत्वपूर्ण घटनाओं को भी स्थान दिया हैं। वे सारी घटनायें जो उनके 'सामाजिक परिवर्तन’ के आंदोलन एवं राजनैतिक संघर्ष के दौरान घटी का विस्तृत विवरण उनकी डायरी एवं रजिस्टरों में मिलती है। अपने लेखन एवं बातों को लोगों तक रोचक ढंग से पेश करने के लिये शेरों-शायरी, कहावतें, मुहावरों का उपयोग कर चुटिला बनाना उनकी खूबी थी। शेर जो उन्हें प्रिय था, हमेशा युवकों को प्रेरणास्वरुप सुनाया करते थे:-
क्या हुआ मर गये, वतन के वास्ते।
बुलबुले भी होते हैं कुर्बान, चमन के वास्ते॥
खाली न बैठ, कुछ-ना-कुछ किया कर।
कुछ ना मिले तो, पैजामा उधेड़कर सिया कर॥

साँस्कृतिक चेतना फैलाने उन्होंने अपने दामाद दाऊ रामचन्द्र देशमुख को प्रेरित कर ''चंदैनी गोंदा'' नामक सांस्कृतिक संस्था का सृजन करवाया। जिसकी ख्याति ना केवल छत्तीसगढ़ में, बल्कि सम्पूर्ण भारत में फैली। इस साँस्कृतिक संस्था का शुभारंभ एवं समापन डॉ. बघेल के जन्म स्थली ग्राम-पथरी से हुआ।

डॉ. बघेल के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुये, छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार मधुकर खेर लिखते हैं- प्रचार तंत्र का स्वन्तत्र एवं जाल न होने के कारण डॉ. बघेल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को स्थान नहीं मिल पाया जिसके वो हकदार थे।

डॉ. खूबचन्द बघेल को प्रोफेसर रंगा, चौधरीचरण सिंह एवं महेन्द्र सिंग टिकैत से कम नहीं आँका जा सकता। 1965 के भीषण अकाल के दौरान 'टाइम्स' अमेरिका की महिला पत्रकार संवाददाता लिखती हैं- मेरे 2 घंटे तक डॉ. खूबचन्द बघेल का इन्टरव्यू लेने के बाद छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े क्षेत्र में ऐसा जुझारु, कर्मठ, नेतृत्व भी हो सकता है, इस बात पर मुझे आश्चर्य है।

ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी जुझारु, जबरदस्त राजनेता, सामाजिक परिवर्तन के प्रणेता, छत्तीसगढ़ राज्य के प्रथम स्वप्न ट्टष्टा एवं महान सपूत जिन्होंने आम जनता को स्वतन्त्रता के बाद भारतीय संविधान के तहत प्राप्त प्रजातांत्रिक अधिकारों की सतत्‌ रक्षा के लिये लोगों को जागृत करने का संघर्ष किया। प्रजातंत्र को वीरकाल तक स्थापित रखने के महत्व और उस पर आघात करने वाले कारणों एवं लोगों के विरुद्ध सतत्‌ संघर्ष करते रहने का संदेश दिया। संसद के शीतकालीन सत्र में भाग लेने वे दिल्ली गये हुये थे। इसी दौरान 22 फरवरी सन् 1969 को हृदयकालीन रुक जाने से उनका दिल्ली में निधन हुआ। उनकी अंत्येष्टी रायपुर के महादेव घाट में की गई। ऐसे महान व्यक्तित्व को उनके ही प्रेरणा वाक्य से श्रद्धाँजली अर्पित करते हैं- 
दिये बिना संताप किसी को,
झुके बिना यदि खल के आगे।
संतो का कर सकुँ अनुसरन,
तो थोड़े में ही सब कुछ जागे॥

अब तक की सबसे भावुक करने वाली तस्वीर


आधार कार्ड में छपी अपनी फोटो भी बदलवा सकते हैं।

आप आधार कार्ड में छपी अपनी फोटो भी बदलवा सकते हैं। इसके लिये आपको बस 15 रूपये खर्च करने होंगे। इसे बदलने के लिये एक साधारण कार्य आपको करना है जो इस प्रकार है-
  • सबसे पहले आपको आधार कार्ड सेंटर जाना होगा। अगर आधार कार्ड आप तक नहीं पहुँच पाया है तो आप अपना इनरोलमेंट नंबर लेकर आधार कार्ड सेंटर जायें।
  • आधार कार्ड सेंटर पर पहुँचकर आपको एक बार फिर आधार कार्ड का आवेदन भरना होगा। इस आवेदन में आपको अपना आधार नंबर भी देना होगा।
  • आवेदन भरने के बाद आपको फिर से अपनी अँगुलियों व आँखों की स्कैनिंग के साथ फोटो खिंचवानी होगी। अगर फोटो सही न आये तो आप दुबारा फोटो खिंचवा सकते हैं।
  • इसके बाद आपकी सारी जानकारी आधार कार्ड सेंटर बेंगलुरू को भेज दी जायेगी, जिसके बाद आपका डाटा प्रोसेस होगा और नई फोटो के साथ आपका आधार कार्ड दो हफ्ते के अंदर आपके घर पहुँच जायेगा।
  • इसके लिए आपको मात्र 15 रुपए खर्च करने होंगे, क्योंकि आधार कार्ड केवल एक बार फ्री बनता है। बॉयोमेट्रिक डीटेल बदलवा कराने के लिए सेंटर पर पैसे खर्च करने होंगे।
अपने बच्चे के आधार कार्ड को सुधार करवा सकते हैं
  • 0 से 5 साल के बच्चे का आधार कार्ड बन जाता है, लेकिन उसका बॉयोमेट्रिक अपडेट नहीं लिया जाता है।
  • पहले कार्ड में माता-पिता का एड्रेस लिया जाता है, जिससे आधार कार्ड बन जाता है।
  • जब बच्चे की उम्र 5 साल से ऊपर हो जाती है, तब बॉयोमेट्रिक अपडेट होता है।
  • फिर 15 साल और 18 साल पूरा कर लेने पर बच्चे के कार्ड में फोटो अपडेट किया जाता है।
पोष्ट के माध्यम से भी करवा सकते हैं आधार कार्ड में बदलाव
  • अगर आपके घर या फिर ऑफिस में ऑनलाइन अपडेशन की सुविधा नहीं है और आप अपने आधार कार्ड की डिटेल्स को पोष्ट के द्वारा भी बदलवा सकते हैं।
  • इसके लिए आपको आधार कार्ड अपडेशन आवेदन भरना होगा।
  • आवेदन भरने के बाद आपको अपने डॉक्युमेंट अटेस्ट करने होंगे और अपने आधार कार्ड की फोटोकॉपी भी डॉक्युमेंट के साथ लगानी होगी।
  • इसके बाद आपको अपना आवेदन आधार कार्ड के रीजनल ऑफिस में भेजना होगा।
  •  UIDAI के भारत में 6 रीजनल ऑफिस हैं-
    1
    Chandigarh

    0172-2711947
    2
    Delhi

    011-23481126
    3
    Hyderabad

    040-23119266, 040-23119911
    4
    Lucknow

    0522-2304979, 0522-2304978
    5
    Mumbai

    022-22163492/94
    6
    Ranchi

    0651-6450145(Ranchi), 
    0612-2545678(Patna)

  • रीजनल ऑफिस में आवेदन भेजने के बाद आपका कार्ड दो से तीन हफ्ते के भीतर अपडेट होने के बाद आपके पास आ जायेगा। 
आधार कार्ड के फायदे
  • अगर आपके पास आधार कार्ड है तो आप आसानी से किसी भी बैंक में एकाउंट खुलवा सकते हैं।... 
  • अपने बैंक अकाउंट को आधार कार्ड से लिंक करने पर आपको सरकार की डीबीटीएल स्कीम में कैश सब्सिडी आसानी से ट्रांसफर हो जायेगी।... 
  • आधार कार्ड की मदद से आप इन्कम टैक्स रिटर्न आसानी से फाइल और वैरिफाई कर सकते हैं, जिसके बाद आपको एक्नॉलेजमेंट आवेदन बेंगलुरू नहीं भेजना पड़ेगा। 
  • पासपोर्ट बनवाने के लिये, गैस और बिजली का कनेक्शन लेने, केवाईसी के लिये आप आधार कार्ड प्रयोग में ला सकते हैं।... 

शुक्रवार, 10 जून 2016

गँवात जाथे हमर महतारी भासा

छत्तिसगढ़ राज ल बने सोला बछर होगे हे तभो ले छत्तिसगढ़िया अऊ छत्तिसगढ़ भासा के कोनों बिकास नई होय सके हे। सबो राज म उहाँ के लइका मन बड़ मान-सम्मान ले अपन महतारी भासा ल गोठियाथे। अऊ तो अऊ हमरो राज म आके अपन भासा म गोठियाथे, फेर हमर राज म अइसे नई हे, हमरे राज के भाई-बहिनी मन अपन भासा म नई गोठियावय तेखरे सेती हमर महतारी भासा ह कहुँ गँवावत जात हे। छत्तिसगढ़ म छत्तिसगढ़ी भासा ल सबो कोती नई बोलय, कोनो-कोनो कोती दु-चार मनखे मन जेन अपन छत्तिसगढ़ी भासा म गरब करथे, तेन मन बोलेथे, गुनथे अऊ लिखथे घलोक। बस उही मन छत्तिसगढ़ी भासा ल जगाय के परियास करत हे। जउँन मन ठेठ छत्तिसगढ़िया हाबय तेन मन ये सब देख के अब्बड़ कलपत हे कि उँखर राज म उँखरे भासा ल गोठियाय बर संगी-संगवारी मन लजाथे, अऊ दुसर भासा ल बड़ गोठियाथे।
आघु के बाढ़त बेरा म अइसने रही त आघु के अवइया लइका मन ह छत्तिसगढ़ी भासा ल भुला जाही। येखर असतित्व के नास हो जाही, छत्तिसगढ़ के बिकास के साँथ उँखर भासा ल सबो जगह बिकसित करना होही। छत्तिसगढ़ी भासा के जनवइया मन ल येखर बर विचार करके अपन मेहनत ले एला आघु बढ़ाय बर अपन-अपन योगदान देना चाही। छत्तिसगढ़िया संगी-संगवारी मन ल अपन भासा ल गोठियाय बर उही बाहिर के अवइया मनखे मन ले सिखना चाहि, जउँन मन बाहिर राज ले आके अपन बोली-भासा ल घलोक नई भुलाय। अपने बोली-भासा म अपन संगी-संगवारी मन ले गोठियाथे, अऊ वोमन ल अपन महतारी भासा ले अब्बड़ मया रहिथे। जेन मनखे मन अपन महतारी भासा छत्तिसगढ़ी म पढ़े-लिखे हाबय तेखरो अतेक पढ़े के बाद कोनों बिकास नई हो सके हे, वहु मन भटकत हे, अऊ दूसर भासा बोलइया लइका मन दुरिहा-दुरिहा म जा के बसे हे नउकरी करथे, कहिके अऊ कोनों मनखे छत्तिसगढ़ी भासा नई सिख सकत हे, एखर कारन हावय के छत्तिसगढ़ भासा के कोनों बिकास अभी तक ले नई हो सके हे। 

छत्तिसगढ़ी भासा ल आघु बढ़ाये बर इहाँ के सियान, साहितकार, अधिकारी, मंतरी अऊ आम मनखे ल अपन-अपन कोती ले पराथमिक सिच्छा म लागु करना पड़ही। जेकर से लइका मन एखर बारे म जान सके अपन भाखा ल सीख सकय अऊ अपन महतारी भासा ल आघु बढ़ाय सकय, फेर छत्तिसगढ़ी भासा ल राज-काज के भासा म घलोक मिलाय बर परही तब हमर भासा के पहिचान होही। 
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अनिल कुमार पाली 
तारबाहर, बिलासपुर (छ.ग.) मोबा. 7722906664



दार-भात अउ खिचरी


हमर लोक कला के नकल कोनो नई कर सकय। भला हमर पंडवानी ल कोनो हिंदी, अंगेरजी म गा सकत हे का? समे के संग अब यहू मन छत्तिसगढ़ के इतिहास बनतेच जात हे। हमन दूसरे के देखा-सीखी नकल उतार-उतार के एकर सुद्‌धता बिगाड़ के ''धोबी के कुकुर कस घर के न घाट के'' बरोबर बना डारत हन। आजकल छत्तिसगढ़ी एलबम ह तो बम गिरातेच हाबय अउ छालीवुड ह तो इहाँ के संसकिरती के, लोककला के फोकला निकालत हावय।
मोर भाखा कतेक गुरतुर, कतेक मिठास ये बात ल तो सिरिफ छत्तिसगढ़ियच मन हर जानथंय। जम्मो भाखा बोली ले सुरहि गाय कस सिधवी बिन कपट के निच्चट सांत रूप म हाबय। ''अंधवा जभे खीर खाथे तभे, पतियाथे।'' इही कहावत ह मोर छत्तिसगढ़ी भाखा ऊपर बरोबर बइठथे। बोले म रमायन, गीता के बानी कस, सुने म महतारी के लोरी कस दुलार हावय हमर छत्तिसगढ़ी भाखा म। नवा दुलहिन के पइरी के घुँघरू कस नीक भाखा म करमा, ददरिया, चंदैनी के सुर म मादर, ढोलक, गँड़वा बाजा के थाप ह परथे त लागथे ए छत्तिसगढ़ी भाखा बोली ह जम्मो भाखा बोली ल पचर्रा बना दिस। ए भाखा के नावेच हावय छत्तिसगढ़ी ! छत्तिस आगर छत्तिस कोरी मनखे मन मिलके ए भाखा ल गढ़े होंही तभे छत्तिसगढ़ी भाखा बोली नोहय, ए ह हमर छत्तिसगढ़ के जम्मो संसकिरती के दरसन आय। ऐंठी, तुर्रा, गजरा, पंडवानी, बिहाव-भड़ौनी, कमरा-खुमरी, नोई-दुहना, के चिन्हार, इही छत्तिसगढ़ी भाखा ह कराथे। ए भाखा ह तो छत्तिसगढ़ के परान आय। जेन दिन ए भाखा नंदा जाही वो दिन छत्तिसगढ़ घलो मेटा जाही।

संस्कृति अउ तिहार ह तो छत्तिसगढ़ के माई तिजोरी म भरे हावय। माता पहुँचनी के सीतला पूजा, अक्ती, ठाकुर देव पूजा साँहड़ा देव पूजा, देवारी के गउरी-गउरा, घरो घर घूमत छेरछेरा मँगइया के होली, मेला-मड़ई जइसन मया पिरीत। अउ अपन आसथा ले जुड़े अइसन तिहार कोनो जगा देखे बर नई मिलय। इँहा के तिहार सब जगा ले घुँच के रहिथे। बिहाव मँगौनी के करी लाड़ू, मोहरी, दफड़ा, निसान के बघवा कस गरजई, भड़ौनी, मायसरी लूगरा, पर्रा झुलउनी, माँदी भात, आजी गोंदली ये जम्मो ह हमर छत्तिसगढ़िया होय के पहिचान आय। लइका होय म छट्ठी-बरही, काँके पानी रिवाज ह घर म हरिक लान देथे। नानपन के गँगाजल, गजामूँग, महापरसाद, भोजली-जँवारा ह दोसती के पिरीत ल एक ठन गाँठ म बाँध देथय। दाई-ददा, कका-बबा, ममा-दाई, भऊजी, भांटो केहे के चलन इहेंच हे। 

छत्तिसगढ़ के पहिराव ओढ़ाव दुरिहच ले चिनहा जथे। गरवा चरावत राउत भइया के चंदैनी गोंदा कस रिगबिग ले कुरता, सलूखा, सादा, पिंयर पंछा मुड़ म छोटकुन खुमरी, हाथ म तेंदूसार के लउठी ह सउँहत किसन भगवान के दरसन करा देथे। सुआ पाँखी लूगरा पहिरे सुवा, ददरिया गावत मोटियारी मन ल मोह लेथे। बाबू जात के हाथ के ढेरकऊवाँ, कान के बारी अउ माई लोगन के हाथ के अइँठी, अँगरी के मुँदरी, गोड़ के पइरी, कड़ा बिछिया, गर के सुँता, तुर्रा, गजरा, बइहाँ के पहुँची, कनिहा के करधन, कान म खिनवा पहिरे दाई-बहिनी मन ल देख के लागथे सिरतोन म जम्मो गहना-गुरिया ल सिंगार के लछमी दाई ह सउँहत हमर छत्तिसगढ़ म बइठे हावय। तभे तो छत्तिसगढ़ ल ''धान के कटोरा'' केहे जाथे। गमछा, लुँहगी, बंडी म लपटाय बनिहार किसनहा मन धरती दाई के सेवा बजावत घातेच सुग्घर लागथे। लुगरा, पोलखा पहिरे मुड़ ल ढाँके दाई-दीदी मन ल देखके लागथे कि जम्मो भारत भर के इात अउ संस्कार ह इही छत्तिसगढ़ म बसे हावय। 

जउन किसम ले हम छत्तिसगढ़िया मन के जम्मो रासा-बासा अलग हावय उही किसम ले हमर खानपान घलो अलग हावय। बटकी म बासी चुटकी म नून निहीं त नून अउ मिरचा के भुरका चटनी कोन छत्तिसगढ़िया ल नई सुहावय। तिंवरा भाजी के गुरतुर सुवाद तो हमिच मन लेथन। देवारी के फरा, होरी के अइरसा, तीजा के ठेठरी-खुरमी, हरेली के चीला कस खाजी, रोटी-पीठा भला हमर छोंड़ दुसर मन देखे होहीं? तभे तो हम धरती म सोना उपजाए के ताकत राखथन। अथान, चटनी के ममहई ह मुहूँ म पानी लान देथे। चना-बटुरा अऊ तिवरा के होरा, तेंदू-चार के पाका, जिमीकाँदा के खोईला, रखिया के बरी के सुवाद ल हम छत्तिसगढ़िया ल छोंड़ के कोनो दूसर पाय होही? 

जम्मो छत्तिसगढ़ के दरसन तो सिरिफ इहाँ के लोककला म देखे बर मिलथे। रात भर गली के धुर्रा-माटी म रमंज-रमंज के हँसई ह मनोरंजन संग गियान के भंडार घलो होथे। सुवा, करमा, ददरिया, राऊत नाचा, पंथी ह तो इहाँ के थाती आय। ढोला-मारू, लोरिक चंदा ह इहाँ परेम के संदेस देथे त भरथरी, पंडवानी ह भक्ति भाव म बुड़ो देथे। ये सब हमर लोक कला के नकल कोनो नई कर सकय। भला हमर पंडवानी ल कोनो हिन्दी, अंगेरजी म गा सकत हें का? समे के संग अब यहू मन छत्तिसगढ़ के इतिहास बनतेच जात हे। हमन दूसरे के देखा-सीखी नकल उतार-उतार के एकर सुद्‌धता बिगाड़ के ''धोबी के कुकुर कस घर के न घाट के'' बरोबर बना डारत हन। आजकल छत्तिसगढ़ी एलबम ह तो बम गिरातेच हावय अउ छालीवुड ह तो इहाँ के संसकिरती के, लोककला के फोकला निकालत हावय। 

हमर देस लोकतंतर देस हाबय। हम ल जम्मो धरम ल माने के अधिकार, भाखा, खाए-पिए के हक हावय। त एकर पाछू इहाँ के संसकिरती, भाखा ल खिचरी बना देबो का? इहाँ के बिहाव के नेंग-जोग, चुलमाटी, पस्तेला, भड़ौनी, छट्ठी-बरही जेन ल मेटाय बर हमन हमरेच गोड़ म टँगिया मारत हन। इहाँ के जम्मो चिनहा बाखा, संस्कार ल हमर हाथ म गँवावत जावत हन त काल के दिन म ये सब ल गोड़ म खोजबो त पाबो? का छत्तिसगढ़ के इही दुरगति करे बर हमन छत्तिसगढ़ म जनम धरे हन? का हमन ल छत्तिसगढ़िया कहाए बर, छत्तिसगढ़ी बोले बर सरम लागथे? ''घर जोगी जोगड़ा'' कस ये भुइयाँ के हाल होवत जात हे। कभू सोंचे हन एमा हमर कतका हाथ हे? का ए भाखा, संसकिरिति ल सहेज के राखे के जुवाबदारी हमर नई बनय? का ए भाखा, संसकिरिति ह देहतिया, गँवईहा मन के चिन्हारी आय? का हमन हमर भाखा, संसकिरिति लोककला ल दूसर भाखा-बोली, पहिराव, ओढ़ाव, संसकार संग मिंझार के ''दार-भात खिचरी'' बना देबो? फेर हमर का चिन्हारी रइही? अगर दार-भात खिचरी बनानच हे त अपन भाखा के, बोली के लोककला के, संसकिरिति के, खान-पान के, पहिराव-ओढ़ाव के खिचरी बनावन अउ छत्तिसगढ़ के आत्मा ल जियत राखन। 
जोहार छत्तिसगढ़।
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भागीरथी आदित्य, ग्राम-अन्दोरा, गरियाबंद 









बिना हेल्मेट के दारू नही मिलेंगी..!


तोला का करना हे बे...!


गुरुवार, 9 जून 2016

छत्तीसगढ़ी पर विभिन्न भाषाओं का प्रभाव

भारतीय आर्य भाषाओं द्वारा निरंतर विदेशी शब्द गृहित किए जाते रहे हैं। तद्‌नुसार छत्तीसगढ़ी जनभाषा में भी विदेशी शब्द पर्याप्त संख्या में प्रयुक्त होने लगे हैं। छत्तीसगढ़ी जनभाषा में कुछ विदेशी शब्द संस्कृत तथा मध्यकालीन आर्य भाषाओं से होते हुए प्रविष्ट हुए हैं तथा वहुत से शब्द आधुनिक काल में हिन्दी के माध्यम से छत्तीसगढ़ी जनभाषा में आए हैं।

आधुनिक काल में हिन्दी-उर्दू-हिन्दुस्तानी के माध्यम से छत्तीसगढ़ी जनभाषा में आए हुए शब्द पश्तो, तुर्की, फारसी, अरबी, उर्दू, पुर्तगाली, नेपाली और अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं के हैं। इन शब्दों का उच्चारण छत्तीसगढ़ी जनभाषा की ध्वनिमीय व्यवस्था के अनुरूप परिवर्तित हो गया है। इस तरह देखें तो छत्तीसगढ़ी पर विभिन्न देशों के भाषाओं का प्रभाव मिश्रित होता चला गया है-


तुर्की का प्रभाव


भारत में अनेक वर्षों तक तुर्कों का राज्य था। इसी अवधि में तुर्की के अनेक शब्द भारतीय आर्य
भाषाओं में प्रविष्ट होते हुए छत्तीसगढी जनभाषा में आ गए हैं जो इस प्रकार हैं-
उजबक, कलगी, कुली, कैंची, गलीचा, चाकू, दरोगा आदि।



फारसी का प्रभाव 

छत्तीसगढी जनभाषा में हिन्दी-उर्दू-हिन्दुस्तानी के माध्यम से आए हुए फारसी के कतिपय शब्द
प्रयुक्त होते हैं जो निम्नलिखित हैं- 
पाजामा-पाजामा 
ले-कवा-लकवा 
साफी-साफा
हलवा-हलवाई
हलवा-हलुवा 
और 
दरजी-रजी आदि


नेपाली का प्रभाव

छत्तीसगढ़ी जनभाषा में व्यवहार होनेवाली कुछ नेपाली शब्द इस प्रकार हैं-
अधिया, आरा, किरिया, गोदना, गौंटिया, गोंटी, जाँगर, डिंगरा, ढेंकी, फोकट, भकला, भंडारा, भूतहा और लुरकी आदि।


अरबी का प्रभाव

छत्तीसगढ़ी जनभाषा में व्यवहार होनेवाली कतिपय अरबी शब्द निम्नलिखित हैं- 
अलबत्ता, औकात, कुर्सी, जम्मा-जम्मों, जहाज, बरकत, मोक्कदम-मुकद्दम और रकम। 


पुर्तगाली का प्रभाव

छत्तीसगढ़ी जनभाषा में व्यवहार होनेवाली कतिपय पुर्तगाली शब्द निम्नलिखित हैं-
अनानास, अलमारी, मामला, गोदाम, गोभी, चहा-चाय, सीपा-पीपा, मिसतिरी-मिस्त्री आदि।

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डॉ. व्यास नारायण दुबे
हरिभूमि/चौपाल में 09-06-2016 को प्रकाशित 

बुधवार, 8 जून 2016

छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया


स्थानीय बनाम बाहरी का वायरस राजनीति और लोकजीवन के छद्म दिमागों से निकल कर बीमारी की तरह फैलने को बेताब होता रहता है. छत्तीसगढ़ सहित अन्य प्रदेशों में नारा उछलता रहा कि स्थानीय का ही राज होगा, बाहरी लोगों का नहीं. इतिहास को अंकगणित के पहाड़े की पुस्तक बनाया जाता है. ढूंढ़ा जाता रहा कि किसके पुरखे कितने बरस पहले छत्तीसगढ़ की धरती पर आए.

जबान पर छत्तीसगढ़ी भाषा (बोली) प्राकृतिक मुहावरे की तरह चढ़ी है अथवा नहीं. शब्दकोश से विशेषण निकालकर उन्हें चस्पा किया जाता है. ’परदेशी’ ’बाहरी’ ’शोषक’ ’दुश्मन’, ’गैरछत्तीसगढ़िया’ जैसे असंवैधानिक शब्दों से भी नवाजा जाता रहा है. कथित बाहरी लोगों में वे भी शामिल हैं, जो स्वतंत्रता संग्राम सैनिक, सरहदों की रक्षा के शहीदों के परिवार और छत्तीसगढ़ की धरती की पहचान बनाने के अशेष सांस्कृतिक हस्ताक्षर हैं.

छत्तीसगढ़ में भी अरसे से कथित बाहरी लोगों का ही वर्चस्व रहा है. अमूमन सभी ब्राह्मण परिवार-चाहे गंगापारी हों या सरयूपारी-उत्तरप्रदेश से ही आए हैं. राजनीति और साहित्य संस्कृति सहित उद्योगों में भी उनका वर्चस्व रहा है. यही हाल प्रतिष्ठित कई क्षत्रिय और वैश्य परिवारों का भी है.

रविशंकर शुक्ल, श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल, हरिप्रसाद शुक्ल, देवीप्रसाद चैबे, रवीन्द्र चैबे, कमलनारायण शर्मा, कन्हैयालाल शर्मा, डॉ. श्रीधर मिश्र, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, सुधीर मुखर्जी, मदन तिवारी, पद्मावती देवी, दिलीप सिंह जूदेव, देवेन्द्र कुमारी देवी, रामचन्द्र सिंहदेव जैसे सैकड़ों छोटे बड़े नेता आखिर मूल वंश परम्परा के अनुसार छत्तीसगढ़ के तो नहीं हैं. सत्ता व्यवस्था पर आरोप लगाने वाले मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को भी उत्तरप्रदेश से आया वंशज कहते हैं. यही आरोप नेता प्रतिपक्ष टी. एस. सिंहदेव पर है.

वैश्य कुल के प्रभावशाली नेताओं में सेठ नेमीचंद जैन, लखीराम अग्रवाल, मोहनलाल बाकलीवाल, श्रीकृष्णा अग्रवाल, रामकुमार अग्रवाल, बृजमोहन अग्रवाल, अमर अग्रवाल, राजेश मूणत, इंदरचंद जैन आदि संकीर्ण अर्थों में छत्तीसगढ़ का मूल निवासी होने का दावा क्यों नहीं कर सकते? अन्य कई जातियों, उपजातियों और समूहों के जनप्रतिनिधि मसलन पंढरीराव कृदत्त, अशोक राव,जे. पी. एल. फ्रांसिस, डॉ. जयराम अय्यर, भारतचंद्र काबरा, बंदेअली फातमी कैसे समझाएंगे कि वे छत्तीसगढ़िया कोख से होने के बाद भी किस परिभाषा के अंतर्गत मूल स्थानीय नहीं समझे जाएंगे.

पत्रकारिता के सहारे कांग्रेस की राजनीति में पिछले चालीस वर्षों से हावी मोतीलाल वोरा राजस्थान से ही छत्तीसगढ़ आए थे. छत्तीसगढ़ के सभी बड़े दैनिक समाचार पत्रों के स्वामी मोटे तौर पर राजस्थान के ही मूल निवासी प्रचारित किए जाते हैं. तथाकथित पिछड़ी जातियों के बहुत से सूरमा पूर्वजों का इतिहास उलटने पलटने पर पाएंगे कि अंगरेज़ी ज़माने के गज़ेटियर और इतिहासवृत्तांत बताते हैं कि उनमें से अधिकांश उत्तरप्रदेश से ही आए हैं.

छत्तीसगढ़ी अस्मिता की अगुवाई करने वाले चंदूलाल चंद्राकर, पुरुषोत्तम कौशिक,खूबचंद बघेल, बृजलाल वर्मा, हीरालाल सोनबोईर, केजूराम, रमेश बैस, वासुदेव चंद्राकर, प्यारेलाल बेलचंदन, बिसाहूराम यादव, ताम्रध्वज साहू, बैजनाथ चंद्राकर, चंद्रशेखर साहू, धनेन्द्र साहू, भवानीलाल वर्मा वगैरह के पीछे अगर कोई संकीर्ण ऐतिहासिक दृष्टि लेकर छानबीन करने पर आमादा हो जाए तो सिद्ध करेगा कि सबके पूर्वज अन्य प्रदेशों से आए थे.

छत्तीसगढ़ के किराना, सराफा, यातायात और शिक्षा व्यापार पर ऐसे लोगों का कब्जा है जिन्हें छत्तीसगढ़ का किताबी तौर पर मूल निवासी कहा जाता है. ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसा नहीं माना जाता. खुज्जी, धमतरी, तखतपुर आदि के विधायक सिख परिवारों से रहे हैं. उनका पंजाब से रिश्ता संदेह की वस्तु नहीं है. मोहम्मद अकबर, बदरुद्दीन कुरैशी, ताहिर भाई, हमीदुल्ला खान, मुश्ताक अली वगैरह में लोग अपना जनप्रतिनिधि ढूंढ़ते रहे हैं. जातीय और नस्लीय शोधकर्ता उन्हें किसी न किसी दूसरे प्रदेश का मूल निवासी बना ही सकते हैं. छत्तीसगढ़ के जनजीवन पर पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र, बिहार, आंध्रप्रदेश और ओडिसा का गहरा असर है. दक्षिण बस्तर के आंध्रप्रदेश से सटे इलाकों में तेलगु भाषा के चमत्कारी प्रभाव के कारण आयातित नक्सली नेतृत्व पूरी तौर पर हावी है.

राजनांदगांव से भौगोलिक निकटता के कारण बी. एन. सी. मिल्स के आंदोलन का नेतृत्व नागपुर के कॉमरेड रुईकर, वसंत साठे और वी.वाई.राजिमवाले वगैरह ने वर्षों तक किया. छत्तीसगढ़ के साहित्य जगत के वरिष्ठ सूरमा माधवराव सप्रे और ख्यातनाम हस्ताक्षर गजानन माधव मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के मूल निवासी नहीं कहे जा सकते, लेकिन उन्होंने साहित्य में छत्तीसगढ़ को अमर किया.

बैकुंठपुर में जन्मे डॉ. कांतिकुमार जैन, दुर्ग-सुत अशोक वाजपेयी, बिलासपुर-पुत्र श्रीकांत वर्मा, जगदलपुर के शानी तथा मेहरुन्निसा परवेज़, राजनांदगांव में जन्मे डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र, विनोद कुमार शुक्ल तथा जयप्रकाश साव, बिलासपुर के प्रमोद वर्मा, खैरागढ़ के पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी तथा रमाकांत श्रीवास्तव, रायगढ़ के लोचनप्रसाद पांडे, मुकुटधर पांडे, चिरंजीव दास और प्रभात त्रिपाठी, अम्बिकापुर की कुंतल गोयल और विजय गुप्त तथा बस्तर के सुन्दरलाल त्रिपाठी और लाला जगदलपुरी की लेखनी ने छत्तीसगढ़ को राष्ट्रीय पहचान दिलाई. कौन जड़ों को खोदकर देखे कि उनके पूर्वज कहां के रहने वाले थे और क्यों छत्तीसगढ़ आए थे?

रायपुर के हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ की लोकनाट्य कला को अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलाई. आधुनिक प्रभावों के समर्थक होने के बावजूद वे मन, वचन और कर्म से छत्तीसगढ़ की संस्कृति के प्रति एकनिष्ठ रहे.

पत्रकारिक कलम थामे मायाराम सुरजन, गुरुदेव चैबे, रम्मू श्रीवास्तव, डी. पी. चैबे, रमेश याज्ञिक, शरद कोठारी, बसंत तिवारी, किरीट दोषी, रमेश नय्यर, ललित सुरजन, सुनील कुमार, जगदीश उपासने, त्रिलोक दीप, राजेश गनोदवाले, कुमार साहू, सुशील शर्मा, यशवंत धोटे, दिवाकर मुक्तिबोध, गिरीश पंकज वगैरह के पीछे कौन पड़े कि वे कब, क्यों और कहां से छत्तीसगढ़ में आए.

हॉकी में एरमन बेस्टियन तथा सबा अंजुम वगैरह खिलाड़ियों ने छत्तीसगढ़ को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलवाई. उनकी देह और उनकी हॉकी स्टिक से छत्तीसगढ़ी धरती की सुगंध आती रही.

यह अलग बात है कि राजनेता तथा कवि पवन दीवान, श्रमसाध्य लेखक परदेसीराम वर्मा, वरिष्ठ कवि विमल पाठक, प्राध्यापक डॉ. विनय पाठक, मुक्त कॉलम लेखक नन्दकिशोर शुक्ल, हास्य कवि डॉं. सुरेन्द्र दुबे, मंचीय कवि मुकुन्द कौशल तथा लक्ष्मण मस्तूरिहा, बुजुर्ग प्राध्यापक पालेश्वर शर्मा और छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष दानेश्वर शर्मा आदि छत्तीसगढ़ी भाषा और छत्तीसगढ़ियापन के लिए लगातार सचेष्ट रहने की पहचान बनाए रखना चाहते हैं. जातिशोधक तत्व इन्हें भी अन्यप्रदेश से आया सिद्ध करते रह सकते हैं.

किशोर साहू ने फिल्मों के अशेष निर्माता बनकर राजनांदगांव और दुर्ग का भी नाम रोशन किया. यही यश रायपुर और भिलाई के अनुराग बसु बढ़ा रहे हैं. रायपुर के प्रसिद्ध संगीतज्ञ परिवार अरुण कुमार सेन और अनीता सेन के यशस्वी पुत्र शेखर सेन संगीत और कला के क्षेत्र में झंडा गाड़े हुए हैं. इन सबका आनुवंशिक मूल छत्तीसगढ़ में यदि नहीं भी स्थापित हो तो इन लोगों ने छत्तीसगढ़ को स्थापित कर ही दिया है. डॉ. पुखराज बाफना, शमशाद बेगम, फुलवासन बाई, भारती बंधु और अनुज शर्मा आदि को भारत शासन द्वारा पद्मश्री का सम्मान मिला. उनके मूल में छत्तीसगढ़ का ही यश तो है.

छत्तीसगढ़ के लोग सम्पत्ति-उद्यमी नहीं हैं कि उनके पास बड़ी पूंजी हो और अरबपति बन जाएं. छत्तीसगढ़ के बड़े ठेके ज़्यादातर आंध्रप्रदेश के ठेकेदार कबाड़े जा रहे हैं. विद्युत और लोहे के कारखानों पर हरियाणा, राजस्थान, आंध्रप्रदेश और अन्य इलाकों के लोगों का दबदबा है. स्थानीय किसानों की छोटी छोटी जोत की जमीन को मिटाकर शहरों के निकट बड़े बड़े फॉर्म हाउस बन रहे हैं. इनके जरिए गुजरात, पंजाब और हरियाणा के करोड़पति छत्तीसगढ़ी ग्रामीण व्यवहार का अस्तित्व समाप्त कर रहे हैं.

छत्तीसगढ़ में बेरोजगार नौजवानों के नियोजन की कोई व्यवस्थित अथवा अधिनियमित योजनाएं नहीं हैं. मसलन सहकारी पंचायत और स्वायत्तशासी संस्थाओं तथा शासकीय निगमों आदि में ऐसे कई उद्योग प्रकल्प स्थानीय बेरोजगार युवाओं के लिए आरक्षित किए जा सकते हैं. ऐसे संभावित उद्योग प्रकल्पों में बहुत अधिक तकनीकी विशेषता की आवश्यकता नहीं होती. राज्य शासन द्वारा आर्थिक सुविधाएं और संरक्षण मुहैया कराया जाना कठिन नहीं होगा.

युवा शक्ति को वोट कबाड़ू नेता अपने नियोजित कर्मचारियों की तरह राजनीतिक प्रचार का पुर्जा बनाकर रखते हैं. विकल्पहीन बेरोजगार युवा नेताओं और नौकरशाहों की चाकरी करने पर मजबूर हैं. वे बाहरी शोषक उद्योगपतियों के हत्थे चढ़कर सुरक्षाकर्मियों, ड्राइवरों, चैकीदारों, फार्महाउस रक्षकों, टेलीफोन ऑपरेटरों, रसोइयों आदि की नौकरी करने को लेकर संतुष्ट और अभिशप्त हैं.

फसलों में उत्पादन वृद्धि के सरकारी दावों में वृद्धि के बावजूद कृषि भूमि का रकबा सिकुड़ रहा है. जंगल बेतहाशा कट रहे हैं. उन्हें राजनीतिक पार्टियों के नेता, नौकरशाह और उद्योगपति मिलकर काट रहे हैं. जंगलों से पशु पक्षियों और वन उत्पादों के अतिरिक्त आदिवासी भी बेदखल किए जा रहे हैं. पूरा छत्तीसगढ़ खनिजों की उगाही के नाम पर खुद रहा है. कहना अतिशयोक्तिपूर्ण लगता होगा लेकिन छत्तीसगढ़ में भूकंप के खतरे बढ़ रहे हैं.

प्रदूषण तो राजधानी में ही इस कदर बढ़ा है कि राज्यपाल की चेतावनी का भी कोई असर नहीं होता. आदिवासी बहुल राज्य होने पर भी संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों में बढ़ोतरी के लिए कोई अधिसूचना आज तक जारी नहीं की गई. नौकरशाही के तेवर इतने ढीठ हो गए हैं कि उसे जनप्रतिनिधियों, स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों, वरिष्ठ नागरिकों और बुद्धिजीवियों का अपमान करने में अपराधिक किस्म का आनंद आने लगा है. पुलिस अपराधियों से जनता की रक्षा नहीं कर पाती. बल्कि अपनी खुद की रक्षा भी कई बार नहीं कर पाती. नक्सलवाद छत्तीसगढ़ का राष्ट्रीय नासूर है. उसके संदर्भ में राजनेताओं की सांठगांठ से इनकार करना सर्वेक्षण दलों के लिए भी मुश्किल है.

शिकागो के विश्व धर्मसम्मेलन में विवेकानन्द के जिस पहले वाक्य पर असाधारण करतल ध्वनि हुई थी, वह यह था, ’’मुझे उस धर्म का अनुयायी होने का गर्व है जिसकी भाषा संस्कृत में ’बहिष्कार’ जैसा कोई शब्द नहीं होता.’’ विवेकानन्द जन्मना कायस्थ थे. वे संयोगवश जन्मस्थान कलकत्ता के अतिरिक्त भारत में सर्वाधिक समय (दो वर्ष से ज्यादा) छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहे. छत्तीसगढ़ में कुर्मीवाद, साहूवाद, मारवाड़ीवाद और ब्राम्हणवाद का चतुर्भुज है. यदि वे रायपुर में ही टिके रहते और उनके जीवनकाल में छत्तीसगढ़ बन जाता तो क्या करते?

कलकत्ते में गैर-कम्युनिस्ट और छत्तीसगढ़ में बाहरी आदमी? देश की सरहदों की रक्षा में छत्तीसगढ़ के जो नौजवान सपूत शहीद हुए हैं, उनमें से अधिकांश का मूल स्थान यदि छत्तीसगढ़ के बाहर हुआ तो? इन सब कलुषित हालातों के कारण भी बाहरी और स्थानीय जैसे झगड़े सुनाई पड़ते हैं. प्रसिद्ध बंगला उपन्यासकार विमल मित्र की ‘सुरसतिया‘ नामक कहानी के कारण छीछालेदर हुई थी. छत्तीसगढ़ अन्य प्रदेशों के समझदार और पढ़े लिखे लोगों के लिए भी एक अजूबा रहस्यमय और मिथकीय इलाका प्रचारित होने की साजिश का शिकार रहा है.

जो कुछ वर्षों पहले आ गए, वे तय करेंगे कि जो बाद में आए-वे किसी पद या सेवा के लायक नहीं हैं. संविधान के निवास, अधिवास और बस जाने संबंधी प्रावधान की तात्विक घोषणाओं का क्या अर्थ है? वर्षों पहले ओडिसा से बाहरी और विशेषकर राजस्थान मूल के लोगों को भगाने का जबरदस्त अभियान छेड़ा गया था. रोटी के वास्ते पिछड़े इलाकों छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिसा, बिहार आदि से हजारों की संख्या में श्रमिक अन्य राज्यों में पलायन करते हैं. वे वर्षों वहां रहते हैं. उन्हें खानाबदोशों की जिन्दगी बिताने के लिए मजबूर किया जाता है. वे गुमनामी के अंधेरे में खोते जाते हैं.

देश में कहीं भी बसकर राजनीतिक- सांस्कृतिक-सामासिकता से एकात्म हो जाना संविधान की मंशा है और उसकी घोषणा भी. यथार्थ इतना कंटीला और कड़ियल है कि सेवानिवृत्ति के बाद हर व्यक्ति को पुरखों की तथाकथित देहरी की ओर लौटने की इच्छा या स्थिति नहीं होती. जहां उसने अपना पूरा जीवन काट लिया, उसे भी उसके जीवन की सांझ में परदेश कह दिया जाता है.
कनक तिवारी
http://cgkhabar.com/ Sunday, June 1, 2014

छोंड़-छाँड़ के बइठना

छोंड़-छाँड़ के बइठना : धनी ला तियागना। (पति को त्याग देना)
बइसाखिन ला दू बच्छर पुरत होही छोंड़-छाँर के बइठे। समे निकलत देरी नइ लागे।

छोटे आँखी के होना

छोटे आँखी के होना : नीयत डोलना (नीयत खोर होना)
जउन हा छोटे आँखी के हो गेहे तउन ला फजित्ता के का डर?

छोटकुन जी होना

छोटकुन जी होना : डर्रा जाना। (डर जाना)
पेड़ मा चढ़के भुइयाँ ला देखेंव, ततकिच मा मोर जी हा छोटकुन होगे रिहिसे।

छेरी के गर मा फड़फड़ी बाँधना

छेरी के गर मा फड़फड़ी बाँधना : अयोग्य मनखे ला जुम्मेदारी देना। (अयोग्य व्यक्ति को जिम्मेदारी देना)
छेरी के गर मा फड़फड़ी बाँधे ले बुता सीध नइ होय, उल्टा बिगड़ जथे।

छेरिया होना

छेरिया होना : घेरी-बेरी खाना। (बार-बार खाना)
यहू टूरा हा छेरिया हो गेहे, एक घाँव खा के नइ रहि सके।

छू मंतर होना

छू मंतर होना : (i) बड़ भागना (तेज दौड़ना) 
बढ़िया बइला पाए हस फिरंता, एके चमेटा मा छू मंतर हो जथे।
(ii) गायब होना (यथावत)
जादू वाले हा अपन जादू चलइस ते लइका के मुँदरी हा छू मंतर होगे।

छूछू कस छुछवाना

छूछू कस छुछवाना : लुका-लुका के खोजना। (छिप-छिप कर ढूँढना)
तोला का चाही तेला बता ना, छूछू कस छुछवात काबर हस?

छुनमुन-छुनमुन लागना

छुनमुन-छुनमुन लागना : कुछु खाए के मन करना। (कुछ खाने का मन होना)

छुआ होना

छुआ होना : महीना बइठना। (रजस्वला होना)
ओला छुआ हो गेहे तेकर सेती देंवता-धामी के जगा मा नइ जाए।

छींकब मा नाँक कटाना

छींकब मा नाँक कटाना : बात-बात मा लजाना। (बात-बात पर शमार्ना)
छींकब मा नाँक कटाए ले नाटक नइ होय, नकटा बने ला परथे।

छींक-छाँक करना

छींक-छाँक करना : जुड़ धरना। (सर्दी लगना)
काली बारिस मा भींग गेंव ते छींक-छाँक सुरु होगे। थोरको ऊँच-नीच नइ सहाय।

छान्हीं मा होरा भूँजना

छान्हीं मा होरा भूँजना : बहुँत अतियाचार करना। (बहुत अत्याचार करना)

एकलौता बर घर भर के मयाँ पलपलाए रथे तेकरे सेती छान्हीं मा होरा भूँजथे।

मंगलवार, 7 जून 2016

छान्हीं मा नाचना

छान्हीं मा नाचना : नंगत उतिय इल करना। (अधिक उत्पात मचाना)
छान्हीं मा नाचे ले आज तक कोनो नइ बने हे, बल्कि बेंदरा-बिनास जरुर हो जथे।

छान्हीं चढ़ के कूदना

छान्हीं चढ़ के कूदना : जान-बूझ के बिपत मा फँसना। (जान-बूझकर विपत्ति में फँसना)
सुख-दुख तो जिनगी के दू ठन पाठ आय, फेर कोनो हा छान्हीं चढ़ के कूदही तउन ला कइसे कर डारबे।

छाती रगरगाना

छाती रगरगाना : ईरसा होना। (ईर्ष्या होना)
परोसी के बनक ला देख के तोर छाती काबर रगरगावत हे?

छाती मा बान मारना

छाती मा बान मारना : अनठेहरी गोठियाना। (व्यंग्य बोलना)
तोर का बिगाड़े हन तेमा हमर छाती मा बान मारत हस?

छाती मा बइठना

छाती मा बइठना : अपन बुता ला तुरते कमाए के जिद्द करना। (अपने कार्य को तत्काल करने का जिद्द करना)
सरकारी काम मा समे लागथे, छाती मा बइठे ले नइ होय।

छाती मा पथरा लदकना

छाती मा पथरा लदकना : हिरदे ला कड़ा करना। (हृदय को कठोर करना)
भरे जवानी मा गोसइयाँ हा आँखी मूँदलिस, तब ले बिचारी दुखिया हा अपन छाती मा पथरा लदक के जीय त हे।

छाती मा दार दरना

छाती मा दार दरना : नंगत के दुख देना। (बहुत दुख देना)
सुकवारो हा रोज अपन सउतबेटा के छाती मा दार दरत रथे। देखइया ला घलो बपरा लइका बर सोग लागथे।

छाती मा चघना

छाती मा चघना : पाछू पड़ना। (पीछे पड़ना)
मुहूँ ले निकलते साठ छाती मा चघे ले बुता नइ बने, थीर-थार ले होथे।

छाती फूलना

छाती फूलना : गरब करना। (गर्व करना)
देस-दुनियाँ मा जब बेटा के नाँव जाग जथे तब काबर ओकर दाई-ददा के छाती नइ फूलही।

छाती फुलोना

छाती फुलोना : गरब होना। (गर्वित होना)
मिहिनती लइका मन कभू-कभू बड़ जन बुता करके अपन दाई-ददा के छाती फुलो देथें।

छाती पीटना

छाती पीटना : बिलाप करना। (विलाप करना)
लइका चाहे कसनो राहय, ओकर आँखी मूँद लेय ले मँहतारी-बाप तो छाती पीटबेच करही।

छाती देखाना

छाती देखाना : बहाद्दुर होए के दावा करना। (बहादुर होने का दावा करना)
मरहा ला तो कोनो मार दीही छातिच देखाए के सउँख हे ते अपन बराबरी वाले कर देखा।

छाती ठोंकना

छाती ठोंकना : गरब करना। (गर्व करना)
गाँधी बबा के हिरदे मा देस खातिर अघातेच मयाँ रिहिसे। तभे तो अंगरेज मन ला छाती ठोक के ललकारे।

शनिवार, 4 जून 2016

छाती जोरना

छाती जोरना : तन ले तन चिपकाना। (आलिंगन करना)
बुड़ती कोती के देस वाले मन अपन संस्कार ला तो बुड़ो डरिन, उँकर देखी-सीखा अब हमर देस मा छाती जोरे के बिमारी बाढ़गे।

शुक्रवार, 3 जून 2016

छाती जुड़ाना

छाती जुड़ाना : बने लागना। (अच्छा लगना)
काकरो बनक ला देख नइ सकस देखमरा नइ तो..! भाई-भाई ला लड़वा देस तब तोर छाती जुड़इस?

छाती छोलना

छाती छोलना : परसान करना। (परेशान करना)
पइसा हा लबरा जात ताय। कभू-कभू दू-चार दिन के ऊँच-नीच होइ जथे। तेकर बर रामभरोसा हा छाती छोलथे तउन हा मोला नइ सुहाय।

छाती के डाह बुताना

छाती के डाह बुताना : गुँस्सा सिरा जाना। (गुस्सा शांत हो जाना)
बुधिया हा दिल के बड़ सप्फा हे तेकर सेती बड़ जल्दी ओकर छाती के डाह बुता जथे

Atahrva Institute of Techonology


बुधवार, 1 जून 2016

छाँव परना

छाँव परना : काकरो खराब परभाव परना। (किसी का कलुषित प्रभाव पड़ना)
मनखेच ऊपर नीहीं गाय-गरु मा तको अंकाल के छाँव परे हे।

छाँव खूँदे के धरम नइ होना

छाँव खूँदे के धरम नइ होना : बड़ जन बइगुनहाँ होना। (घोर अपराधी होना)
जउन हा अपने भाई-बहिन ला नइ जानिस तउन हा बिरान ला का जानहीं। ओकर तो छाँव खूँदे के धरम नइ हे।

छकिन पढ़ना

छकिन पढ़ना : (i) बुरई करना। (बुराई करना)
देख-छाँट के बहू बिहाय हस अउ ‘‘पर कोठा ले आए हे’’ कहिके छकिन पढ़थस तब झगरा नइ मातही ते अउ का होही?

(ii) बेहोश हो जाना। (यथावत)
लहू मा लदफदाए फिरंगी ला देख के बिसाखा के छतनारी उड़ियागे।

छकल-बकल करना

छकल-बकल करना : मनमाने खरचा करना। (खूब खर्च करना)
पइसा के राहत ले छकल-बकल करेस, अब पइसा उरकगे तब चुम।

छइहाँ परना

छइहाँ परना : नजर-डीठ लगना। (कुदृष्टि पड़ना)गाय हा बछरु ला पियात नइ हे मितान, काकरो छइहाँ परे हे तइसे लागथे।

छइहाँ नइ खूँदना

छइहाँ नइ खूँदना : गुँस्सा नइते घिनघिनाना। (गुस्सा या घृणा करना)


जब ले दूनों भाई मा झगरा होए हे तब ले छोटे हा इँकर घर के छइहाँ नइ खूँदे।

भारतीय गणना

आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!