गुरुवार, 27 जून 2013

एक आनंदमयी रोग- ‘खुजली..!’

सच कहते हैं कि- ‘बचपन हर गम से बेगाना होता है...’ , और यदि वह बचपन गर्मी की छुट्टियों में किसी नदी किनारे गाँव और बड़-पीपड़ की छाँव में बीता हो तो क्या कहने ? हमारी तो रोज ही पिकनिक मन जाती थी। मनाने के ढंग भी अजीबो-गरीब होते थे। १० बजे ही हम झँउहा लेकर किसी बरदी (चरने चाते मवेशियों के झुंड) के पीछे लग जाते गोबर बीनने (कंडे के लिए)। चरवाहे ग्वाले के बंशी की अशास्त्रीय धुन और मवेशियों के चरने में मगन होने के दृश्य अवर्णनीय होते थे। हर रोज हमारा पिकनिक स्पॉट एक से बढ़कर एक होते थे। कभी खेत थे खलिहान, बाग-बगीचे, नदी किनारे, तो कभी परिया-तरिया (घास के मैदान- तालाब के पार) और जंगल-झाड़ी भी। भरी दुपहरी में जब किसी बड़-पीप़ल, करन-बबूल या नीम-इमली की छाँव में चरवाहे ‘मिड-डे-मील’ हेतु अपनी-अपनी बरदी को ठहराते तो हम भी थोड़ी देर विश्राम कर किसम-किसम के खेल खेलते, जैसे- गिल्ली-डंडा, गोबर-डंडा, गोबर-पचउला, डंडा-पचरंगा, नदी-पहाड़, धूप-छाँव आदि। इसी दौरान बबूल का लासा (गोंद) इकट्ठा करना (अच्छे किस्म के लासा को ऑन स्पाट मुँह के हवाले भी कर लेते थे, बाद में पता चला यह तो एक बेशकीमती पौष्टिक योग भी है), इमली के गोजे बनाकर खाना (गुड़, नमक, मिर्च के साथ) इमली का कुरमा (नये फूल) खाना हमारे ‘मिड-डे-मील’ के स्पेशल डिश होते थे, जिसे याद करके आज भी हमारे मुँह में पानी भर आता है।

इस दौरान मुझमें एक विचित्र बीमारी के लक्षण दिखने लगे। कभी-कभी दोपहर में जब तालाब किनारे बरदी विश्राम करती होती, हम पार के पीपल के पेड़ पर चढ़कर पानी को छूते हुए डाल से तालाब में छलांग लगाकर स्वीमिंग पुल का आनंद लेते, कभी २०० गज दूर दूसरे पार तक तैरते हुए आर-पार कर तैराकी का ग्रामीण एशियाड भी जीत लेते, तो कभी तालाब में बैठे भैंसों की पीठ पर बैठकर नौकायान का मजा ले लेते ; इसी वजह मेरी पीठ में ‘घमौरी’ का बसेरा हो जाया करता था। छोटे-छोटे हाथ पीठ के किसी खास खुजली-पाइंट तक नहीं पहुँचते तो अपने संगवारियों का सहारा लेना पड़ता था। ऐसे ही एक दिन जब कोई भी पीठ खुजाने वाला न मिला तो मेरी बेचैनी बढ़ती गई। मुझे खुजाने/खुजवाने में बड़ा अच्छा लगता था। तभी मेरे उदास मन की हताश नजरें चमक उठीं। एक भैंस अपनी पीठ को बबूल के तने से रगड़कर अपनी खुजली मिटा रहा था। उनके चेहरे पर असीम सुख प्राप्ति के लक्षण थे। आह ! मीठे-मीठे दर्द की चाह में मेरा भी धैर्य-जवाब दे गया, और मैं भी वैसी ही करने को आतुर हो उठा। ‘‘जिसका कोई नहीं उसका खुदा है यारों...’’- जैसे गाने मेरे ज़े़हन में बजने लगे। विपरीत परिसि्थ्‍तियों में भी जुगाड़ करने की जुगत मैंने पहली बार उसी भैंस से सीखी। तभी से उन्हें अपना प्रथम नैसर्गिक गुरू मानता हूँ और आज भी किसी भैंस को देखकर मन ही मन संपूर्ण आदर भाव से साष्टांग प्रणाम करता हूँ। विद्यालय में जब भी अक्ल बड़ी या भैंस विषय पर वाद-विवाद प्रतियोगिता होती थी; मैं हमेशा विपक्ष में अपनी बात दमदारी से सोदाहरण रखकर इनाम पाता रहा था।

एक दिन क्लास में जब हमारे हिन्दी के टीचर ने भक्ति-भजन का पाठ पढ़ाते हुए एक विशेष भाव का गूढ़ार्थ समझाये थे कि भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप के प्रति सूरदास जी के ‘मगन’ होने में और मीरा जी के मन में गिरधर गोपाल की युवा छवि के प्रति ‘लगन’ होने में जो सुख की अनुभूति होती थी उसे ही परमानंद कहते हैं। तब मुझे भी समझ में आ गया था कि खुजाने में मुझे जो सुख मिलता है, उसे ही परमानंद की प्राप्ति कहते हैं।

फिर हम जब बालक से किशोर हुए तब कुछ भले-मानुष की सत्संगति मिली। उठना-बैठना हुआ। अच्छी-अच्छी बातें सीखने को मिली। कुछ नया कर गुजरने की तमन्ना जागी। गाँधी-जी की ‘एकला चलो रे...’ की राह चल पड़े हम। जब पीछे मुड़कर देखे तो पूरा कारवाँ ही मौजूद था हमारे पीछे चलने को। मुझमें एक नये प्रकार की खुजली का प्रादुर्भाव हो चुका था। परिणाम स्वरूप लाटाबोड़ (बालोद) में ‘सुमन-क्लब’ (साहित्यिक संस्था) और ‘परसा के फूल’ नामक साँस्कृतिक पार्टी का गठन हुआ। इसके बैनर तले हम गाँव के तीज-त्योहारों के अवसर पर विविध साहित्यिक/साँस्कृतिक आदि कार्यक्रमों का आयोजन करने लगे। कभी-कभी कुएँ-तालाब की सफाई अभियान के दौरान जब घाट-धठौंदों में पड़े दातून के चीरों को एकट्ठा कर जलाते थे तो कुछ विशेष किस्म के लोग मजाक भी करते थे, कि-इन्हें भी समाज सेवा की खुजली तो लगी ही रहती है।

बाद में जब हम किशोर से युवा हुए तो सत्संगति का रंग और गहराने लगा। १९ वर्ष की उम्र में हमें कुछ बहुत ही अच्छे समाजसेवी, प्रगतिशील विचार वाले प्रतिभाओं का सानिध्य मिला; उनमें से पैरी (बालोद) के श्री रमेश भारती जी, झलमला (बालोद) के श्री ब्रम्हदेव पटेल जी एवं खुंदनी (बालोद) से श्री रामकिशोर साहू जी का नाम उल्लेखनीय है। हमने साथ मिलकर गाँव-गाँव में नवयुवक मंडलों का गठन करना एवं उन्हें समाजसेवा एवं ग्राम विकास तथा युवा-उत्थान के कार्यों में लगाना हमारा जुनून (खुजली) बन गया था। इसे खुजाने में बड़ा ही आनंद आता था। एक कदम और आगे बढ़कर हमने दहेज विरोधी अभियान के तहत गाँव-गाँव में सामूहिक आदर्श विवाह का आयोजन करने लगे। हमने खुद भी आदर्श् विवाह किया ऐसे ही मंडप में लोगों ने हमारे इस कदम को काफी सराहा और कहा-‘भगवान करे...ऐसे भली खुजली तो सबको लगे।’

इसी दौरान हमें वैसा ही परमज्ञान की प्राप्ति हुई जैसे कुछ महान संतों को हुआ था। वह ये कि – ‘‘जिस तरह की खुजली मुझे शुरू हुई है वैसी खुजली तो अच्छे-बुरे रूप में एक दिन सबको लगनी है। यह तो पूरे ब्रम्हाण्ड में व्याप्त है। सार्वभौमिक है। इनका क्षेत्र व्यापक और विस्तार अनंत है। काल-गणना के अनुसार खुजली अल्पकालिक, समसामयिक या अवसरवादी तथा पूर्णकालिक भी होती है। रामायण-महाभारत काल में भी रही है और आगे अनजाने-काल तक रहेगी। परमेश्वर की तरह यह अनादि-अनंता है। सतत् सक्रिय- भी रहती है और सुप्त भी। अचानक शांत भी हो जाती है और शुरू भी...और खुजाने की प्रक्रिया तो एक्टिवनेश का प्रतीक है। इसके परिणाम सकारात्मक व नकारात्मक दोनों हो सकते हैं। यह छूत भी है और अछूत भी। इसकी महिमा अपरम्पार है। इनके प्रभाव/महादशा शुभ फल भी देते हैं और अढ़ैय्या व साढ़े साती शनि की तरह अमंगलकारी भी होते हैं। यह सत्य भी है- यही शिव है और सुन्दर भी।’’

इस परम ज्ञान की प्राप्ति के बाद मेरी खुजली और भी बढ़ती गई। मुझे क्या पता था कि जिसे मैं अपनी कोमल अँगुलियों के नाखुनों से खुजाया करता था वह खुजली मेरी पीठ से शुरू होकर विभिन्न कर्म-क्षेत्रों से गुजरते हुए एक दिन लेखनी के द्वारा कागज पर खुजाने के दौर को पार कर इंटरनेट और फेस बुक की पृष्‍ठभूमि तक भी पहुँच जायेगी।

आप सोच रहे होंगे कि मैं अपनी खुजली पुराण खोलकर आपके सामने क्यों बैठ गया पालथी मारकर ? तो चलो बता ही देते हैं- आपको बता हूँ कि यह प्रेरणा मुझे उनके पिताश्री से मिली जिन्हें विगत सत्रह वर्षो से लोगों को हँसाने की खुजली है ; यानि भ्राता श्री त्रयम्बक शर्मा जी के पिता श्रद्धेय श्री मृत्युंजय शर्मा जी से। इन्हें मैं आदर से ’बाबूजी’ भी कहता हूँ (उनका प्रखर व्यक्तित्व ही ऐसा है)। (इन्हें भी संत श्री आशाराम बापू जी के साहित्य व औषधि के प्रचार-प्रसार करने की खुजली बरसों से लगी हुई है।) अवगत हो कि मैं पिछले १० साल से ‘कार्टून वॉच’ का आजीवन सदस्य हूँ। विगत सालों से इस पत्रिका के दर्शन नहीं हुए तो अवसाद के क्षणों में मुझे हँसाने वाले मित्र की कमी खलने लगी; तब मैंने फोन पर बाबू जी से इस बात की शिकायत की। प्रत्युत्तर में उन्होनें हँसते हुए कहा कि- ‘भाई सुमन जी..! अब दाम भी बढ़ गया है और आपका रिस्पांस भी नहीं मिलता।’

बस इसी बात पर हमारा अहम (खुजली) जाग उठा और अपना रिस्पांस दिखाने लगे कागज की पीठ पर कलम से खुजाते हुए।

खैर... ! हम आपको ये बता रहे थे कि खुजली की उजली दुनियाँ के उस पार कालिख से सनी, पाप में डूबी अँधेरी दुनियाँ भी है। उसे खुजाने वाले की खबर मात्र से मन में मितली सी उठने लगती है। जिस खुजली से हमें परमानंद की प्राप्ति होती है ; पता नहीं उन्हें क्या मिलता होगा इस पाप से ? जिस महान भारत के ऋषि-पुत्रों को धर्म-सँस्कृति के प्रचार-प्रसार व रक्षा करने, गाँधी-सुभाष जैसे वीर-सपूतों को आजादी के लिए खून बहाने और फिर आजाद भारत के सुनहरे विकास के सपने देखने की खुजली हमारे राजनेताओं को हुई थी, उसी देश में आज चारा चरने, कोयला खाने, काले धन को विदेशों में जमा करने, भाई-भतीजावाद व जातिवाद को बढ़ावा देने, चोरी-डकैती, हत्या-बलात्कार, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, जमाखोरी और छल-कपट करने जैसी घातक खुजली से ग्रसित लोगों के बारे में पढ़ने, सुनने व देखने को मिलता है तो वेदना से मन व्यथित हो उठता है। मैं ऐसी बेरहम खुजली को खाज़ (खस्सू-गिरहा) की संज्ञा देता हूँ।

ऐसी ही वेदना के फलस्वरूप हमारे अन्ना हजारे जी को आई.ए.सी. जैसा संगठन तैयार कर भ्रष्टाचार से लड़ने की खुजली हुई। बाबा रामदेव को विदेश में जमा काला धान वापस लाने की, तो अरविंद केजरीवाल को राजनीति के सहारे व्यापक लोकपाल लाने की खुजली शुरू हो गई। अच्छा है कि- हार्ड और सॉफ्ट मीडिया जगत को भी अनुचित के विरूद्ध आवाज उठाने की खुजली के साथ आज जन-मानस को इसके विरूद्ध एकजुट होकर बिना किसी राजनैतिक अगुवाई के संघर्ष करने की खुजली शुरू हो गई है।

मैं भ्राता श्री त्रयम्बक शर्मा से निवेदन करता हूँ कि कार्टून वॉच में ‘आपकी-खुजली’ नामक एक नियमित कॉलम शुरू कर दें ताकि खुजली के प्रति श्रद्धा रखनेवालों को खुजाने का अवसर मिले और लोगों का कल्याण भी हो। (जरा हम भी तो जाने कि उन्हे किस प्रकार की खुजली है ?)

चाहें तो इनके उप कालम भी दे सकते हैं, जैसे- ‘राष्ट्रीय खुजली’, ‘सामाजिक खुजली’, ‘राजनैतिक खुजली’, ‘धार्मिक खुजली’, ’साँस्कृतिक खुजली’, साहित्यिक खुजली’, ‘आर्थिक खुजली’, खेल जगत के दीवानों के लिए- ‘क्रिकेटिक खुजली’, फिल्मी दुनिया वालों के लिए ‘रोमांटिक खुजली’, आदि-आदि। कुछ विचित्र प्रकार की खुजली का जिक्र करना तो मैं भूल ही रहा था जैसे ईर्षालु लोगों के लिए ‘टाँग-खींचनी खुजली’ कुछ खास महिलाओं के लिए ‘चुगलखोरिक खुजली’ आदि। वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन भी कर सकते हैं जिसका विषय हो- ‘खुजाना एक कला है या विज्ञान’।

एक निवेदन सबसे कि -
मैं जानता हूँ एक राज-
कि सबको है खुजली/खाज़।
भला हो जमाने का-
इस तरह खुजाया कीजिए...

रविवार, 9 जून 2013

सुन्ता


बिसनाथ  गउँटिया किसनपुर के बड़जन किसान रिहिस। ओखर सोर चारों खूँट बगरे राहय। अन-धन भरपूर रिहिस, बिधाता के किरपा ले भरे-पुरे राहय। ओखर गउँटनिन कमला बड़ दयालु सुभाव के रिहिस। रोहित अउ मोहित दुनों ओखर लइका मन पढ़-लिख के खेतीबारी करे लागिन। ओखर घर कोनों जातिन, त बिन चहा-पानी के नइ लउटाय। गउँटिया घर सगा-सोदर के अवइ-जवइ लगेच राहय। दू-चार झन उँखर घर मा रेहे परे राहय। बने-बने दिन पहाय अउ आनंद उछाह मनाय।

बिसनाथ  गउँटिया अउ गउँटनिन दुनों झन एकदिन बिचार करे लागिन, हमर दुनों लइका बने कमात-खात हे, त दुनों झन के बर-बिहाव करके उबर जतेन। बड़ परछिन के दु झन बहुरिया आगे, रेवती अउ सेवती। रोहित के घरवाली सेवती बड़े घर ले आय रिहिस अउ मोहित के घरवाली गरिबहा घर ले आय रिहिस। रेवती बड़ गरब करय अउ रोहित घलो मोर ससुरार बड़हर हे कहिके मेछराय। रेवती गर मा पुतरी, बाहाँ मा पहुँचा, कनिहा मा करधन, माथमा टिकली, नाक मा नथली, कान मा झुमका, पॉंव मा पइजन पहिरे सउहँत लछमी कस झलके अउ सेवती बाहाँ भर चुरी अउ मॉंग भर सेंदुर मा रेवती ले कम नइ दिखय। सास-ससुर के अड़बड़ सेवा करय, मोहित अपन घरवाली के सेवा मा गजबेच खुस राहय अउ रोहित के गरब ला का पुछबे, काहय- रेवती हा बड़े घर के बेटी आय, ओला जादा बुता काम झन तियारे करव। सेवती  गाय-गरू के सकला करय, रँधई-परोसई अउ लइका मन के जोखा घला करय। बड़े घर के बड़े बात होथे अउ छोटे घर के बात बगर जाथे, ‘देख रे आँखी...सुन रे कान...झन दे धियान...’ कस ताय मोहित चुप राहय।

गउँटनिन कमला हा रेवती ला भाय, बातपुट काहय- रेवती हा बड़े घर के बेटी ये कुछु झन केहे करव, घर के गोठ घर मा राहय। सुलह अउ सुम्मत मा काम बनथे। बिसनाथ  गउँटिया मने-मन मा गुनय अउ सेवती के काम-बुता के गुन ला गावय। मोहित अउ सेवती दुनों परानी अपन टहल मा लगे राहय। रोहित बने-बने कपड़ा पहिर के मेछरावत गली-खोर मा घूमय अउ सोंचय- बड़े घर के बेटा अउ बड़े घर के दमॉंद आँव फिकर का के, खा अउ घूम... मचा धूम...।

गउँटिया-गउँटनिन के अंदर घुना लागे ला लगिस, घर हा बिगड़त जात हे, अपने फदिता काकर कना कहिबे तेखर ले चुप्पे रही जाना ठीक हे। रोहित अउ रेवती उतलँग नापे ला धरिस ‘काम के न धाम के सौ मन अनाज के’ कस करे लागिस। बइठे-बइठे खवइ, लात तान के सुतइ ताय। गउँटिया-गउँटनिन रेवती अउ रोहित के चाल देख के अलग कर देंव का, लड़े ले टरे भला। पोथी-पुरान के बात झुठ नइ होवय... ‘बरु भल बाँस नरक कर तांता, दुष्ट संग झन देय बिधाता।’

गाँव के दु-चार झिन सियान मन ला बलाके रोहित ला समझाय बर किहिन, त रोहित हा किहिस इखर मन संग नइ रहि सकँव, मोला अलगेच कर देव। तब गउँटिया कहिथे- जउन तँय चाहत हस तेन ला माँग ले, त बड़े-बड़े कोठार ला मॉंगिस, ओहा दस खॉंड़ी के धनहा पागे। अब का पुछबे रेवती अउ रोहित अलगे रेहे लगिन अउ ददा के कमइ मा उतलंग नापे लगिन, सियान-सियनहिन के मन नइ मानय। रोहित के दु झन लइका राहय। बेरा-बेरा मा गउँटिया-गउँटनिन मन लइका ला चना-फुटेना देवय। बबा अउ डोकरी दाई के मयाँ ला उही जानहीं जेकर हाबय। दु दिन कोनों लइका मन ला नइ देखतिन, त गउँटिया-गउँटनिन के मन तरसे।
रोहित-रेवती लइका मन ला बरजै- तुमन कहुँ ओ घर मा जाहु, त देखहु बिन पीटे नइ राहँव, लइका मन बिलइ कस दुबक जाय। दु-चार महिना गिस, त देवारी आगे। देवारी तिहार हमर छत्तिसगढ़िया मन के बढ़िया तिहार आय। दुरिहा के मनखेे ये तिहार मनाय बर घर आथे। गउँटिया-गउँटनिन, रोहित के घर मा जाके किहिन जुर मिल के ये तिहार ला मनातेन, रोहित कहिथे- बने बात ए। सरी तिहार के जोखा गउँटिया-गउँटनिन मन करिन, सब झन बर लुगरा-कपड़ा, लइका मन बर घला कपड़ा-लत्ता के जोखा करिस। रोहित अपन घरवाली रेवती ला कहिथे- चल भई तिहार ला सबो झन जुरमलि के एके जगा मनाबो। रेवती कहिथे- मँय अपने डेरउठी छोड़के नइ जाववँ... तुमन जाहु...त जाव... काकरो दाई-ददा ला नइ छोड़ावँव... हम पर कोठा के तान... पर हा परे रबो। अड़बड़ मनइस तब ले रेवती नइ मानिस, रोहित मुड़धर के बइठगे। केहे गेहे- ‘घर के तिरिया हा कोनों केकई कस होगे, त मनखे के दसा दसरथसही हो जथे’।

लइका मन अपन दाई के चाल ला देख के अकबका गे राहय, चुप्पेचाप अपन बबा अउ डोकरी दाई संग मिलय। तिहार के दिन अइस, त घर बड़ परिछन दिखे लागिन, बरा-सोहाँरी, आनी-बानी के साग-पान जब सेवती हा अपन सास-ससुर, अपन घरवाला अउ लइका मन ला परोसे लागिस, त बिसनाथ  गउँटिया के आँखी ले आँसू चुहत राहय, मुँह मा कॉंवरा नइ धँसत राहय, त मोहित कहिथे- ददा आज तोर आँखी ले आँसू काबर चुहत हे ? बिसनाथ  गउँटिया कहिथे- बाबू रे..! मँय हा बनी-भूती करके तुमन ला पालेंव-पोंसेंव तब नइ सोचे रेहेंव कि रोहित बर मँय हा दुसमन हो जहूँ। मोहित कहिथे- ददा..! थोरिक धिरज धरे बर परही, भाई हा एको न एको दिन दाई-ददा के मयाँ ला जरुर जानहीं।

ठउँका देवारी तिहार उरकिस, त रोहित के घर गहना, गुरिया, धन-दोगानी ला चोर मन चोरालिस, त रोहित अउ सेवती मुँड़ धर के रोये लागिस। पास-परोस के मन बिसनाथ  गउँटिया कना जाके ये बात ला बतइन, त माई-पिला रोहित घर गिन। बखत मा परवारे हा काम आथे। उँखर घर आगी घलो नइ बरे राहय अउ रोहित अउ रेवती दुनों मुँड़ धर के रोवत हे, त जम्मो कोनों चुप करइन अउ धिर धरा के रोहित-रेवती अउ लइका मन ला लानिन। रोहित घर जउन मन जावे चहा-पानी पीके आये तउन मन तारी पिट-पिट के हाँसय मने-मन काहय बने होइस अड़-बड़ मेछरावय। सही बात ये हावे...‘कोदई हावे, हावे सगा...नइहे कोदई... नइहे सगा’ तइसने ताय, कोनों तीर मा नइ ओधिन, दाई-ददच हा काम अइस।

रोहित के सरी गरब चुर-चुर होगे, अपने दाई-ददा घर गिन अउ रेहे लागिन, गहना-गिरिया बिन रेवती हा आरुग अनाथिन कस दिखे लागिस, त सेवती हा अपन बने लुगरा अउ गहना ला देके कहिस- देख बहिनी..! मँय हा अइसने रही जहुँ तउन बन जाही, फेर तँय हा बड़हर घर के बेटी आस, बिन गहना के तँय नइ फबत हस। रेवती हा सेवती के गोड़ ला धरके कहिथे- दीदी..! तँय सिरतोन महान हस, तोर महानता अउ बड़ई के बखान मँय नइ कर सकँव। सबोझन मिल-जुल के रहिके घर के काम-बुता ला करे लागिस। बिसनाथ  गउँटिया अउ गउँटनिन के मन अब जुड़इन-सितइन अउ घर अब सरग कस लगे लगिस। गउँटिया कहिथे- ‘जहाँ सुमति तहाँ संपत नाना, जहाँ कुमति तहाँ बिपत निदाना।’ कभु तुँहर मयाँ झन छुटय अउ मोर नाँव ला झन बोरहू, हमर कुल के नाँव उजागर करहु।

भारतीय गणना

आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!