गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

माटी महतारी

सोनारू तँय ह बइठे-बइठे काय सोचत हाबस। बेटा, जऊन होगे तऊन होगे। अब तोर सोंचे ले हमर जमीन ह नइ आवय। जा रोजी-मंजूरी करके ले आ बेटा, पानी-पसिया पीबो। निहीं त भूखे मरे ल परही। थोर बहुँत पढ़े-लिखे रहितेंव रे सोनारू.. त तोर बाप, कका अऊ गाँव के मन ल समझातेंव। दलाल के बात म नइ आतेंव।
बबा हमन तो फेक्टरी म माटी महतारी ल बेंच के अपन गोड़ म टँगिया ल चला डरे हाबन अऊ एकर भुगतना ल हमन सात पीढ़ी ले भुगते ल परही बबा। सिरतोन काहत हाबस सोनारू... मंद पीके तोर बाप ह करनी करे हावय अऊ हमन ल भुगते ल परही रे। चार ठन खेत ह हमन ल पोसत रिहिस बेटा..! ‘माटी ह महतारी आवय’ अऊ सबके पेट ल भरथे रे, फेर एक ठन फेक्टरी ह एक मनखेच ल मजदूरी के काम दिही जेमा घर के दस मनखे के पेट ह नइ पलय बेटा..! सिरतोन काहत हाबस बबा फेक्टरी म काम करे बर पढ़े-लिखे अऊ सिच्छित चाही हमन तो अप्पड़ आन बबा। फेर साहेब-अधकारी मन तो पढ़े-लिखे हावँय तभो ले हमर मन बर नइ सोंचिन। हमर दू फसली भुँईंया ल बंजर बता के अँगठा चपका दीन। (ओतके बेर सोनारू के काकी आइस)- ‘तोर कका ह चार दिन होगे, बेटा नइ आय हे गा। चार दिन होगे घर म हँड़िया नइ चढ़े हाबय।’ जानत हँव काकी... फेर काय करहूँ थोरकन तहसीली म जाके पूछताछ करबे तहॉं कुछु भी कहिनी बना के जेल म ओइला देवत हाबय काकी।

कोतवाल ह हॉंका पारत रिहिस। चिचियावत सोनारू के घर करा अइस, सोनारू पूछथे- ‘अब काके बईठका आय बबा।’
-‘काला बतावँव रे सोनारू, हमन ल रद्दा बतइया समारू गुरुजी ह घलो अब इहॉं ले चल दिही।
-‘काबर?’
-‘ओकर बदली करदीन बेटा..! गुरुजी मन मुआवजा ल नइ ले हाबय अऊ गाँव वाला मन ल सीखोवत हाबय कहिके उही पूछे खातिर तोर ककामन गे रिहिस। तेला जेल म डार देहे।
-‘साहब मन हमर मन के बात ल काबर नइ सुनय कका।’
-‘अरे बेटा, हमन गरीब किसान आवन गा... साहब मन ल काय दे सकबो। फेक्टरी वाला मन कलेक्टर ले लेके पटवारी ल चार चकिया दें हाबय। तेकर सेती तो ओमन रोज गाँव के चक्कर मारथें। गाँव के दलाल मन घलो मालामाल हो गेहें।’
दस बजे बिहनिया खा-पी के गुड़ी म सकलाहू होऽऽऽऽऽ..! बारा गाँव के मनखे मन घलो आहीं होऽऽऽऽऽ..! कोतवाल ह पूरा बस्ती म हाँका पार के चल देथे। ओतके बेरा सरपंच ह सोनारू के बबा करा आइस।
-‘पा लगी मंडल कका।’
-‘खुसी रा बेटा..! अब कइसे करबो कका अब तो कइसनों करके हमन ला फेक्टरी वाला मन ल भगाय ल लागही बेटा! कतको मन तो मुआवजा लेके पइसा ल खा डरे हावय, आधा झन मन बाँचे हावय। फेक्टरी के खुले ले कका कोसा पालन केन्द्र ह घलो बरबाद हो जही। फेक्टरी के गरमी म कोसा कीरा मर जही, त कँड़ोरो के लगाय रुपिया ह बरबाद हो जही। सरकार के काय जाही बेटा..! जनता के कमई ल पानी कस बोहाही नहीं त का। कतको बेरोजगार होही त ओला काय फरक परही। फेक्टरी वाला मन नोट के गड्डी ल धराही तहॉं सब चुप हो जहीं। ले कका बिहनिया कुन गुँड़ी म आ फेर।

होत बिहनिया गाँव म चहल-पहल सुरू होगे। काबर बारा गाँव के लोगन मन आय के सुरू करदे रिहिस। दस बजते साठ गुड़ी म मनखे मन खमखमागे। दुदमुहॉं लइका मन ल पीठ म बॉंध केझॉंसी के रानी बरोबर माईलोगिन मन आय रहिन। काबर कोंनो महतारी ह अपन लईका के पेट म लात नइ मार सकँय। सरपंच ह कथे- कइसे बतावव काय करबो तऊन ल.. ओतके बेरा एक ठन चार पहिया ह आके ठाड़ होगे। सब उही ल देखे बर धरलीन। सोचे लगीन फेर पुलिस वाला मन पकड़े बर आवत हावँय। कोंनो-कोंनो मन तो कइथे- आज मारबो नहीं त मरबो। फेर अपन महतारी ल बेचन निहीं। गाड़ी ले श्रीवास्तव साहब ह उतरीस जऊन ह गाँव वाला मन के हिमायती राहय। सरपंच कइथे- ‘नमस्ते साहब..! कइसे आय हावव..!’

मँय ह ये बताय बर आय हाबँव कि मोर इँंहा ले बदली होगे, अब तुमन कइसे करहू तेकर फैसला ल तुही मन ल करे बर परही। मोला ससपेंड घलो कर सकत हाबय। फेर मँय ह कइसनों करके जी-खा लुहूँ। तुमन ल अपन लड़ई खुदे लड़े बर परही। काबर दलाल मन तुँहरे घर म बइठे हाबय। सबला मोर राम-राम। मँय ह जावत हँव फेर एक ठन बात काहत हँव सबला बेचहू फेर धरती दाई, अन्न देवइया ल फेक्टरी बर झन बेचहू। श्रीवास्तव बाबू ह गाड़ी म बइठ के लहुटगे। थोरकन बेर-बर सन्नाटा ह पसरगे। काबर? पढ़े-लिखे एक झन रद्दा बतइया रिहिस वहु ह अब नइ रइही। समारू गुरुजी ह अपन बदली रोकवाय बर उही ह साहर म साहब मन के चक्कर काटत हावय।

मंडल ह खड़ा होके कइथे- अरे बाबू हो! हमन का चार दिन जीबो के आठ दिन, फेर तुमन ह मंद महुआ म मुआवजा ल लेके उड़ा डरे हाबव। फेर अभी आधा आदमी ह पइसा नइ ले हाबय। तुमन ह पइसा कइसनों करके लहुटाहू। आयतु ह खड़ा होके कइथे- दू साल होगे खेत मन परिया परे हाबय त पइसा ल कइसे लहुटाबो। सरंपच ह कइथे- ‘मैं ह एक ठन बात काहत हाबँव। हमन नंदिया ल बॉंधबो अऊ फेक्टरी बर जमीन हावय तेमा बॉंध बनाबो अऊ बढ़िया फसल लेके कम्पनीवाला के पइसा ल लहुटाबो नंदिया के तीरे-तीरे फलदार रूख लगाबो। करजा हाबय तऊँन ल सब मिल के हमन छूटबो तब ए माटी महतारी ह बॉंचही अऊ एकर सिवाय हमन मन करा कोन्हो चारा नइये।

तब सोनारू ह खड़े होके कइथे सरपंच कका ह बने काहत हाबय। अगर हमन एक होके करजा ल नइ छूटबो त हमन सदादिन बर बनिहार रहिबो। फेक्टरी के पानी ह नंदिया म मिलही त वहु ह जहर बन जाही। हवा ह घलो बिगड़ जही। सब मनखे मन चिचियाइस। हमन ल मँजूर हाबय। मँजूर हाबय। सोनारू ह फेर कइथे- हमन तो नइ पढ़ेन फेर अपन लइका मन ल इसकुल भेजबो। पढ़ाबो तभे हमन ला फेर कोनो दलाल मन कोरा कागज मन अँगठा नइ लगवाही। इही भुँईंया के सेवा करत अपन ये बारा गाँव ल फेक्टरी के गुलामी ले अजाद कराबो। मंद मउहा ल पियइया हो अब तुमन ल सीखे ल लागही कि एक फेक्टरी ह एक झन ल कुली के काम दिही हम अप्पड़ के खरही नइ गॉंजय। ओमन ल तो पढ़े-लिखे आदमी चाही। फेर हमर धरती महतारी ह अप्पड़ अऊ पढ़े-लिखे सबला पोसथे।

सरपंच ह कइथे- त फेर सब साबर, कुदारी, रापा, टँगिया, झउँहा धरके परनदिन पॉंच बजे पहुँच जहू। ग्यारा बजे फेक्टरी के भूमिपूजन हाबय त ओकर पहिली हमन ल गड्ढा खोदना हाबय। अब सब अपन-अपन घर जावव। अतका जान लेव हमन ल ओ दिन मरे ल घलो पर सकथे अऊ मारे ल घलो लागही। काबर फेक्टरी वाला मन लाव-लसकर लेके आही। सब जनता के भुँईंया के कसम खाके जय-जयकार करत अपन-अपन घर लहुटगे। मंडल ह कइथे- अब तो ये दोगला मन ल मारेच बर लागही बेटा..! जब अँगरेज ल हमन भगा सकथन त ए फेक्टरी वाला मन कोन खेत के मुरई आय।

तीसर दिन ग्यारा बजे फेक्टरी वाला मन बड़े-बड़े गाड़ी वाला मन घलो रिहिस गाँव वाला मन सब काम ल छोड़-छॉंड़ के देखे लगीस हजारों झन मनखे सबके हाथ म हँथियार। साहब मन कॉंपे ल धरलीस, पछीना घलो बोहाय ल धर लीस। एक झन दलाल ह कइथे- साहेब, काली रतिहा ग्यारा बजे गेहन त कॉंही नइ खनाय रिहिस अऊ कतका बेर सउँहो तरिया खनागे। बड़े साहब के मुहूँ ले बक्का नइ फूटिस काबर ओहा छै महीना पहिली पटवारी अऊ डिप्टी कलेक्टर के हालत ल देखे रिहिस दुनों झन के मुहूँ लहूलुहान। थोरको चिन्हारी नइ रिहिस साहब ह चुपचाप गाड़ी म बइठके ड्राइवर ल गाड़ी चालू करे बर कइथे। साहब के देखते-देखत सब ह ओकर पीछू-पीछू गाड़ी म बइठ के लहुटगें। समझगें एक ठन लकड़ी ल तो आसानी से तोड़ डारबो फेर लकड़ी के बोझा ल नइ टोर सकन। गाँव वाला मन बड़ खुस होइस अऊ तिहार असन नाचे लगीस काबर? ओमन अपन सात पीढ़ी ल बनिहार बनाय ले बचा लीन। बॉंध बने ले फसल लहलहाना सुरू होगे। मंद मउहा ऊपर घलो रोक लग गे। दलाल मन गाँव छोंड़ के भाग गे। सब अपन लइका मन ल इसकुल भेजे लगीन, ताकि फेर कोनो दलाल मन कोरा कागज म अँगठा झन लगवाय।
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गीता शिशिर चन्द्राकर, भिलाई-३ देशबंधु मड़ई अंक में प्रकाशित

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आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!