रविवार, 18 अगस्त 2013

समर्पित कला साधक

छत्तीसगढ़ी लोकनृत्य परंपराओं के रक्षण हेतु पूरा शिद्दत के साथ समर्पित एक लोक कलाकार है नीलमदास मानिकपुरी। नीलम ने छत्तीसगढ़ी फोक नृत्य को प्रदेशव्यापी प्रतिष्ठा दिलाने में अहम भूमिका निभाई है। लोककला जगत से जुड़े लोगों के बीच उनका एक विशिष्ट स्थान रहा है। नृत्य साधना को समर्पित नीलमदास मानिकपुरी लोककला मंच ‘‘पहाती सुकवा’’ के माध्यम से शुरू किया है। उनका कोई गुरू नहीं है बल्कि उन्हें बहन रामेश्वरी यादव से बहुत कुछ सीखने को मिला है। वर्तमान में ‘‘अनुराग धारा’’ लोककला मंच से जुड़कर लोकनृत्य की प्रचार-प्रसार में जुटे हुए हैं, ताकि अगली पीढ़ी तक फोक नृत्य को पहुँचायी जा सके। लोककला के प्रति समर्पित नीलम से हुई दरवेश आनंद की बातचीत—

अपना बचपन व शिक्षा- दीक्षा के संबंध में बताइए तथा लोकनृत्य की ओर कैसे विचार गया?
विद्यार्थी जीवन से ही कला में रूचि लेना शुरू कर दिया था, गाँव की लीला मंडली में। ‘‘सोनचिरइया’’ कार्यक्रम सन् 1980-81 में हो रहा था। उसे देखकर मन में कला प्रदर्शन करने का विचार आया।

आपकी कला यात्रा कहाँ से और कैसे शुरू हुई एवं किस-किस लोककला मंच से जुड़े रहकर प्रदर्शन करते आ रहे हैं आप?
‘‘पहाती सुकवा’’ खलारी से मेरी कला यात्रा शुरू हुई। इसके बाद शेखर साहू के साथ भुँइयाँ के सिंगार दल्लीराजहरा, सीताराम साहू के साथ सूरजमुखी पेण्ड्री में डांस व प्रहसन करता रहा। बाद में ‘‘लोकमंजरी’’ संस्था भिलाई से जुड़ गया और यहाँ से एक नाम मिला, पिछले 16 वर्ष तक ‘‘चंदैनी गोंदा’’ में काम किया। वर्तमान में गायिका कविता वासनिक के साथ अनुराग धारा राजनांदगाँव से जुडक़र कला यात्रा जारी है।

किसे अपना आदर्श मानते हैं?
विश्वनाथ धारगे जो सोनहा बिहान में लोरिक का किरदार निभाते थे, उससे मैं प्रभावित रहा।

आप क्लासिक डांस या फिर फोक डांस को ज्यादा महत्व देते हैं?
फोक डांस को महत्व देता हूँ लेकिन क्लासिक डांस की शिक्षा लोक कलाकार को जो डांस में रूचि रखते हैं लेना चाहिए। इससे ताल व भाव में तादात्म्य बैठता है नृत्य में कहीं चूक नहीं होती और फोक नृत्य तो अंतरात्मा की आवाज होती है इसे सीखने की जरूरत नहीं है।

आजकल छत्तीसगढ़ी एलबम का दौर चल रहा है इससे कितना संतुष्ट है एवं खुद को कहाँ पाते हैं?
वर्तमान में छत्तीसगढ़ी संगीत का स्वरूप ही बदल चुका है बंबइया ढर्रे पर चल रहा है, अपने आप को कहीं नहीं पाता। छत्तीसगढ़ी की जो मिठास है वो एकदम खो गया है। लगता है मधुर गीतों का युग खत्म हो चला है।

छत्तीसगढ़ी गीतों में इन दिनों बेहूदा शब्दों का धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है, कौन जिम्मेदार है व इससे बचने क्या प्रयास किया जा सकता है?
इसे बचाने के लिए साहित्यकारों को आगे आने की जरूरत है। एक वैचारिक क्रांति की चाहिए। ऐसे गीत संगीत से कलाकारों को भी परहेज करने की आवश्यकता है। तभी लोक संस्कृति बचायी जा सकती है।

लोककला और लोक सर्जकों को बचाए रखने की दिशा में सरकार की क्या भूमिका है तथा क्या होनी चाहिए?
लोक कलाकारों के प्रति सरकार की सोच कोई खास नहीं है। पेंशन योजना भी पर्याप्त नहीं है। जीवनभर एक कलाकार घर बार त्यागकर लोगों के मनोरंजन करने व लोक विलुप्त हो रही कला को बचाने में गवाँ देता है। उसे पेंशन के बतौर चंद रूपये दिया जाता है।

आज लोककला मंच का अस्तित्व खोता जा रहा है ऐसे आयोजन में भीड़ कम होती जा रही है?

टी. वी. सीरियल प्रभावित कर रहा है। भीड़ जरूर कम होती है लेकिन आज भी कहीं पर लोककला आयोजित होती है लोग देखने आते हैं। नई पीढ़ी में रूचि कम तो है किन्तु पुराने दर्शक आज भी है।
छत्तीसगढ़ी फिल्मों के प्रति आपकी नजरिया व कितने फिल्म में अभिनय कर चुके है?
डांड़ नामक फिल्म में अभिनय व ग्रुप डांस कर चुका हूँ। इसके अलावा 3-4 फिल्म में भी काम करने का मौका। मिला अभिनय भी किया लेकिन छत्तीसगढ़ की महक नहीं मिलती। मोर छंइया भूंइया के बाद लोक संस्कृति की छाप छोडऩे वाली फिल्म नहीं बनी। साउथ इंडियन व बंबइया पैटर्न में ज्यादातर फिल्म बन रही है।

सरकार द्वारा दिए जाने वाले सम्मान को कैसे देखते हैं?
ऐसे कलाकारों को ढूंढकर सम्मान दिए जाने की जरूरत है जो 20-25 साल से लोककला के क्षेत्र में कार्य करते आ रहे हैं। सरकार गिने-चुने लोगों को ही सम्मान बाँट रही है यह कलाकारों की उपेक्षा है। इसी तरह राज्योत्सव व जिला उत्सव के आयोजन पर स्थानीय कलाकार को स्थान नहीं दिया जाता है। बाहरी कलाकारो पर करोड़ों खर्च कर दिया जाता है ऐसा करने के बजाय राज्य के बेरोजगार कलाकारों की रोजी रोटी के बारे में सरकार को सोचना चाहिए।

छत्तीसगढ़ी संस्कृति का दूसरे प्रांतों में कितना दखल अथवा प्रभाव देखते हैं आप?
छत्तीसगढ़ के कलाकार अन्य प्रांतों से प्रभावित होते हैं, दूसरे नहीं, जबकि हमारी संस्कृति बेहद प्रभावशील है। छत्तीसगढ़ में आकर गुजर बसर करने वाले लोग चाहे वह राजस्थानी हो बिहारी हो उड़िया, तेलगू, बंगाली हो अपना लोक गीत सुनते हैं लेकिन छत्तीसगढ़िया ऐसा नहीं करते। जब हम अपनी संस्कृति का सम्मान नहीं करेंगे, तो कोई व्यक्‍ति बाहरी कैसे करेगा।

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आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!