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शनिवार, 1 मार्च 2014

नौकरी

रमेश रात के नौ बजे गॉंव के एकमात्र विडियो सेन्टर से फिल्म देखकर घर आया, उसे आश्‍चर्य हुआ घर का फाटक खुला था। कमरे से रोशनी आ रही थी, रसोई घर से बर्तनोंकी आवाज आ रही थी, उसी समय सुषमा रसोई घर से निकली। पति को प्रणाम किया- ‘‘अरे! तुम कब आई, तुम्हें तो इतनी जल्दी नहीं आना था। तुम तो कहकर गई थी मैं एक माह के लिए जा रही हूँ’’ रमेश ने कहा। ‘‘पिताजी आपकी नौकरी के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। शिक्षा मंत्री उनके सहपाठी रहे हैं, उन्होंने आश्‍वासन दिये हैं, आप अपनी नौकरी पक्की समझें।’’ ‘‘ऐसा सुनते-सुनते पूरा वर्ष व्यतीत हो गया, लेकिन अभी तक तो नौकरी मिली नहीं। मैं तंग आ गया हूँ, इन आश्‍वासनों से, मैं शादी अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद करना चाहता था, लेकिन आपके पिताजी ने ऐसा सब्जबाग दिखाया, कि कुछ मत पूछो उसने कहा था कि इधर शादी हुई और उधर नौकरी पक्की समझो।’’ पत्नी ने दुखी होते हुए कहा-‘‘इसमें मेरा क्या कसूर है, मैं तो जानती भी नहीं थी कि इस तरह से आपको आश्‍वासन दिया गया है।’’ ‘‘मैंने कब कहा कि तुम्हारा दोष है। दोष मेरा है, मेरे नसीब का है। माता-पिता बूढ़े हैं। जवान बहन अभी तक कुवॉंरी बैठी है, घर की हालत कुछ ठीक नहीं है, ऐसे में मेरा बेरोजगार होना कितने दुर्भाग्य की बात है।’’ रमेश एम.ए.करने के बाद भी बेरोजगार था। घर में कुल पॉंच सदस्य थे। जायजाद के नाम पर मिट्टी का पुराना घर था, जिसकी मरम्मत हुए बरसों बीत गया था। उस पुराने घर में रहना अपने आप को खतरे में डालना था। रमेश के पिताजी सेवानिवृत्त शिक्षक थे, जिसके पेंशन से घर का गुजारा मुश्किल से चलता था। अपना पेट काटकर उसे उसके पिताजी ने एम.ए. तक किसी प्रकार पढ़ाया था। उसे अपने बुढ़ापे में एक सहारे की आवश्यकता थी। घर के सदस्यों को रमेश से आशा थी, वही उसका केन्द्रबिंदु था, किन्तु रमेश निराश था। वह आत्मकेंद्रित हो गया था। उसे काम की तलाश थी, वह मेहनती था। उसने एक स्वप्न देखा था, जो सरकारी नौकरी के अभाव में अधूरा था। 

सुषमा का कोई दोष नहीं था। फिर भी अपने आप को दोषी समझ रही थी। इस एक वर्ष में उसने जीवन के कई रंग देखे थे, लेकिन वह आशावादी थी, रमेश उसके लिए ईश्‍वर से बढ़कर था। वह समर्पित भाव से पति की सेवा करती थी। उसके दर्द को समझती थी और हमेशा ममतामयी मॉं की तरह सॉंत्वना देती। रात के अंधकार में जब सारा घर नींद की आगोश में डूबा रहता, सुषमा जागती रहती और इस घर के कल्याण के लिए ईश्‍वर से प्रार्थना करती। कभी - कभी ऐसा लगता, जैसे रमेश उसे बहुत प्यार करता है, लेकिन अगले क्षण उसका व्यवहार बदल जाता, करवट बदलती सुषमा बोली- ‘‘ऐजी ! सुनते हो क्या?’’ ‘‘हूँ ... सुन रहा हूँ! आप ऐसा क्यों नहीं करते, मेरे नाम का जो पॉंच हजार रूपये बैंक में जमा है उससे छोटा-मोटा दुकान खोल लेते।’’ ‘‘सुषमा! तुम्हारा पैसा है, मैं उसे छू भी नहीं सकता, आज तक तुम्हारे लिए एक साड़ी तक तो नहीं खरीद सका हूँ, तुम्हारा पैसा लेना मुझसे नहीं हो सकेगा और फिर लोग क्या कहेंगे कि पत्नी के पैसे से दुकान खोला है।’’ ‘‘अरे! आप मुझे अपने से अलग क्यों समझते हैं। क्या पत्नी को इतना भी अधिकार नहीं है, कि संकट में पति की सहायता कर सके?’’ ‘‘नहीं सुषमा! मैं ऐसा नहीं समझता, तुम्हारा पैसा मेरा पैसा है और मेरा पैसा तुम्हारा, मगर मेरा भी तो कर्तव्य है कि मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करूँ।’’ ‘‘जब आप समर्थ हो जायेंगे तो करेंगे ही, तब तक के लिए मुझे एक मौका तो दीजिये। इसी बहाने अपना कर्तव्य पूरा कर सकूँ और आपके चरणों में स्थान पा सकूँ। ’’

‘‘ये क्या कह रही है सुषमा! क्या तुम्हें ऐसा महसूस होता है कि मैंने तुम्हें संपूर्ण हृदय से नहीं चाहा है? यदि तुम ऐसा सोचती हो तो यह तुम्हारा मुझ पर अन्याय है, तुम ऐसा ख्याल हृदय से निकाल दो, कि तुम्हारे पिताजी के धोखा देकर शादी करने से मैं तुमसे नाराज हूँ। हर हाल में तुम मेरी पत्नी हो और मैंने तुम्हें पत्नी का पूरा मान दिया है, अब सो जाओ रात अधिक हो गई है। अमावस्या की रात बीतने पर आशा का प्रकाश फैलेगा और हमारी जिंदगी खुशियों से भर जाएगी।’’ रमेश के पिता जी भी पूछते- ‘‘क्यों बेटा! आवेदन कहॉं-कहॉं दिया है?’’ ‘‘शिक्षा विभाग, रेलवे, बैंक इत्यादि सभी जगह के लिए दिया है पिताजी! साक्षात्कार भी दे आया हूँ, लेकिन पोस्टिंग लेटर नहीं आया है।’’ इतना सुनकर पिताजी गुमशुम हो जाते। रमेश को यह देखकर बहुत दुख होता कि पिताजी मेरी बेकारी से परेशान रहते हैं और उनकी परेशानी का कारण वह स्वयं है, लेकिन मुँह से कुछ न कहते हुए भी आँखों से सब कुछ व्यक्त हो जाता। स्नेहमयी मॉं की आँखें कमजोर है, लेकिन कुछ न कुछ अपने हाथों से पकाकर रमेश को खिलाती है। रमेश कहता- मॉं..! तुम मेरी फिक्र छोड़ो, अब मैं बच्चा थोड़े ही हूँ, मेरे लिए क्यों चिंतित रहती है। रमेश की बहन मालती छोटी उम्र में ही बहुत जिम्मेदार हो गई है। उसकी शादी की चर्चा एक दो जगह चल रही है, लेकिन लेन-देन के कारण बात आगे बढ़ न सकी वह सुंदर सी गुड़िया अप्सरा से कम न थी, जिस घर में जाती घर स्वर्ग बन जाता, लेकिन इस स्वर्ग की कल्पना करनेवाले इस समाज में कितने लोग हैं? मालती कहती- ‘‘मॉं आपने अभी तक भोजन नहीं किया है। दोपहर बीत रही है चलो! मैं अपने हाथों से खिला देती हूँ।’’ ‘‘आज मेरा उपवास है’’ मॉं कहती। ‘‘मैं जानती हूँ मॉं! तुम्हारा कैसा उपवास है, देखो मॉं! तुम कितनी दुबली हो गई हो।’’ ‘‘अब मेरे मोटी होने के दिन थोड़े हैं, रे!’’ मॉं कहती और मालती आह भरकर रह जाती। 

गॉंव के बीच में एक सड़क दुर्ग से बालोद जाती है। गॉंव की आबादी यही कोई पॉंच हजार के करीब होगी। गॉंव में एक अशासकीय हाईस्कूल है, जिसे एक समिति संचालित करती है। गॉंव के दाऊजी उनके अध्यक्ष हैं। एकदिन मुझे बुलाकर बोले-‘‘रमेश तुम व्याख्याता पद के लिए आवेदन दे दो, हमारे यहॉं एक पद खाली है, तुम्हारी नियुक्ति मैं करवा दूँगा, ऐसे अभी खाली ही हो। ‘‘ मैंने आवेदन दे दिया दाऊ जी की कृपा से मुझे व्याख्याता की नौकरी मिल गयी। डुबते को तिनको का सहारा। मुझे थोड़ी राहत मिली, क्योंकि नौकरी के लिए चक्कर लगाते-लगाते निराश हो गया था। गॉंव के अधिकांश मित्र बेरोजगार थे। उनकी तुलना में मैं अपने को बड़ा भाग्यशाली समझता हूँ, जिस दिन मुझे प्रथम वेतन मिला मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने पिताजी के लिए कमीज, मॉं के लिए साड़ी, बहन के लिए स्नो-पावडर, पत्नी के लिए चप्पल खरीदा। घर के सभी लोग मेरी खुशी में साथ दे रहे थे। हालॉंकि तनख्वाह कम थी, लेकिन भविष्य मंगलमय प्रतीत हुआ। मैंने एक किलोग्राम मिठाई खरीदा और दाऊ से मिलने चल पड़ा, बैठक में प्राचार्य महोदय से बातकर रहे थे। मुझे बोले-‘‘आओ रमेश! बैठो।’’ मैंने दाऊजी और प्राचार्य महोदय को प्रणाम किया और कुर्सी पर बैठ गया। मिठाई का डिब्बा दाऊजी की ओर बढ़ा दिया-‘‘अरे! भाई यह क्या है? बच्चों के लिए मिठाई लाया हूँ, आज मुझे प्रथम वेतन मिला है, मैं आपका एहसान कभी नहीं भूल सकता।’’ ‘‘इसमें एहसान कैसा भाई, तुम मेरे मित्र के पुत्र हो, तो मेरे भी पुत्र हुए न! तुम्हारे पिताजी कभी भी आज तक नौकरी की चर्चा नहीं किये, जबकि उसके साथ मेरा नित्य का उठना बैठना चलता है। यह तो अच्छा हुआ जो दुर्ग में तुम्हारे ससुर से भेंट हो गई। उन्होंने कहा - कि सुषमा मायके आई थी और रमेश की नौकरी के लिए कहने लगी। जब उन्हें पता चला कि मैंने रमेश को नौकरी का आश्‍वासन देकर सुषमा की शादी की है, तो नाराज होकर तुरंत अपनी ससुराल चली आई। मैंने बहुत समझाने की कोशिश की उसे रोकना चाहा, लेकिन वह रूकी नहीं, बेटा! कोई इस तरह मॉं-बाप से नाराज होता है। तुम सुषमा को समझाना तुम्हारे श्‍वसुर का शिक्षामंत्री क्लासफेलो हैं, बहुत जल्दी शिक्षाविभाग में उच्चश्रेणी शिक्षकों की नियुक्ति होनेवाली है, उसमें तुमको जरूर लिया जाएगा। तब तक गॉंव के उच्चतर माध्यमिक शाला में पढ़ाओ! तुम्हारे पिताजी बहुत ही स्वाभिमानी ब्यक्ति हैं, मैं उसका दिल से इज्जत करता हूँ।’’ मुझे मालूम है दाऊ जी कभी किसी का बुरा नहीं चाहते और न ही किसी को गलत आश्‍वासन देते हैं। मैंने दाऊ जी से इजाजत ली और उठ खड़ा हुआ खुशी-खुशी घर आया पत्नी मुझे खुश देखकर आनंदित हुई। उसने कहा- ‘‘क्या कोई सरकारी नौकरी मिल गई?’’ ‘‘नहीं बल्कि मिलनेवाली है।’’ और तब से पोष्टमैन का इंतजार कर रहा हूँ। 

अचानक पोष्टमैन की आवाज सुनकर चौंक गया। जल्दी से बाहर आया, ‘‘रमेश बाबू आपका बुकपोष्ट है।’’ कहकर लेटर मुझे थमाया और चला गया। मैंने पत्र खोलकर देखा, मेरा बी.एड. के लिए सलेक्शन पत्र था। एक सप्ताह के अंदर प्रशिक्षण महाविद्यालय रायपुर में ज्वाइन कर लेना है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूँ? पत्नी ने तनिक मुस्कुराते हुए कहा- ‘‘आप बी. एड. ज्वाइन कर लीजिये ट्रेण्ड होने के बाद चांसेस बढ़ जाएगी।’’ ‘‘लेकिन पिताजी से राय लेने के बाद ही कुछ करूँगा, लगता है अब मेरे अच्छे दिन आनेवाले हैं।’’ 

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

गुड़िया

कचरी मायके गई है। आज एक माह बीत गया, फिर भी वह ससुराल आने का नाम ही नहीं ले रही है। छोटी गुड़िया की याद रह-रहकर दिल को कचोट रही है। घर में बाबा और बूढ़ी मॉं गुड़िया की ही चर्चा करते रहते हैं। दादी पोपले मुँह से दादाजी को सम्बोधित कर कहती है- ‘‘गुड़िया ला देखे बहुत दिन होगे हे, वोहा तोर संग गली घूमे बर कतिक जिद करे, रहि-रहि के गुड़िया हा नज़र मा झुलत रहिथे।’’ दादाजी आत्मविभोर होकर कहते हैं-

‘‘हॉं खोरी मोर बिना गुड़िया कइसे ऊँहा खेलत होही, बिसरू हा जाके बहू ला ले आतीस।’’ ‘‘बहू ला, घर दुआर के चिंता तक नइ हे, का करबोन भला...उँकर घर-उकर दुआर ओला चिंता नइ हे, काम करत-करत मोरो हॉंत-गोड़ मा पीरा भर जथे।’’ दादा अपने अतीत में खो जाते हैं। कुछ सोचते-सोचते मुस्कुराने लगते हैं। दादी उसको कुरेदने लगती है- ‘‘आज तो मेहा तोला अब्बड़ मुस्कुरात देखत हँव, का बात हे... मोला बता न..!’’ दादाजी को पुरानी बात याद आ गई थी, गॉंव से दस कोस उत्तर में उसका ससुराल था। उस समय दादी जी यही कोई सोलह साल की थी। दादाजी अपने ससुराल विक्रमपुर से गौना कराकर आये थे। शादी तो बचपन में ही हो गई थी, लेकिन गौना बहुत बाद में हुआ दादाजी उस समय नवयुवक थे। शरीर में ताकत और हृदय में उत्साह था। अपनी पत्नी का सुबह शाम घर आँगन में काम करना देखते रहते और अपने भाग्य को सँराहते रहते थे। पत्नी का मुख उसे गमकता हुआ, झूमती हुई, नई धान की बाली जैसे लगती और वर्षा ॠतु के फुहार जैसे आह्लादित करती रहती, नये कपड़े और सुगंधित तेल की सुगंध उनके नथुनों में अब भी समाये हुए लगते। ‘‘कस खोरी..! तोला मायके जाय के इच्छा नइ होय का..?’’ ‘‘काबर नइ होही, बबा..! फेर... घर गिरहस्ति के चिंता तो लगे रहिथे, फेर... तेहा जान देबे तब ना..! अऊ मेहा चल दुहूँ ते...तेहा मोर बिना रहि सकबे? चार दिन ले जादा होय ताहने पीछू-पीछू लाय बर चल देस।’’ दादाजी जोर से हँसते हैं। 

दादाजी के एक ही पुत्र है, जिसका नाम बिसरू है, बिसरू की शादी आज से चार साल पूर्व किसनपुर के संपन्न किसान ररूहा की इकलौती पुत्री से बड़े धूमधाम के साथ हुई थी। बड़े घर की बेटी कचरी, बहुत सुशील और धार्मिक विचारों की महिला है, उसे पति का पूर्ण विश्‍वास और प्रेम प्राप्त है, उसकी एकमात्र पुत्री सुषमा डेढ़ साल की है। उसका स्वास्थ्य अचानक खराब हो गया। कचरी अपने पिता से कहती- ‘‘उनका गुस्सा बड़ा तेज है, मुझको ससुराल पहुँचा दो!’’ ‘‘लेकिन बेटी! तुम देख ही रही हो, गुड़िया बीमार है और ऐसी हालत में तेज बुखार में हवा लग जाने का डर है, क्यों नहीं तुम्हारे ससुराल में संदेश भेज दिया जावे, दामाद आकर देख लेगा, यहॉं दवाई तो चल रही है।’’ कचरी मन में सोचने लगी- ‘‘हाय भगवान! ससुराल जाने के समय ही गुड़िया को बीमार पड़ना था, वे ऐसे ही नाराज हो रहे होंगे, फिर ऊपर से यह विपदा।’’ उसे बिसरू का पिटना याद आ गया। पिछले बरस किस बुरी तरह से पीटा था। सात दिन तक खाट में पड़ी थी, अब ये अलग बात है कि बाद में पछताते और क्षमा मॉंगते रहे, बिसरू सॉंवले रंग का आकर्षक युवक है, गोरी चिट्टी कचरी से उसे विशेष मोह है। गुड़िया अपने मॉं के रंग में गई है। घर में अकेली संतान होने के कारण गुड़िया सभी को प्यारी है, उसी गुड़िया की बीमारी सुनकर बिसरू परेशान हो गया और ससुराल जाने की तैयारी करने लगा। ‘‘बापू जी! आप भी चलिये! गुड़िया गंभीर रूप से बीमार है, हिचकी लेकर बेहोश हो जाती है| आँखें इधर-उधर घुमाती है तेज बुखार है उतरने का नाम ही नहीं लेता, पता नहीं क्या हालत है।’’ ‘‘बेटा ! तुम आज चले जाओ, मैं कल सुबह जाऊँगा।’’ क्वॉंर का कृष्ण पक्ष है, रात अंधेरी है, किसनपुर जाने के लिए कोई गाड़ी नहीं है। अंतिम गाड़ी पॉंच बजे पूर्व चली गई है। अंत में लाचार बिसरू रेतवाली ट्रक में बैठ जाता है। उसे रह-रहकर कचरी पर क्रोध आ रहा है- ‘‘इतने दिनों तक मायके में रहने का क्या तुक है? मैंने जल्दी आने को कहा था, है ही जिद्दी, आखिर अपनी इच्छानुसार रही। मौसम बदल रहा है, यहॉं-वहॉं का पानी, नन्ही जान में इतनी ताकत ही कहॉं है, कि सहन कर सके।’’ आखिर परिणाम स्वरूप गुड़िया बीमार पड़ गई। ‘‘बाबू जी! आप की मंजिल आ गई, उतरिये।’’ ‘‘धन्यवाद ड्रायवर साहब! आपने ऐन वक्त में सहायता की, यदि आप मुझे नहीं मिलते तो मैं यहॉं तक कैसे आता’’ बिसरू ने कहा। ‘‘कोई बात नहीं भाई! हम तो इधर ही आ रहे थे’’ ड्रायवर ने कहा। गाड़ी स्टार्ट की- ‘‘अच्छा नमस्ते जी!’’ रात के दस बज गये हैं, गॉंव के कुत्ते अजनबी को देखकर भौंकने लगते और चुप हो जाते। ससुराल का एक परिचित ब्यक्ति मिला- ‘‘अरे भाई बिसरू! इतनी रात को आ रहे हो’’ आश्‍चर्यपूर्वक उस ब्यक्ति ने कहा। ‘‘हॉं भाई रामू! अचानक खबर मिली कि गुड़िया की तबियत खराब है, तो दौड़ा चला आ रहा हूँ।’’ ‘‘चलिये! आपके ससुराल तक छोड़ देता हूँ, दाऊ जी, ओ दाऊ जी! देखिये आपके घर मेहमान आये हैं|’’ ‘‘आता हूँ भाई! आता हूँ।’’ दरवाजे पर खड़े रामू और अपने दामाद को साहू जी अंदर ले आये उसी समय गुड़िया के कराहने की आवाज आयी बिसरू ने कहा-‘‘बाबू जी! अब गुड़िया की तबियत कैसी है।’’ ‘‘तेेज बुखार है बेटा! अभी तक उतरा नहीं है, आओ अंदर आ जाओ।’’ राम्हू और बिसरू गुड़िया को देखते हैं। ‘‘बुखार तेज है, वह रह-रहकर कराहती है’’ साहू जी कहते हैं। ‘‘अभी चार बजे हम लोग दुर्ग से आये हैं। डॉक्टर के पास ले गये थे। इंजेक्शन और दवाई दिये हैं, लेकिन अभी तक फायदा नहीं हुआ है, झाड़फूँक भी चल रहा है। अच्छा भैया! मैं चलता हूँ, रात्रि भी ज्यादा हो रही है।’’ बिसरू कुछ दूर तक राम्हू को पहुँचाने आया घर के सभी लोग गुड़िया के खाट के चारों ओर बैठ गये। ‘‘कैसे कचरी! मैं तुम्हें जल्दी घर आने को कहा था ना? उधर मॉं को भोजन पकाने में बहुत कष्ट हो रहा है।’’ डरते हुए कचरी कहती है-‘‘मैं मामा के यहॉं चली गयी थी, इसलिए इतनी जल्दी घर न आ सकी और जब वापस जाने की सोची तब गुड़िया बीमार पड़ गई।’’ ‘‘गुड़िया कब से बीमार है?’’ ‘‘अभी तीन दिन हुआ है, शुरू में वैद्य जी से इलाज चल रहा था। फायदा नहीं होने पर दुर्ग ले गये थे। आज ही चार बजे वापस आये हैं’’, कचरी ने कहा।

बीच-बीच में गुड़िया कराहने लगी और बेहोशी में छटपटाती| कुछ समय बाद बुखार कम हुआ और गुड़िया सोने लगी, फिर भी हाथ पैर अभी भी गर्म था। ‘‘अच्छा बेटा! तुम आराम करो, थके हुए हो,’’ यह कहकर साहू जी अपने कमरे में चले गये बिसरू की सास कचरी को बचपन में ही छोड़कर भगवान को प्यारी हो गई थी। कचरी को अपनी मॉं का थोड़ा-थोड़ा ख्याल है, कितनी प्यार से गीत गाकर रात में कचरी को थपकी देकर सुलाती थी।‘‘अजी! सो गये क्या?’’ ‘‘नहीं जाग रहा हूँ, आज नींद ही नहीं आ रही है’’ ‘‘और मुझे भी’’ कचरी ने कहा। कंडील के धुंधले प्रकाश में बिसरू ने देखा, गुड़िया अपनी मॉं के सीने से चिपककर सो रही थी धीरे-धीरे बिसरू नींद की आगोश में समाता चला गया। रात का तीसरा पहर बीत चला था। आकाश चारों तरफ से अंधकार से ढँका था। घर के सभी प्राणी गहरी नींद में सो रहे थे। सुबह जब बिसरू की नींद खुली तो सूर्योदय हो चुका था।आँगन में कचरी बर्तन मॉंज रही थी और गुड़िया खाट में बैठी रो रही थी आज का सुबह बहुत अच्छा लगा| आँगन में मुनगे के डाली पर तरोई के पीले फूल सुंदर लग रहे थे। बिसरू ने गुड़िया के माथे पर हाथ रखा बुखार उतर चुका था। उसने गुड़िया को चिपका लिया गुड़िया चुप हो गई। उसी समय कचरी अपने पति को जगे देखकर एक लोटा पानी लाई और चाय की पानी रखने रसोई में चली गई बिसरू चाय पीकर आवश्यक कार्यों से निवृत्त होने चला गया। दाऊ जी बैठक में अपने नौकरों को आवश्यक हिदायतें दे रहे थे। ‘‘नाश्ता कर लिया बेटा।’’ ‘‘हॉं बाबू जी!’’ ‘‘तुम्हारे यहॉं फसल कैसी है?’’ ‘‘क्या बतायें बाबू जी! बोनी के समय ही धान नहीं जगा, बाद में दँतारी में एवं लाई चोपी बोये, जिसके फलस्वरूप आठ आना एवं दस आना बीज मात्र ही जगा, बोआई पीछे होने के कारण फसल कमजोर है। धान में चितरी बीमारी लग गई है, नहर में पानी भी कम छोड़ा है, पानी के लिए लोगों में लड़ाई हो रही है। कचरी! तैयार हो जाओ, आज घर जाना है’’, बिसरू ने कहा- ‘‘बाबू से पूछ लिए होते।’’ ‘‘मैंने उनसे आज्ञा ले ली है, गुड़िया को आज बुखार नहीं है, लेकिन चिड़चिड़ी हो गई है। खेलने के वस्तु को भी फेंकती है।’’

घर के आँगन में दादी जी और दादाजी बैठे हैं। ‘‘कस बबा तेहा गुड़िया ला देखेबर जाहूँ केहे रेहेस, तोला देखत होही।’’ ‘‘का बतॉंवव खोरी! पानी के झगड़ा ल निपटाय बर, पँचइत बइठे रिहिसे, ओमा नइ जातेव, ते गॉंव के मन चिथों-चिथों करतिस। मोर कुरता ला लातो मेहा अभीच जाहूँ। मोर दिल हा घबरावत है, गुड़िया कइसे हे, हे भगवान! बनेच-बने राखबे।’’ उसी समय बिसरू-कचरी-गुड़िया के साथ आते हैं। गुड़िया दादाजी को देखकर अपनी मॉं की गोद से उतरने के लिए मचलने लगती है ‘‘बा...बा...!’’ गुड़िया मॉं की गोद से उतरकर दादाजी के गोद में बैठ जाती है। ‘‘कस बहू! नानुक लइका के तोला कुछु फिकर नइ लागे। घर दुआर के फिकर नइ हे, ते नइ हे, महीना भर बीते के बाद, घर के खियाल आवत हे’’ दादाजी कहता। कचरी चुप रह जाती गुड़िया कमजोर और दुबली हो गई है। उसे देखकर दादी की आँखें गीली हो जाती है और दादाजी के हाथों से गुड़िया को लेकर अपनी छाती से लगा लेती है, मानों उसे अब अपने से अलग ही नहीं करेगी।

भारतीय गणना

आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!