शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

डॉ. भीमराव अंबेडकर

गरीबों के दर्द को वही समझ सकता है जिसने गरीबी देखी हो। जो खुद गरीबों के बीच में रहा हो वह ही गरीबों की समस्या को सही ढंग से समझ सकता है। एक इंसान किस तरह एक देश की तकदीर को संवारता है इसका उदाहरण है महापुरुष डॉ.भीमराव अंबेडकर। भीमराव अंबेडकर जिनका बचपन बेहद गरीबी में बीता, उन्हें छोटी जाति से संबद्ध होने की वजह से समाज की उपेक्षा का सामना करना पड़ा लेकिन मजबूत इरादों के बल पर उन्होंने देश को एक ऐसा रास्ता दिखाया जिसकी वजह से उन्हें आज भी याद किया जाता है। भीमराव अंबेडकर एक नेता, वकील, गरीबों के मसीहा और देश के बहुत बड़े नेता थे जिन्होंने समाज की बेड़ियाँ तोड़ कर विकास के लिए कार्य किए।

डॉ.भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के एक छोटे से गाँव में हुआ था। डॉ.भीमराव अंबेडकर के पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और माता का भीमाबाई था। अंबेडकर जी अपने माता-पिता की आखिरी संतान थे। भीमराव अंबेडकर का जन्म महार जाति में हुआ था जिसे लोग अछूत और बेहद निचला वर्ग मानते थे। बचपन में भीमराव अंबेडकर के परिवार के साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। भीमराव अंबेडकर के बचपन का नाम रामजी सकपाल था। अंबेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्य करते थे और उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे। भीमराव के पिता हमेशा ही अपने बच्चों की शिक्षा पर जोर देते थे।

सेना में होने के कारण भीमराव के पिता ने उनका दाखिला एक सरकारी स्कूल में करा दिया लेकिन यहाँ भी समाज के भेदभाव ने उनका साथ नहीं छोड़ा। अछूत और छोटी जाति की वजह से उन्हें स्कूल में सभी बच्चों से अलग बैठाया जाता था और पीने के पानी को छूने से मना किया जाता था। लेकिन फिर भी इतनी कठिन परिस्थिति में भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। भाग्य ने हमेशा ही भीमराव अंबेडकर जी की परीक्षा ली। 1894 में भीमराव अंबेडकर जी के पिता सेवानिवृत्त हो गए और इसके दो साल बाद, अंबेडकर की माँ की मृत्यु हो गई। बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुये की। रामजी सकपाल के केवल तीन बेटे, बलराम, आनंदराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलासा ही इन कठिन हालातों मे जीवित बच पाए। अपने भाइयों और बहनों मे केवल अंबेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल में जाने में सफल हुये। अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव अंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे के कहने पर अंबेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अंबेडकर जोड़ लिया जो उनके गाँव के नाम “अंबावडे” पर आधारित था।

हाई स्कूल में भीमराव अंबेडकर के अच्छे प्रदर्शन के बाद भी उनके साथ जातिवादी भेदभाव बेहद आम था। 1907 में भीमराव ने मैट्रिक की परीक्षा पास की और बंबई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और इस तरह वो भारत में कॉलेज में प्रवेश लेने वाले पहले अस्पृश्य बन गये। उनकी इस सफलता से उनके पूरे समाज मे एक खुशी की लहर दौड़ गयी। समाज के सामने भीमराव अंबेडकर जी ने एक आदर्श पेश किया था।

1908 भीमराव अंबेडकर ने एलिफिंस्टोन कॉलेज में प्रवेश लिया और बड़ौदा के गायकवाड़ शासक सहयाजी राव तृतीय से संयुक्त राज्य अमेरिका मे उच्च अध्धयन के लिये पच्चीस रुपये प्रति माह का वजीफा़ प्राप्त किया। 1922 में उन्होंने राजनीतिक विज्ञान और अर्थशास्त्र में अपनी डिग्री प्राप्त की, और बड़ौदा राज्य सरकार की नौकरी को तैयार हो गए। बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करते हुये अपने जीवन मे अचानक फिर से आए भेदभाव से अंबेडकर उदास हो गए, और अपनी नौकरी छोड़ एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में काम करने लगे।

अंबेडकर जी के जीवन में भेदभाव तो बहुत आम था लेकिन साउथबोरोह समिति के समक्ष दलितों की तरफ से अंग्रेजों के सामने उनकी पेशी ने उनके जीवन को बदलकर रख दिया। भारत सरकार अधिनियम 1919 पर चर्चा करने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने अंबेडकर जी को बुलाया था। 1925 में अंबेडकर जी को बॉम्बे प्रेसीडेंसी समिति में सभी यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन आयोग में काम करने के लिए नियुक्त किया गया।

कल तक एक अछूत माने जाने वाले अंबेडकर जी कुछ ही समय में देश की एक चर्चित हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। अंबेडकर ने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस और उसके नेता मोहनदास गाँधी (महात्मा गाँधी) की आलोचना की। उन्होंने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप में प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। अंबेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमें काँग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अंबेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसकी सरकार और काँग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।
ऐसा नहीं था कि महात्मा गाँधी अछूतों से भेदभाव करते थे लेकिन गाँधी का दर्शन भारत के पारंपरिक ग्रामीण जीवन के प्रति अधिक सकारात्मक लेकिन रूमानी था और उनका दृष्टिकोण अस्पृश्यों के प्रति भावनात्मक था। उन्होंने उन्हें हरिजन कह कर पुकारा। अंबेडकर ने इस विशेषण को सिरे से अस्वीकार कर दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों को गाँव छोड़कर शहर जाकर बसने और शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया।

1936 में अंबेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जिसने 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों में 15 सीटें जीतीं। अंबेडकर जी एक सफल लेखक भी थे जिन्होंने समाज पर वार करती हुई कई पुस्तकें लिखीं जिनमें प्रमुख थीं “थॉट्स ऑन पाकिस्तान”, “वॉट काँग्रेस एंड गाँधी हैव डन टू द अनटचेबल्स” थी।

अपने विवादास्पद विचारों, और गाँधी और काँग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद अंबेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, काँग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व में आई तो उसने अंबेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को अंबेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अंबेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम में अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। इस कार्य में अंबेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया।

अंबेडकर द्वारा तैयार किया गए संविधान पाठ में संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें, धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया। अंबेडकर ने महिलाओं के लिए व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों में आरक्षण प्रणाली शुरू करने के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया। 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। 1951 में संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अंबेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की माँग की गयी थी।

14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में अंबेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। अंबेडकर ने एक बौद्ध भिक्षु से पारंपरिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। 1948 से अंबेडकर मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो नैदानिक अवसाद और कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे। 6 दिसंबर 1956 को अंबेडकर जी की मृत्यु हो गई।


कौमी एकता ह आज भट्ठीच मा तो जियत हे

हमन न हिनदू हमन न मुसलिम
हमन न सिख-इसई अन
हमन तो भइया सबो परोसी
आपस में भाई-भाई अन ।

हिनदू, मुसलिम, सिख, इसई बन
इही मन हमला लड़ावत हे ।...
देस कब उबरही
नसा में कोन नइ हे
मोला ये तो बता
आज ले जे लेय नइ हे

वोखर चेहरा ला तो देखा
कोनो ला सोनिया दाई के नसा हे
कोनो ला जया बाई के नसा
कोनो ला ममता माईं के नसा हे
कोनो ल बाजपायी के नसा ।

अरे ! नसा मा तो पूरा जहान हे
बोहात गंगा मा हाथ धोय बर
का हिनदू का मुसलमान हे ।
बहुजन हो या बनियाजन
सबो एक्के टेबल मा पियत हे ।

कौमी एकता ह आज
भट्ठीच मा तो जियत हे ।
मोला कबे त पाँच परगट
आज तक पिये नइ हों
लुका चोरी घलो
एकात कप तिरे नइ हों ।

ये सब परोसी मन के
अनुभव बतात हों
दाहरा के मछरी के भोरहा मा
बाढ़ी खात हों ।

गरीब दास आधा पाव एती आव चिल्लात हे
धनीराम बोतल धरे अँटियात हे ।
अँटियाबे ते कतिक अँटियाबे
जमाय के बेर तो जोरियाबे ।

अऊ सोनइया करा
अलग बेवस्था कहाँ हे ?
एके प्लेट में खाबे ।
का केहे ? अभी तो मोर कर नइ हे
बता न यार तोला का चइए ।

अभी तोर करा नइ हे
त परोसी कब काम आही
तोला आधा चाही
त वो पूरा टेकाही

तेंहा चिंता काबर करथस यार
मोर भारत देस महान हे
दवई बर कही नी सकवँ
फेर दारू बर पूरा हिनदुस्तान हे ।

तोला जतका पीना हे
दिल खोल के पी
कभू मोरो नइ जमही
त तहूँ देख लेबे जी ।

हम सबला ल मिल-जुल के खाना हे
तुमन तो जानतेच हो यार
आज जोड़-तोड़ के जमाना हे ।

भट्ठी मा भाइचारा के
सुग्घर नजारा दिखत हे ।
का मंतरी, का संतरी
एके पलेट मा चिखत हे ।

भरे गिलास ल देखके
सबो के मुहूँ पनछावत हे
थोरको कम होत हे
त अपन-अपन ले टेकावत हे ।

नसा के ए दू बूंद हा
कतका आँखी ल मुंदही
परगती लहुलुहान होही
मानवता ला रऊँदही ।

पद, यउवन अऊ धन के नसा ले
देस कब उबरही
गाँधी बबा के सपना के भारत के
भेस कब सँवरही ।

पुष्कर सिंह ‘राज’

गाँधी ल बिजरावत हे ।...

एती ओती चारों कोती
भुँकरत मेछरावत हे
हमर गँवई के हरहा गोल्लर
किंजर-किंजर के खावत हे ।

जेखरे लउठी भँइस ओखरे
अइसन आज जमाना हे
भाई-भतिजावाद चलत हे
ग्राम-सुराज बहाना हे ।
पंचायती राज के कुरसी में बइठे
गाँधी ल बिजरावत हे ।...

पुष्कर सिंह ‘राज’

सागवाली

कहूँ ते कबे -
चाँद जइसे मुखड़े पे,
बिंदिया सितारा ।
त ओला तो नीं आय,
फिलमी पहाड़ा ॥

ओ तो बस-
खेखसी, बरबट्टी,
रमकलिया ला जानथे ।
इहीच ला अपन जिनगी के,
सब कुछ मानथे ॥

त कइसे कबे त बात बनही-
हेलन ला घलो हेमा कहिदे,
देख वो कइसे मुसकाही ।
ओखर रंगरूप के बने बरनन कर,
तोर बात बन जाही ॥

‘‘खेखसी कस आँखी हे तोर
बंगाला कस गाल ।
तरोई जइसे हाँत हावय
बरबट्टी कस लंबा बाल ।

सेमीनार कस ऊँचाई तोर
बोली मिरचा कस गोई ।
खीरा बीजा कस दाँत हावय
तोर खोपा रखिया लोई ।

लफरहा कोर के लुगरा में,
पोलिका फुग्गा बाहीं ।
ऊँचहा बानी के पनही देख,
श्रीदेवी घलो लजाही ।

कुंदरू कस तोर ओंठ मा लाली,
दरमी जइसे दमके ।
तोर खपसूरती देख अँखफुट्टा मनके,
पाँचों पसली चमके ।

कलिंदर चानी अस रूप राखके,
तँय बेचत हस भाजी ।
ये पसरा छोड़ मोर संग रहे बर,
हो जाना गोई राजी ।’’

असतिन के साँप

येती आरक्छन के आगी
वोती बेरोजगारी के ताव
बचाना हे देस ला, त
राँड़ अऊसाँड़ से बचाव ।
आटो स्पेसलिस्ट राघवन हे
तेलगी स्टाम्प घोटाला हे
बोफोर्स के बाते ल छोड़
बड़े-बड़े के मुहूँ काला हे ।
जन परतिनिधि हरे
फेर जनता के बात उठाय के
पइसा खात हे
अब तो एक ठन मुहिम लान देव ।
अइसन नेता ला
फॉंसी मा टॉंग देव ।
अऊ दुनिया ल बताव
हमर महतारी तरफ
आँखी जे उठाही
हिन्दुस्तानी उखर टेंटवा ला
अइसने दबाही ।
घर में खाय बर नहीं 
नेतागिरी के साध करत हे
गाँव बोहावत हे
रयपुर दिल्ली के बात करत हे ।
निरासरित पेनसन ला
सरपंच सचिव खात हे
पंचायत मंतरी परेवा उड़ात हे ।
अऊ काहत हे-
सान्ति चाहिए त हमर रद्दा मा आ
सबो तो खात हे यार
चुप्पे तहूँ खा ।
आम जनता ह मरत हे
सरकस के सेर हा कभू
रिंग मासटर ला चेचकारे हे ?
आज जिहाँ दंगा करात हे
काली उहाँ राहत पहुँचात हे
अइसे पसरे इँखर दुकान हे
बब्बर सेर के आगू मा कहूँ
मनखे के पहिचान हे ।
ये सब ल सोंच के लगथे
वोट देवई घलो जंजाल होगे
चुने तो रेहेन नेता दलाल होगे ।
का करन मजबूरी हे
वोटिंग तो घलो जरूरी हे
नीहीं ते आज गदहा के आगू में 
काँदी कोन डालथे
असतिन के साँप कोन पालथे ।...

सबो डहर घोटाला हे

भीतरी मा दारु बेचाय
बाहिर धरमसाला हे
काला-काला देखबे बाबू !
सबो डहर घोटाला हे ।...

मेहनत करइया भूख मरे
हरामखोर मन राज करे ।
जनता ल लूटइया मन के
गर मा लटकत माला हे ।...

काय अलकरहा बात होगे
लोकतंत्र अब मजाक होगे
काली तक के चोर डाँकू
आज हमर रखवाला हे ।...

हाबय पोचई फेर दिखथे रोंट्ठे
नाम बड़े हे दरसन छोटे
सच्चई के अयनक मा देखबे त
बड़े-बड़े के मुहूँ काला हे ।...

कागज मा योजना बनात हे
कागजेच मा योजना चलात हे
संतरी से लेके मंतरी तक
परसेंट के बोलबाला हे ।...

अजगर मन भोगावत हे

अजगर मन भोगावत हे 
छत्तीसगड़ के करमचारी
न संसारी न बरम्हचारी
बीच मझधार मा लटकत हे 

पक्का कोनों जनम के
कुकरमी होही
तभे ये कंस के राज में
भटकत हे ।

येला निकाल, वोला निकाल
निकलई-निकलई मा
करमचारी के पोटा सुखागे
झटका के बाते ल छोंड़
इँहा तो तनखा घलो नंदागे । 

जेखर आघू जर, न पीछू पीपर
अइसन करमचारी ल दंदरावत हे
कमइया मन लाँघन मरे
अजगर मन भोगावत हे ।

इँहा के बरदिहा
अड़बड़ जिपरहा
रहि-रहि के लार चुहत हे
दुहानू त दुहानू
ये तो बकठी ल घलो दुहत हे ।

त का होइस
एकेच बार तोय कतका निचोबे
एक दिन हमरो पारी आही
तब तँय मुड़ धर के रोबे ।

हमर सुनइय्या कोन हे

पी. डबलू. डी. के बोर्ड सनान हे
रोड ल देखबे त गिट्टी खदान हे ।
नाम हाइवे ! काम पयडगरी के करथे
डोकरा-ढाकरा के चलना मना हे
कल के मरइया आजे मरथे ।
छत्तीसग़ड़ के सीमा मा बोर्ड धँसाय हे
जाके पढ़ न यार साफ-साफ लिखाय हे-
सावधान !
आँखी ल उघार के आबे
ये छत्तीसग़ड़ के सड़क ए
येती कहाँ आवत हस
ये डहर तो नरक हे ।
सरकारी इसकुल के मासटर हा
अपन इसकुल के अउकात ला जानथे
तेखरे सेती त अपन लइका ला
सरसती सिसु मंदिर मा लानथे
एक ला मा एक ला मौसी
ये कइसन तरीका हे
साक्छरता चलाना हे
टीका लगाना हे
सब गुरजी के ठेका हे ?
बाँकी करमचारी तनखा सन झटका
गोंहगों ले धुनत हे
गुरजी बिचारा लइका पढ़ाके
छेरी-पठरु गिनत हे ।
लइकाच ला पढ़वाव
नइते छेरी-पठरू गिनवाव
दूनों कराहू त तो
सिक्छा के हाल बेहाल हे
कुछु कही दिही मासटर
त हो जही टरान्सफर
नेतागिरी तो घलो जी के जंजाल हे ।
सिक्छा बिभाग बर सरकार के
रही अइसने चाल हा
सरकारी इसकुल बचे नीहीं
लगीच जही ताला ।
सरकारी असपताल
मजबूरीच मा मरीज जाथे
त मरीच के आथे ।
काबर !
इहाँ बर आय दवई हा तो
मेडकल मा बेंचाथे ।
आरक्छन के डाकटर
काय इलाज करही
गोड़ ल देखाबे त
बाहाँ ल धरही ।
कोनों ल कुछु आते होही
त सरकारी असपताल मा
काबर दिमाग खपाही
अपन घर मा बलाके
पइसा नीं कमाही ।
हर तरफ हे भस्टाचारी
लबरा के राज मा
सच्चई मउन हे
बतावन त बतावन काला
इहाँ हमर सुनइय्या कोन हे ?

कबाड़ कस जवानी हे

बचपन टीना-टप्पर हे
कबाड़ कस जवानी हे
बीता भर पेट के
मूड़ भर कहानी हे ॥

बताव बँगला गाड़ी के
हमला का बानी हे ।
गाँधी के लँगोटी हे
हाँत भर के छानी हे ॥

उँखर बर छत्तीसगड़
खइ अऊखजानी हे ।
हमर जिहाँ रोजी-रोटी
उही राजधानी हे ॥

जरे हमर किसमत भइया
जरे जिनगानी हे ।
थारी मा उँखर दूद-भात
आँखी मा हमर पानी हे ॥

कोन कथे सुराज हे
सुघ्घर जिनगानी हे ।
पीरा के पहाड़ मा
भटकत परानी हे ॥


चुनाव-चालीसा

जगर-बगर देखत हे
मुसुर-मुसुर हाँसत हे
एकेच बार अऊ भइया रे
हाँत जोड़े काहत हे ।

सियान मन सहीं कथे-
घुरवा के दिन बहुरथे ।
चुनाव के समे का परगे
पुदगू के घलो भाव बढ़गे ।

पाँच साल ले तुम कूद-कूद कमाहू
हमला सुक्खा ठेंगवा देखाहू ।
हमूँ देखबो काखर करा जाहू
हमर मदद बिना कतका वोट पाहू ।

अतका सुनके नेता के जेब ले
रुपया अऊ बोतल निकलत हे
पुदगू के कतिक सइत्ता
देखके तुरत फिसलत हे ।

देखव आज के राजनीति
पइसा चुनाव जितावत हे
राजा पलत हे पाल्हर इहाँ
परजा मन सोंटावत हे ।

बिसमता के दिवाल उंडा के
कब गूँजही गाँधी के नारा-
‘रामराज सा प्यारा भइया
ग्राम सुराज हमारा ।’

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

माँ

लक्ष्मी का विवाह बहुत आलीशन ढंग से सपन्न हुआ था, जैसे ही दाऊ विश्राम सिंह के घर में पैर रखी तब खुशी का ठिकाना न था, लेकिन ‘लिखा करम में जो है विधाता मिटाने वाला कोई नहीं’ वाली बात लक्ष्मी के सिर पर आ गयी। जब दौलत आसमाँ तक पैर पसार लेता है, तब दो लत आ ही जाती है। किसी भी चीज की अधिकता चैन उड़ा ले जाता है। यही बात हुबहू दाऊ विश्राम सिंह के सामने जुबान तक हिला नहीं पाती थी। पहले तो पत्नी को पैर की जूती समझते थे। आज जब नारियों का आत्मबल जागा है, नारी शक्ति चहुँ ओर दिखाई देती है। 

पहले नारी को भोग्या समझी जाती थी। सहमी-सहमी लक्ष्मी साहस कर दाऊ विश्राम सिंह से बोली- आपका गाँव में खूब सम्मान है, सब आदर की दृष्टि से आपको देखते हैं, आपके वचनामृत के लिए लोग तरसते हैं, लेकिन कुछ दिनों से आपमें वह बात दिखाई नहीं देती है, मैं बड़ी जतन से भोजन तैयार कर आपकी बाट जोहती रहती हूँ, लेकिन आप थोड़ा सा भी मेरी ओर ख्याल नहीं रखते, सुनकर दाऊ आग बबूला हो गया- तुम्हारी ये हिम्मत कि मेरे सामने जुबान हिलाती है। मैं कुछ भी करूँ, क्या तेरे बाप-दादे की कमाई से ऐश करता हूँ? मेरे पूर्वजों की सम्पत्ति है, मैं कुछ भी करूँ, तुम्हें बोलने की जरूरत नहीं। बात-बात में बात बढ़ ही जाती है। लक्ष्मी की बात का असर प्रतिकूल होने लग गया। अब तो दाऊ विश्राम सिंह ठाकुर पूरी तरह बुरी लत के शिकार हो गये। 

कभी लड़खड़ाता हुआ चला आता। घर के सामनों को फेंक देता। लक्ष्मी परेशान हो गई थी। आखिर अपनी राम कहानी किसे सुनाती, सुनने पर लोग हँसने के सिवाय और क्या करते। लक्ष्मी और ठाकुर साहब के आपसी झगड़े से घर के अमन चैन उड़ गये, एकमात्र पुत्र होने के कारण माँ-बाप से कुछ कहते भी नहीं बनता था। माँ-बाप सयाने हो गये थे, उम्र की अधिकता शरीर को कमजोर बना दिया था, परंतु आज बुढ़ी माँ देवकी ने कहा- बहू को खोटी क्यों कहते हो, घर के कामों से लेकर हम लोगों का भी ख्याल रखती है। पिता दाऊ घनश्याम सिंह कुछ नहीं कहते थे। समय आने पर सब ठीक हो जायेगा, इस विचार के शांत गंभीर व्यक्ति थे। लक्ष्मी सगर्भा होते हुए भी गृहकाज में जुटी रहती थी। घर में पुन्नी नाम की एक काम करने वाली महिला आती थी। लक्ष्मी के व्यवहार से वह खूब प्रसन्न रहती। लक्ष्मी भी पुन्नी को खूब मानती थी। पुन्नी लक्ष्मी को समझाया करती थी, देख मालकिन धीरज में काम बनता है। समय एक समान नहीं रहता अच्छे दिन आते देर नहीं लगती। 

ठाकुर साहब कुछ कहें सुन लीजिए, ठाकुर सब कुछ ज्यादती में उतर आये एकदिन बेहोश घर में आकर तमतमा गये और लक्ष्मी के गाल पर दो तमाचा जड़ दिये। लक्ष्मी जोरों से चिल्लाकर रोयी अब देवकी से रहा नहीं गया, बोल पड़ी- बेवजह बेचारी को क्यों मार दिये। मैं तो मेरा अकेला बेटा सूरज की तरह है कहकर गर्व करती थी, लेकिन शर्म से आज मेरा सिर झुक गया, दुनिया के लोग क्या कहेंगे। घर को तमाशा बनाकर रख दिया। बिना कसूर हरकत करने लग गये हो। विश्राम सिंह अपनी माँ को बोला चुप रहो बूढ़ी कितने दिन तक साथ देगी, साँस के कुछ दिन रह गये है और शिक्षा देने चली। 

देवकी के अंतस में विश्राम सिंह के वचन काँटो की तरह चुभने लगे और हाय कहते-कहते काल कवलित हो गई। लक्ष्मी उदास रहने लगी एकमात्र लक्ष्मी के लिए सहारा पिता तुल्य ससुर थे। जो देवता-तुल्य थे। उनके समय में घर की मर्यादा और थी। लक्ष्मी का कुछ दिनों बाद एक संतान आ गयी, धूमधाम से नामकरण संस्कार संपन्न हुआ। लक्ष्मी को साहस आ गया। सन्तान के आने से लक्ष्मी को आधार मिला। दाऊ विश्राम सिंह समाजिक नियमानुसार सभी, कार्य सम्पन्न किये। लेकिन बुरी आदत से बाज नहीं आये। गाँव की एक महिला जो अपनी ससुराल को छोड़कर मायके में बैठी थी, उससे अनैतिक संबंध था दिन में विश्राम सिंह दोस्ती-यारी में गुजारता और रात उस महिला के घर में व्यतीत करता। 

एकदिन उस महिला को लेकर अपने घर ले आया। लक्ष्मी सिहर उठी, जुबान तक हिला नहीं सकी। अपनी बीती किससे कहती। बूढ़े दाऊ भी जान गये। पारिस्थिति प्रतिकूल जान चुप रह गये। एकदिन लक्ष्मी से रहा नहीं गया। लक्ष्मी तो परेशान रहती थी। अब दोनों ओर से ताने-बाने सुनते कान पक गये। अपने छोटे बच्चे कमल को लेकर अपनी मायके जाने को सोचती। बूढ़े दाऊ के चरण छूकर जब जाने लगी तब दाऊ ने कहा- मैं बेआधार हो जाऊँगा लक्ष्मी..! कुल में दाग लग जायेगा, हमारे खानदान में इस तरह कभी कोई घटना नहीं हुई है। दाऊ घनश्याम सिंह के कहने से लक्ष्मी रूक गई। 

कुछ दिनों बात दाऊ घनश्याम सिंह भी स्वर्गवास सिधार गये। अब लक्ष्मी अनाथ हो गई। एकमात्र सहारा भी छोड़ गये। रातदिन परेशान रहती। दाऊ विश्राम सिंह लक्ष्मी के हाथ को पकड़कर घर से बाहर कर दिया। कमल को लेकर अपने मायके पहुँची, तो पिता रामसिंह माता कुन्ती के दुख का पारावार न रहा। बेटी जब ससुराल से खुशी-खुशी आती है, तब आनंद का ठिकाना नहीं रहता, लेकिन जब पीहर से अपमानित होकर मैहर आती है तब माँ बाप पर बज्र का पहाड़ गिर जाता है, लेकिन नारी का दो ही ठिकाना होता है ‘ससुरे और माइके’ माइके में रहकर कमल को पढ़ाने-लिखाने लग गई यहाँ तक की मजदूरी करके जीवन निर्वाह करने लगी। कमल देखते-देखते बड़ा हो गया। वह अपनी माँ को सब कुछ मानने लग गया, अपनी माँ लक्ष्मी को दो रूपों में देखता पिता को वह जानता ही न था। कमल पढ़-लिखकर जवान हो गया। बी.एस.सी. तक की शिक्षा प्राप्त कर विद्यालय में शिक्षक हो गया, कहा जाता है माँ प्रथम गुरू होती है तो बेटा महान बन जाता है, भारत की संस्कृति में अनेक इस तरह कथायें है। कमल पर अच्छा संस्कार पड़ गया। 

शासकीय सेवा में लगने के कारण अनेक रिश्ते आने लगे। पास के ही श्यामपुर गाँव के दाऊ फूलसिंह की सुकुमारी कन्या उषा के साथ कमल का रिश्ता तय हो गया। विवाह की तैयारी प्रारंभ हो गई। लक्ष्मी की माँग में सिंदूर, हाथ में चूड़ियाँ देखते ही बनता था, सिर से कभी आँचल छूटता न था। पति से अलग रहकर भी सती की तरह जीवन-यापन करती थी। 

विवाह का समय नजदीक आते गया लक्ष्मी के आँसू बरबरस छलक पड़ते थे, जैसे आपदा से घिरी हो, बिस्तर पर जाने से पहले सोचती पिता के होते हुए भी आज कमल बिन पिता का हो रहा हैं। मैं अपने कर्तव्य से कैसे वंचित होऊँ, दुनिया के लोग क्या कहेंगे। लोकलाज तथा सामाजिक भय के कारण लक्ष्मी नारायणपुर अपने पति के पास संदेश भिजवाती है। दाऊ विश्राम सिंह जब से लक्ष्मी को अलग किया है तब से लाचार हो गया था। चेहरे में झुरियाँ तथा मुरझाया चेहरा और शरीर दुर्बल हो गया था। घर में उसकी रखैल चम्पा बहुत कर्कश थी रात की नींद और दिन को चैन महिनों उड़ गया था, जैसे ही कमल के विवाह का संदेश पाया, दाऊ विश्राम सिंह के हृदय में पिता का प्यार उमड़ पड़ा। वह कमल और लक्ष्मी को देखने व्याकुल हो रहा था। रास्ते भर सोचते विचारते जैसे ही लक्ष्मी की कुटिया के पास पहुँचा, पुकारा- लक्ष्मी..! दरवाजा खोलो। सचमुच कहा गया है दुख में साथ देने वाली धर्मपत्नी ही है। जैसे ही लक्ष्मी दरवाजा दाऊ विश्राम सिंह की दीनता पर आँसू छलक पड़े। दाऊ विश्राम सिंह कहने लगा। लक्ष्मी मुझे क्षमा करो, जवानी और दौलत के मद में मैं तुम्हें छोड़ दिया था। लक्ष्मी बोली सुबह का भूला यदि शाम को घर लौट आये तो सब क्षम्य होता है। 

लक्ष्मी और दाऊ विश्राम सिंह की बातें सुनकर कमल ने कहा- माँ..! ये बताओ ये कौन हैं, कैसे आये हैं? लक्ष्मी बोली- बेटा..! यही तुम्हारे पिता हैं। सब कुछ बताने पर कमल बोला माँ मेरे तो सब कुछ आप हैं, आपके आँचल की छाया ने मुझे जीवन दिया है, मैं माँ के कर्ज से उऋण नहीं हो सकता। ये तो सब ठीक है लेकिन पिता का गौरव होने का भी तुम्हें सौभाग्य मिल गया। अपना कर्तव्य का निर्वहन कराना पुत्र का धर्म है। मुझसे भी अधिक सम्मान पिता को दोगे। कमल माता-पिता का आर्शीवाद पाकर परिणय-बंधन में बंध गया। उषा वधू बनकर लक्ष्मी के घर आ गयी, तब विश्राम सिंह बोला- बेटा..! अब अपनी माँ और बहू को लेकर अपने घर चलो। दाऊ विश्राम सिंह अपने परिवार को लेकर जैसे ही हवेली पहुँचा, चम्पा रुपये पैसे को लेकर फरार हो गई थी। विश्राम सिंह पश्चाताप करते रहा, तमाम बुरी आदत को छोड़ अभिमान चकनाचूर हो गया। हवेली के शानो-शौकत फिर लौट आयी और स्वर्ग सा लगने लगा। सभी आनंदित होकर जीवन व्यतीत करने लगे। 

आँसू

ग़म के आँसू और खुशी के आँसू हर व्यक्ति के जीवन में आता है। ग़म को भुलाना और खुशियों में मुस्कुराना प्रकृति की अद्भूत कृति है। इससे आज तक कोई नहीं बच पाया है, तो भला किशन कैसे बच सकता था। उनके जीवन में भी काफी उतार-चढ़ाव आये। उसके विवाह हुए दो वर्ष हुए थे उनकी पत्नी श्यामा सगर्भा हुई, शिशु वात्सल्य नर्सिंग होम में डिलेव्हरी के लिये खुशी-खुशी श्यामा को किशन ले गया।

कुछ घंटों प्रतिक्षा के बाद श्याम ने बिटिया जन्म दी। किशन झूम उठा, मेरे आँगन में किलकारी गूँजेगी, अनगिनत सपने संजोने लगा, एकाएक नर्स किशन को कहती है- भाई साहब..! अपनी देवी की हालत का भी ख्याल करें, इतने में दूसरी परिचारिका आकर कहती है- भाई साहब..! बेटी तो पा गये आप, अपनी पत्नी खो गये। किशन के होश उड़ गये, चक्कर खाकर फर्श पर गिर पड़ा, मरीजों के देखभाल में आये हुये सज्जनों ने किशन के मुसीबत के सहभागी बनकर धीरज बँधाया। पूर्व में ही किशन लाल ने अपनी बिटिया का नाम श्वेता सोच लिया था।

जैसे ही श्यामपुर गाँव में अपनी पत्नी की निर्जीव काया और बच्ची को लेकर आया गाँव में भूचाल आ गया, बहुत बड़ी भीड़ उसके घर के चारों ओर दिखाई देने लगे, कुछ लोगों ने माथे पर हाथ धर दिये तो कुछ लोग किशन लाल को धीरज बँधाने लगे और बोले बच्ची का ख्याल कीजिये, दूर के रिश्तेदार भी आ गये। दाह-संस्कार किया गया, तत्पश्चात लोग अपने-अपने घर वापिस लौट गये।

घर का कोना कोना साँय-साँय लगता था। श्यामा की तश्‍वीर को देखकर किशन लाल के आँख से आँसू झर-झर झरने लगे। अपनी बिटिया श्वेता को बाँहो में रखकर सोचा यह भी क्या जीवन है कि मेरी लाडली का अब क्या होगा, एक ओर स्कूल की सेवा, दूसरी ओर श्वेता का लालन- पालन, कुछ बड़े सुलझे लोगों ने कहा- किशन लाल जी..! आपको गृहस्थी बसाना ही पड़ेगा, आज के जमाने में सहयोग की भावना ही कहाँ रह गई है कि ‘स्वारथ लाग करें सब प्रीति’ वाली बात दिखाई देने लगा है। किशन लाल के पास सबकी बातों को सुनने के आलावा रह क्या गया था, मन ही मन सोचता भगवान की भी अजीब दास्तान है। समय बीतते गया, श्वेता स्कूल जाने के लायक हो गयी, पड़ोसन सुखिया सेवा सुश्रुवा करके अपने घर की राह नाप लेती थी।

देखते ही देखते श्वेता कुछ होश संभाली और पापा सबकी मम्मी है और मेरी मम्मी कहाँ है, इतना सुनते ही किशन सजल हो जाता। बिटिया तुम्हारी मम्मी भगवान के घर चली गई है। कब लौटेगी? किशन ने कहा कुछ दिनों बाद लौट आयेगी। श्वेता पहली कक्षा में पढ़ने लगी। तब मेम ‘माँ’ पर एक कहानी कहने लगी, श्वेता बहुत ध्यान से कहानी सुनकर अपनी भींगी आँसूओं को हाथ से पोंछने लगी, तब मेम दास ने कहा- श्वेता..! आज तुम्हारी आँखें गिली है क्या बात है बेटा बोलो तो सही? मेम मेरी मम्मी भगवान के घर से अब तक नहीं लौटी है। मेम को समझते देर नहीं लगी, श्वेता को लेकर मेडम दास आयी और बोली- किशन लाल जी..! अब श्वेता समझदार हो रही है भुलावा देना ठीक नहीं, वास्तविकता को कब तक छिपाते रहेंगे? किशन लाल जी के पास मौन होने के सिवा कुछ शेष नहीं रह गया था। आँखें नम, हाथ जुड़े स्थिति देखकर श्वेता स्तब्ध रह गई, श्वेता बोली- पापा..! मम्मी नहीं लौटेगी? किशन ने कहा। बेटा..! नहीं लौटेगी। एक बार श्वेता चित्कार उठी और सिर पकड़कर बैठ गई और अपनी मम्मी की तस्वीर को एक टक निहारती खड़ी रह गई। किशन लाल श्वेता को पुचकारते दुलारते कहा- बेटी..! विधि के विधान के आगे नतमस्तक होना पड़ता है, तुम खूब पढ़ो और माँ का नाम रोशन करो, तू तो मेरी रोशनी है, यह जीवन अब तेरे लिये समर्पित है।

कुछ बरस बाद जब श्वेता यौवन की दहलीज पर कदम रखी, तब किशन लाल के चेहरे में चिंता की रेखायें उभर आयीं और इससे उबर पाना मुश्किल जान पड़ा, तब अपने ही कलेजे के टुकड़े से क्या छिपाना, हिम्मत जुटाते किशन लाल ने कहा बेटी बिटिया परायी धन होती है और फर्ज़ पूरा करना मेरा धर्म है। श्वेता की समझ में बात आ गई और बोली- पापा..! चाहे जो भी हो, अकेले आपको नहीं छोड़ सकती। मझधार में हो तो उसका निदान आवश्यक है कहकर श्वेता ने कहा मुझे बिदा करने के पहले आपके लिये घर बसाना उचित है, नहीं तो बेअधर हो जायेंगे, अकेलापन शरीर को दुर्बल और मन को कमजोर बना देता है।

गाँव में ही सजातीय परित्यक्ता सुशीला कन्हैया लाल की सज्ञान बिटिया किसी की सहारा के लिये बाट जोहती गुजर-बसर कर रही है। मैं प्रयास करती हूँ और सुशीला के विचारों से अवगत होकर आपको पापा मैं खबर करती हूँ। किसी का घर-संसार बसाना पुण्य है। किसी परित्यक्ता को अपना कर उसके जीवन की बगिया में जल सिंचन करने से बढ़कर और क्या पूजा हो सकती है।

किशन लाल अपनी बिटिया की सयानी बात सुनकर हतप्रभ हो गया और सोचने लगा श्वेता इतनी समझदार हो गई है लेकिन ‘सौतेली’ शब्द उनके जेहन को बेचैन कर दिया, यह कईयों के जीवन को बरबाद करने वाली बात है। श्वेता ने कहा- पापा..! पुरानी घिसी-पिटी बातों को लेकर चलने से दकियानुसी विचार मन में आते हैं, नये विचार, सकारात्मक सोच से जीवन दीर्घायु होता है। पापा मेरी बात मान जाइये, सुशीला मान गई है उनके परिवार को स्वीकार कर, ले आया। सुशीला श्वेता को खूब प्यार करने लगी, ऐसा लगता कि भगवान श्वेता की माँ को लौटा दिया है। किशन का उजड़ा घर बस गया। घर में खुशिहाली लौट आया।

श्वेता जैसे ही इक्कीस बरस की हुई, सुंदरता अपना पहचान बनाने चली। अनेक रिश्ते आये, अंत में हिमाँशु नाम के अच्छे लड़के के साथ श्वेता परिणय बंधन में बंध गई। श्वेता के पापा किशन लाल और मम्मी सुशीला हँसते-हँसते श्वेता को बिदा किये, लेकिन किशन लाल फिर एक बार दुख रूपी सरिता में डूबा सा नजर आने लगा, बड़ी जतन से पाला, पोसा आज मेरी दहलीज को छोड़ किसी दूसरे आँगन में शोभायमान होगी और अपने सद्व्यवहार से सबको खुशियाँ प्रदान करेगी। इस तरह विचार करते आँखों में किशन लाल के आँसू छलक आये। सुशीला किशन लाल को भावविभोर देखकर व्याकुलता के साथ बोली- श्वेता ने हम दोनों के आँसू पोंछकर हमारा नया संसार बसाकर अपनी नयी जिंदगी प्रारंभ करने जा रही है, हम श्वेता को अपनी ओर से कभी पीड़ा नहीं देंगे, बल्कि उसकी आँखों में खुशियाँ ही देखें ऐसा जीवन व्यतीत करेंगे और समाज को हम अपने सद्‌व्यवहार का परिचय देकर एक सीख देंगे कि ‘जिंदगी में तूफान आते हैं लेकिन इससे हार नहीं मानना चाहिए’।

रामदास


हाथ में छीनी, हथौड़ा, घन काँधे पर लटकाये, नगर के गलियों में घूमता रामदास- ‘राम का नाम लेकर जो मर जायेंगे, अमर नाम दुनिया में कर जायेंगे’ गाता हुआ सबसे राम-रमव्वल करता काम के खोज में घुमता था। रामदास की आवाज को सुनकर लोग अपने चौखट से निकलकर पूछते- कहो रामदास..! कहाँ काम चल रहा है? रामदास कहता- भैय्या..! काम इतने हैं कि राम की कृपा से फुर्सद नहीं है। श्यामलाल मास्टरजी सेवानिवृत्त हो चुके थे। 

सेवा में रहते बेचारा मकान बनाने की बात सोच नहीं सकता था, जैसे ही रिटायर्ड हुआ रामदास से पूछा- रामदास..! अटैच लेटबाथ बनाने का सोच रहा हूँ, क्या उसके लिए जमीन की खुदाई कर दोगे, मशीन लौट गया लेकिन खुदाई नहीं कर सका? रामदास ने कहा- मास्टर जी..! आप जैसे सज्जन इंसान के घर काम करने का मजा कुछ और ही है, सप्ताह भर में खुदाई करके रामदास मास्टरजी के चरण छूकर विदा होने लगा। तब मास्टरजी हजार रुपये देकर कहा- रामदास..! सुख-दुख में भी मेरा खयाल रखना, क्योंकि मेरे दोनों बेटे रतन और कमल बाहर सर्विस में है। मैं और तुम्हारी माँ (मास्टर की पत्नी) दोनों ही घर पर रहते हैं और देवीजी को हाथ जलाना पड़ता है। ठीक है मास्टरजी..! दुनिया से आदमी जब जब विदा होता है तो खाली हाथ जाता है, रहते तक मेरा है फिर क्या रखा है, जो कुछ रहता है तो व्यवहार को लोग याद करते हैं। ऐसा कहकर रुपये लेकर चला गया और जाकर अपनी पत्नी सुमित्रा को हजार रुपये दिया। सुमित्रा उछल पड़ी चूँकि हजार रुपये के नोट को पहली बार देखी थी। बड़े जतन से पेटी पर रख दी। 

नगर के ही दाऊ किशन लाल, रामदास के घर पहुँचा और पुकारने लगा, रामदास आवाज सुनकर निकला और चरण छुकर- मेरे गरीब की कुटिया में दाऊजी आ गये, खुशी का ठिकाना न रहा। हाथ जोड़कर रामदास ने पूछ- दाऊजी ..! कहिये, क्या सेवा करूँ? दाऊ किशनलाल ने कहा- सुना हूँ मामूली मास्टरजी के घर लेटबाथ बन गया, जो मेरी हवेली में नहीं है, चल अभी..! जल्दी खुदाई कर ताकि जल्दी मैं भी लेटबाथ तैयार कर सकूँ। रामदास- हाँ दाऊजी..! बस यही काम है। सप्ताह भर में दाऊजी की घर की खुदाई हुई। पाँच सौ रुपये देकर दाऊ किशन लाल, रामदास को बिदा किया। घर में पहुँचकर अपनी पत्नी को जब दाऊजी के दिए हुए रुपये को दिया तब सुमित्रा आग बबूला हो गया और बोली- ‘नाम बड़े दर्शन छोटे’ रामपुर के दाऊ किशनलाल और पाँच सौ रुपये दिये। रामदास बोला- सुमित्रा..! ज्यादा चटोरी मत बन, दीवार के भी कान होते हैं। भगवान की कृपा से कहीं और मिल जायेगा। कुछ दिनों बाद सुमित्रा खाट पकड़ ली। 

नजदीक के सरकारी अस्पताल में रामदास अपनी पत्नी को दिखाया, डॉक्टर साहब किसी बड़े अस्पताल के लिए रिफर कर दिये। रामदास माथे पर हाथ धर लिया। आगे बड़े डॉक्टर को दिखाने में काफी रुपये लगेंगे। चिंता में पड़ गया पर हाथ पर हाथ धरे रहने से कुछ नहीं होता, चलूँ दाऊजी के हवेली में दाऊ जी को दया आ जाय, जैसे ही रामदास दाऊजी के दौलतखाने में पहुँचा। दाऊजी- रामदास..! कैसे आना हुआ? रामदास- दाऊ जी..! मेरी पत्नी बीमार पड़ गई है, बड़े डॉक्टर को दिखाने सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ने कहा है, कृपया करके दया कीजिये और पन्द्रह हजार रुपये मुझे देने की कृपा करेंगे, मैं मेहनत मजदूरी करके रुपये चुका दूँगा। भौंहे टेढ़ी करते हुए दाऊ किशन लाल बोले- दो दिन हुए मेरे बेटे व्यापार के लिए रुपये ले गये हैं, नहीं तो तुम्हारे लिए थोड़े कोई बात थी, ऐसा कहते हाथ पोंछ लिया। 

रामदास विचार करने लगा दाऊ जी की तो ये हाल है तो मेरा क्या हाल होगा? फिर भी मन को धीरज बँधाते श्यामलाल मास्टरजी के घर गया, श्यामलाल जी बड़े दयालु थे। रामदास का लटका हुआ चेहरा देखकर पूछा- कहो रामदास..! राम का दास क्यों है उदास...कारण तो बताओ सही मेरे पास? रामदास बोला- मास्टर जी..! सुमित्रा कुछ दिनों से बीमार है, उसे कोई बड़े अस्पताल ले जाना जरुरी है। हाथ खाली हो गये हैं, सप्ताह भर से काम धँधे बंद है। मुझे पन्द्रह हजार रुपये की आवश्यकता है। श्याम- लाल जी ने कहा- रामदास..! मुसीबत में जो साथ दे वही तो इन्सान है, मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है। इतना कहकर मास्टर जी ने पन्द्रह हजार रुपये रामदास के हाथों में दिए। रामदास सजल होकर मास्टर जी के पैरों तले गिर पड़ा और बोला- धन्य है मास्टर जी..! मेरे लिए आप साक्षात देवता हैं। मैं जल्दी रुपये लौटा दूँगा। 

रामदास घर गया और सब बात अपनी पत्नी सुमित्रा से कहा। सुमित्रा बोली- हम लोग मास्टरजी के जन्म-जन्मान्तर ऋणी रहेंगे। रामदास अपनी पत्नी का ईलाज कराकर मास्टरजी के घर गया और रुपये लौटाने लगा। मास्टर जी ने कहा- रामदास मुझे रुपये नहीं चाहिए, एक ही बात कह रहा हूँ, हम दोनों का शरीर अब पुराना हो गया है। धर्मपुत्र बनकर तुम दोनों हमारे घर में ही रहकर हमारी देख-रेख करो। मेरे दोनों बेटे परदेश में रहते परदेशी हो गये हैं। रामदास और उसकी पत्नी सुमित्रा, मास्टरजी और उनकी पत्नी की सेवा में जुट गये। रामदास और सुमित्रा मास्टरजी के बहू-बेटे की भाँति सेवा करने लगे। रामपुर के लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते धन्य है मास्टरजी, धन्य है रामदास। 

दीपावली अवकाश में जब मास्टरजी के दोनों बेटे अपने परिवार सहित घर पहुँचे तब रामदास और सुमित्रा को देखकर अपने पिता से आश्चर्यचकित होकर पूछे- पिताजी..! ये कौन है? तब मास्टर जी ने कहा- ये मेरे धर्म के बहु और बेटे है। तुम दोनों अपने-अपने ठिकाने में ही रहो मेरे सुख-दुख में रामदास और सुमित्रा है। कभी-कभी सुधी ले लिया करो। अब मैं और तुम्हारी माँ सुखपूर्वक दिन गुजार रहें है। श्वाँसा का क्या ठिकाना।


मर्यादा


पंडित कन्हैया लाल जी अपने गाँव नंदनपुर के साथ ही साथ पूरे इलाके के बड़े प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य के साथ ही प्रवचनकर्ता थे। उनके प्रवचन सुनने लोगों की अपार भीड़ देखते ही बनती थी। पंडित जी का व्यक्तित्व देखते ही बनता था। साथ ही उनका लिबास भी आकर्षक रहता था। परमसुख की धोती कोसा का कुरता, चमकता हुआ गले में दुपट्टा काफी आकर्षक लगता था। घोड़े की सवारी करते थे, बाजार-हाट, मण्डाई में जब पहुँचते तो उसके चरण छूने लोग दौड़ पड़ते थे जिसके घर में पंडित जी पहुँचे गये तो समझो उनके घरों में चार-चाँद लग गये। 

कुछ इस तरह उनको शोहरत ईश्वर की ओर से मिला था जो पण्डित जी के नजरों में आ जाते निहाल हो जाते थे। धन से पण्डित जी आबाद थे लेकिन कह गया है कि- ‘भगवान कहीं न कहीं कुछ न कुछ कमी कर देते हैं’ उनके आँगन में बच्चों की किलकारी का अभाव था। बड़ी पत्नी से कोई संतान न था। लाख उपवास, व्रत, मनौती के बाद भी तकदीर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। गाँव के बड़े-बूढ़ों ने कहा- महराज..! आपकी बड़ी हवेली है और हवेली बिन दीपक के अंधियारा उचित नहीं है, अच्छा होता इसके लिए क्यों न दूसरी देवी ले आते। पण्डित जी गाँव के सियानों की बात मान कर चम्पा नाम की सीधी गंभीर स्वभाव वाली कन्या ब्याह कर ले आये। 

पण्डित जी की बड़ी पत्नी उमा सुशीला थी। काफी देवी-देवताओं को मानने वाली थी। भजन, पूजन में अधिकांश समय व्यतीत होता था। विपरीत परिस्थितियों में भी मुस्कुराना उसकी स्वभाव की पहचान थी। कुछ कालोपरांत भगवत कृपा से दोनों पण्डिताइन सगर्भा हो गई। दोनों की गोद में बड़ा प्यारा दुलारा आ गया। पण्डित जी नौ-निहाल हो गये, एक की कामना थी भगवान की ओर से दो पूत-सपूत निकले। विद्याधन के साथ ही वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने लगे। युवा दहलीज पर कदम रखते ही दोनों पण्डित जी के लाल उँची शिक्षा प्राप्त करने अन्यत्र नगर चले गये। सही उम्र में पहुँचने पर दोनों का विवाह रमा और उषा के साथ सम्पन्न हो गया। बड़ा पुत्र सुधीर, छोटा पुत्र सुनील दोनों मित्रवत रहते थे, दोनों के बीच बलदाऊ और कृष्ण के समान मित्रता थी। ऊँची शिक्षा प्राप्ति के बाद दोनों को नौकरी मिल गई बड़ा सुधीर लड़का सुधीर शिक्षक हो गया और दूसरा लड़का सुनील अभियंता हो गया। एकदिन सुनील अपने अग्रज सुधीर से बोला- भैया..! एक बात कहूँ आप अपने बहू को आशीर्वाद दे दीजिए ताकि भगवान हम दोनों को सही सलामत रखे। सुधीर ने कहा- सुनील..! तुम्हारा भाग्य बड़ा प्रबल है, तुम अभियंता हो और तुम्हारी देवी भी पढ़ी लिखी और सुन्दर भी है। मैं कहाँ प्राथमिक शाला का शिक्षक और तुम्हारी भाभी भोली-भाली है, लेकिन मुझे इस बात का गर्व रहता है कि मेरा अनुज मेरा खूब आदर करता है और अपने भाभी को भाभी माँ कहकर सम्मान देता है। सच कहूँ सुनील मेरा छाती फूल जाता है। 

एकदिन पण्डित जी बोले- सुनील..! तुम अपने परिवार के साथ रहो, क्योंकि तुम्हारी नौकरी काफी परेशानी की नौकरी है। हाथ जलाना ठीक नहीं। सुधीर की मामूली नौकरी है घर पर रह कर मेरे काम में हाथ बँटायेगा और हम लोगों की सेवा करेगा। पण्डित जी के नेक सलाह से सुनील खुश हो गया अंधा चाहे दो आँख वाली बात हो गयी और अपनी पत्नी उषा के साथ सर्विस करने नागपुर चला गया। पण्डित जी के जीवन में बाँछे खिल गई। अखबार के पन्नों में उनका नाम सुर्खियों में आने लग गया। खुशी के दिन जल्दी बीत जाती है। कुछ दिनों बाद सुनील पिता बनने का स्वप्न देखने लगा। सुनील की पत्नी सगर्भा हो गई। एकाएक दर्द से व्याकुल होकर सुनील की पत्नी चिखने लगी। 

समीप के हॉस्पिटल में सुनील उषा को चेक कराने ले गया लेकिन कुछ भी राहत नहीं मिलने पर डॉक्टर बड़े हॉस्पिटल के लिए रिफर कर दिये। बड़े हॉस्पिटल के डॉक्टर ने कहा- मामला बड़ा रिस्की है फिर भी हम प्रयास करते हैं। सजल नेत्रों से अपने अग्रज सुधीर के पास पत्र भेजा। भैया आप जल्दी आ जावो। पत्र पाकर सुधीर जल्दी ही सुनील से मिलने गया। सुनील ने कहा- भैया..! जब आपकी बहू पहली बार अपने मायके से हमारे घर आयी थी तब आप पहली बार देखे थे। आज बेड पर पड़ी असहाय हो गई है, डॉक्टर ने जवाब दे दिया है। चलिए आप अंतिम क्षणों में देख लीजिए। जैसे ही आपात कक्ष में सुनील की पत्नी को देखने गया मरनासन्न स्थिति में राम-राम रट लगा रही थी जब सुधीर को देखा तो मेरे जेठ मेरे देवता हैं, भाव व्यक्त हुआ सुधीर फफककर रो पड़ा और सुनील को गले लगा कर भाई रे..! बहू को जब मैं पहली बार देखा था तब लक्ष्मी की तरह दमक रही थी आज अंतिम समय में भी मर्यादा का ख्याल रखकर देवी के रूप में परिलक्षित हो रही है। दोनों भाई लिपटकर रोने लगे। सुधीर ने कहा- भाई..! धीरज रखो सुहागिन होकर संसार से बिदा होना सौभाग्य की बात है और जीवन में जो मर्यादा का ख्याल रखते हैं और नारी जीवन पाने के यथार्थ को जो समझते हैं वही नारी सीता, सावित्री, अनुसुइया होती है। पतिव्रता धर्म ही नारी का आभूषण है इसका सदा ख्याल हमारे परिवार में हमारी बहूरानी ने रखा। कुछ देर बाद हॉस्पिटल के वार्ड ब्वाय ने खबर किया कि आप लोग कमरा नं. १४ से डेड बॉडी ले जायें। 

सुनील पर पहाड़ टूट गया उषा के पार्थिव शरीर को नंदपुर गाँव लाया गया। उसकी मातम-पुरसी में हजारों लोग पहुँचे थे। क्षण भर में चिता जलकर राख हो गया। अश्रुपुरित सजल नेत्रों से लोगों ने विदा किया। श्रद्धासुमन अर्पित किये जब सुनील घर पहुँचा माथे पर हाथ रख कर रो रहा था। तब सुधीर ने कहा- मेरे भाई..! यह संसार है संसार में सुख-दुख लगा रहता है। एक बात कहूँ... बहू की मर्यादा का पालन घर में सबको करना चाहिए। बहू आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन दीवार पर जो उसकी तस्वीर टंगी हुई है। देख उसमें मुस्कान है लेकिन मर्यादा सहित दिखाई दे रही है। मर्यादा ही जीवन का श्रृंगार है मर्यादामय जीवन जीते हुए संसार में पहचान बनाकर हमारी बहू दुनियाँ से चली गई लेकिन तुम अकेले नहीं हो, उसकी मर्यादा तुम्हारे साथ है। हम सब तुम्हारे सुख-दुख के सदैव भागी रहेंगे। ऐसा कहकर सुधीर भाई के सजल नेत्रों को अपने रूमाल से पोंछने लगा और हृदय से सुनील को लिपटा लिया।


गरीब की कुटिया

श्यामा घास-फूस से बनी झोपड़ी में रहती थी। वह भूल नहीं सकती वह दिन जब मोहन के पिताजी जीवित थे, अब वैधव्य ने उसे बड़ी तंगी के दिन दिये थे। मोहन छोटा था तभी उसके पिताजी चल बसे, उनके जाने के बाद तो मेहनत मजदूरी ही उसका सहारा था। कभी वह किसी के घर बर्तन माँजती, तो कभी खेतों में काम करने जाती। 

मोहन ५ साल का हुआ तो उसे उसकी पढ़ाई और स्कूल जाने की चिंता सताने लगी। कभी वह अन्य बच्चों को यूनिफार्म में स्कूल जाते देखती तो उसकी उत्कृष्ट अभिलाषा और बढ़ जाती। आर्थिक तंगी को बर्दाश्त करनेवाली श्यामा सोचती- वह कहाँ से लाये बेटे के लिए यूनिफार्म, पुस्तकें कापियाँ। क्या अपने बेटे को वह निरक्षर रख देगी? सवाल उसके जेहन में कौंध-कौंध उठता। 

ऐसा कभी नहीं होगा, वह स्वयं समाधान कर लेती। चाहे कर्ज करना पड़े पर बेटे को पढ़ायेगी जरुर। वह दृढ़ संकल्पित थी। क्यों न हो, जो अतीत में उसने भोगा पर्याप्त न था ? 

सहसा श्यामा उठी और दौड़ी-दौड़ी पहुँच गई गाँव के साहूकार रामलाल के पास जाकर बोली- सेठ जी..! बच्चे को पढ़ाना है, स्कूल में दाखिल करना है कृपया १०० रुपये की मदद कर देंगे..! याचना भरे शब्दों में वह बोली। रामलाल के चेहरे पर कुटिल मुस्कान उभर आई, बोला- पैसे तो दूँगा पर सूद लगेगा और समय पर चुका देना। श्यामा तो पाई-पाई चुकाने को तैयार थी। रामलाल ने पैसे दिये। पैसे पाकर उसमें गजब की शक्ति आ गई। बाजार पहुँची, मोहन के लिए स्कूल के कपड़े, प्रारंभिक कक्षा की पुस्तकें एवं कापियाँ खरीदी। मोहन को स्कूल ले गई और नाम लिखवा दिये। 

मोहन नित्य स्कूल जाने के लिए निकलता तो श्यामा मन ही मन बड़ी प्रसन्न होती। मोहन स्कूल से लौटता, सबक बनाता गुरुजनों को दिखाकर वाहवाही लूटता। कक्षा शिक्षक व प्रधानाध्यापक उसकी होशियारी पर गर्व करते। दिन बीतते जा रहे थे। प्रत्येक वर्ष मोहन सर्वश्रेष्ठ अंक पाकर उत्तीर्ण होता। स्कूल मित्र, पड़ोसी व ग्राम्यजन उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। उधर मेहनत-मजदूरी करके श्यामा ने रामलाल का हर कर्जा अदा कर दिये और जब कक्षा १२वीं का परीक्षा परिणाम निकला, मोहन दौड़ता हुआ घर आया, माँ के चरण छुआ, परिणाम सुनकर श्यामा के खुशी के आँसू टपक पड़े। मोहन प्रावीण्य सूची में प्रथम स्थान पर था। 

प्रथम सोपान पूरा हुआ था। अब दूसरा सोपान कैसे पूरा हो- श्यामा सोचती। उच्च शिक्षा के लिए पैसों की जरुरत थी। अकस्मात प्रबंध संभव ना था। श्यामा ने एक कठोर निर्णय लिया, अपनी कुटिया को गिरवी रखने का। येन-केन-प्रकारेण वह अपने बच्चे को उच्च शिक्षा प्रदान कराना चाहती थी। श्यामा पुनः गई रामलाल से अनुरोध करने। रामलाल चबुतरे पर बैठकर उँगलियों से कुछ गिन रहा था, तभी श्यामा वहाँ पहुँची। रामलाल की आँखों में चमक आ गई। श्यामा ने आने का आशय बताया और कहा- मैं अपनी कुटिया गिरवी रखती हूँ पर आप बच्चे के पढ़ाई होते तक पैसा पूर्ति करेंगे। रामलाल की बाँछे खिल गई, अगर ये बुढ़िया कुटिया ना छुड़ा सकी तब उसकी संपत्ति मेरी हो जायेगी। बिना ना नुकुर के उसने पैसे देना प्रारंभ कर दिये। 

वक्त बीतते देर कहाँ लगती है, वह दिन भी आ गया जब मोहन की पढ़ाई पूरी हो गई। स्नातकोत्तर परीक्षा में भी उसने प्रावीण्य स्थान प्राप्त किया। अखबार के मुखपृष्ठ पर नाम प्रकाशित हुआ। श्यामा की खुशी का पारावार ना रहा। उसका सपना जो साकार हो रहा था। एकदिन मोहन के एक मित्र ने आकर सूचना दी- मौसीजी..! प्रावीण्य सूची होने के कारण मोहन तुरन्त एक बैंक का अधिकारी बन गया है। श्यामा इसी दिन का बाट जोह रही थी। मोहन के मित्र ने जैसे ही यह खुशी की बात बताई, उसने मिठाई का एक टुकड़ा उसके मुँह में ठूस दिया । काम से निवृत्त होकर वह मिठाई का पैकेट लेकर रामलाल के घर की ओर चल पड़ी। पहुँचते ही बेटे के कॉलेज में उत्तीर्ण होने व बैंक अधिकारी बन जाने का समाचार सेठ को सुनाई। रामलाल पर मानों गाज गिर गया... कहाँ उसने सोचा था गरीबों की कुटिया हथियाने की बात, उल्टा हो गया... यह सोच वह फुसफुसाने लगा- राम-राम, राम-राम। श्यामा उलझन में फँस गई, उसकी खुशी में खुशी व्यक्त करने के बजाय सेठ जी क्या सोच रहे हैं। उसने टोका- ये आप राम-राम कैसे कह रहे हैं, मेरा बेटा पास हो गया और अधिकारी बन गया, मैं यही बताने आई हूँ, यह लो मिठाई। बरबस रामलाल को मिठाई खानी पड़ी तभी एक कार आकर रूकी। उसमें से मोहन निकला और माँ की ओर लपका, श्यामा भी पुत्र को देखकर आँचल फैला दिये। प्रेम व ममता से वातावरण उल्लासित हो रहा था। अचानक मोहन ने रुपयों की गड्डी रामलाल की ओर बढ़ा दी, कहा- लीजिए कुटिया को गिरवी रखने की पूरी राशि सूद सहित, पैसे गिन लीजिए।  इस प्रकार गरीब की कुटिया तबाह होने से बच गई और ममता का स्वप्न पूरा हो गया।

बुढ़ापा

किशनलाल जैसे ही शिक्षकीय सेवा से ४२ साल बाद सेवानिवृत्त हुए विद्यालय रामपुर के शिक्षक एवं विद्यार्थियों ने खूब सम्मान किया, ग्राम-वासियों ने भी सम्मान करने में कोई कमी नहीं की । शाल, श्रीफल, पेन, गीता काफी एकत्रित हो गये। बाजे-गाजे के साथ अपने गुरुजी को छोड़ने उनके घर तक गये। 

काफी सम्मान पाकर किशन गुरुजी फूले न समाये, बयालिस साल की सेवा के लिए सरकार ने मोटी रकम जो दिया था, उससे किशन ने मिट्टी एवं खपरैल घर को इमारत का रूप दिया। दो एकड़ जमीन भी खरीदा। गुरुजी अपनी पत्नी राधा को भी गहने पहनाकर प्रसन्न किया। गुरुजी के दो बेटे थे धन्नु और मन्नू दोनों खेती-बाड़ी का काम देखते थे, दोनों बेटों की बहुएँ सरला और बिमला भी अपन-अपने काम में लगे रहते थे। पाँच एकड़ जमीन उसमें भी सिंचाई का साधन, यूँ कहिए अन्न-धन्न कि किसी प्रकार कमी नहीं थी। गुरुजी को पेंशन भी मासिक पाँच हजार रुपये मिलता था तो उसके लिए पर्याप्त था। 

गुरुजी धीरे-धीरे शरीर से कमजोर होने लगे, जो कुछ मिला था उस पैसे को परिवार में लगा दिया था। कमजोरी आने पर रोग का आना सरल हो जाता है। वह दमा का रोगी हो गया, जिस खाट पर सोता उसके करीब खाली डब्बा जिसमें राख भरा रहता था, उसके पास एक लाठी जो उसके बैठने-उठने का सहायक था। पाँच हजार रुपये उनके इलाज के लिए पर्याप्त नहीं था। परिवार के लोग उसके पास आने से कतराते थे, जब तक गुरुजी के पास पैसे थे, बेटे-बहू सब मंडराया करते थे, जैसे ही जेब रीता हुआ, मक्खियों के अलावा कोई पास आना नहीं चाहते थे। गुरुजी हैरत में पड़ गये, रामायण की चौपाई- ‘स्वारथ लाग करै सब प्रीति’ को स्मरण कर सजल हो जाता था। 

बुढ़ापा स्वयं में एक रोग है इस पर भी कोई बीमारी शरीर में अपना घर बना ले तो जीना दूभर हो जाता है। एकदिन गुरुजी असहनीय छाती दर्द से कराह रहे थे। दोनों बेटे खेत-खलिहान में काम करने गये थे। पत्नी राधा बाजार गई हुई थी। छोटी बहू बिमला घर पर थी, लेकिन वह गुरुजी के करुण-क्रंदन को अनुसुनी कर चौका कार्य में ब्यस्त थी, जैसे ही गुरुजी की पत्नी राधा बाजार से गृहस्थी का सामान लेकर लौटी गुरुजी की करुण पुकार सुनकर उसके पास गई और कहने लगी- नाहक आप शोर करते हैं..! कृषि कार्य में सब लोग गये हुए हैं, यदि आपको ही सब देखते रहें कारोबार चौपट हो जायेगा। गुरुजी विचार करने लगा, मैं इस घर में बोझ बन गया हूँ उससे तो अच्छा मर जाना ही ठीक होता, इस तरह सोचता दिन बिताने लगा। एकदिन उसके मन में बात घर आई कि आज के जमाने में कोई काम नहीं आता है, इसलिए सम्पत्ति का बटवारा कर देना चाहिए और अपने लिए कुछ जमीन अंतिम समय के लिए रख लेनी चाहिए, ऐसा विचार कर एक एकड़ जमीन और दो कमरा अपने हिस्से में रख लिया और बाकी दोनों बेटों को दे दिया। अब एक एकड़ जमीन गाँव के भोला को देकर राहत की साँस लिया। भोला से रुपया लेकर अपना इलाज करवाया। महीने भर बाद गुरुजी का स्वास्थ्य ठीक हो गया। तब वह अपने बेटों के बजाय भोला के सहारे रहने लगा। वक्त पर जो साथ दे वही तो सच्चा साथी होता है, बुरे वक्त में अपने और पराये पहचाने गये हैं। 

किशन गुरुजी अपनी पत्नी के साथ रहने लगा। पेंशन की राशि और एक एकड़ जमीन से प्राप्त आमदनी से घर-गृहस्थी खुशहाल नजर आने लगा। दोनों बेटे कभी भी बाप का सुध नहीं लेते थे, लेकिन माँ-बाप तो माँ- बाप होते हैं। बराबर बेटे और बहुओं की सुध लिया करते थे। गुरुजी अक्सर बिचार करता था, जिसके खातिर भगवान से वरदान माँगता है, वह बुढ़ापे में कोसों दूर हो जाते हैं। 

एकदिन गुरुजी के कुछ चहेते शिष्यों ने शिक्षक-दिवस पर गुरुजी को आमंत्रित किया। गुरुजी सिर पर टोपी, गले में सफेद पंछा डालकर, धोती कुरता से सुसज्जित होकर विद्यालय पहुँचा। उनके शिष्यों ने खूब आवभगत किया। वहाँ गुरुजी के दोनों बेटे विशेष अतिथि के आसंदी पर विराजित थे। गुरुजी के मान-सम्मान को देखकर पानी-पानी हो गये और सिर नीचा कर लिए। विद्यालयीन कार्यक्रम के पश्चात सब अपना रास्ता नाप लिए। गुरुजी के शिष्यों में से एक शिष्य शासकीय डॉक्टर हो गया था। गाँव में ही शासकीय औषधालय था। उसे लोग खूब आदर की दृष्टि से देखते थे। गाँव के लोग उन्हें बहुत चाहते थे। 

डॉ. रामसेवक शर्मा के नाम से पूरे इलाके में उनका पहचान बन गया था। डॉ. साहब का नाम जैसा था वैसा ही उनका आचरण भी था। वह किशन गुरुजी का बहुत प्यारा शिष्य था। एकदिन गुरुजी की तबियत अचानक बिगड़ गई। डॉ. साहब इलाज के लिए गुरुजी की कुटिया में पधारे, गुरुजी को अकेले देख डॉ. साहब ने पूछा- और परिवार कहाँ है। तब तो गुरुजी फफककर रो उठा। डॉ. साहब सजल हो गये और अपने विद्यार्थी जीवन में गुरुजी के प्यार का स्मरण करते-करते भीगी पलकों से गुरुजी से बोले- आप अपने आपको असहाय मत मानिए, मैं भी तो आपका बेटा हूँ और अपने साथ ले आये। गुरुजी और उसकी पत्नी डॉ. रामसेवक शर्मा के माता-पिता सदृश रहने लगे। 

मृत्यु की कोई तिथि नहीं होती, बिना निमंत्रण के आ धमकता है। गुरुजी एकाएक चल बसे। डॉ. ने सामाजिक नियमों की तरह सारी व्यवस्था किया। गुरुजी के दोनों बेटे मृत शरीर को माँगने के लिए आये तब डॉ. साहब ने कहा जीते जी आप लोगों ने गुरुजी का सहारा नहीं बन सके, अब मृत्यु के बाद सिर पीटने और आँसू बहाने से क्या होगा। मेरे धर्मपिता मेरे गुरुजी रहे हैं, इसलिए तो किसी संत ने कहा है- ‘पत्थर को देवता मान सब पूजा करते हैं अपने बच्चों से जो सुख की कामना रखता है लेकिन बूढ़ों को सम्मान नहीं देते।’ ऐसा कहकर गुरुजी के बेटों को वापिस किये, दोनों बेटे पश्चाताप करने लगे और समाज के लोग गुरुजी के बेटों को धिक्कारते हुए डॉ. शर्मा के इस तरह सुकर्म की प्रशंसा करने लगे।

उऋण


पं. दीनददाल अपने इलाके के नामी-गिरामी सुविख्यात वेदपाठी ब्राम्हण थे। नगर से लेकर शहर तक के लोग पंडित जी के दर्शनार्थ आते, और हँसते हुए जाते थे। पंडित जी काफी सुलझे हुए भले मानुष थे। उनके स्वभाव में सहजता का भाव था। उनकी बात को हृदय से सब स्वीकार करते थे। उनकी पत्नी लक्ष्मी देवी भी सुशील थी और पंडित जी के पद चिन्हों पर चलती थी। आलीशान बंगला, नौकर-चाकर, पशुधन से रचा-पचा भवन देखते ही बनता था। पंडित जी ऊँचा-पूरा, उन्नत ललाट, घुँघराला केश, कमलनयन के साथ गौर बदन, दबंग व्यक्ति थे। 

पंडित जी जब घोड़े पर सवार होकर निकलते तो कौन नहीं होगा जो उनकी ओर न देखते। पंडित जी की अगवानी के लिए लोगों में होड़ लगी रहती थी, लेकिन परमात्मा की लीला भी तो विचित्र है। करतार कहीं न कहीं कमी कर देते हैं। पंडित जी संतान विहीन थे। इसी वजह से चिंता की रेखाएँ चेहरे पर दिखाई देता था। पंडिताइन लक्ष्मी देवी भी एक संतान के लिए सैकड़ों वैद्य, ओझा, बैगा छान डाली, लेकिन किसी भी हुनर में सफलता नहीं मिली। अंत में हारकर पुत्र लालसा पंडित जी ने छोड़ दिये। 

पड़ोसी के पुत्र सार्थक को पंडित-पंडिताइन खूब प्यार करते थे। सार्थक के मात-पिता शंकर और देवकी भी पंडित जी के प्यार देखकर निश्चिंत रहा करते थे। सार्थक भी पंडित जी के प्यार के लिए लालायित रहता था। धीरे-धीरे सार्थक पंडित जी के करीब आ गया और अपने माता-पिता के साथ ही साथ पंडित जी के साया में पलने-बढ़ने लगा। 

जब सार्थक पाँच वर्ष का हुआ तब गाँव के ही स्कूल में प्रवेश लिया, देखते ही देखते सार्थक बारहवीं कक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। तब पंडित जी और उनके माता-पिता काफी खुश हुए, लेकिन आगे पढ़ाने के लिए शंकर असमर्थता ब्यक्त किया। तब पंडित जी ने कहा कालेज की पढ़ाई का दायित्व मैं लेता हूँ। ‘होनहार बिरवान के होत चिकनेपात’ वाली बात सार्थक पर सौ पैसे उतरी। जब स्नातक की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण, तब लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और सार्थक रेल्वे विभाग में टिकट निरीक्षक की नौकरी पा गया। नौकरी का आदेश जैसे ही मिला पंडित जी के पास जाकर खुशी का इजहार किया। पंडित जी से आशीर्वाद प्राप्त कर अपने ड्युटी पर गया। कुछ दिनों बाद पंडित जी अस्वस्थ हो गये और सार्थक-सार्थक नाम रट रहे थे। सार्थक के पिता शंकर दूरभाष से सार्थक को जानकारी दिया और आने के लिए कहा। 

सार्थक जल्दी ही पंडित जी को देखने अस्पताल पहुँचा, सार्थक को पंडित जी एकटक निहार रहे थे। सार्थक पंडित जी के सिर को दबाया। तब पंडिताइन को बुलवाया और सार्थक को कहा- अब मेरी अंतिम घड़ी है। गिनती के दिन रह गये हैं। पंडिताइन बेसहारा हो जायेगी तुम्हीं एकमात्र सहारा हो। ऐसा कहकर पंडिताइन को बुलाकर सार्थक के हाथ को पंडिताइन के सिर पर रखकर नश्‍वर काया को त्याग दिया। पंडिताइन सिर पीट-पीटकर रोने लगी। सार्थक पंडिताइन को हृदय से लगाकर फफक-फफक कर रोने लगा। 

संकट के समय धैर्यता से काम लेना पड़ता है, सम्हलकर सार्थक अस्पताल से पंडित जी के पार्थिव शरीर को लेकर अपने गृह ग्राम आया। अनेक लोग पंडित जी के मातम-पुरसी में शामिल हुए। सार्थक पंडित को मुखाग्नि दिया और माटी का तन माटी में मिल गया। सारी क्रियाकर्म वैदिक-विधान से करने के बाद पंडिताइन को लेकर सार्थक अपनी नौकरी में चला गया। वहीं सार्थक पंडिताइन की सेवा तन-मन-धन से करने लगा। सगी माँ की भाँति सेवा करते देख पंडिताइन कहने लगी, जन्मजन्मातंर तक मुझे सार्थक जैसे पुत्र मिले।

उपकार

बुधियारिन कटोरा लिए मंदिर प्रांगण में बैठकर आने-जाने वाले भक्तों की ओर निहारा करती थी। जगन्नाथ मंदिर में सुबह जाने का नियम बना रखी थी। जो कुछ दर्शनार्थियों से मिल जाता उससे वह अपना निर्वाह करती थी। जगत भी प्रतिदिन जगन्नाथ भगवान का दर्शन करने सुबह जाता था, जैसे ही मंदिर से दर्शन करके आता बुधियारिन की आँखें चमक जाती, वह बहुत प्रसन्नता के साथ कहती- बाबू जी..! भगवान का दर्शन कर आये। 

जगत उसके भिक्षापात्र में सिक्का डालकर आगे बढ़ जाता था, जैसे ही कटोरे में रुपये डालता वह आशीर्वाद की झड़ी लगा देती थी- लाख बरस जीवो बाबू..! आपके बाल-बच्चे आबाद हों, दूधे भात खाव। जगत सिर झुकाये मुस्कुराता आगे बढ़ जाता। जगत के बच्चे पापा कहकर दौड़ पड़ते और प्रसाद के लिए हाथ फैलाते। अपने बच्चों को प्रतिदिन प्रसाद देकर बहुत आनंदित जगत होता था। प्रसाद में पुजारी शिवप्रसाद किसी दिन मिश्री, पेड़ा, इलायची दाना, फल्लीदाना, नारियल आदि कुछ न कुछ दिया करता था और बुधियारिन को कुछ रुपये प्रतिदिन अवश्य दिया करता था, रोज आशा भरी निगाहें जगत के लिए बुधियारिन की टिकी रहती थी। इस प्रकार जगत के जीवन का क्रम बना हुआ था। 

एकदिन भिखारिन बुधियारिन पूछ बैठी- बाबू जी..! आप कहाँ रहते हैं, आपके कितने बालगोपाल हैं? इस प्रकार प्रश्नों से जगत आश्चर्यचकित हो गया और बोला- तुम अपने बारे में बताओ। वह बोली- मैं, चंद्रपुर की रहनेवाली हूँ, घर में सब कुछ है बाबू..! भरापूरा परिवार है, लेकिन जब मैं शरीर से स्वस्थ थी, तब सब लोग खुश थे, आज जब मैं असमर्थ हो गई तो, बहू-बेटे मुझे अपमानित करने लगे। दो रोटी के लिए तरसती थी, टूटी खाट, जूठन भोजन, फटी पुरानी गुदड़ी से दिन कटने लगा, रात बेचैनी से बीतती। कोई झाँकता भी न था। बेटा किशन जोरू का गुलाम जो ठहरा और लापरवाह था, खाना और घूमना इसके छोड़ कुछ नहीं करता था। उसकी बीबी आँखें तरेरती रहती थी। वह बोली- बाबू जी..! मेरे पास कुछ रुपये जमा हैं, मैं चल फिर नहीं सकती। आपके प्यार से मुझे कुछ सहारा मिल गया। आपने माँ कहकर पुकारा, ये रुपये आप रख लेते, मेरे पास रखने के लिए जगह नहीं है। जगत बोला- अरी माँ..! अपने रुपये पैसों को तू सम्हालकर रख। वह बोल उठी- नहीं बाबू जी..! आप मेरे बेटे हैं, मुझे पूरा भरोसा है। रुपये को जगत देखा तो ५०० रुपये थे- इतनी राशि तुम्हारे पास है। बोल इसका क्या करूँ। वह बोली- बाबू साहब..! जैसी आपकी इच्छा, तब तो जगत का हृदय द्रवित हो गया और बुधियारिन को वह घर ले आया। अपनी पत्नी श्यामा को बोला- देख श्यामा..! घर में माँ आई है। श्यामा आश्चर्य में पड़ गई- सचमुच हमारी माँ है। जगत बोला- ये देख पाँच सौ रुपये हैं। श्यामा पानी और चाय देकर प्रेम के साथ खाट में बिठाई और उसके दोनों बच्चे दादी कहकर पुकारने लगे। 

घर के एक कमरे में उसकी व्यवस्था की गई और जगत उचित देखभाल करने लगा। माँ-बाप घर के द्वार पर बैठे ही क्यों न रहें, घर की एक मर्यादा रहती है। एकदिन बुधियारिन बोल उठी- मैं तो जीवनभर आपके इस उपकार को नहीं भूला पाऊँगी, लगता है पूर्व जन्म के आप मेरे बहू-बेटे हैं। वह बोला- नहीं माँ..! बस भगवान ने मुझे माँ के रूप में आपकी सेवा करने का अवसर दिया है। धूप-छॉंह, सुख-दुःख प्रकृति का नियम है। एकदिन जगत देखा आज बुधियारिन सोकर नहीं उठी है। वह कमरे के अंदर पहुँचा, देखा वह अचेत पड़ी है और राम...राम... कह रही है। जगत बोला- माँ..! कैसे लग रही है? बस बेटा..! अब जाने की बारी है। तुम्हारी सेवा से इतने बरस जी गई एक काम करना बेटा..! मेरा अंतिम संस्कार तुम ही करना, ऐसा कहते प्राण-पखेरू उड़ गये। 

गाँव के लोग एकत्रित हुए, पंचों ने कहा- आपका कर्तव्य होता है कि इनके परिवार को भी खबर कर दें। सयानों की बात मानकर चंद्रपुर संदेश भेजा। किशन जाना कि माँ की मृत्यु हो गई, चलो झंझट कटा जाकर बुधियारिन के शव को देखा। जगत का परिवार रो रहे थे। किशन देखकर भौंचक हो गया। मैं शव को चन्द्रपुर ले जाऊँगा। तब जगत बोला- चार लोग जैसा कह दें। गाँव के लोगों ने कहा- ‘जीयत मा दंगा के दंगा, मरे मा गंगा’ सेवा तो जगत ने किया है माँ की तरह देखभाल किया है, अतः अंतिम क्रिया जगत ही करेगा। जगत बुधियारिन की सब मृतक कार्य किया। किशन के परिवार को भी मृतक भोज में बुलाया अंत में बुधियारिन की कथा कहते जगत का कंठ भर आया, आँखें सजल हो गई और बुधियारिन ने जो पाँच सौ रुपये दी थी, उस रुपये को किशन को लौटाया। वहाँ पर एकत्रित सभी लोगों ने कहा- धन्य हैं, बाबू साहब..! आज के इस युग में आप जैसे इंसान बिरले ही मिलते हैं। 

किशन की आँखें खुली और जगत के पैरों पर गिर पड़ा और फफक-फफक कर रोने लगा। किशन रुपये को नहीं रखा। तब जगत चंद्रपुर विद्यालय में जाकर पाँच सौ रुपये को वहाँ के प्रधानाध्यापक को देकर कहा- यदि कोई अनाथ बालक आपके विद्यालय में हैं तो इस राशि से उसकी पुस्तक, कापी, ड्रेस की व्यवस्था कर मदद कर दीजिए। प्रधानाध्यापक हीरालाल जी अवाक रह गये और उस रुपये को मोहित कुमार जो अनुसूचित जाति का बालक पितृविहीन था उसे देकर उसकी जरुरत की चीजों के लिए व्यवस्था किया। मोहित कुमार आगे शिक्षा ग्रहण कर शिक्षा विभाग में शिक्षक के पद पर नियुक्त हुआ और अनाथ बच्चों की सेवा कर, इस कहानी को बालसभा में सुनाकर जगत बाबू की भूरी-भूरी प्रशंसा करता था।

गौरी

संसार के निर्माता की भी विचित्र महिमा है, अनेक जीवधारी के निर्माण में कितना समय लगा होगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। वैसे ही रामू भी अपने मिजाज का अलग ही आदमी था माँ-बाप ने किस जतन से रामू को पाला-पोसा था, क्या वे सोचे थे कि- उसका इकलौता पुत्र कपूत निकल जायेगा। रामू को पिता गोवर्धन ने उसके जीवन को संवारने विद्यालय भेजा, अनेक प्रयत्न के बावजुद रामू की स्थिति वैसे ‘जैसे मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहि विरंचि सम’ थक गया गोवर्धन सिर पीट लिया, जी तो यह चहता कि ठिकाने लगा दूँ, लेकिन प्रश्न खड़ा होता ‘आँखों का तारा’ तो है सारे सपने काफूर हो गये। 

गोवर्धन नेक इंसान था। गाँव और समाज में उनके गुणों के कारण लोग उन्हें सिर बिठाते, प्रत्येक दुःख-सुख में गोवर्धन की पूछ परख होती। उसका स्वभाव था ‘जब आवै संतोष धन, सब धन धुरी समान’ थोड़े में गुजर करना और चैन की बंशी बजाना। शानों-शौकत आधुनिकता के चकाचौंध से कोसों दूर था, अपनी पत्नी को कहा करता था- लक्ष्मी..! सुन थोड़े में गुजर करना और सबसे प्रेम करना जीवन का सार है, दुनियाँ में कुछ कर गुजरना चाहिए। लक्ष्मी भी लक्ष्मी थी, पति के पदचिन्हों पर चलनेवाली थी। उनके पास एक गाय थी। नाम गौरी बड़ी सीधी, गोवर्धन के लिए तो कामधेनु थी। गोवर्धन और लक्ष्मी गौरी की सेवा ऐसे जैसे वशिष्ट की कामधेनु को राजा दिलीप किया करते थे, पंडित जी के प्रवचन में सुना जो था। गौरी भी ललचायी आँखों से देखती थी, कहा गया है- ‘मूक प्राणी को भी यदि प्यार दिये तो बड़े-बड़े पशु भी अधीन हो जाते हैं।’ 

गोवर्धन के यहाँ कोई कमी नहीं थी, केवल रामू की चिंता थी। कब बनेगा, एक पुत्र तो वह कुलदीपक हो गया तो, सात जन्म कृतार्थ हो जाता है। गोवर्धन कहता- रामू..! गौमाता के अंग में तैंतीस कोटि देवता का वास होता है। गाय की सेवा परमात्मा की सेवा है। पौं फटते ही गोवर्धन सेवा करने में गौरी का लग जाता। उसकी देवी लक्ष्मी चुनी, भूँसी दाना खिलाने में तन-मन से सहयोग देती लेकिन रामू जो निकला, निकम्मा, घोर आलसी, खाना, पीना, सोना साथ ही बुरी संगति। 

दुनिया का रिवाज है सुख-दुःख, धूप-छॉंव, जीना-मरना। गोवर्धन के शरीर में घुन लगते जा रहे थे। चिंता के कारण चेहरे में झुर्रियाँ पड़ गयी थी, गाँव से कुछ दूर कौशलपुर में दीनानाथ चतुर्वेदी की ज्योतिषी की चर्चा हर जुबान पर होती। चलो रामू के जीवन की कहानी जानने। पंडित जी ने बताया- आपके रहते रामू कुछ नहीं कर पायेगा। चिंता करना व्यर्थ है। गोवर्धन घर आया, अपनी पत्नी को बोला लक्ष्मी पानी ले आ, इतने में गोवर्धन धड़ाम से गिर गया। अचेत हो गया, लक्ष्मी रोती बिलखती रह गई लेकिन चेत नहीं आया, कई युक्तियाँ की गई बैगा, ओझा कुछ कर भी पाते वह स्वर्ग सिधार गया। पति के वियोग में लक्ष्मी सिर पटक-पटक कर रोती। कहा गया है- ‘जब दुःख के दिन आते हैं तो बारी-बारी से आने लगती हैं।’ लक्ष्मी भी चारपाई पकड़ ली, उठने का नाम नहीं ली, उसके भी प्राण-पखेरू निकल गये। 

रामू ये सब हादसा देखता रह गया। केवल घर में रामू और मूक प्राणी गौरी ही रह गये। क्या करता ‘हाथ मले और सिर धुनें वाली’ कहावत चरितार्थ हो गयी, गौरी के पास जाकर उससे लिपटकर रोना शुरू कर दिया। हाय..! मैं कितना अभागा हूँ बिन माँ-बाप के संसार अधूरा है एक कौड़ी की इज्जत नहीं रहती, लोग ताने मारते। गोवर्धन जब था तो रामू को लोग कहते- आँखों का तारा है, घर का दुलारा है, सबका प्यारा है। लोग उलाहना देते, माँ-बाप को खाने वाला, इज्जत मिट्टी पलित करने वाला, इससे तो अच्छा है निपूत रह जायें। 

लोगों की आवाज को सुन- सुनकर उसके कान पक गये, ठाना- मैं उस पिता का पुत्र हूँ जिसने नाम कमाया- ‘जीना उसका भला जो औरों के लिये जीता है। मरना उसका भला जो अपने लिये जीता है।’ इरादे जब नेक होते हैं तो इंसान को नेक बनने में समय नहीं लगता, ठान लिया जीवन में कुछ करना है, सम्पत्ति तो नहीं है, अब केवल गोवर्धन का धन गौरी ही है और गौरी बछड़ा जन्मी दूध खूब देती, अब तो रामू के जीवन में बहार आई, गाँव के बड़े सयाने देख हतप्रभ हो गये। अमृत की तरह दूध... रामू को गाँव के लोग कहते रामू नहीं रामावतार है। 

कोई अच्छी सुशील कन्या रामू के साथ में ब्याह कर दी जाये तो अच्छा रहता, रामू की शोहरत चारो ओर फैल गई। गाँव का सियाना भोला आया बोला- रामू...! अब तुम्हारे हाथ को साथ चाहिए। हम तुम्हारा विचार जानने आये हैं। रामू बोला- दादा..! जैसा आप लोग चाहेंगे मैं तैयार हूँ। प्रभू कृपा से जानकी के साथ में ब्याह कर दी गई। 

अब तो जीवन में विचित्र मोड़ आ गया। एकदिन जानकी रामू को बोली- एक बात मेरी मानेंगे..! रामू बोला- सब बात मानता हूँ और क्या मानूँ बोल..! जानकी बोली- कुछ पढ़ लेते। रामू बोला- ठीक है..! जानकी रामू को पढ़ाने लग गई, छ: महिने में रामू रामायण बाँचना शुरू कर दिया। अब घर स्वर्ग बन गया सुबह शाम घर से आवाज गूँजती- ‘तुम्हारी कृपा तुम्ही रघुनंदन’ धन्य है गौरी गौ माँ, धन्य है लक्ष्मी जैसे धर्मपत्नी। रामू को लोग आदर से कहते रामावतार जी आप महान हैं। तभी तो संतों ने कहा है- ‘गम की अंधेरी रात में दिल को न बेकरार कर, सुबह जरुर आयेगी सुबह का इंतजार कर।’ 

बटवारा


पं. किशोरलाल शर्मा ख्यातिलब्ध प्रतिष्ठित रतनपुर गाँव के मालगुजार थे। एक जमाना था, पंडित जी के आसपास लोग मंडराया करते थे। नौकर चाकर हुकुम के पक्के थे। पंडिताइन शांति देवी सुशीला थी, कोई उनके दरवाजे से बिना खाये-पिये लौटते न थे। भिखारियों का ताँता लगा रहता था। उनके चौखट से यही कहते वापिस होते पंडित जी दीनबंधु हैं। भिखारी राम बड़ा गरीब आदमी रतनपुर का ही निवासी था, अचानक दुर्घटना का शिकार होकर एक पैर गवाँ बैठा था, वह प्रतिदिन पंडित जी के आँगन में जाकर रुपये पैसे लाकर अपनी गृहस्थी चलाता था, वह रहीम के दोहे दुहराता कहता था- ‘दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय। जो रहीम दिनहिं लखै दीनबंधु सम होय॥ यह दोहा सोलह आने पंडित जी पर ठीक बैठता था। 

पंडित जी के महल में गाड़ी, घोड़ा से लेकर मोटरकार सड़कों पर दौड़ता, जो लोग पंडित जी के नजरों में आ जाते निहाल हो जाते थे। विधाता ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी थी। रचा-पचा कारोबार पंडित जी के थे पाँच बेटे, चार बेटियाँ सबके बालबच्चे, नाती-पोती से भरा पूरा परिवार था, लेकिन कहावतें सही होती है सब दिन होत न एक समान। पंडित जी भी शरीर से कमजोर लगने लगे। घने काले बाल, चढ़ी भौंहें, कमल, नयन, चमकते चेहरे में सिकुड़न होने लगी, तब पंडिताइन शांति देवी ने कहा क्यों न बेटों को दौलत को बाँट देते, कितने दिनों तक कारोबार को हाथ में रखे रहोगे, शरीर साथ देने वाला नहीं हैं। 

पंडित जी जमीन, जायदाद, कारोबार बराबर पाँचो बेटों में बाँट दिये। लड़कियों को भी कुछ रुपये दे दिये और पंडित, पंडिताइन छोटे पुत्र के साथ रहने लगे, छोटा जो होता है कोख का पोंछना होता है। कहा गया है- ‘बड़ा भाई बाप का, छोटा भाई माँ का, मंझला भाई साँई का।’ पंडित जी का छोटा पुत्र लाडला था, सबका चहेता था, इसलिए हाथ उसका बढ़ा हुआ था, शौकिन था। पिता जी का प्यार होने के कारण बेफिक्र था। उसकी निहारिका आधुनिकता की कायल थी चित्रघर से लेकर शॉपिंग करने जाती थी। पंडित जी के लाख कहने के बाद भी मनमानी करती थी, आधुनिक परिधान से सज-धजकर बाजार जाती थी। पंडित और पंडिताइन को यह तनिक भी पंसद नहीं था। एक समय था कि घर की महिलायें पंडित जी के चौखट पर भी खड़ी नहीं हो पाती थी। लोग कहते पंडित जी कि छोटी बहू बड़ी रंगीली है, नौकर-चाकर होते हुए भी मार्केटिंग को जाती है। उसकी सहेलियाँ भी खूब हो गयी थी। जहाँ पर शक्कर होती है, चिटियाँ झूम जाती है, बात दिखाई देने लगी। पंडित किशोरीलाल ‘भई छुछन्दर गति’ की तरह होने लगे, बटवारा जो कर दिया था। पंडिताईन शांति देवी समझाती थी की बोलना, कहना बेकार है। 

एकदिन बहू निहारिका के पास उसकी एक सहेली रमा आकर कानाफुसी करने लगी। कहने लगे मेरे आने से आपके बाबू जी को अच्छा नहीं लगता है, मैं आँख की कीरकीरी बनना नहीं चाहती। निहारिका बहुत खफा हो गई, मेरे बीच में बोलने वाले वे कौन होते हैं। आग बबूला हो गई और कह बैठी बाबू जी।।! मेरे निजी मामले में दखलंदाजी मैं पसंद नहीं करती। आप रोकने वाले कौन होते हैं, घर मेरा है, आप दोनों को दो वक्त की रोटी के सिवाय और क्या चाहिए और तो आपके बेटे हैं, हमारे माथे सब थोड़े हैं। यदि हमारा तौर-तरीका पसंद नहीं आता तो अपना रास्ता नाप लीजिए। एक समय था, पंडित जी के सामने बोलने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती थी। सिर पीट लिये और सोचने लगे मैंने ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारी है। तिलमिला उठे, लोकलाज के कारण कुछ कहते नहीं बना और किसी के साथ रहना उचित नहीं समझ कर किराये के मकान में रहना शुरू कर दिये। 

छोटा बेटा, पत्नी का गुलाम था। कुछ नहीं बोल सका। चुपके-चुपके माँ-बाप से मिलकर अपना पीछा छुड़ा लेता था। छोटा-बेटा का एक बेटा और एक बेटी थी, जिसके बगैर पंडित, पंडिताइन का जीना दूभर था। बच्चे भी दादा-दादी के दुवारे आ जाते थे। पंडित जी का शरीर दिनोंदिन गिरते गया, चिंता की लकीरें चेहरे पर दिखाई देने लगी। एकदिन पंडित जी के पास दोनों बच्चे खेलते-खेलते आ गये। 

सूरज अस्तचलगामी हो गया था, छोटी बहू निहारिका सिर खुला किये तमतमाते आ धमकी। पंडित जी हाथ माथे पर देकर ओंठ को दाँत पर दबाते रह गये। दोनों बच्चों को पंडित जी के पास से खींचकर मारना शुरू कर दी। पंडित जी से रहा नहीं गया बोल उठा- यदि इन बच्चों पर हाथ उठायी तो हाथ तोड़ के धर दूँगा। तुम्हारे माँ-बाप ने क्या यही संस्कार डाला है, कुल का भी ख्याल नहीं, आपे से बाहर हो रही हो औरत की एक मर्यादा होती है। पंडिताइन समझाने लगी, छोड़िये न।।! ये तो बात करने लायक नहीं और बेटा तो जोरू का गुलाम है। निहारिका होश खो बैठी और बोली- मेरे बच्चे हैं आप बोलने वाले कौन होते हैं। खबरदार, जो मेरे बच्चों में पुरानी घिसी-पिटी रिवाजों को सिखायेंगे। दोनों बच्चे निरीह प्राणी की तरह सब देख रहे थे। मम्मी का, दादा जी को खरी-खोटी सुनाते ठीक नहीं लगा। दोनों बच्चे बोल उठे- दादा जी।।! मम्मी के सामने खुद पापा, भिगी बिल्ली, की तरह रहते हैं। अत: आप कुछ न बोले, इसी बीच पंडित जी का छोटा बेटा रतन आ धमका। 

लोगों की जमावाड़ा और आनंद लेते देख रतन भौंचक रह गया। उसने विचार किया ये सब गलती मेरी है, जो मैंने निहारिका को इतना छूट दे रखा था। आँखें खुली और सबके सामने रतन बोला- पिताजी।।! मैं आपका बेटा हूँ। आपके टुकड़ों पर हम आराम करते रहे हैं और पराये घर से आकर निहारिका अपना हक जता रही है। मेरे सारे अपराध क्षमा करें और जो आपने मुझे बटवारा दिया है उस संपत्ति को आपको सौंपता हूँ। आप लोग किराये के मकान छोड़ चलें। पंडित-पंडिताइन को और अपने दोनों बच्चों को साथ घर वापस ले आये। 

निहारिका नाराज होकर अपने मायके रोते चली गई। निहारिका को देखकर पिता दीनबंधु हक्का-बक्का हो गया।।। बेटी, आज पगली की तरह कहाँ से आ रही हो। सारी बातों से अवगत होने पर निहारिका के पिता ने कहा- तुम्हारे लिये इस घर में जगह नहीं है, मैं नहीं रख सकता। बेटी का घर तो जिस दिन बाप बिदा करता है, उसी दिन से ससुराल ही उसका घर होता है। जीते-मरते एक शरण पति का ही है। इतना सुंदर घर छोड़कर घर ढूँढते आ गई। चार दिन की मायका है, पिया का घर नीक होता है। निहारिका की आँखें खुली। सारी गलतियाँ का एहसास की और लौटकर आ गई, सास-ससुर और पति के चरणों में गिरकर क्षमा माँगी और कहने लगी, अब मैं यहाँ की मिट्टी में ही संसार से बिदा लूँगी। अपना घर अपना ही घर होता है, पर अटारी किस काम की।


सुहागिन


रामलाल की एकमात्र बेटी सुहागिन।।। सबकी लाडली थी। क्यों न हो अकेली जो ठहरी। रामलाल और देवकी की गृहस्थी और लोगों से अलग थी। मायके का जो संस्कार देवकी पर पड़ा था, उससे ससुराल की मर्यादा का भी ध्यान रखती थी। रामलाल जी के पिता श्यामलाल नामी-गिरामी ठाकुर थे। गाँव के लोग उन्हें दरोगा जी कहा करते थे। रामलाल भी अपने पिता के एकमात्र औलाद थे। पिता जब स्वर्गवासी हुये तब काफी सम्पत्ति रामलाल के लिये छोड़कर, विदा हुये थे। 

रामलाल का ठाठ-बाट भी कुछ कम न था, चमचमाते स्कूटर पर सवार होकर निकलते तो लोगों की निगाहें सहज में रामलाल की ओर जा टिकती थी और कुछ लोग बतियाते बाप-दादा के कमाई को उड़ाने में क्या है, इसीलिये तो इसके सिर पर मोर पंख निकल आये हैं। रामलाल अपने धुन का पक्का था। खेतीबाड़ी, नौकर-चाकर पर चकाचौंध था। ठकुराइन देवी आदर्श महिला थी, सबका बराबर ख्याल रखती थी। घर में काम करने वाले बाई से लेकर जितने घर के काम में हाथ बँटाते सभी देवकी को अम्मा जी कहकर पुकारते, लेकिन किसी ने कहा है, भाग्य से ज्यादा और किस्मत से कम के अलावा कुछ होने वाला नहीं। 

लाख उपाय करने के बावजुद अगले संतान की कल्पना करना रामलाल के लिये स्वप्न सा हो गया। सुहागिन बहुत सुंदर, मृगनयनी सी थी। काफी चंचला, इकहरा गेहुँआ सा बदन, जब चौखट से बाहर कदम रखती तो लोग दाँतों तले उँगली दबाते, लेकिन किसी की क्या बिसात, जो सुहागिन को ताना मारते, ठाकुर की इकलौती बेटी जो ठहरी। मैट्रिक की कक्षा जब उत्तीर्ण की तब ठाकुर रामलाल कॉलेज में प्रवेश कराया और अपनी बेटी को स्कूटर सौंप दिया। रामलाल सुहागिन को बड़े प्यार से ‘छबीली’ कहता था और यही छबीली नाम की प्रसिद्धि चारो ओर थी। कॉलेज में भी प्राध्यापक से लेकर प्राचार्य तक छबिली को चाहते थे। छबिली अपने जन्मदिन पर पूरे कॉलेज स्टॉफ के साथ छात्र-छात्राओं का भी मुँह मीठा कराती थी, तब से सबकी चहेती थी। उम्र की तकाजा को नकारा नहीं जा सकता है। छबिली की मुस्कान और उसकी अदा से सुमेश का दिल खिल उठा था। सुमेश एक गरीब का बेटा था। गरीबी में भी अपनी पहचान बना लिया था। बड़ा हँसमुख दिलफेंक जो ठहरा। 

कॉलेज के गेट पर प्रतिदिन छबिली का इंतजार किया करता था। छबीली भी दिल से सुमेश को चाहती थी। धीरे-धीरे दोनों का मन कब तक रूकने वाला था। एकांत में घण्टों बतियाते थे, तथा बात के साथ ही साथ तन पर भी एक दूसरे का साथ देते देर न लगी। ऐसी बातें कहाँ छुपती है। सारे कॉलेज के साथ शहर में भी आग की तरह बात फैल गई। धीरे से ठाकुर रामलाल के कानों में बात चली गई। सहसा विश्वास नहीं हुआ, चूँकि छबीली पर उसे नाज़ था। कहा करता था बेटी हो तो मेरी बेटी की तरह। छबीली, बेटा का अभाव ठाकुर रामलाल को नहीं होने देती थी। 

लाख कोशिश के बावजूद रामलाल को छबीली और सुमेश के रिश्ते को मानना पड़ा। कहा भी गया है, प्यार के आगे एकदिन झुकना ही पड़ता है। सुमेश यह गाना अक्सर गुनगुनाता था- ‘कोई दिवाना कहता है, कोई पागल समझता है, मगर धरती के बेचैनी को बादल समझता है।’ इसी गाने की छबीली दिवानी थी। 

सुमेश को दिलोजान से चाहती थी। एकदिन ठाकुर रामलाल को मंडप मजबूरी में सजाना ही पड़ा, अपनी बिटिया को डोली में बिठाकर सुमेश के साथ भीगी पलकों से विदा करना पड़ा। ठाकुर रामलाल और देवकी का जीवन बड़ा कष्टदेय हो गया। बुढ़ापा आने के पहले ही ठाकुर और देवकी बूढ़े से नजर आने लगे। सारी शानो-शौकत चरमरा गई। देखते ही देखते कल का अमीर आज फकीर हो गया। चेहरे की रौनक काफूर हो गया। 

शहर के लोग जो ठाकुर रामलाल से आँख नहीं मिला सकते थे, अब अपने-अपने ढोल पीटने लग गये। रामलाल पर मजबूरी का नाम गाँधीजी कहावत चरितार्थ हुई। उधर छबीली बहुँत ही खुशहाल नजर आने लगे। ठाकुर रामलाल ने दहेज में काफी भेंट दिया था और अपनी बिटिया को दो पहिये की गाड़ी भी भेंट किया। जब सुमेश छबीली को लिवा लेकर चला तब पहली बार ठाकुर रामलाल को फूट-फूट कर रोते लोगों ने देखा था। देवकी ठाकुर रामलाल से बोली- देखो जी।।! बिटिया परायी धन होती है, गाय को एक न एकदिन कोठे में बाँधना ही पड़ता है। आप नाहक कितना विलाप कर रहे हैं। देवकी के लाख समझाने के बावजुद बाप का दिल नहीं मानता है। माँ का बेटा, बाप की बेटी होती है। सहसा इस तरह दिन गुजरे। छबीली के ससुराल वाले गरीबी में जो जीवन व्यतीत करते थे, दिन उलट जाने पर स्वभाव भी उलट गया। 

सुमेश एवं उसके माता-पिता ठाकुर रामलाल से नाजायज फायदा उठाने लगे। बात-बात पर सुमेश का संदेश आता कि- हमें अमुक की कमी है। ठाकुर रामलाल ने हृदय खोलकर छबीली के लिये देना शुरू कर दिया। भिखारी को कितना भी दे दो, माँगना छोड़ता ही नहीं। देने वाले के दरवाजे जाना कहाँ छोड़ते हैं। दिन का चैन और रात की नींद ठाकुर रामलाल के आँखों से गायब हो गयी। अब तो लाठी का सहारा लेना पड़ गया। सोचा था एकदिन मेरी बिटिया सहारा बनेगी, लेकिन आशा निराशा में पलट गयी। बिटिया के घर जाना, पनाह पाना गुनाह मानते हैं। देखते ही देखते क्या हो गया। ठाकुर रामलाल चलते-चलते अपने आँगन में लुढ़क गया। पैर टूट गया। अस्पताल जाने की अपेक्षा बैगा-ओझा से फूँक-झाड़ कराने लग गये। बैगा, ओझा केवल बेवकूफ बनाकर ठाकुर रामलाल का धन लुटने लगे। 

आखिर में ठीक नहीं हुआ, बल्कि पैर में सड़न प्रारंभ हो गया। हाथ पर हाथ धरे मन ही मन ठाकुर रामलाल पश्चाताप करने लगा। छबीली बाप की हालत देखकर चित्कार उठी। ठाकुर रामलाल का दुःख दोहरा हो गया, सोचा न था कि एकदिन ऐसा भी आयेगा। रेत की महल की तरह उसके सारे सपने बिखर गये, लगने लगा ठाकुर रामलाल ज्यादा दिन का साथी नहीं है। सुमेश, छबीली सेवा करने ठाकुर रामलाल के पास रह गये, लेकिन मृत्यु की कोई तिथि नहीं होती है। अचानक पंछी बिन बताये उड़ गया। आँगन में जो कल एक शोरगुल सुनाई देता, सुना हो गया। देवकी सारी क्रियाकर्म की व्यवस्था में जुट गई। 

दसगात्र समाप्त होने के बाद जब छबीली, सुमेश जाने को तैयार हुये, तब सुमेश, ठाकुराइन देवकी से कहता है, अम्मा।।! अब साथ चलो, तब देवकी होठ दाँतों में काटते बोली- अब ठाकुर संसार से अलविदा हो गये। मुझे भी इसी तरह बिदा करना। मैं इसी आँगन की मिट्टी हूँ। यही कुल की मर्यादा होगी। जाओ छबीली।।! ‘अब पछताये क्या होय, जब चिड़िया चुग गई खेत।’ जाओ खुश रहो, माँग सिंदूर से सजा रहे और सदा सुहागिन रहो।।!


सुलक्षणा

‘सुलक्षणा’ वह आप बुदबुदाई।।! सोचने लगी, माँ-बाप तो नाम सोच-समझ कर ही रखते हैं, वे जो कुछ करते हैं, अच्छे के लिये ही करते हैं। पर किसी का भाग्य ही रुठ जाये तो।।।। स्कूल के सारे बच्चे आ चुके थे। चपरासी ने भी आते ही घण्टे पर हथौड़ा दे मारा।।।टन।।। टन।।! जोर की आवाज आई। उसकी तंद्रा भंग हो गई, पता नहीं स्कूल आते ही उसे क्या हो जाता है, रोज का क्रम है। अपने केबिन में जाकर ज्यों ही बैठती है, विचार प्रवाह उसका पीछा नहीं छोड़ती। 

स्कूल प्रांगण में प्रार्थना हो रही थी। बच्चे देश भक्तिगीत गा रहे थे फिर सुनाई दिया बच्चों का शोर। बच्चे जय-जयकार कर रहे थे, पूरा वातावरण गूँज रहा था। उसने भी देखे हैं, ये सब दिन। बचपन में इसी तरह जय-जयकार किया करती थी। बड़ों का सम्मान करती थी, अब भी करती है। उनके चरण छूती है, उसे क्या मालूम कि बड़ों का साया अचानक छूट जाता है, अब तो बस, यह संस्था ही उसका सहारा है। 

भाग्य विधाता क्या-क्या कर देता है। शायद विधाता को भी नहीं मालूम कि मनुष्य को कितने दुःख झेलने पड़ते हैं। किसी के भाग्य में दुःखों का अंधकार है, तो किसी को मिलता है, आँसूओं का सैलाब। वह जी रही है, वर्तमान में, परन्तु अतीत की स्मृतियाँ तरोताजा हैं। पिता की मृत्यु ने गहरा आघात पहुँचाया था। चार भाइयों का घर बस गया, वह रह गई थी बिन ब्याही। पिता जीवित थे, तब तक बोलते जरुर, मौका देखकर बेटी के हाथ पीले कर देंगे, परन्तु उन्हें मौका नहीं मिला। भैया-भाभी निचट स्वार्थी निकले। अपना-अपना ही देखने लगे, मन बड़ा उदास था। किसी तरह स्नातक उत्तीर्ण हो पाई थी। 

एकदिन माँ ने पहल की और कही- बेटी।।! रायपुर का किशन अच्छा लड़का है, श्यामलाल जी का एकलौता पुत्र है। थोड़ी सी खेती है, जिसमें घर के लिये खाद्यान्न हो जाता है। एस।टी।डी।, पी।सी।ओ। की दुकान है, जिससे अच्छी आमदनी हो जाती है, वे लोग तैयार हैं, तो बात करुँ। सुखी रहेगी तू। उसने हाँ कर दी। निर्धारित तिथि पर धूमधाम से शादी भी सम्पन्न हो गई। 

ससुराल में गिनती के लोग, पति किशन और उसके ससुर जी श्याम लाल। सास कुछ साल पहले ही चल बसी थी। उसने यहाँ आकर सारा काम-काज संभाल रखा था। नित्य का क्रम था।।। सुबह तड़के उठना, ईश्वर की पूजा करना, नाश्ता तैयार करना, फिर दो वक्त का भोजन बनाना। खाली समय पढ़ाई-लिखाई करती। सचमुच बहुत सुखी थी वह, परन्तु नियति ने पलटा खाया। 

एकदिन खबर मिली, कि किशन सरकरी अस्पताल में दाखिल है। उसके ससुर ने सुना, तो कानों पर विश्वास न हुआ। उसने सोचा-अभी भला चंगा था। अचानक क्या हो गया होगा, जो अस्पताल में भर्ती होना पड़ गया। अप्रत्याशित भय से उनके हाथ-पैर काँप रहे थे। अपनी बहू को कैसे बतायें वो। सोचा पहले अस्पताल में जाकर पुत्र की हालत देख लें, फिर बहू को सूचना दे दी जाय। ससुर जाने को तैयार हुये ही थे कि पर्दे की ओट से सुलक्षणा बोली- बाबू जी।।! मैं भी चलूँगी अस्पताल। यानी बहू को पता चल ही गया। बोले- तुम्हें जब मालूम हो ही गया है तो चलो बेटा।।! और वह अस्पताल की ओर चल पड़ी थी, परन्तु वहाँ आई।सी।यू। खाली पड़ा था। कोई नहीं था किशन के पास। 

वह सारी बात समझ गई। डॉक्टरों ने स्थिति संभालने की कोशिश की होगी, परन्तु सफल नहीं हुये। उसने काँच के बाहर से देखा किशन का निश्तेज शरीर। चेहरा रूआँसा हो गया,सब कुछ समाप्त। उसे लगा, दहाड़ मारकर रो पड़े परन्तु अस्पताल में यह सब कैसे।।।कैसे रोये। बाबू जी उदास से एक ओर खड़े थे, वह जानती थी कि जानेवाले के साथ दुनिया नहीं चली जाती, परन्तु रो भी नहीं सकती। सारा दुःख समेटकर वह चुपचाप अस्पताल से घर चली आई। 

बाबू जी ने औपचारिकताएँ पूरी की। बॉडी घर लाई गई। डाक्टरों ने कहा- हृदयघात हो गया। कोहराम मच गया। पास-पड़ोस के लोग, नाते रिश्तेदार और न जाने कहाँ से लोग उसके पति की अंतिम क्रिया में भाग लेने पहुँचे थे सब साँत्वना देते और कहते- बेटा।।! रोओ मत। विधाता की करनी कौन जानता है जो होना था, हो गया। अजीब विधाता है, जो मरना चाहता है, उसे मरने नहीं देता। जिन्दा रहना है, बहुत कुछ करना है, उसे तुरंत उठा लेते हैं। उसकी आँखों से आँसूओं की झड़ी थमती न थी किसी तरह खुद को बहलाने की कोशिश करती। अब तो केवल बाबू जी ही उसके लिये सहारा थे। कभी किशन की याद आती। तो हाथ पर हाथ धरे चिंता किया करती। बाबू जी उसे बहुँत ढाढस बँधाते और कहते- ज्यादा मत सोचो बहू।।! अब तू मेरी बहू नहीं, बेटी है।।।बेटी। 

समय बीतते कितनी देर लगती है। बाबू जी कमजोर हो गये थे। उन्हें चलना फिरना असहय हो गया था। एकदिन उसने बुलाकर कहा था- बेटा।।! ये कुछ रुपये इकट्ठे किये हैं मैंने, इनसे तू एक स्कूल खोल लेना, इससे तुझे कभी कोई परेशानी नहीं होगी, पता नहीं मुझे कब क्या हो जाये। उर्ध्वश्वॉंस लेकर वे चुप हो गये। तब सुलक्षणा ने उन्हें हिदायत दी थी- बाबू जी।।! आप ऐसा क्यों कहते हैं बार-बार, मुझे आपका मार्गदर्शन चाहिए। आप मेरे लिये जिन्दा रहेंगे, मेरे लिये। वह जानती है कि ससुर कमजोर हो गये है, फिर भी साँत्वना देना पड़ता है। एक दूसरे को साँत्वना देना ही जीवन का उद्देश्य रह गया है और एकदिन सचमुच बाबू जी ने प्राण त्याग दिये। वह बिलख-बिलखकर रो पड़ी थी। जितने मुँह उतनी बातें, कोई कहता कैसे करेगा यह जीवन भर अकेली असहाय। उधर दबी जुबान से लोग उसकी तारीफ करते भी न अघाते थे, कहते- बड़ी होशियार निकली श्यामलाल की बहू। परिवार में कोई न रहा। खैर जीवन की डगर अकेले ही तय करनी थी। उम्र भी तो अच्छी खासी हो गई थी। इस उम्र में व्यक्ति परिस्थितियों से समझौता करने लग जाता है। अब एकाकीपन का अभ्यास हो गया है, खाली समय काटने दौड़ता था, इसलिये समय का सदुपयोग कर उसने स्नातकोत्तर की डिग्री ले ली। 

समय गुजरता गया। अपने ससुर, जिन्हें वह पूज्य बाबू जी कहा करती थी, का सपना पूरा करने की ठान ली। उसने बड़ा सा भू-भाग खरीदकर स्कूल निर्माण किया। उसने प्री-प्रायमरी व प्रायमरी स्कूल खोल दिया। अच्छे स्टॉफ नियुक्त किये गये और एकदिन क्षेत्र के विधायक जनक लाल के हाथों संस्था का उद्घाटन हो गया। संस्था का नाम बाबू जी के नाम पर श्यामलाल स्मृति पब्लिक स्कूल रखा गया। सारी जनता उसकी स्कूल को एस।पी।एल। के नाम से जानती है। अब तो यहाँ माध्यमिक तथा हॉयर सेकण्डरी भी खुल गया है। शिक्षा का स्तर अच्छा समझ कर उसे डोनेशन का ऑफर भी मिलता रहता है, परन्तु छि:।।! उसे नहीं चाहिये डोनेशन। 

मैडम।।! केबिन में आकर चपरासी ने पुकारा तो वह वर्तमान में आई, पूछा- क्या है।।।बोलो।।! मैडम, पूर्व विधायक जनकलाल जी के साथ कुछ लोग आये हैं। आपसे मिलना चाहते हैं। भेज दूँ मैडम? अच्छा हाँ।।। भेज दो- कहकर वह कुर्सी पर अलर्ट हो गई। जाने क्यों एम।एल।ए। मिलना चाहते हैं? मन ही मन सोचा उसने। इतने में जनकलाल सहित कुछ जन-प्रतिनिधियों ने केबिन में प्रवेश किया। बोले- माफ कीजिये मैडम।।! आपको डिस्टर्ब किया। बात यह थी कि, मुख्यमंत्री जी ने हमें भेजा है, उनका आग्रह है कि राज्य विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व आपके द्वारा हो, तो बड़े सौभाग्य की बात होगी। उसे लगा कि प्रस्ताव ठुकरा दें और स्पष्ट कह दें कि उसे चुनाव-उनाव नहीं लड़ना। उसने अनवरत श्रम की प्रतीक उसकी संस्था का क्या होगा? जनकलाल ने उसके मन की बात भाँप ली और उदारता पूर्वक बोले- मैडम।।! आपकी संस्था पूर्ववत् सुचारू रूप से चलेगी, चिंतित न हो। दरअसल ऐसा व्यक्ति क्षेत्र में नहीं है, इसीलिये यहाँ से आपका प्रतिनिधित्व आवश्यक है, अत: आग्रह है। अच्छा भाई साहब।।! आप सब यही चाहते हैं, तो ठीक है कुछ सोच कर उसने स्वीकृति दे दी। 

कुछ क्षण पश्चात् संस्था परिसर में नारा गूँजने लगा- सुलक्षणा जी की जय! मैडम की जय !! संस्था की जय !! केबिन के भीतर टंगे पति और बाबूजी के चित्रों को देखकर उसकी आँखों से खुशी के आँसू झर-झर बह निकले। 

चंद्रशेखर आजाद

जीवन परिचय 

काकोरी ट्रेन डकैती और साण्डर्स की हत्या में शामिल निर्भय क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद, का जन्म 23 जुलाई, 1906 को उन्नाव, उत्तर प्रदेश में हुआ था। चंद्रशेखर आजाद का वास्तविक नाम चंद्रशेखर सीताराम तिवारी था। चंद्रशेखर आजाद का प्रारंभिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र भावरा गाँव में व्यतीत हुआ। भील बालकों के साथ रहते-रहते चंद्रशेखर आजाद ने बचपन में ही धनुष बाण चलाना सीख लिया था। चंद्रशेखर आजाद की माता जगरानी देवी उन्हें संस्कृत का विद्वान बनाना चाहती थीं। इसीलिए उन्हें संस्कृत सीखने लिए काशी विद्यापीठ, बनारस भेजा गया। दिसंबर 1921 में जब गाँधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन की शुरूआत की गई उस समय मात्र चौदह वर्ष की उम्र में चंद्रशेखर आजाद ने इस आंदोलन में भाग लिया जिसके परिणामस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित किया गया। जब चंद्रशेखर से उनका नाम पूछा गया तो उन्होंने अपना नाम आजाद और पिता का नाम स्वतंत्रता बताया। यहीं से चंद्रशेखर सीताराम तिवारी का नाम चंद्रशेखर आजाद पड़ गया था। चंद्रशेखर को पंद्रह दिनों के कड़े कारावास की सजा प्रदान की गई। 

क्रांतिकारी जीवन 

1922 में गाँधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया गया। इस घटना ने चंद्रशेखर आजाद को बहुत आहत किया। उन्होंने ठान लिया कि किसी भी तरह देश को स्वतंत्रता दिलवानी ही है। एक युवा क्रांतिकारी प्रनवेश चैटर्जी ने उन्हें हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन जैसे क्रांतिकारी दल के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल से मिलवाया। आजाद इस दल और बिस्मिल के समान स्वतंत्रता और बिना किसी भेद-भाव के सभी को अधिकार जैसे विचारों से बहुत प्रभावित हुए। चंद्रशेखर आजाद के समर्पण और निष्ठा की पहचान करने के बाद बिस्मिल ने चंद्रशेखर आजाद को अपनी संस्था का सक्रिय सदस्य बना दिया। अंग्रेजी सरकार के धन की चोरी और डकैती जैसे कार्यों को अंजाम दे कर चंद्रशेखर आजाद अपने साथियों के साथ संस्था के लिए धन एकत्र करते थे। लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिए चंद्रशेखर आजाद ने अपने साथियों के साथ मिलकर सॉण्डर्स की हत्या भी की थी। आजाद का यह मानना था कि संघर्ष की राह में हिंसा होना कोई बड़ी बात नहीं है इसके विपरीत हिंसा बेहद जरूरी है। जलियाँवाला बाग जैसे अमानवीय घटनाक्रम जिसमें हजारों निहत्थे और बेगुनाहों पर गोलियाँ बरसाई गईं, ने चंद्रशेखर आजाद को बहुत आहत किया जिसके बाद उन्होंने हिंसा को ही अपना मार्ग बना लिया। 

झांसी में क्रांतिकारी गतिविधियाँ 

चंद्रशेखर आजाद ने एक निर्धारित समय के लिए झांसी को अपना गढ़ बना लिया। झांसी से पंद्रह किलोमीटर दूर ओरछा के जंगलों में वह अपने साथियों के साथ निशानेबाजी किया करते थे। अचूक निशानेबाज होने के कारण चंद्रशेखर आजाद दूसरे क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने के साथ-साथ पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के छ्द्म नाम से बच्चों के अध्यापन का कार्य भी करते थे। वह धिमारपुर गाँव में अपने इसी छद्म नाम से स्थानीय लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गए थे। झांसी में रहते हुए चंद्रशेखर आजाद ने गाड़ी चलानी भी सीख ली थी। 

चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह 

1925 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की गई। 1925 में काकोरी कांड हुआ जिसके आरोप में अशफाक उल्ला खां, बिस्मिल समेत अन्य मुख्य क्रांतिकारियों को मौत की सजा सुनाई गई। जिसके बाद चंद्रशेखर ने इस संस्था का पुनर्गठन किया। भगवतीचरण वोहरा के संपर्क में आने के बाद चंद्रशेखर आजाद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के भी निकट आ गए थे। इसके बाद भगत सिंह के साथ मिलकर चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजी हुकूमत को डराने और भारत से खदेड़ने का हर संभव प्रयास किया। 

चंद्रशेखर आजाद का निधन 

1931 में फरवरी के अंतिम सप्ताह में जब आजाद गणेश शंकर विद्यार्थी से मिलने सीतापुर जेल गए तो विद्यार्थी ने उन्हें इलाहाबाद जाकर जवाहर लाल नेहरू से मिलने को कहा। चंद्रशेखर आजाद जब नेहरू से मिलने आनंद भवन गए तो उन्होंने चंद्रशेखर की बात सुनने से भी इंकार कर दिया। गुस्से में वहाँ से निकलकर चंद्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ एल्फ्रेड पार्क चले गए। वे सुखदेव के साथ आगामी योजनाओं के विषय में बात ही कर रहे थे कि पुलिस ने उन्हे घेर लिया। लेकिन उन्होंने बिना सोचे अपने जेब से पिस्तौल निकालकर गोलियाँ दागनी शुरू कर दी। दोनों ओर से गोलीबारी हुई। लेकिन जब चंद्रशेखर के पास मात्र एक ही गोली शेष रह गई तो उन्हें पुलिस का सामना करना मुश्किल लगा। चंद्रशेखर आजाद ने पहले ही यह प्रण किया था कि वह कभी भी जिंदा पुलिस के हाथ नहीं आएंगे। इसी प्रण को निभाते हुए उन्होंने वह बची हुई गोली खुद को मार ली। 

पुलिस के अंदर चंद्रशेखर आजाद का भय इतना था कि किसी को भी उनके मृत शरीर के के पास जाने तक की हिम्मत नहीं थी। उनके शरीर पर गोली चला और पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही चंद्रशेखर की मृत्यु की पुष्टि हुई। बाद में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जिस पार्क में उनका निधन हुआ था उसका नाम परिवर्तित कर चंद्रशेखर आजाद पार्क और मध्यप्रदेश के जिस गाँव में वह रहे थे उसका धिमारपुरा नाम बदलकर आजादपुरा रखा गया।

भारतीय गणना

आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!