भारत की आजादी के आंदोलन में सक्रिय योगदान देकर एवं तत्कालीन भारत में चल रहे राजनैतिक-सामाजिक परिवर्तन तथा आर्थिक मुक्ति आंदोलन में हिस्सा लेकर जिन्होंने इतिहास रचा है, उनमें एक सशक्त हस्ताक्षर डॉ. खूबचंद बघेल जी का भी है। छत्तीसगढ़-राज्य जो अस्तित्व में नवम्बर 2000 से आया है, उसके प्रथम स्वप्न दृष्टा, डॉ. खूबचंद बघेल जी ही थे। आज भले ही उन्हें इसकी मान्यता देने में उच्चवर्ण एवं वर्ग के लोगों को हिचकिचाहट होती है, लेकिन यही ऐतिहासिक सत्य/तथ्य है। ब्राम्हणवादी जाति व्यवस्था को विछिन्न कर समस्त मानव जाति को एक जाति के रूप में देखने की चाहत रखने वाले डॉ. बघेल के व्यक्तित्व में छत्तीसगढ़ की खुशबू रची-बसी थी। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिये त्याग और बलिदान करने वालों में डॉ. साहब का नाम अग्रिम पंक्ति पर है।
छत्तीसगढ़ के संस्कृति कला एवं रीति रिवाजों की महक, उनमें रची बसी थी, जो उनके द्वारा लिखित “जनरैल सिंग” नामक नाटक के इस कविता में झलकती है-
नादानी से फूल उठा मैं, ओछो की शाबासी में,फसल उन्हारी बोई मैंने, असमय हाय मटासी में।अंतिम बासी को सांधा, निज यौवन पूरन मासी में,बुद्ध-कबीर मिले मुझको, बस छत्तीसगढ़ के बासी में।बासी के गुण कहुँ कहाँ तक...विद्वतजन को हरि दर्शन मिले, जो राजाज्ञा की फाँसी में,राजनीति भर देती है यह, बुढ़े में सन्यासी में,विदुषी भी प्रख्यात यहाँ थी, जो लक्ष्मी थी झाँसी में,स्वर्गीय नेता की लंबी मुंछे भी बढ़ी हुई थी बासी में ।।गजब विटामिन भरे हुए हे ....
डॉ. खूबचंद बघेल का जन्म छत्तीसगढ़ (तत्कालीन सी. पी. एवं बरार) के रायपुर, जिले के ग्राम पथरी में 19 जुलाई सन 1900 ईस्वी में हुआ था। ग्राम पथरी रायपुर-बिलासपुर (मुम्बई- हावड़ा रेल लाईन व्हाया नागपुर) रेल मार्ग पर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 15 किलोमीटर दूर मांढर (द.पु.रे.) सीमेंट फैक्टरी से 10 कि.मी. पूर्व में स्थित है। पिता का नाम जुड़ावन प्रसाद एवं माता का नाम केतकी बाई था। जुड़ावन प्रसाद पथरी के मालगुजार परिवार से थे। ब्राम्हणवादी जाति व्यवस्था के तहत कूर्मि जाति के होने के नाते खेती किसानी ही उनका पुश्तैनी पेशा था । पिता की मुत्यु डॉ. साहब के बाल्यकाल में ही हो गई थी। प्राथमिक शिक्षा डॉ. साहब ने अपने चाचा नकुल एवं सादेव प्रसाद बघेल के कुशल निर्देशन में गाँव के प्राथमिक शाला में पायी । प्राथमिक शिक्षा समाप्त करने के बाद गवर्नमेंट हाई स्कूल, रायपुर में भर्ती हो गये। वे एक मेघावी छात्र में, उन्हें छात्रवृत्ति मिलती थी। छात्र जीवन से ही देश सेवा के कार्य में जुड़े रहे। देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता की भावनाने हृदय में जगह बना लिया था।
डॉ. साहब का विवाह लगभग दस वर्ष की उम्र में अपने से तीन वर्ष छोटी राजकुँवर से, प्राथमिक शिक्षा प्राप्ति के दौरान ही हो गयी थी। उनकी पत्नी राजकुँवर से उनकी तीन पुत्रियों क्रमशः पार्वती, राधा एवं सरस्वती का जन्म हुआ। राजकुँवर बाई निरक्षर थी। कलान्तर में डॉ. भारत भूषण बघेल को पुत्र के अभाव में डॉ. साहब ने गोद लिया।
सन् 1920 में जब नागपुर के राबर्ट्सन मेडिकल कालेज में डॉ. साहब शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब नागपुर में विजय राघवाचार्य की अध्यक्षता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में मेडिकल कोर के सदस्य के रूप में सम्मिलित हुये थे। सन् 1921-22 के ‘असहयोग आंदोलन’ से प्रभावित होकर डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़ आंदोलन का प्रचार-प्रसार, रायपुर जिले के, गाँव में घूम-घूमकर करने लगे। विशेषकर डॉक्टर साहब ने छात्रों को संगठित कर, उसमें राष्ट्रीय चेतना के बीज बोने का बीड़ा उठाया। डॉक्टरी की पढाई अधुरी छोड़ नागपुर से लौट आने एवं स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रियता को देख, माता एवं परिवारजनों को बड़ी निराशा हुई थी, लेकिन सबके समझाने के बाद, पुनः नागपुर एल.एम.पी. की डिग्री हासिल करने पहुँचे, तभी झंडा सत्याग्रह प्रारंभ हो गया। छत्तीसगढ़ से सैकड़ों की संख्या में स्वयंसेवकों ने ‘झंडा सत्याग्रह‘ में डॉ. साहब के नेतृत्व में भाग लिया।
सन् 1923 में एल.एम.पी. (लजिसलेटिव मेडीकल प्रेक्टिशनर) की परीक्षा पास कर ली, कालांतर में एल.एम.पी. को एम.बी.बी.एस. में परिवर्तित किया गया। एल.एम.पी. की परीक्षा पास कर स्वास्थ्य विभाग में नौकरी कर ली। डॉ. साहब की प्रथम पोस्टिंग रायगढ़ शासकीय अस्पताल में हुई। 1931 में ‘जंगल सत्याग्रह’ प्रारंभ हो गया, इसमें शामिल होने डॉ. साहब ने शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे दिया और संपूर्ण भारत में चल रहे स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलन के प्रति पूर्णतया समर्पित हो गये। दलितों एवं शोषितों के सामाजिक अपमान, छूआछुत, भेदभाव के विरूद्ध संगठन की शुरूआत की एवं 1932 में तत्कालीन “मध्यभारत एवं बरार प्रांत” (सी.पी. एंड बरार प्रोविन्स) के ‘हरिजन सेवक संघ’ ईकाई के मंत्री नियुक्त किये गये। मिनीमाता एवं छत्तीसगढ़ के अन्य दलित नेताओं के साथ मिलकर शैक्षणिक, सामाजिक, राजनैतिक स्तर में सुधार के लिये काम किये।
सन् 1932 के ‘विदेशी वस्त्र बहिष्कार आंदोलन’ में पुनः जेल गये । उनके साथ उनके 18 सहयोगियों में एक उनकी माता श्रीमती केतकी बाई भी थी। सन् 1932 के बाद “रायपुर जिला काँग्रेस कमेटी” के साथ, डिस्ट्रिक्ट कौंसिल रायपुर में फिजिकल इंस्ट्रक्टर के पद पर कार्य किया।
सामाजिक कार्य
ऊँच-नीच, छूआछूत के चलते छत्तीसगढ़ के गाँवों में नाई, सतनामी समाज के भाईयों का बाल नहीं काटते थे। उनके मुहल्ले की सफाई भी नहीं होती थी। ग्राम-चन्दखुरी, मंदिरहसौद, ब्लाक – आरंग, जिला-रायपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, जो आगे चलकर विधायक भी चुने गये, जिन्हें दुकान का धंधा करने के कारण लोग सेठ कहकर पुकारते थे - ‘स्व. अनंत राम बर्छिहा‘ ने सतनामी समाज के लोगों का बाल काटने, दाढ़ी बनाने (साँवर बनाने) एवं उनके मुहल्ले की सफाई करने का काम किया। इससे उनका अपना कूर्मि समाज नाराज हो गया, उन्हें कूर्मि जाति से बहिष्कृत कर दिया । डॉ. साहब ने इस कार्य के महत्व बताने एवं नाराज समाज को अपने गलती का एहसास करवाने के लिये “ऊँच-नीच” नामक नाटक लिखकर उसका सफल मंचन करवाया । इस नाटक का असर यह हुआ, बर्छिहा जी का सामाजिक बहिष्कार रद्द हुआ एवं उनके कार्य की सर्वत्र प्रशंसा हुई।
भारतीय मानव समाज के वर्ण से वर्ग, वर्ग से जाति, जाति से उपजाति एवं उपजाति से गोत्र के टूटन को उन्होंने अंतरआत्मा तक महसूस किया और इस सड़ी-गली जाति प्रथा को तोड़ने का संकल्प ले, सर्वप्रथम उपजाति बंधन को तोड़ा। 1936 में उपजाति बंधन तोड़कर स्वयं मनवा कूर्मि उपजाति के होने के बावजूद, दिल्लीवार कूर्मि समाज के रामचन्द्र देशमुख (संस्थापक - चंदैनी गोंदा) ग्राम-बघेरा, जिला-दुर्ग वाले के साथ अपनी द्वितीय पुत्री राधाबाई का विवाह सम्पन्न किया। उपजाति बंधन तोड़ने पर उनके स्वयं के मनवा कूर्मि समाज ने उन्हें मनवा कूर्मि उपजाति से बहिष्कृत किया, उन्हें सजा मिली। अपने मनवा कूर्मि उपजाति से बहिष्कृत होने पर उन्होंने कहा, ‘आप भले ही मुझे छोड़ दे, लेकिन मैं आप लोगों को नहीं छोड़ सकता’, इस अवसर पर अपनी बात उन्होंने कवि अतीश की एक कविता के माध्यम से कही जो निम्नलिखित है -
ये हो बिटप (वट -वृक्ष), हम पुहुप (फुल) तिहारो है । राखिहौ तो रहेंगे, शोभा रावरी (तुम्हारी) ही बढ़ायेंगे ।। बिलग किये ते, बिलग ना माने कछु, चढ़ेगे, सुर सिर न चढ़ेगें जाय सुकव अतीश हाट बाटन बिकायेंगे । देश हुँ रहेंगे, परदेश हॅुं रहेंगे जाय, जऊ देश हुँ रहे, पर रउरे (आपके ही) कहायेंगे ।
डॉ. बघेल ने अपने लेख में उपजातीय शादियों के संबंध में लिखा है, कि “जो अन्तर उपजातीय विवाह को टेढ़ी नजर से देखते हैं, यह तो संजीवनी बुटी को ‘चरौटा-भाजी’ समझने के समान मूर्खता है। जो हमें संकीर्णता से विशालता की ओर, जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जावे, ऐसे कदम का विरोध करने वाले लोगों के लिय हृदय में एक भारी वेदना पैदा होती है।”
उपजाति शादी की मान्यता के लिये, वर्षों तक संघर्ष कर, अंततः विजयी हुये। इसी का परिणाम है, कि आज छत्तीसगढ़ के कूर्मियों में अन्तर उपजातिय शादियों को मान्यता प्राप्त है। कुर्मियों के अखिल भारतीय स्वरूप को उन्होंने सामने लाया, पटना (बिहार) के राजेश्वर पटेल (जो सांसद भी रहे एवं 1953 ‘प्रथम राष्ट्रीय अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग’ जिसके अध्यक्ष काका कालेलकर को नियुक्त किया गया था, के पटेल जी सदस्य रहे।) के साथ अपनी तृतीय पुत्री सरस्वती का विवाह किया । “अखिल भारतीय कूर्मि क्षत्रिय महासभा” के 24 वें अधिवेशन जो कि दिनांक 7,8 एवं 9 मई 1948 यू.पी., कानपुर के जनपद हारामऊ ग्राम-पुखराया में एवं 28 वाँ अधिवेशन जो महाराष्ट्र, नागपुर में दिनांक 10,11 एवं 12 दिसम्बर 1966 को आयोजित था, कि अध्यक्षता की।
कानपुर के अध्यक्षीय भाषण का यह अंश उनके समस्त मानव जाति को एकजुट करने की इच्छा को प्रदर्शित करता है “उपजातियों का भेदभाव मिटाना इस युग का छोटे से छोटा, हल्के से हल्का कदम होगा। सही मायने में तो हमको और आपको समस्त मानव जाति के अंदर रहने वाली ब्राम्हणवादी जाति-पाति की सड़ी एवं खड़ी व्यवस्था को ही पहले दूर करना होगा। वर्ण व्यवस्था रूपी शरीर में जाति व्यवस्था एक कोढ़ है, जो सारे भारतीय मानव समाज को नष्ट कर रहा है।”
सामाजिक परिवर्तन की दिशा में उनके उपर्युक्त उद्गार आज भी प्रासंगिक है। क्योंकि शोषित एवं पिछड़ा अपने हित की जब बात करता है, तो उच्च वर्ण के लोग उन्हें जातिवादी करार देते हैं। क्या अपने-अपने परिवार के, जाति के, वर्ग के एवं वर्ण के हित में कार्य करना जातिवाद है? यदि ब्राम्हणवादियों का आरोप सहीं है, तो वे स्वयं, वही कार्य क्यों करते हैं?
जाति प्रथा के आधार पर छत्तीसगढ़ में एक रिवाज प्रचलित थी, जिसके तहत, किसी बारात में उपस्थिति भिन्न-भिन्न जाति के लोगों को अलग-अलग पंक्ति में बैठाकर भोजन करवाया जाता था। अर्थात् व्यक्ति के जाति के, आधार पर उसकी पंक्ति तय होती थी। कूर्मि व्यक्ति तेली के साथ एक ‘पंक्ति‘ में बैठकर भोजन ग्रहण नहीं कर सकता था। यह व्यवस्था डॉ. साहब को भेदभाव पूर्ण लगी और उन्होंने इसे तोड़ने के लिये ‘पंक्ति तोड़ो‘ आंदोलन चलाया, अर्थात् कोई व्यक्ति किसी के भी साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकता है। जाति के आधार पर पंक्ति नहीं होनी चाहिये। पंक्ति तोड़ो आंदोलन में वो सफल रहे।
सन् 1952 में होली त्यौहार के समय कराये जाने वाले ‘किसबिन नाच‘ बंद कराने के लिये ग्राम महुदा (तरपोंगी) ब्लाक-तिल्दा, जिला-रायपुर में सत्याग्रह किया पूर्णतया सफल रहे। किसबा जाति जिनका पुश्तैनी धंधा ही अपनी बहन-बेटियों को तवायफ की तरह नाच-गाने में लगाने का था, उनमें यह चलन बंद करने के लिये आपने ‘भारतवंशी, जातिय सम्मेलन’, मुंगेली, जिला-बिलासपुर में समाज सुधार की दृष्टि से किया। इस सम्मेलन का व्यापक प्रभाव उक्त जाति पर पड़ा और किसबा जातीय जीवन धारा में परिवर्तन आया । सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन में उनके आदर्श महात्मा ज्योतिबा फुले थे। डॉ. साहब बताते थे कि महात्मा गाँधी, फुले को असली महात्मा कहते थे। शैक्षणिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़ों के आर्थिक मुक्ति के लिये सिलयारी में ‘ग्राम उद्योग संघ’ का निर्माण, तेल पेराई उद्योग, घानी निर्माण, हाथ करघा, धान कुटाई कार्य और साबुन साजी के गृह उद्योग का प्रशिक्षण और उत्पादन तथा मार्केटिंग कार्य का संचालन आपने सहकारिता के माध्यम से किया।
सन् 1958-59 में सिलयारी में ‘जनता हाईस्कूल’ की स्थापना की। जो आज उनके नाम पर शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय है। यह कदम उन्होंने आसपास के गाँवों के शैक्षणिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिये किया। इस स्कूल को खोलने का दूसरा कारण था, प्रदेश शासन द्वारा धरसीवाँ विधानसभा क्षेत्र की उपेक्षा। चूँकि 1952 एवं 57 में डॉ. बघेल, यहाँ से विरोधी दल के प्रत्याशी की हैसियत से एम.एल.ए. बने थे, काँग्रेस के प्रत्याशी को हराकर।
राजनैतिक कार्य
डॉ. साहब सन् 1931 तक शासकीय अस्पताल में डॉक्टर रहे, शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे पूरी तरह से स्वाधीनता आंदोलन में कूद गये। 1931 में “जंगल सत्याग्रह” में पुनः जेल गये, काँग्रेस के पूर्णकालिक सदस्य बन, स्वतंत्रता संग्राम के लिये, महात्मा गाँधी द्वारा चलाये जाने वाले आंदोलन में शामिल हुये। 1932 में रायपुर जिला काँग्रेस कमेटी के डिस्ट्रिक्ट कौंसिल रायपुर में फिजिकल इन्सट्रक्टर के पद पर नियुक्ति किये गये। “भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस” द्वारा चलाये जा रहे स्वाधीनता संग्राम में समय-समय पर आयोजित विभिन्न आंदोनल में सक्रियता से भाग लिया। 1932 में “द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन” में शामिल हुये। सन् 1935 के अधिनियम 'The Govt. of India Act' के आधार पर भारत में संघात्मक प्रणाली स्थापित की गई, जिसके फलस्वरूप 1937 में निर्वाचन हुये काँग्रेस को अभुतपूर्ण सफलता मिली। डॉ. साहब ने काँग्रेस कार्यकर्ता के रूप में सक्रियता से इन चुनावें में हिस्सा लिया। ग्यारह प्रांतों में से 8 प्रांतों में काँग्रेस को बहुमत मिला, जिसमें “सी.पी.एवं बरार” भी शामिल था। द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार को सहयोग कर, पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रस्ताव काँग्रेस द्वारा 1940 में पास किया गया परंतु ब्रिटिश सरकार ने युद्ध के बाद 1942 में भारत को आजाद करने से इंकार कर दिया। जिसके फलस्वरूप गाँधी जी ने 1941 में सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया। “करो या मरो आंदोलन” 'Do or Die' में सक्रियता से भाग लिया और जेल गये। 8 अगस्त 1942 में शुरू “भारत छोड़ो आंदोलन” में अपने साथियों सहित 21 अगस्त 1942 को जेल गये एवं ढाई वर्षों तक जेल में रहे।
जून 1946 में प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा के निर्वाचन हुये सी.पी. एवं बरार में काँग्रेस को 112 स्थानों में से 92, स्थान मिले। रविशंकर शुक्ला के प्रधान मंत्रित्व (तब मुख्यमंत्रियों को इसी नाम से जाना जाता था) में सी. पी. एवं बरार, प्रांत में सरकार बनी। डॉ. साहब इस चुनाव में धरसींवा विधानसभा से विधायक चुने गये। काँग्रेस की अंतरिम सरकार में संसदीय सचिव के रूप में कार्य किया। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हसन के साथ, उन्होंने स्वास्थ्य विभाग का भी काम सम्हाला। तत्कालीन मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल से “किसानों से प्रशासन द्वारा चंदा वसुली” के प्रकरण में मतभेद हो गया, और अपने पद से इस्तीफा दे दिया । 19 मई 1951 में आचार्य कृपलानी के नेतृत्व में बने “किसान मजदूर प्रजा पार्टी” में शामिल हो गये। सन् 1952 का आम चुनाव हुआ, डॉ. खूबचंद बघेल “किसान मजदूर प्रजा पार्टी” से पुनः धरसींवा विधानसभा क्षेत्र के विधायक चुने गये, उन्होंने काँग्रेस को 53.21 प्रतिशत मत प्राप्त कर हराया था। सन् 1952 में जयप्रकाश नारायण के समाजवादी पार्टी एवं आचार्य कृपलानी के “किसान मजदूर प्रजा पार्टी” को मिलाकर “प्रजा सोशलिस्ट पार्टी” का गठन किया गया। सन् 1957 के आम चुनाव में “प्रजा शोलिस्ट पार्टी” प्रसोपा (झोपड़ी छाप) के बैनर तले पुनः धरसींवा विधानसभा से निर्वाचित घोषित किये गये। सन् 1954 में ठाकुर प्यारेलाल सिंग के निधन के पश्चात छत्तीसगढ़ में समाजवादी आंदोलन एवं प्रसोपा का कमान डॉ. खूबचंद बघेल के हाथों सौंपा गया।
राजनीति के महत्व को बताते हुये डॉ. साहब ने सन 1965 की अपनी डायरी में लिखा है, कि- “राजनीति को रचनात्मक कार्यकर्ता पाप समझते हैं, किन्तु आज राजनीति राष्ट्र की दिशा-निर्देश, नीति निर्धारण करती है। क्या इसे ऐसे लोगों के हाथ सौंपकर निश्चिंत हो जाया जाय जो जाने-अनजाने रचनात्मक कार्यों का नाश कर देगें? ऐसी स्थिति में क्या मात्र निष्ठा से काम चल जायेगा ? अतः राजनीति को पाप समझना छोड़ दें। राजनीति उतनी ही गंदी होती है, जितना हम उसे बनाते हैं। मैं सत्तालोलुप राजनीति का समर्थक नहीं पर आधारभूत राजनीति का समर्थक हूँ, जिसका प्रभाव आम जनता के जीवन की जड़ों तक पहुँचता है। अतः चुनौती देने वाली समस्याओं को राजनीति का नाम देकर, उससे पीछा छुड़ाने का प्रयास सामाजिक कार्यकर्ता ना करें यही मेरी उनसे अपेक्षा है।”
भारत के राजनैतिक परिदृष्य पर, इतिहास के पन्नों से सन् 1955 की डायरी में लिखते हैं- “मुट्ठी भर लोगों की जगह ‘बहुजन समाज’ का राज पहिले आदिम काल में सहज स्वाभाविक रूप से स्वतंत्र था।” सन् 1951 में काँग्रेस से त्यागपत्र देकर जब आचार्य कृपलानी के साथ “किसान मजदुर प्रजा पार्टी” में आये तो पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने उन्हें धमकाते हुये कहा था- “डॉ. सोच लो तुम्हें मिटा दिया जायेगा।” इसका जवाब डॉ. साहब ने कुछ इस तरह दिया था- “आप मुझसे मेरा सब कुछ छीन सकते हो, मेरी गरीबी नहीं छीन सकते। मेरी बूची टांडी के पसिया को नहीं छीन सकते।” आचार्य कृपलानी के साथ काँग्रेस त्यागने वाले छत्तीसगढ़ में ठाकुर प्यारेलाल सिंह (रायपुर), ज्वाला प्रसाद मिश्रा (अकलतरा) विश्वनाथ यादव, तामस्कर वकील (दुर्ग) आदि थे। ये सभी नेता अपने समय के प्रखर स्वतंत्रता सेनानी एवं गाँधीवादी थे।
छुईखदान तहसील कार्यालय हटाये जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे, निहत्थे लोगों पर शासन द्वारा गोली चलाई गई। जिसमें कुछ महिलायें भी शहीद हुई, अनेक घायल हुये। इस गोली चालन के विरूद्ध में उन्होंने ठाकुर प्यारेलाल सिंह के साथ मिलकर प्रांतव्यापी आंदोलन चलाया। इसी प्रकार लोहाँडीगुड़ा जिला-बस्तर में आदिवासियों पर दिनांक 31/03/1961 में हुये अत्याचार, गोली चालन का उन्होंने प्रभावी ढंग से विरोध किया।
डॉ. बघेल ने रायपुर का कुप्रसिद्ध तकाबी कांड, जिसमें किसानों को लूटा गया था, के विरूद्ध अपनी आवाज बुलंद की। तकाबी कांड में फंसे अधिकारियों को अंत में सजा मिली, सजा से बचने, संबंधित व्यक्तियों ने डॉ. बघेल की अनुपस्थिति में, उनके घर डाका डलवाकर, कांड से संबंधित कई फाइलें गायब करवा ली थी।
बैतूल जिले के कुछ लोगों ने डॉ. बघेल को “सायना बांध” में हुए घपले की खबर दी, डॉ. साहब ने वहाँ पहुँचकर घपले की पूरी फाइल बनाई। मुख्यमंत्री काटजू के पास चर्चा के लिय स्वयं गये। पूरी चर्चा के बाद कैलाशनाथ काटजू, मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश ने पूछा “डॉ. बघेल आखिर आप सायना गये क्यों थे ? क्या वहाँ आपकी कोई रिश्तेदारी है ?” डॉ. बघेल बोल - डॉ. काटजू आप ठीक-ठीक बताएँ की आप जाँच कराने तैयार हैं, कि नहीं ? अन्यथा मैं इस घपले को आमजनता तक ले जाऊँगा, और वह स्वयं निर्णय लेगी।
एक उच्चपुलिस अधिकारी ने रायपुर के अपने कार्यकाल में किसी मामले की डॉक्टर साहब द्वारा आलोचना किये जाने को लेकर इंदौर में उन पर मुकदमा चलाया। डॉ. साहब इंदौर जाकर मुकद्मा लड़े और विजयी हुये।
डॉ. कैलाशनाथ काटजू के मुख्यमंत्रित्व के दौरान सन् 1960-61 में विन्ध्यप्रदेश, मध्यभारत एवं छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा। विन्ध्य एवं मध्यभारत को गेहूँ निर्यात की छूट और छत्तीसगढ़ के धान निर्यात पर पाबंदी लगा दी गई। डॉ. साहब ने मुख्यमंत्री से, छत्तीसगढ़ के किसानों के हित में प्रतिबंध हटाने की अपील की, मुख्यमंत्री नहीं माने। डॉ. साहब ने इस तुगलकी, आदेश का उल्लंघन करते हुये, अपने साथियों के साथ ‘धान सत्याग्रह’ आंदोलन चलाया। महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश सीमा पर स्थिति बाघ नदीं से 1 बोरा धान को स्वयं नाव द्वारा निर्यात कर (म.प्र. से महाराष्ट्र ले जाकर) आंदोलन की शुरूवात की और जेल गये। इस आंदोलन में स्व. बृजलाल वर्मा, पूर्व केन्द्रीय मंत्री, हरिप्रेम बघेल पूर्व विधायक एवं अन्य साथीगण शामिल थे।
सन् 1962 में विद्याचरण शुक्ल के विरूद्ध “महासमुंद लोकसभा” सीट से चुनाव लड़ा, जिसमें विद्याचरण 2,500 मतों से विजयी हुये थे। इस लोकसभा चुनाव में (आमचुनाव) महासमुंद लोकसभा के अन्तर्गत आने वाले, सारंगढ़ विधानसभा से, वहाँ के राजा साहब ने चुनाव लड़ा। उनके विरूद्ध केवल प्रसोपा का एक प्रत्याशी ही था, जिसकी उम्मीद्वारी वापस लेने से, वे निर्विरोध निर्वाचित हो सकते थे। इसके लिये राजा साहब ने डॉ. बघेल को 30,000/- रूपया (तीस हजार) घूस के रूप में देने की पेशकश की। सिद्धांत के पक्के डॉ. बघेल देवभोग से सराईपाली तक विद्याचरण से आगे रहे पर सारंगढ़ में 12,000 मतों से पिछड़कर 2500 (ढाई हजार ) मतों से हार गये। डॉ. बघेल ने विद्याचरण के विरूद्ध चुनाव याचिका दायर की और विद्याचरण का निर्वाचन रद्द कर दिया गया।
“मांछी खोजे घाव अऊ राजा खोजे दाँव” वाली काहवत चरितार्थ करने, पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र (जिसके विरूद्ध भी 1962 के चुनाव जीतने में कदाचरण की याचिका न्यायालय में दायर कर दी गई थी।) ने कोचक कर घाव बनाया एवं समाजवादी पार्टी के मुखिया डॉ. बघेल को घेरा। इस षड़यंत्र में विद्याचरण को भी शामिल किया गया, क्योंकि उनके विरूद्ध भी चुनाव याचिका थी, दुश्मन (डॉ. बघेल) का दुश्मन (विद्याचरण) दोस्त बन गये। सिलयारी घानी संघ जो सहकारी क्षेत्र में था, की जाँच (ऑडिट) करवाकर कुछ गलतियाँ निकाली गई।
डॉ. बघेल का इसमें कोई हाथ नहीं था, उन्हें तो राजनीति से ही फुर्सत नहीं थी। पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने डॉ. बघेल को कहा, कि आपके द्वारा संचालित संघ में पैसे की गड़बड़ी है और इससे आपके प्रतिष्ठा को गहरा आघात लग सकता है। आप काँग्रेस में आते हैं, तो इसे नजर अंदाज किया जा सकता है। डॉ. बघेल ने सोचा जिस छत्तीसगढ़ की सेवा विरोधी पार्टी में रहकर वो नहीं कर नहीं पा रहे है, वह सत्ता के माध्यम से अच्छा हो पायेगा। प्रतिष्ठा भी बची रहेगी। डॉ. बघेल ने काँग्रेस प्रवेश करना स्वीकार कर लिया, लेकिन कभी भी काँग्रेस में चैन से नहीं रह पाये। सन्1966 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्र थे, बस्तर में राजा प्रवीरचंद भंजदेव के कारण बस्तर के 12 विधा सभा सीटों में काँग्रेस की दाल नहीं गलने वाली थी। राजा प्रवीरचंद भंजदेव ने न केवल बस्तर जिला काँग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया था, वरन् काँग्रेस भी छोड़ दी। द्वारिका प्रसाद मिश्रा बस्तर के 12 सीट काँग्रेस की झोली में डालकर, इंदिरा गाँधी को खुश करना चाहते थे। प्रवीरचंद भंजदेव एवं 300 आदिवासियों की पुलिस गोली चालन कर हत्या करवा दी गई। इस घटना का मार्मिक चित्रण डॉ. बघेल ने लोगों के सामने रखा, आम जनता को इस काण्ड की बर्बरता का विवरण दिया। इस कांड से दुखी डॉ. साहब ने काँग्रेस से इस्तीफा दे दिया।
भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना में जिन किसानों की जमीन अर्जित की गई, उनके परिवार से एक व्यक्ति को अनिवार्य रूप से कारखाने में रोजगार दिलवाने श्री तामस्कर जी के साथ मिलकर किसानों एवं मजदूरों का विशाल प्रदर्शन डॉ. बघेल के नेतृत्व में किया गया। शासन ने स्थानीय लोगों को प्राथमिकता देना स्वीकार किया। हीराकुंड बांध निर्माण से जिन किसानों की जमीन, डुबान में आ गई थी, उसके मुआवजे के लिये आंदोलन चलाया, इस आंदोलन में श्री रामकुमार अग्रवाल रायगढ़ ने साथ दिया। किसानों को उनका हक मिला।
1964 में जब ‘सी.पी.एवं बरार‘ प्रांत के प्रधानमंत्री (मुख्यमंत्री तब इसी नाम से जाने जाते थे। ) के चुनाव में बृजलाल बियानी भी एक उम्मीद्वार थे, पं. रविशंकर शुक्ला के विरूद्ध, बियानी को समर्थन देने के बदले डॉ. बघेल को 3 लाख रूपये देने का प्रस्ताव गोपाल दास मेहता ने रखा। डॉ. बघेल उसूल के पक्के, निष्ठावान राजनीतिज्ञ थे, यह प्रस्ताव ठुकराकर, पं. रविशंकर शुक्ल के लिये प्रधानमंत्री पद का रास्ता प्रशस्त किया। 1964 में स्वास्थ्य विभाग के सचिव आई.सी.एस., मि. सिन्हा थे, डॉ. हसन, स्वास्थ्य मंत्री (केबिनेट) थे। सचिव की लापरवाही से विधानसभा में डॉक्टरों की नियुक्ति को लेकर प्रश्न उठने की नौबत आ गई। मि. सिन्हा को बुलाकर डॉ. साहब ने खरीखोटी सुनाई, सिन्हा जी ने अपनी पत्नी के माध्यम से काजू किसमिस, अंगुर सेवफल से भरी टोकरी राजकुँवर देवी (डॉ. साहब की पत्नी) तक डॉ. साहब की अनुपस्थिति में पहुँचवाई।
डॉ. बघेल ने पत्नि से पूछा इसे कौन लाया ? तुरंत अपने चपरासी गोपाल के हाथ उस टोकरी को सिन्हा के घर वापस पहुँचवा दिया। गाँधी जयंती के उपलक्ष्य में चंदा इकट्ठा करने नेवरा, लखनलाल मिश्र, भुजबल सिंह एवं जगन्नाथ बघेल के साथ गये। एक राईसमिल के मालिक ने उनसे कहा, आप कोड़हा मध्यप्रदेश से बाहर भेजने का परमिट मुझे दिला दीजिये, मैं अकेला 7500/- (साढ़े सात हजार रूपये) चंदा देता हूँ। डॉ. बघेल ने इंकार कर दिया। घर-घर जाकर रूपये इकट्ठा कर लाये। गाँधी जयंती सम्पन्न हुई।
डॉ. बघेल ने पं. रविशंकर शुक्ला से मतभेद के कारण मंत्री मण्डल से इस्तीफा दिया था। कारण पं. जी के प्रधानमंत्री बनने की खुशी में, महासमुंद के सेठ नेमीचंद श्री श्रीमाल ने उन्हें चाँदी से तौलने की योजना बनाई। इसे मूर्तरूप देने के लिये प्रशासन के माध्यम से आदिवासी क्षेत्र पिथौरा, सराईपाली, बसना, महासमुंद, बागबाहरा के किसानों से चंदा जबरदस्ती वसूल किया जाने लगा। लोगों ने अपना खेती-बाड़ी गाय-बकरी-मुर्गी यहाँ तक कि घर के जेवर एवं बर्तन बेचकर चंदा चुकाया। इसकी तिखी प्रतिक्रिया हुई, कुछ आदिवासियों ने नागपुर (सी.पी. एवं बरार की राजधानी) जाकर डॉ. बघेल को अपनी व्यथा कथा सुनाई। उन्हें परस्पर विश्वांस नहीं हुआ उन्होंने प्रधानमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल से मिलकर इस विषय में चर्चा की, पंडितजी ने कहा- “राजनीति में यह सब चलता है हालांकि मैंने शासकीय कर्मचारियों को ऐसा कोई आदेश नहीं दिया है, इसलिये रोक लगाने के आदेश की जरूरत नहीं है। “डॉ. बघेल ने छत्तीसगढ़ के इसी शोषण, पीड़ा, लूट के विरूद्ध व्यथित दुखी होकर अपना इस्तीफा दिया था।
ग्राम-मौहागाँव सिलयारी त. व जि. रायपुर के एक अनुसूचित जाति के किसान को सरकार द्वारा पंप लगाने के लिये 6,000/- (छः हजार) रूपये मंजूर किया गया। तत्कालीन तहसीलदार ने उसे 4,000/- (चार हजार) रूपये ही देकर, बाँकी अपने पास रख लिया, इसकी शिकायत उक्त किसान ने डॉ. साहब से की। वे उस समय धरसींवा के विधायक थे। तहसीलदार के विरूद्ध मामला दायर किया, रायपुर के वकील डॉ. बघेल के तरफ से खड़ा होने तैयार नहीं हुये, दुर्ग से तामस्कर वकील को लाकर भ्रष्टाचार का मुकदमा जीते। तहसीलदार को बर्खास्त कर दिया गया।
डॉ. बघेल का जीवन, ऐसे कितनों ही घटनाओं से भरा पड़ा है। उन्होंने अपने 39 वर्ष (सन् 1931 से 1969) के राजनैतिक जीवन में जीवन पर्यंत दलित-शोषित, मजदूर, किसानों एवं गरीब जनता की आवाज बुलंद की और बदले में कभी भी कुछ पाने की कामना नहीं की। खासकर आर्थिक लाभ कभी नहीं उठाया। प्रजातंत्र की महत्ता को आमजनता तक पहुँचाने सतत् संघर्ष किया ।
छत्तीसगढ़-राज्य आंदोलन
वैसे सप्रे स्कूल में सन् 1946 में आयोजित ‘प्रदेश काँग्रेस कमेटी‘ की बैठक में तामस्कर वी.वाय. ने, छत्तीसगढ़ को अलग राज्य का दर्जा दिलाने की बात रखी थी, लेकिन “प्रदेश काँग्रेस कमेटी” में, जिसके अध्यक्ष पं. रविशंकर शुक्ला थे, वी.वाय.तामस्कर के प्रस्ताव को अनसुनी कर दी।
डॉ. बघेल के मन में पृथक छत्तीसगढ़-राज्य के माँग ने, तब घर कर लिया, जब सन् 1948 में उन्होंने रविशंकर शुक्ल मंत्री मंडल से, पिथौरा, बसना-सरायपाली के पिछड़े, आदिवासियों से जबरन चंदा वसूल की गई थी। डॉ. बघेल इस प्रकरण से इतने द्रवित हुये, कि उन्होंने शुक्ल मंत्रीमंडल से ही इस्तीफा दे दिया। उन्होंने एक लेख लिखा, र्शीर्षक था- “क्षुब्ध-छत्तीसगढ़” इस लेख से रायपुर-बिलासपुर और दुर्ग ये तीन जिले और हाल के विलीनीकरण से शामिल हुये, 14 राजवाड़े यही छत्तीसगढ़ का इलाका है। सत्ता के मद में माते लोगों को भुलावे में डालने के लिये, छत्तीसगढ़ के परम पुनीत जागरण के कोलाहल को पाकिस्तानी नारा कहकर दफना देना चाहते हैं। वे कहते हैं “छत्तीसगढ़िया चेतना की आवाज लगाने वाले देश के दुश्मन हैं। उनके साथ शासन रियायत ना करेगा। उन्हें कुचल देगा। देखो खबरदार कोई साथ मत देना, नहीं तो आफत मोल लोगे।”
छत्तीसगढ़ के हित में जो अपना हित समझते है, वे हमारे भाई है, जो छत्तीसगढ़ का राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं अन्य तरीकों से शोषण करना चाहते है, हमारे प्रेम के पात्र नहीं हो सकते। क्या यह विचार देशद्रोह पूर्ण है? यदि हो, तो हम अपना बचाव नहीं करना चाहते। यदि हमारे विचार में भूल हो तो, हमें प्रेम से समझाया जाय। हम वायदा करते हैं, कि समझ लेने पर हम अपनी भूल सुधार लेगें, परंतु यदि धमकी के बल पर हमें दबाने की कोशिश की गई, तो हमारा हृदय स्वीकार नहीं कर सकेगा।
डॉ. रामलाल कश्यप जी (पूर्व कुलपति पं.र.वि.वि. रायपुर) ने जब वे जबलपुर कृषि महाविद्यालय में अध्ययनरत थे, तो डॉ. बघेल से पूछा- आप छत्तीसगढ़ी आंदोलन के प्रेणता माने जाते हैं, तो आपके छत्तीसगढि़या की परिभाषा क्या है ? डॉ. बघेल ने उत्तर दिया “जो छत्तीसगढ़ के हित में अपना हित समझता है। छत्तीसगढ़ के मान- सम्मान को अपना मान-सम्मान समझता है और छत्तीसगढ़ के अपमान को अपना अपमान समझता है, वह छत्तीसगढि़या है। चाहे वह किसी भी धर्म, भाषा, प्रांत जाति का क्यों न हो।”
ठाकुर प्यारेलाल सिंह द्वारा सम्पादित, प्रकाशित अर्ध सप्ताहिक पत्र “राष्ट्रबंधु” में डॉ. बघेल के लेख प्रमुखता से प्रकाश्ज्ञित होते थे। अन्होने आचार्य कृपलानी के लेखों का, अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद, भी किया। बलौद की एक सभा में डॉ. साहब ने कहा था- “आज प्रत्येक छत्तीसगढ़िया समझ रहा है, कि आज प्रजातांत्रिक राज्य हो गया है, किन्तु असली स्वराज तो कोषों दूर है।” वे मानते थे कि छत्तीसगढ़-राज्य के असली शोषक एवं शोषित कभी एक साथ नहीं रह सकते। शोषण, अन्याय और दमन जहाँ है, वहाँ स्वराज्य हो नहीं सकता, यह उनकी निश्चित धारणा थी। उनका तो बस एक ही लक्ष्य था- “छत्तीसगढ़ के सोये स्वाभिमान को जगाना उसके गौरव गरिमा को उजागर करना उसे शोषण, अन्याय और दमन से मुक्त करना।”
सन् 1956 में छत्तीसगढ़ राज्य की कल्पना को साकार रुप देने जुझारु एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं का एक वृहद सम्मेलन राजनांदगाँव में आयोजित किया गया। दाऊ चन्द्रभूषण दास इसके संयोजक थे। पहले सत्र की अध्यक्षता बैरिस्टर मोरध्वजलाल श्रीवास्तव एवं दूसरे सत्र की अध्यक्षता बाबू पदुमलाल पन्नालाल बक्शी ने की। इसमें सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ से लगभग दो हजार सक्रिय कार्यकर्ता शामिल हुये। सम्मेलन में 'छत्तीसगढ़ी महासभा'' का गठन हुआ और डॉ. खूबचन्द बघेल इस महासभा के सर्वसम्मति से अध्यक्ष निर्वाचित हुये। दशरथलाल चौबे सचिव तथा केयूर भूषण एवं हरि ठाकुर को संयुक्त सचिव के पद पर मनोनित किया गया। डॉ. साहब ने अपने अध्यक्षीय भाषण में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के माँग पर (औचित्य पर) व्यापक प्रकाश डाला फलस्वरुप सर्वसम्मति से ''छत्तीसगढ़ राज्य'' निर्माण का प्रस्ताव पारित किया गया। इतिहास ने एक नया मोड़ लिया। पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के स्थापना के संघर्ष की नींव डल गई।
25 सितम्बर 1967 को 'छत्तीसगढ़ी महासभा' को पुनर्गठित करने भोला कूर्मि छात्रावास, रायपुर में एक सभा आयोजित की गई। इसमें छत्तीसगढ़ के 500 सक्रिय कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। अध्यक्षता साहित्यकार बाबू मावली प्रसाद श्रीवास्तव ने की। डॉ. खूबचन्द बघेल सर्वसम्मति से इसके अध्यक्ष चुने गये। तथा परसराम यदु, रेशमलाल जाँगड़े, पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी ‘विप्र’, तथा पं. गंगाधर दुबे उपाध्याय चुने गये। साहित्यकार हरि ठाकुर सचिव तथा रामाधार चन्द्रवंशी कोषाध्यक्ष निर्वाचित हुये। डॉ. साहब, राज्यसभा सदस्य केन्द्रीय स्टील माइन्स एवं मिनरल समिति एवं नेशनल रेल्वे यूजर्स सलाहकार समिति के सदस्य थे। स्थानीय लोगों को सरकारी एवं गैरसरकारी संस्थाओं के नौकरियों में प्राथमिकता दिलवाने कई आंदोलन छेड़े। दिनांक 8 फरवरी 1967 को दुर्ग जिले के अहिवारा में भातृसंघ का विशाल सम्मेलन बृजलाल वर्मा जी, की मुख्यआतिथ्य में राजा नरेशचन्द्र सिंह ने उद्धाटन किया। छत्तीसगढ़ राज्य की माँग को लेकर डॉ. साहब ने पूरे छत्तीसगढ़ का सघन दौरा कर प्रचार-प्रसार किया। आज छत्तीसगढ़ में जो जनचेतना दिखाई देती है, उसके पीछे डॉ. साहब का पसीना एवं परिश्रम है। ''छत्तीसगढ़ भातृ संघ'' आगे चलकर इतना प्रभावी हुआ कि पं. श्यामाचरण शुक्ल की सरकार ने शासकीय कर्मचारियों को इसकी सदस्यता ग्रहणकर कार्यकलापों में हिस्सा लेने पर पाबंदी, सामान्य प्रशासन विभाग के ज्ञापन क्रं 0527/567/ध/62 दिनांक 23.09.1971 द्वारा लगायी थी। इस ज्ञापन को श्री प्रकाश चन्द्र सेठी की सरकार (म.प्र.शासन) ने दिनांक 19.05.1974 के ज्ञापन क्रमांक 5-/75/3/1 द्वारा निरस्त किया। आज डॉ. बघेल संपूर्ण छत्तीसगढ़ शासन ने उनके नाम से प्रतिवर्ष 2 लाख रुपये के पुरुस्कार दिये जाने की घोषण की है।
सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कार्य
छत्तीसगढ़ी साहित्य के क्षेत्र में उनका विशेष योगदान रहा है। डॉ. बघेल मौलिक चिंतक थे। नित्य सुबह चार बजे उठकर ध्यान और चिंतन में मग्न हो जाते थे। उनकी लेखनी काफी सशक्त थी। डॉ. बघेल को हर वक्त छत्तीसगढ़ियों की पिछड़ी मानसिकता, दब्बुपन, आर्थिक गुलामी की पीड़ा सताती थी। आखिर मेरे छत्तीसगढ़ में क्या कमी है? यह हमेशा वो चिंतन करते रहते थे। छत्तीसगढ़ी में उन्होंने तीन नाटक लिखे पहला 'ऊंच-नीच' समाज में व्याप्त छुआ-छूत और जातिवाद पर करार प्रहार करते हुये। दूसरा 'करम-छँड़हा' छत्तीसगढ़ के आम आदमी की गाथा उसकी बेबसी का वर्णन एवं तीसरा ''जनरैल सिंग'' जो छत्तीसगढ़ के दब्बुपन को दूर करने का रास्ता सुझाया। इन नाटकों को मंचित करने का दायित्व भी उन्होंने स्वयं निभाया। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय ''भारतमाता'' नामक नाटक लिखकर मंचित करवाया। मंचन के माध्यम से पथरी, कुरुद आदि गाँवों से धन एवं सहयोग एकत्रित कर प्रधानमंत्री राहत कोष में भिजवाया। रायपुर के समाचार-पत्रों अन्य प्रचार माध्यमों में लेख लिखकर हमेशा अपने विचारों से लोगों को अवगत कराते रहते थे। महात्मा ज्योतिबा फुले, महात्मा गाँधी एवं डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारधाराओं से ओतप्रोत ये लेख रायपुर से प्रकाशित साप्ताहिक ''राष्ट्रबंधु'' के माध्यम से प्रसारित होते रहते थे।
अपने विचारों को लिपिबद्ध करने के लिये रोज डायरी एवं रजिस्टर का इस्तेमाल किया करते थे। अपने लेखन में डॉ. साहब ने अपने विचारों के अलावा महत्वपूर्ण घटनाओं को भी स्थान दिया हैं। वे सारी घटनायें जो उनके 'सामाजिक परिवर्तन’ के आंदोलन एवं राजनैतिक संघर्ष के दौरान घटी का विस्तृत विवरण उनकी डायरी एवं रजिस्टरों में मिलती है। अपने लेखन एवं बातों को लोगों तक रोचक ढंग से पेश करने के लिये शेरों-शायरी, कहावतें, मुहावरों का उपयोग कर चुटिला बनाना उनकी खूबी थी। शेर जो उन्हें प्रिय था, हमेशा युवकों को प्रेरणास्वरुप सुनाया करते थे:-
क्या हुआ मर गये, वतन के वास्ते।
बुलबुले भी होते हैं कुर्बान, चमन के वास्ते॥
खाली न बैठ, कुछ-ना-कुछ किया कर।
कुछ ना मिले तो, पैजामा उधेड़कर सिया कर॥
साँस्कृतिक चेतना फैलाने उन्होंने अपने दामाद दाऊ रामचन्द्र देशमुख को प्रेरित कर ''चंदैनी गोंदा'' नामक सांस्कृतिक संस्था का सृजन करवाया। जिसकी ख्याति ना केवल छत्तीसगढ़ में, बल्कि सम्पूर्ण भारत में फैली। इस साँस्कृतिक संस्था का शुभारंभ एवं समापन डॉ. बघेल के जन्म स्थली ग्राम-पथरी से हुआ।
डॉ. बघेल के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुये, छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार मधुकर खेर लिखते हैं- प्रचार तंत्र का स्वन्तत्र एवं जाल न होने के कारण डॉ. बघेल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को स्थान नहीं मिल पाया जिसके वो हकदार थे।
डॉ. खूबचन्द बघेल को प्रोफेसर रंगा, चौधरीचरण सिंह एवं महेन्द्र सिंग टिकैत से कम नहीं आँका जा सकता। 1965 के भीषण अकाल के दौरान 'टाइम्स' अमेरिका की महिला पत्रकार संवाददाता लिखती हैं- मेरे 2 घंटे तक डॉ. खूबचन्द बघेल का इन्टरव्यू लेने के बाद छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े क्षेत्र में ऐसा जुझारु, कर्मठ, नेतृत्व भी हो सकता है, इस बात पर मुझे आश्चर्य है।
ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी जुझारु, जबरदस्त राजनेता, सामाजिक परिवर्तन के प्रणेता, छत्तीसगढ़ राज्य के प्रथम स्वप्न ट्टष्टा एवं महान सपूत जिन्होंने आम जनता को स्वतन्त्रता के बाद भारतीय संविधान के तहत प्राप्त प्रजातांत्रिक अधिकारों की सतत् रक्षा के लिये लोगों को जागृत करने का संघर्ष किया। प्रजातंत्र को वीरकाल तक स्थापित रखने के महत्व और उस पर आघात करने वाले कारणों एवं लोगों के विरुद्ध सतत् संघर्ष करते रहने का संदेश दिया। संसद के शीतकालीन सत्र में भाग लेने वे दिल्ली गये हुये थे। इसी दौरान 22 फरवरी सन् 1969 को हृदयकालीन रुक जाने से उनका दिल्ली में निधन हुआ। उनकी अंत्येष्टी रायपुर के महादेव घाट में की गई। ऐसे महान व्यक्तित्व को उनके ही प्रेरणा वाक्य से श्रद्धाँजली अर्पित करते हैं-
दिये बिना संताप किसी को,
झुके बिना यदि खल के आगे।
संतो का कर सकुँ अनुसरन,
तो थोड़े में ही सब कुछ जागे॥
माटीपुत्र को शत शत नमन
जवाब देंहटाएंहमारे दादाजी पतिराम साव वर्ष १९०४ में जन्मे थे. वे शिक्षक, साहित्यकार और समाज सुधारक थे. वर्ष १९६० से १९६८ तक उन्होंने दुर्ग से 'साहू-संदेश' नामक मासिक पत्रिका का संपादन किया था. उस पत्रिका के कुछ अंकों में मैंने डा.खूबचंद बघेल की कुछ सामाजिक चेतना जगाने वाली रचनाओं को बाद में पढ़ा था. खूबचंद जी समय से पहले छत्तीसगढ़ में सामाजिक नेतृत्व करने वाले एक बड़े बुद्धिजीवी हो गए थे.
जवाब देंहटाएंNvabihan के अत्यन्त सुंदर प्रस्तुति है,श्री खूबचंद बघेल को सादर नमन।
जवाब देंहटाएंSat sat naman
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