रविवार, 10 जुलाई 2016

छत्तीसगढ़ में भी ‘छत्तीसगढ़ी’ बनाम ‘बाहरी’ की आग, आखिर क्यों?

एक तरफ जहाँ राष्ट्रवादी विचारधारा अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए ‘ऱाष्ट्र प्रथम’ जैसे जुमले गढ़ रही है तो दूसरी ओर स्थानीय अस्मिता की कुलबुलाहट देश के अलग-अलग हिस्सो में आंदोलन और विरोध की शक्ल में देश को झकझोरने में लगी हुई है। अब छत्तीसगढ़ में भी ‘बाहरी हटाओ’ के नारे बुलंद हो रहे हैं। अजीत जोगी की नई पार्टी बनाने के ऐलान के बाद बाहरीवाद पर हो हल्ला और तेज़ हो गया। आउटसोर्सिंग और भाषा, संस्कृति की उपेक्षा पर आंदोलन करने वाले संगठन अब खुलकर कथित बाहरियों के खिलाफ़ पोस्टरबाजी करने लगे हैं, अजीत जोगी द्वारा क्षेत्रीय अस्मिता पर राजनीतिक दाँव खेलने का विस्तार तो देखा ही जा सकता है लेकिन कुछ समय से छत्तीसगढ़ी अस्मिता के लिए आंदोलनरत ‘छत्तीसगढ़ क्रान्ति सेना’ ज़मीन से लेकर साईबर तक एक उग्र वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार करने में जुटी हुई है, ऐसे में सवाल उठता है कि इन गतिविधियों और चेष्टाओं के पीछे राजनीतिक स्वार्थ की मंशा है या अंसतोष की पीड़ा या दोनों भावों के एकसार होने से पैदा हुई परिस्थितियाँ। 


आजादी के पूर्व भी भारत में सांस्कृतिक, भौगोलिक और राजनीतिक बिखराव रहा है जिसने आज़ाद भारत में एक राष्ट्र का स्वरूप ज़रूर लिया लेकिन जल्द ही अपने पृथक अस्तित्व के लिए संघर्ष भी करने लगा नतीज़तन भाषाई आधार पर राज्य गठन का दौर शुरू हो गया। यह स्थिति भी कोई ज्यादा चिंताजनक नहीं थी लेकिन चिंताजनक तब हुई जब अलग-अलग भाषा-भाषियों के मध्य किसी कारण से कटुता पैदा हुई फिर जिसकी परिणति साठ के दशक में कन्नड़भाषियों द्वारा मलयालम और तमिलों के ख़िलाफ़ आवाज़ बनकर उभरी जिसमें वे बाहरी लोगों के बजाय कन्नड़ लोगों को नौकरी देने की माँग कर रहे थे फिर ये आग 1965 के आसपास तमिलनाडु में लगी और तमिलनाडु से उत्तरभारतीयों को खदेड़ा जाने लगा, हमारे सामने असम, मेघालय, त्रिपुरा, पंजाब के कई उदाहरण हैं जहाँ इस विरोध ने हिंसक रूप भी ग्रहण किया और भारतीय नागरीक के बरक्स क्षेत्रवाद ने बहुतों को बाहरी बना दिया। महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता के नाम पर आए दिन दूसरे प्रदेश से आए लोगों के साथ विवाद की परिस्थितियाँ निर्मित होती रहती है। इस वैमनस्यता के असर से पूरा देश क्षेत्रवाद के भावों से खण्ड-खण्ड होकर अस्मिता बोध के बजाय टकराव और बिखराव की ज़मीन तैयार करने लगता है। यह आरोप किसी एक प्रदेश के ऊपर नहीं है बल्कि हर प्रदेश अपनी-अपनी सीमाओं के भीतर ऐसे क्रियाकलापों को अंजाम देने में नहीं हिचकते ।

लेकिन छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यह बातें काफी हद तक चौकाने वाली है क्योंकि छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्नदृष्टा कहे जाने वाले खूबचंद बघेल ने भी ऐसे विवादों को अपने आंदोलन में पनपने नहीं दिया था और सबको साथ लेकर चलने की पैरोकारी करते रहे। यहाँ रहने वाले शांतचित्त निवासियों की वज़ह से छत्तीसगढ़ की मिट्टी बाहर से आए लोगों के लिए उर्वर बनी रही इसलिए औद्योगिक, राजनीतिक और व्यावसायीक घरानों में बाहर के राज्यों से आए लोगों का कब्जा रहा है। ‘छत्तीसगढ़ क्रांति सेना’ के प्रमुख अमित बघेल कहते हैं कि ‘जो छत्तीसगढ़ की लोक कला और संस्कृति का सम्मान करता है, वह छत्तीसगढ़िया है। हम शिवसेना की तरह नहीं सोचते। हमारी सोच में स्वाभिमान है अभिमान नही्ं। हमारे बाबा डॉ. खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढ़ भातृ संगठन का गठन किया। इस मंच से पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की परिकल्पना की। हमें पृथक राज्य तो मिला लेकिन न्याय नहीं मिला। बाहरी लोगों ने हमेें नीचा दिखाने का प्रयास किया है। बाहरी लोगों ने छत्तीसगढ़ की संपदा पर कब्जा कर लिया है। हमारी रत्नगर्भा धरती बाँझ होती जा रही है।’

इस बात से यह अंदाज़ा लगाना आसान हो जाता है कि स्थानीय लोगों की उपेक्षा होने से ऐसा मौसम तैयार हो रहा है।

अभी हाल ही में शिक्षा विभाग के द्वारा छत्तीसगढ़ के स्कूलों में ओड़िया पढ़ाने का आदेश जारी हुआ और वहीं से क्रांति सेना का उभार भी शुरू हो गया। तब क्रांति सेना ने अपने पोस्टरों और सोशल मीडिया के ज़रिए कहा कि- ‘हमें इस देश की किसी भी भाषा और संस्कृति से वैचारिक तौर पर कोई विरोध नहीं है, लेकिन जब तक यहाँ की मातृभाषा में संपूर्ण शिक्षा की व्यवस्था नहीं हो जाती, तब तक किसी भी अन्य प्रदेश की भाषा को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जायेगा।’

इसके बाद आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर भी इनका आंदोलन चलता रहा और जब रायपुर स्थित तेलीबाँधा तालाब का नाम बदलकर विवेकानंद सरोवर रखने का प्रस्ताव आया तब पहली दफा स्थानीय संस्कृति के संरक्षण के लिए बड़ी संख्या में लोग एकजुट होकर इस प्रस्ताव के खिलाफ़ सड़क पर उतर आए।

छत्तीसगढ़ी बनाम बाहरी विवाद पर सामाजिक कार्यकर्ता नंद कश्यप कहते हैं कि ‘इस विवाद में दो धाराएँ हैं, एक विभाजनकारी नस्लीय तरह की जो अचानक आए मूल निवासी फैशन से उपजी है, दूसरी धारा समता वाली है जो कि यह मानता है कि छत्तीसगढ़ में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का सिर्फ दोहन हो रहा है परंतु छत्तीसगढ़ के नौजवान किसान, मज़दूरों को इसका तनिक भी हिस्सा नहीं मिल रहा है। छत्तीसगढ़ की गरीबी इसका ज्वलंत उदाहरण है। इसलिए छत्तीसगढ़ी बनाम बाहरी भावना उभार पर है।’

इन बातों का अगर बारिकी से अध्ययन किया जाए तो लगता है कि ये ‘छत्तीसगढ़ी बनाम बाहरी’ विवाद ना होकर शोषण के विरूद्ध पैदा हुई भावना है जिसका राजनीतिक विस्तार किया जा रहा । साहित्यकार संजीव तिवारी के अनुसार ‘गैर छत्तीसगढ़िया धुन के सहारे स्थानीय नेताओं के विकास की संभावना देखते हुए ऐसे विवाद को बढ़ाते हैं जिसका उद्देश्य शीर्ष नेतृत्व में स्थापित गैर छत्तीसगढ़ियों को हटाना है।’

शायद इसीलिए अमित जोगी आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर कहते हैं ‘कि प्रदेश सरकार को छत्तीसगढ़ के शिक्षित बेरोजगार युवाओं के हितों की रक्षा के लिए छत्तीसगढ़ में नौकरी के लिए छत्तीसगढ़ में बोले जाने वाली छत्तीसगढ़ क्षेत्र की भाषाओं के ज्ञान की अनिवार्यता का नियम बनाना चाहिए और यह बोलकर बहुत पहले ही अमित जोगी ने अपनी क्षेत्रीय राजनीति की ज़मीन तैयार करने की शुरूआत कर दी थी। इसका मतलब उपेक्षित भाषा, संस्कृति और लोगों को राजनीतिक विकल्प देने की घोषणा के पीछे ना केवल राजनीति है बल्कि विभिन्न कारणों से पैदा हुई परिस्थितियाँ हैं जिसमें स्थानीयता को अनदेखा करने के कारण उत्पन्न आक्रोश भी है जो कि स्थानीय राजनीति के उभार के लिए ईंधन की तरह है।

इसी आक्रोश की बानगी उन पोस्टरों में भी देखी जा सकती है जिसमें गैर छत्तीसगढ़ी नेताओं और मंत्रियों की तस्वीरें हैं जिसमें मुख्यमंत्री रमन सिंह की तस्वीर भी प्रमुखता से लगाई गई है।

लेकिन अब डर इस बात का है कि ये विरोध राजनीति के रास्ते ‘छत्तीसगढ़ी’ और ‘गैर छत्तीसगढ़ी’ लोगों के बीच पारस्परिक कटुता का कारण ना बन जाए। इस पर चिंता ज़ाहिर करते हुए साहित्यकार संजीव तिवारी कहते हैं कि जो मन-क्रम वचन से छत्तीसगढ़ी से प्रेम करता है वह छत्तीसगढ़िया है पत्रकार शेखर झा इसके जींवत उदाहरण हैं। बिहार के मिथिलाभाषी शेखर ने कुछ ही सालों में छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी को पूरी तरह से आत्मसात किया यह एक उदाहरण है ऐसे कई होंगे और आज ऐसे कईयों के लिए छत्तीसगढ़ की परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो जाए इससे पहले सरकार को छत्तीसगढ़ की संस्कृति, भाषा और लोगों के विश्‍वास पर खरा उतरना पड़ेगा अन्यथा अंसतोष की आग का राष्ट्रीय संस्कृति के लिए घातक साबित होने की संभावना बढ़ जाएगी।

छत्तीसगढ़ी को राजकाज की भाषा बनाने के लिए आंदोलन कर रहे नंदकिशोर शुक्ल कहते हैं कि ‘छत्तीसगढ़ अस्मिता की पहचान मेरी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी सहित यहाँ की सभी मातृभाषाएँ हैं लेकिन इन मातृभाषाओं में पढ़ाई लिखाई आज तक नहीं होने दी जा रही है जिसके लिए जवाबदार गैर छत्तीसगढ़िया सरकार है जिस भाषा में पढ़ाई लिखाई नहीं होती वह भाषा मर जाती है जो मुझे मंज़ूर नहीं।’

इन तमाम बातों के मूल में एक चीज़ नज़र आती है कि स्वतंत्र भारत में सभी संस्कृतियों को फलने फूलने का संविधानिक अधिकार होने के बावजूद कथित पॉप्यूलर कल्चर को थोपकर स्थानीय संस्कृतियों, भाषाओं और लोगों की उपेक्षा की जाती रहेगी तब कभी ना कभी वह गुस्सा किसी भी रूप में बाहर आकर राष्ट्र को झकझोरता रहेगा। स्थानीयता की उपेक्षा कर राष्ट्रवाद की दुहाई देना बिल्कुल बेमानी और ख़तरनाक है।
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AKSHAY DUBEY SAATHI
http://akshaydubeysaathi.jagranjunction.com

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भारतीय गणना

आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!