Chhattisgarhi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Chhattisgarhi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 10 जुलाई 2016

छत्तीसगढ़ में भी ‘छत्तीसगढ़ी’ बनाम ‘बाहरी’ की आग, आखिर क्यों?

एक तरफ जहाँ राष्ट्रवादी विचारधारा अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए ‘ऱाष्ट्र प्रथम’ जैसे जुमले गढ़ रही है तो दूसरी ओर स्थानीय अस्मिता की कुलबुलाहट देश के अलग-अलग हिस्सो में आंदोलन और विरोध की शक्ल में देश को झकझोरने में लगी हुई है। अब छत्तीसगढ़ में भी ‘बाहरी हटाओ’ के नारे बुलंद हो रहे हैं। अजीत जोगी की नई पार्टी बनाने के ऐलान के बाद बाहरीवाद पर हो हल्ला और तेज़ हो गया। आउटसोर्सिंग और भाषा, संस्कृति की उपेक्षा पर आंदोलन करने वाले संगठन अब खुलकर कथित बाहरियों के खिलाफ़ पोस्टरबाजी करने लगे हैं, अजीत जोगी द्वारा क्षेत्रीय अस्मिता पर राजनीतिक दाँव खेलने का विस्तार तो देखा ही जा सकता है लेकिन कुछ समय से छत्तीसगढ़ी अस्मिता के लिए आंदोलनरत ‘छत्तीसगढ़ क्रान्ति सेना’ ज़मीन से लेकर साईबर तक एक उग्र वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार करने में जुटी हुई है, ऐसे में सवाल उठता है कि इन गतिविधियों और चेष्टाओं के पीछे राजनीतिक स्वार्थ की मंशा है या अंसतोष की पीड़ा या दोनों भावों के एकसार होने से पैदा हुई परिस्थितियाँ। 


आजादी के पूर्व भी भारत में सांस्कृतिक, भौगोलिक और राजनीतिक बिखराव रहा है जिसने आज़ाद भारत में एक राष्ट्र का स्वरूप ज़रूर लिया लेकिन जल्द ही अपने पृथक अस्तित्व के लिए संघर्ष भी करने लगा नतीज़तन भाषाई आधार पर राज्य गठन का दौर शुरू हो गया। यह स्थिति भी कोई ज्यादा चिंताजनक नहीं थी लेकिन चिंताजनक तब हुई जब अलग-अलग भाषा-भाषियों के मध्य किसी कारण से कटुता पैदा हुई फिर जिसकी परिणति साठ के दशक में कन्नड़भाषियों द्वारा मलयालम और तमिलों के ख़िलाफ़ आवाज़ बनकर उभरी जिसमें वे बाहरी लोगों के बजाय कन्नड़ लोगों को नौकरी देने की माँग कर रहे थे फिर ये आग 1965 के आसपास तमिलनाडु में लगी और तमिलनाडु से उत्तरभारतीयों को खदेड़ा जाने लगा, हमारे सामने असम, मेघालय, त्रिपुरा, पंजाब के कई उदाहरण हैं जहाँ इस विरोध ने हिंसक रूप भी ग्रहण किया और भारतीय नागरीक के बरक्स क्षेत्रवाद ने बहुतों को बाहरी बना दिया। महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता के नाम पर आए दिन दूसरे प्रदेश से आए लोगों के साथ विवाद की परिस्थितियाँ निर्मित होती रहती है। इस वैमनस्यता के असर से पूरा देश क्षेत्रवाद के भावों से खण्ड-खण्ड होकर अस्मिता बोध के बजाय टकराव और बिखराव की ज़मीन तैयार करने लगता है। यह आरोप किसी एक प्रदेश के ऊपर नहीं है बल्कि हर प्रदेश अपनी-अपनी सीमाओं के भीतर ऐसे क्रियाकलापों को अंजाम देने में नहीं हिचकते ।

लेकिन छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यह बातें काफी हद तक चौकाने वाली है क्योंकि छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्नदृष्टा कहे जाने वाले खूबचंद बघेल ने भी ऐसे विवादों को अपने आंदोलन में पनपने नहीं दिया था और सबको साथ लेकर चलने की पैरोकारी करते रहे। यहाँ रहने वाले शांतचित्त निवासियों की वज़ह से छत्तीसगढ़ की मिट्टी बाहर से आए लोगों के लिए उर्वर बनी रही इसलिए औद्योगिक, राजनीतिक और व्यावसायीक घरानों में बाहर के राज्यों से आए लोगों का कब्जा रहा है। ‘छत्तीसगढ़ क्रांति सेना’ के प्रमुख अमित बघेल कहते हैं कि ‘जो छत्तीसगढ़ की लोक कला और संस्कृति का सम्मान करता है, वह छत्तीसगढ़िया है। हम शिवसेना की तरह नहीं सोचते। हमारी सोच में स्वाभिमान है अभिमान नही्ं। हमारे बाबा डॉ. खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढ़ भातृ संगठन का गठन किया। इस मंच से पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की परिकल्पना की। हमें पृथक राज्य तो मिला लेकिन न्याय नहीं मिला। बाहरी लोगों ने हमेें नीचा दिखाने का प्रयास किया है। बाहरी लोगों ने छत्तीसगढ़ की संपदा पर कब्जा कर लिया है। हमारी रत्नगर्भा धरती बाँझ होती जा रही है।’

इस बात से यह अंदाज़ा लगाना आसान हो जाता है कि स्थानीय लोगों की उपेक्षा होने से ऐसा मौसम तैयार हो रहा है।

अभी हाल ही में शिक्षा विभाग के द्वारा छत्तीसगढ़ के स्कूलों में ओड़िया पढ़ाने का आदेश जारी हुआ और वहीं से क्रांति सेना का उभार भी शुरू हो गया। तब क्रांति सेना ने अपने पोस्टरों और सोशल मीडिया के ज़रिए कहा कि- ‘हमें इस देश की किसी भी भाषा और संस्कृति से वैचारिक तौर पर कोई विरोध नहीं है, लेकिन जब तक यहाँ की मातृभाषा में संपूर्ण शिक्षा की व्यवस्था नहीं हो जाती, तब तक किसी भी अन्य प्रदेश की भाषा को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जायेगा।’

इसके बाद आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर भी इनका आंदोलन चलता रहा और जब रायपुर स्थित तेलीबाँधा तालाब का नाम बदलकर विवेकानंद सरोवर रखने का प्रस्ताव आया तब पहली दफा स्थानीय संस्कृति के संरक्षण के लिए बड़ी संख्या में लोग एकजुट होकर इस प्रस्ताव के खिलाफ़ सड़क पर उतर आए।

छत्तीसगढ़ी बनाम बाहरी विवाद पर सामाजिक कार्यकर्ता नंद कश्यप कहते हैं कि ‘इस विवाद में दो धाराएँ हैं, एक विभाजनकारी नस्लीय तरह की जो अचानक आए मूल निवासी फैशन से उपजी है, दूसरी धारा समता वाली है जो कि यह मानता है कि छत्तीसगढ़ में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का सिर्फ दोहन हो रहा है परंतु छत्तीसगढ़ के नौजवान किसान, मज़दूरों को इसका तनिक भी हिस्सा नहीं मिल रहा है। छत्तीसगढ़ की गरीबी इसका ज्वलंत उदाहरण है। इसलिए छत्तीसगढ़ी बनाम बाहरी भावना उभार पर है।’

इन बातों का अगर बारिकी से अध्ययन किया जाए तो लगता है कि ये ‘छत्तीसगढ़ी बनाम बाहरी’ विवाद ना होकर शोषण के विरूद्ध पैदा हुई भावना है जिसका राजनीतिक विस्तार किया जा रहा । साहित्यकार संजीव तिवारी के अनुसार ‘गैर छत्तीसगढ़िया धुन के सहारे स्थानीय नेताओं के विकास की संभावना देखते हुए ऐसे विवाद को बढ़ाते हैं जिसका उद्देश्य शीर्ष नेतृत्व में स्थापित गैर छत्तीसगढ़ियों को हटाना है।’

शायद इसीलिए अमित जोगी आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर कहते हैं ‘कि प्रदेश सरकार को छत्तीसगढ़ के शिक्षित बेरोजगार युवाओं के हितों की रक्षा के लिए छत्तीसगढ़ में नौकरी के लिए छत्तीसगढ़ में बोले जाने वाली छत्तीसगढ़ क्षेत्र की भाषाओं के ज्ञान की अनिवार्यता का नियम बनाना चाहिए और यह बोलकर बहुत पहले ही अमित जोगी ने अपनी क्षेत्रीय राजनीति की ज़मीन तैयार करने की शुरूआत कर दी थी। इसका मतलब उपेक्षित भाषा, संस्कृति और लोगों को राजनीतिक विकल्प देने की घोषणा के पीछे ना केवल राजनीति है बल्कि विभिन्न कारणों से पैदा हुई परिस्थितियाँ हैं जिसमें स्थानीयता को अनदेखा करने के कारण उत्पन्न आक्रोश भी है जो कि स्थानीय राजनीति के उभार के लिए ईंधन की तरह है।

इसी आक्रोश की बानगी उन पोस्टरों में भी देखी जा सकती है जिसमें गैर छत्तीसगढ़ी नेताओं और मंत्रियों की तस्वीरें हैं जिसमें मुख्यमंत्री रमन सिंह की तस्वीर भी प्रमुखता से लगाई गई है।

लेकिन अब डर इस बात का है कि ये विरोध राजनीति के रास्ते ‘छत्तीसगढ़ी’ और ‘गैर छत्तीसगढ़ी’ लोगों के बीच पारस्परिक कटुता का कारण ना बन जाए। इस पर चिंता ज़ाहिर करते हुए साहित्यकार संजीव तिवारी कहते हैं कि जो मन-क्रम वचन से छत्तीसगढ़ी से प्रेम करता है वह छत्तीसगढ़िया है पत्रकार शेखर झा इसके जींवत उदाहरण हैं। बिहार के मिथिलाभाषी शेखर ने कुछ ही सालों में छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी को पूरी तरह से आत्मसात किया यह एक उदाहरण है ऐसे कई होंगे और आज ऐसे कईयों के लिए छत्तीसगढ़ की परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो जाए इससे पहले सरकार को छत्तीसगढ़ की संस्कृति, भाषा और लोगों के विश्‍वास पर खरा उतरना पड़ेगा अन्यथा अंसतोष की आग का राष्ट्रीय संस्कृति के लिए घातक साबित होने की संभावना बढ़ जाएगी।

छत्तीसगढ़ी को राजकाज की भाषा बनाने के लिए आंदोलन कर रहे नंदकिशोर शुक्ल कहते हैं कि ‘छत्तीसगढ़ अस्मिता की पहचान मेरी मातृभाषा छत्तीसगढ़ी सहित यहाँ की सभी मातृभाषाएँ हैं लेकिन इन मातृभाषाओं में पढ़ाई लिखाई आज तक नहीं होने दी जा रही है जिसके लिए जवाबदार गैर छत्तीसगढ़िया सरकार है जिस भाषा में पढ़ाई लिखाई नहीं होती वह भाषा मर जाती है जो मुझे मंज़ूर नहीं।’

इन तमाम बातों के मूल में एक चीज़ नज़र आती है कि स्वतंत्र भारत में सभी संस्कृतियों को फलने फूलने का संविधानिक अधिकार होने के बावजूद कथित पॉप्यूलर कल्चर को थोपकर स्थानीय संस्कृतियों, भाषाओं और लोगों की उपेक्षा की जाती रहेगी तब कभी ना कभी वह गुस्सा किसी भी रूप में बाहर आकर राष्ट्र को झकझोरता रहेगा। स्थानीयता की उपेक्षा कर राष्ट्रवाद की दुहाई देना बिल्कुल बेमानी और ख़तरनाक है।
------------------------------------------------------------------------------------------------
AKSHAY DUBEY SAATHI
http://akshaydubeysaathi.jagranjunction.com

मंगलवार, 14 जून 2016

डॉ.खूबचंद बघेल

भारत की आजादी के आंदोलन में सक्रिय योगदान देकर एवं तत्कालीन भारत में चल रहे राजनैतिक-सामाजिक परिवर्तन तथा आर्थिक मुक्ति आंदोलन में हिस्सा लेकर जिन्होंने इतिहास रचा है, उनमें एक सशक्त हस्ताक्षर डॉ. खूबचंद बघेल जी का भी है। छत्तीसगढ़-राज्य जो अस्तित्व में नवम्बर 2000 से आया है, उसके प्रथम स्वप्न दृष्टा, डॉ. खूबचंद बघेल जी ही थे। आज भले ही उन्हें इसकी मान्यता देने में उच्चवर्ण एवं वर्ग के लोगों को हिचकिचाहट होती है, लेकिन यही ऐतिहासिक सत्य/तथ्य है। ब्राम्हणवादी जाति व्यवस्था को विछिन्न कर समस्त मानव जाति को एक जाति के रूप में देखने की चाहत रखने वाले डॉ. बघेल के व्यक्तित्व में छत्तीसगढ़ की खुशबू रची-बसी थी। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिये त्याग और बलिदान करने वालों में डॉ. साहब का नाम अग्रिम पंक्ति पर है।

छत्तीसगढ़ के संस्कृति कला एवं रीति रिवाजों की महक, उनमें रची बसी थी, जो उनके द्वारा लिखित “जनरैल सिंग” नामक नाटक के इस कविता में झलकती है-

नादानी से फूल उठा मैं, ओछो की शाबासी में,
फसल उन्हारी बोई मैंने, असमय हाय मटासी में।
अंतिम बासी को सांधा, निज यौवन पूरन मासी में,
बुद्ध-कबीर मिले मुझको, बस छत्तीसगढ़ के बासी में।
बासी के गुण कहुँ कहाँ तक...
विद्वतजन को हरि दर्शन मिले, जो राजाज्ञा की फाँसी में,
राजनीति भर देती है यह, बुढ़े में सन्यासी में,
विदुषी भी प्रख्यात यहाँ थी, जो लक्ष्मी थी झाँसी में,
स्वर्गीय नेता की लंबी मुंछे भी बढ़ी हुई थी बासी में ।।
गजब विटामिन भरे हुए हे ....
डॉ. खूबचंद बघेल का जन्म छत्तीसगढ़ (तत्कालीन सी. पी. एवं बरार) के रायपुर, जिले के ग्राम पथरी में 19 जुलाई सन 1900 ईस्वी में हुआ था। ग्राम पथरी रायपुर-बिलासपुर (मुम्बई- हावड़ा रेल लाईन व्हाया नागपुर) रेल मार्ग पर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 15 किलोमीटर दूर मांढर (द.पु.रे.) सीमेंट फैक्टरी से 10 कि.मी. पूर्व में स्थित है। पिता का नाम जुड़ावन प्रसाद एवं माता का नाम केतकी बाई था। जुड़ावन प्रसाद पथरी के मालगुजार परिवार से थे। ब्राम्हणवादी जाति व्यवस्था के तहत कूर्मि जाति के होने के नाते खेती किसानी ही उनका पुश्तैनी पेशा था । पिता की मुत्यु डॉ. साहब के बाल्यकाल में ही हो गई थी। प्राथमिक शिक्षा डॉ. साहब ने अपने चाचा नकुल एवं सादेव प्रसाद बघेल के कुशल निर्देशन में गाँव के प्राथमिक शाला में पायी । प्राथमिक शिक्षा समाप्त करने के बाद गवर्नमेंट हाई स्कूल, रायपुर में भर्ती हो गये। वे एक मेघावी छात्र में, उन्हें छात्रवृत्ति मिलती थी। छात्र जीवन से ही देश सेवा के कार्य में जुड़े रहे। देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता की भावनाने हृदय में जगह बना लिया था। 

डॉ. साहब का विवाह लगभग दस वर्ष की उम्र में अपने से तीन वर्ष छोटी राजकुँवर से, प्राथमिक शिक्षा प्राप्ति के दौरान ही हो गयी थी। उनकी पत्नी राजकुँवर से उनकी तीन पुत्रियों क्रमशः पार्वती, राधा एवं सरस्वती का जन्म हुआ। राजकुँवर बाई निरक्षर थी। कलान्तर में डॉ. भारत भूषण बघेल को पुत्र के अभाव में डॉ. साहब ने गोद लिया। 

सन् 1920 में जब नागपुर के राबर्ट्‌सन मेडिकल कालेज में डॉ. साहब शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब नागपुर में विजय राघवाचार्य की अध्यक्षता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में मेडिकल कोर के सदस्य के रूप में सम्मिलित हुये थे। सन् 1921-22 के ‘असहयोग आंदोलन’ से प्रभावित होकर डॉक्टरी की पढ़ाई छोड़ आंदोलन का प्रचार-प्रसार, रायपुर जिले के, गाँव में घूम-घूमकर करने लगे। विशेषकर डॉक्टर साहब ने छात्रों को संगठित कर, उसमें राष्ट्रीय चेतना के बीज बोने का बीड़ा उठाया। डॉक्टरी की पढाई अधुरी छोड़ नागपुर से लौट आने एवं स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रियता को देख, माता एवं परिवारजनों को बड़ी निराशा हुई थी, लेकिन सबके समझाने के बाद, पुनः नागपुर एल.एम.पी. की डिग्री हासिल करने पहुँचे, तभी झंडा सत्याग्रह प्रारंभ हो गया। छत्तीसगढ़ से सैकड़ों की संख्या में स्वयंसेवकों ने ‘झंडा सत्याग्रह‘ में डॉ. साहब के नेतृत्व में भाग लिया। 

सन्‌ 1923 में एल.एम.पी. (लजिसलेटिव मेडीकल प्रेक्टिशनर) की परीक्षा पास कर ली, कालांतर में एल.एम.पी. को एम.बी.बी.एस. में परिवर्तित किया गया। एल.एम.पी. की परीक्षा पास कर स्वास्थ्य विभाग में नौकरी कर ली। डॉ. साहब की प्रथम पोस्टिंग रायगढ़ शासकीय अस्पताल में हुई। 1931 में ‘जंगल सत्याग्रह’ प्रारंभ हो गया, इसमें शामिल होने डॉ. साहब ने शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे दिया और संपूर्ण भारत में चल रहे स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलन के प्रति पूर्णतया समर्पित हो गये। दलितों एवं शोषितों के सामाजिक अपमान, छूआछुत, भेदभाव के विरूद्ध संगठन की शुरूआत की एवं 1932 में तत्कालीन “मध्यभारत एवं बरार प्रांत” (सी.पी. एंड बरार प्रोविन्स) के ‘हरिजन सेवक संघ’ ईकाई के मंत्री नियुक्त किये गये। मिनीमाता एवं छत्तीसगढ़ के अन्य दलित नेताओं के साथ मिलकर शैक्षणिक, सामाजिक, राजनैतिक स्तर में सुधार के लिये काम किये। 
सन् 1932 के ‘विदेशी वस्त्र बहिष्कार आंदोलन’ में पुनः जेल गये । उनके साथ उनके 18 सहयोगियों में एक उनकी माता श्रीमती केतकी बाई भी थी। सन् 1932 के बाद “रायपुर जिला काँग्रेस कमेटी” के साथ, डिस्ट्रिक्ट कौंसिल रायपुर में फिजिकल इंस्ट्रक्टर के पद पर कार्य किया।


सामाजिक कार्य 

ऊँच-नीच, छूआछूत के चलते छत्तीसगढ़ के गाँवों में नाई, सतनामी समाज के भाईयों का बाल नहीं काटते थे। उनके मुहल्ले की सफाई भी नहीं होती थी। ग्राम-चन्दखुरी, मंदिरहसौद, ब्लाक – आरंग, जिला-रायपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, जो आगे चलकर विधायक भी चुने गये, जिन्हें दुकान का धंधा करने के कारण लोग सेठ कहकर पुकारते थे - ‘स्व. अनंत राम बर्छिहा‘ ने सतनामी समाज के लोगों का बाल काटने, दाढ़ी बनाने (साँवर बनाने) एवं उनके मुहल्ले की सफाई करने का काम किया। इससे उनका अपना कूर्मि समाज नाराज हो गया, उन्हें कूर्मि जाति से बहिष्कृत कर दिया । डॉ. साहब ने इस कार्य के महत्व बताने एवं नाराज समाज को अपने गलती का एहसास करवाने के लिये “ऊँच-नीच” नामक नाटक लिखकर उसका सफल मंचन करवाया । इस नाटक का असर यह हुआ, बर्छिहा जी का सामाजिक बहिष्कार रद्द हुआ एवं उनके कार्य की सर्वत्र प्रशंसा हुई।

भारतीय मानव समाज के वर्ण से वर्ग, वर्ग से जाति, जाति से उपजाति एवं उपजाति से गोत्र के टूटन को उन्होंने अंतरआत्मा तक महसूस किया और इस सड़ी-गली जाति प्रथा को तोड़ने का संकल्प ले, सर्वप्रथम उपजाति बंधन को तोड़ा। 1936 में उपजाति बंधन तोड़कर स्वयं मनवा कूर्मि उपजाति के होने के बावजूद, दिल्लीवार कूर्मि समाज के रामचन्द्र देशमुख (संस्थापक - चंदैनी गोंदा) ग्राम-बघेरा, जिला-दुर्ग वाले के साथ अपनी द्वितीय पुत्री राधाबाई का विवाह सम्पन्न किया। उपजाति बंधन तोड़ने पर उनके स्वयं के मनवा कूर्मि समाज ने उन्हें मनवा कूर्मि उपजाति से बहिष्कृत किया, उन्हें सजा मिली। अपने मनवा कूर्मि उपजाति से बहिष्कृत होने पर उन्होंने कहा, ‘आप भले ही मुझे छोड़ दे, लेकिन मैं आप लोगों को नहीं छोड़ सकता’, इस अवसर पर अपनी बात उन्होंने कवि अतीश की एक कविता के माध्यम से कही जो निम्नलिखित है -
ये हो बिटप (वट -वृक्ष), हम पुहुप (फुल) तिहारो है । राखिहौ तो रहेंगे, शोभा रावरी (तुम्हारी) ही बढ़ायेंगे ।। बिलग किये ते, बिलग ना माने कछु, चढ़ेगे, सुर सिर न चढ़ेगें जाय सुकव अतीश हाट बाटन बिकायेंगे । देश हुँ रहेंगे, परदेश हॅुं रहेंगे जाय, जऊ देश हुँ रहे, पर रउरे (आपके ही) कहायेंगे ।
डॉ. बघेल ने अपने लेख में उपजातीय शादियों के संबंध में लिखा है, कि “जो अन्तर उपजातीय विवाह को टेढ़ी नजर से देखते हैं, यह तो संजीवनी बुटी को ‘चरौटा-भाजी’ समझने के समान मूर्खता है। जो हमें संकीर्णता से विशालता की ओर, जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जावे, ऐसे कदम का विरोध करने वाले लोगों के लिय हृदय में एक भारी वेदना पैदा होती है।”

उपजाति शादी की मान्यता के लिये, वर्षों तक संघर्ष कर, अंततः विजयी हुये। इसी का परिणाम है, कि आज छत्तीसगढ़ के कूर्मियों में अन्तर उपजातिय शादियों को मान्यता प्राप्त है। कुर्मियों के अखिल भारतीय स्वरूप को उन्होंने सामने लाया, पटना (बिहार) के राजेश्वर पटेल (जो सांसद भी रहे एवं 1953 ‘प्रथम राष्ट्रीय अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग’ जिसके अध्यक्ष काका कालेलकर को नियुक्त किया गया था, के पटेल जी सदस्य रहे।) के साथ अपनी तृतीय पुत्री सरस्वती का विवाह किया । “अखिल भारतीय कूर्मि क्षत्रिय महासभा” के 24 वें अधिवेशन जो कि दिनांक 7,8 एवं 9 मई 1948 यू.पी., कानपुर के जनपद हारामऊ ग्राम-पुखराया में एवं 28 वाँ अधिवेशन जो महाराष्ट्र, नागपुर में दिनांक 10,11 एवं 12 दिसम्बर 1966 को आयोजित था, कि अध्यक्षता की।

कानपुर के अध्यक्षीय भाषण का यह अंश उनके समस्त मानव जाति को एकजुट करने की इच्छा को प्रदर्शित करता है “उपजातियों का भेदभाव मिटाना इस युग का छोटे से छोटा, हल्के से हल्का कदम होगा। सही मायने में तो हमको और आपको समस्त मानव जाति के अंदर रहने वाली ब्राम्हणवादी जाति-पाति की सड़ी एवं खड़ी व्यवस्था को ही पहले दूर करना होगा। वर्ण व्यवस्था रूपी शरीर में जाति व्यवस्था एक कोढ़ है, जो सारे भारतीय मानव समाज को नष्ट कर रहा है।”

सामाजिक परिवर्तन की दिशा में उनके उपर्युक्त उद्‌गार आज भी प्रासंगिक है। क्योंकि शोषित एवं पिछड़ा अपने हित की जब बात करता है, तो उच्च वर्ण के लोग उन्हें जातिवादी करार देते हैं। क्या अपने-अपने परिवार के, जाति के, वर्ग के एवं वर्ण के हित में कार्य करना जातिवाद है? यदि ब्राम्हणवादियों का आरोप सहीं है, तो वे स्वयं, वही कार्य क्यों करते हैं?

जाति प्रथा के आधार पर छत्तीसगढ़ में एक रिवाज प्रचलित थी, जिसके तहत, किसी बारात में उपस्थिति भिन्न-भिन्न जाति के लोगों को अलग-अलग पंक्ति में बैठाकर भोजन करवाया जाता था। अर्थात्‌ व्यक्ति के जाति के, आधार पर उसकी पंक्ति तय होती थी। कूर्मि व्यक्ति तेली के साथ एक ‘पंक्ति‘ में बैठकर भोजन ग्रहण नहीं कर सकता था। यह व्यवस्था डॉ. साहब को भेदभाव पूर्ण लगी और उन्होंने इसे तोड़ने के लिये ‘पंक्ति तोड़ो‘ आंदोलन चलाया, अर्थात्‌ कोई व्यक्ति किसी के भी साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर सकता है। जाति के आधार पर पंक्ति नहीं होनी चाहिये। पंक्ति तोड़ो आंदोलन में वो सफल रहे।

सन् 1952 में होली त्यौहार के समय कराये जाने वाले ‘किसबिन नाच‘ बंद कराने के लिये ग्राम महुदा (तरपोंगी) ब्लाक-तिल्दा, जिला-रायपुर में सत्याग्रह किया पूर्णतया सफल रहे। किसबा जाति जिनका पुश्तैनी धंधा ही अपनी बहन-बेटियों को तवायफ की तरह नाच-गाने में लगाने का था, उनमें यह चलन बंद करने के लिये आपने ‘भारतवंशी, जातिय सम्मेलन’, मुंगेली, जिला-बिलासपुर में समाज सुधार की दृष्टि से किया। इस सम्मेलन का व्यापक प्रभाव उक्त जाति पर पड़ा और किसबा जातीय जीवन धारा में परिवर्तन आया । सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन में उनके आदर्श महात्मा ज्योतिबा फुले थे। डॉ. साहब बताते थे कि महात्मा गाँधी, फुले को असली महात्मा कहते थे। शैक्षणिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़ों के आर्थिक मुक्ति के लिये सिलयारी में ‘ग्राम उद्योग संघ’ का निर्माण, तेल पेराई उद्योग, घानी निर्माण, हाथ करघा, धान कुटाई कार्य और साबुन साजी के गृह उद्योग का प्रशिक्षण और उत्पादन तथा मार्केटिंग कार्य का संचालन आपने सहकारिता के माध्यम से किया।

सन् 1958-59 में सिलयारी में ‘जनता हाईस्कूल’ की स्थापना की। जो आज उनके नाम पर शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय है। यह कदम उन्होंने आसपास के गाँवों के शैक्षणिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिये किया। इस स्कूल को खोलने का दूसरा कारण था, प्रदेश शासन द्वारा धरसीवाँ विधानसभा क्षेत्र की उपेक्षा। चूँकि 1952 एवं 57 में डॉ. बघेल, यहाँ से विरोधी दल के प्रत्याशी की हैसियत से एम.एल.ए. बने थे, काँग्रेस के प्रत्याशी को हराकर। 

राजनैतिक कार्य
डॉ. साहब सन् 1931 तक शासकीय अस्पताल में डॉक्टर रहे, शासकीय सेवा से त्यागपत्र दे पूरी तरह से स्वाधीनता आंदोलन में कूद गये। 1931 में “जंगल सत्याग्रह” में पुनः जेल गये, काँग्रेस के पूर्णकालिक सदस्य बन, स्वतंत्रता संग्राम के लिये, महात्मा गाँधी द्वारा चलाये जाने वाले आंदोलन में शामिल हुये। 1932 में रायपुर जिला काँग्रेस कमेटी के डिस्ट्रिक्ट कौंसिल रायपुर में फिजिकल इन्सट्रक्टर के पद पर नियुक्ति किये गये। “भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस” द्वारा चलाये जा रहे स्वाधीनता संग्राम में समय-समय पर आयोजित विभिन्न आंदोनल में सक्रियता से भाग लिया। 1932 में “द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन” में शामिल हुये। सन् 1935 के अधिनियम 'The Govt. of India Act' के आधार पर भारत में संघात्मक प्रणाली स्थापित की गई, जिसके फलस्वरूप 1937 में निर्वाचन हुये काँग्रेस को अभुतपूर्ण सफलता मिली। डॉ. साहब ने काँग्रेस कार्यकर्ता के रूप में सक्रियता से इन चुनावें में हिस्सा लिया। ग्यारह प्रांतों में से 8 प्रांतों में काँग्रेस को बहुमत मिला, जिसमें “सी.पी.एवं बरार” भी शामिल था। द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार को सहयोग कर, पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रस्ताव काँग्रेस द्वारा 1940 में पास किया गया परंतु ब्रिटिश सरकार ने युद्ध के बाद 1942 में भारत को आजाद करने से इंकार कर दिया। जिसके फलस्वरूप गाँधी जी ने 1941 में सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया। “करो या मरो आंदोलन” 'Do or Die' में सक्रियता से भाग लिया और जेल गये। 8 अगस्त 1942 में शुरू “भारत छोड़ो आंदोलन” में अपने साथियों सहित 21 अगस्त 1942 को जेल गये एवं ढाई वर्षों तक जेल में रहे।

जून 1946 में प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा के निर्वाचन हुये सी.पी. एवं बरार में काँग्रेस को 112 स्थानों में से 92, स्थान मिले। रविशंकर शुक्ला के प्रधान मंत्रित्व (तब मुख्यमंत्रियों को इसी नाम से जाना जाता था) में सी. पी. एवं बरार, प्रांत में सरकार बनी। डॉ. साहब इस चुनाव में धरसींवा विधानसभा से विधायक चुने गये। काँग्रेस की अंतरिम सरकार में संसदीय सचिव के रूप में कार्य किया। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हसन के साथ, उन्होंने स्वास्थ्य विभाग का भी काम सम्हाला। तत्कालीन मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल से “किसानों से प्रशासन द्वारा चंदा वसुली” के प्रकरण में मतभेद हो गया, और अपने पद से इस्तीफा दे दिया । 19 मई 1951 में आचार्य कृपलानी के नेतृत्व में बने “किसान मजदूर प्रजा पार्टी” में शामिल हो गये। सन्‌ 1952 का आम चुनाव हुआ, डॉ. खूबचंद बघेल “किसान मजदूर प्रजा पार्टी” से पुनः धरसींवा विधानसभा क्षेत्र के विधायक चुने गये, उन्होंने काँग्रेस को 53.21 प्रतिशत मत प्राप्त कर हराया था। सन् 1952 में जयप्रकाश नारायण के समाजवादी पार्टी एवं आचार्य कृपलानी के “किसान मजदूर प्रजा पार्टी” को मिलाकर “प्रजा सोशलिस्ट पार्टी” का गठन किया गया। सन् 1957 के आम चुनाव में “प्रजा शोलिस्ट पार्टी” प्रसोपा (झोपड़ी छाप) के बैनर तले पुनः धरसींवा विधानसभा से निर्वाचित घोषित किये गये। सन् 1954 में ठाकुर प्यारेलाल सिंग के निधन के पश्चात छत्तीसगढ़ में समाजवादी आंदोलन एवं प्रसोपा का कमान डॉ. खूबचंद बघेल के हाथों सौंपा गया।

राजनीति के महत्व को बताते हुये डॉ. साहब ने सन 1965 की अपनी डायरी में लिखा है, कि- “राजनीति को रचनात्मक कार्यकर्ता पाप समझते हैं, किन्तु आज राजनीति राष्ट्र की दिशा-निर्देश, नीति निर्धारण करती है। क्या इसे ऐसे लोगों के हाथ सौंपकर निश्चिंत हो जाया जाय जो जाने-अनजाने रचनात्मक कार्यों का नाश कर देगें? ऐसी स्थिति में क्या मात्र निष्ठा से काम चल जायेगा ? अतः राजनीति को पाप समझना छोड़ दें। राजनीति उतनी ही गंदी होती है, जितना हम उसे बनाते हैं। मैं सत्तालोलुप राजनीति का समर्थक नहीं पर आधारभूत राजनीति का समर्थक हूँ, जिसका प्रभाव आम जनता के जीवन की जड़ों तक पहुँचता है। अतः चुनौती देने वाली समस्याओं को राजनीति का नाम देकर, उससे पीछा छुड़ाने का प्रयास सामाजिक कार्यकर्ता ना करें यही मेरी उनसे अपेक्षा है।”

भारत के राजनैतिक परिदृष्य पर, इतिहास के पन्नों से सन् 1955 की डायरी में लिखते हैं- “मुट्ठी भर लोगों की जगह ‘बहुजन समाज’ का राज पहिले आदिम काल में सहज स्वाभाविक रूप से स्वतंत्र था।” सन् 1951 में काँग्रेस से त्यागपत्र देकर जब आचार्य कृपलानी के साथ “किसान मजदुर प्रजा पार्टी” में आये तो पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने उन्हें धमकाते हुये कहा था- “डॉ. सोच लो तुम्हें मिटा दिया जायेगा।” इसका जवाब डॉ. साहब ने कुछ इस तरह दिया था- “आप मुझसे मेरा सब कुछ छीन सकते हो, मेरी गरीबी नहीं छीन सकते। मेरी बूची टांडी के पसिया को नहीं छीन सकते।” आचार्य कृपलानी के साथ काँग्रेस त्यागने वाले छत्तीसगढ़ में ठाकुर प्यारेलाल सिंह (रायपुर), ज्वाला प्रसाद मिश्रा (अकलतरा) विश्वनाथ यादव, तामस्कर वकील (दुर्ग) आदि थे। ये सभी नेता अपने समय के प्रखर स्वतंत्रता सेनानी एवं गाँधीवादी थे।

छुईखदान तहसील कार्यालय हटाये जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे, निहत्थे लोगों पर शासन द्वारा गोली चलाई गई। जिसमें कुछ महिलायें भी शहीद हुई, अनेक घायल हुये। इस गोली चालन के विरूद्ध में उन्होंने ठाकुर प्यारेलाल सिंह के साथ मिलकर प्रांतव्यापी आंदोलन चलाया। इसी प्रकार लोहाँडीगुड़ा जिला-बस्तर में आदिवासियों पर दिनांक 31/03/1961 में हुये अत्याचार, गोली चालन का उन्होंने प्रभावी ढंग से विरोध किया।

डॉ. बघेल ने रायपुर का कुप्रसिद्ध तकाबी कांड, जिसमें किसानों को लूटा गया था, के विरूद्ध अपनी आवाज बुलंद की। तकाबी कांड में फंसे अधिकारियों को अंत में सजा मिली, सजा से बचने, संबंधित व्यक्तियों ने डॉ. बघेल की अनुपस्थिति में, उनके घर डाका डलवाकर, कांड से संबंधित कई फाइलें गायब करवा ली थी।

बैतूल जिले के कुछ लोगों ने डॉ. बघेल को “सायना बांध” में हुए घपले की खबर दी, डॉ. साहब ने वहाँ पहुँचकर घपले की पूरी फाइल बनाई। मुख्यमंत्री काटजू के पास चर्चा के लिय स्वयं गये। पूरी चर्चा के बाद कैलाशनाथ काटजू, मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश ने पूछा “डॉ. बघेल आखिर आप सायना गये क्यों थे ? क्या वहाँ आपकी कोई रिश्तेदारी है ?” डॉ. बघेल बोल - डॉ. काटजू आप ठीक-ठीक बताएँ की आप जाँच कराने तैयार हैं, कि नहीं ? अन्यथा मैं इस घपले को आमजनता तक ले जाऊँगा, और वह स्वयं निर्णय लेगी। 

एक उच्चपुलिस अधिकारी ने रायपुर के अपने कार्यकाल में किसी मामले की डॉक्टर साहब द्वारा आलोचना किये जाने को लेकर इंदौर में उन पर मुकदमा चलाया। डॉ. साहब इंदौर जाकर मुकद्मा लड़े और विजयी हुये।

डॉ. कैलाशनाथ काटजू के मुख्यमंत्रित्व के दौरान सन् 1960-61 में विन्ध्यप्रदेश, मध्यभारत एवं छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा। विन्ध्य एवं मध्यभारत को गेहूँ निर्यात की छूट और छत्तीसगढ़ के धान निर्यात पर पाबंदी लगा दी गई। डॉ. साहब ने मुख्यमंत्री से, छत्तीसगढ़ के किसानों के हित में प्रतिबंध हटाने की अपील की, मुख्यमंत्री नहीं माने। डॉ. साहब ने इस तुगलकी, आदेश का उल्लंघन करते हुये, अपने साथियों के साथ ‘धान सत्याग्रह’ आंदोलन चलाया। महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश सीमा पर स्थिति बाघ नदीं से 1 बोरा धान को स्वयं नाव द्वारा निर्यात कर (म.प्र. से महाराष्ट्र ले जाकर) आंदोलन की शुरूवात की और जेल गये। इस आंदोलन में स्व. बृजलाल वर्मा, पूर्व केन्द्रीय मंत्री, हरिप्रेम बघेल पूर्व विधायक एवं अन्य साथीगण शामिल थे।

सन् 1962 में विद्याचरण शुक्ल के विरूद्ध “महासमुंद लोकसभा” सीट से चुनाव लड़ा, जिसमें विद्याचरण 2,500 मतों से विजयी हुये थे। इस लोकसभा चुनाव में (आमचुनाव) महासमुंद लोकसभा के अन्तर्गत आने वाले, सारंगढ़ विधानसभा से, वहाँ के राजा साहब ने चुनाव लड़ा। उनके विरूद्ध केवल प्रसोपा का एक प्रत्याशी ही था, जिसकी उम्मीद्वारी वापस लेने से, वे निर्विरोध निर्वाचित हो सकते थे। इसके लिये राजा साहब ने डॉ. बघेल को 30,000/- रूपया (तीस हजार) घूस के रूप में देने की पेशकश की। सिद्धांत के पक्के डॉ. बघेल देवभोग से सराईपाली तक विद्याचरण से आगे रहे पर सारंगढ़ में 12,000 मतों से पिछड़कर 2500 (ढाई हजार ) मतों से हार गये। डॉ. बघेल ने विद्याचरण के विरूद्ध चुनाव याचिका दायर की और विद्याचरण का निर्वाचन रद्द कर दिया गया।

“मांछी खोजे घाव अऊ राजा खोजे दाँव” वाली काहवत चरितार्थ करने, पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र (जिसके विरूद्ध भी 1962 के चुनाव जीतने में कदाचरण की याचिका न्यायालय में दायर कर दी गई थी।) ने कोचक कर घाव बनाया एवं समाजवादी पार्टी के मुखिया डॉ. बघेल को घेरा। इस षड़यंत्र में विद्याचरण को भी शामिल किया गया, क्योंकि उनके विरूद्ध भी चुनाव याचिका थी, दुश्मन (डॉ. बघेल) का दुश्मन (विद्याचरण) दोस्त बन गये। सिलयारी घानी संघ जो सहकारी क्षेत्र में था, की जाँच (ऑडिट) करवाकर कुछ गलतियाँ निकाली गई।

डॉ. बघेल का इसमें कोई हाथ नहीं था, उन्हें तो राजनीति से ही फुर्सत नहीं थी। पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने डॉ. बघेल को कहा, कि आपके द्वारा संचालित संघ में पैसे की गड़बड़ी है और इससे आपके प्रतिष्ठा को गहरा आघात लग सकता है। आप काँग्रेस में आते हैं, तो इसे नजर अंदाज किया जा सकता है। डॉ. बघेल ने सोचा जिस छत्तीसगढ़ की सेवा विरोधी पार्टी में रहकर वो नहीं कर नहीं पा रहे है, वह सत्ता के माध्यम से अच्छा हो पायेगा। प्रतिष्ठा भी बची रहेगी। डॉ. बघेल ने काँग्रेस प्रवेश करना स्वीकार कर लिया, लेकिन कभी भी काँग्रेस में चैन से नहीं रह पाये। सन्1966 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्र थे, बस्तर में राजा प्रवीरचंद भंजदेव के कारण बस्तर के 12 विधा सभा सीटों में काँग्रेस की दाल नहीं गलने वाली थी। राजा प्रवीरचंद भंजदेव ने न केवल बस्तर जिला काँग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया था, वरन्‌ काँग्रेस भी छोड़ दी। द्वारिका प्रसाद मिश्रा बस्तर के 12 सीट काँग्रेस की झोली में डालकर, इंदिरा गाँधी को खुश करना चाहते थे। प्रवीरचंद भंजदेव एवं 300 आदिवासियों की पुलिस गोली चालन कर हत्या करवा दी गई। इस घटना का मार्मिक चित्रण डॉ. बघेल ने लोगों के सामने रखा, आम जनता को इस काण्ड की बर्बरता का विवरण दिया। इस कांड से दुखी डॉ. साहब ने काँग्रेस से इस्तीफा दे दिया।

भिलाई स्टील प्लांट की स्थापना में जिन किसानों की जमीन अर्जित की गई, उनके परिवार से एक व्यक्ति को अनिवार्य रूप से कारखाने में रोजगार दिलवाने श्री तामस्कर जी के साथ मिलकर किसानों एवं मजदूरों का विशाल प्रदर्शन डॉ. बघेल के नेतृत्व में किया गया। शासन ने स्थानीय लोगों को प्राथमिकता देना स्वीकार किया। हीराकुंड बांध निर्माण से जिन किसानों की जमीन, डुबान में आ गई थी, उसके मुआवजे के लिये आंदोलन चलाया, इस आंदोलन में श्री रामकुमार अग्रवाल रायगढ़ ने साथ दिया। किसानों को उनका हक मिला।

1964 में जब ‘सी.पी.एवं बरार‘ प्रांत के प्रधानमंत्री (मुख्यमंत्री तब इसी नाम से जाने जाते थे। ) के चुनाव में बृजलाल बियानी भी एक उम्मीद्वार थे, पं. रविशंकर शुक्ला के विरूद्ध, बियानी को समर्थन देने के बदले डॉ. बघेल को 3 लाख रूपये देने का प्रस्ताव गोपाल दास मेहता ने रखा। डॉ. बघेल उसूल के पक्के, निष्ठावान राजनीतिज्ञ थे, यह प्रस्ताव ठुकराकर, पं. रविशंकर शुक्ल के लिये प्रधानमंत्री पद का रास्ता प्रशस्त किया। 1964 में स्वास्थ्य विभाग के सचिव आई.सी.एस., मि. सिन्हा थे, डॉ. हसन, स्वास्थ्य मंत्री (केबिनेट) थे। सचिव की लापरवाही से विधानसभा में डॉक्टरों की नियुक्ति को लेकर प्रश्न उठने की नौबत आ गई। मि. सिन्हा को बुलाकर डॉ. साहब ने खरीखोटी सुनाई, सिन्हा जी ने अपनी पत्नी के माध्यम से काजू किसमिस, अंगुर सेवफल से भरी टोकरी राजकुँवर देवी (डॉ. साहब की पत्नी) तक डॉ. साहब की अनुपस्थिति में पहुँचवाई।

डॉ. बघेल ने पत्नि से पूछा इसे कौन लाया ? तुरंत अपने चपरासी गोपाल के हाथ उस टोकरी को सिन्हा के घर वापस पहुँचवा दिया। गाँधी जयंती के उपलक्ष्य में चंदा इकट्ठा करने नेवरा, लखनलाल मिश्र, भुजबल सिंह एवं जगन्नाथ बघेल के साथ गये। एक राईसमिल के मालिक ने उनसे कहा, आप कोड़हा मध्यप्रदेश से बाहर भेजने का परमिट मुझे दिला दीजिये, मैं अकेला 7500/- (साढ़े सात हजार रूपये) चंदा देता हूँ। डॉ. बघेल ने इंकार कर दिया। घर-घर जाकर रूपये इकट्ठा कर लाये। गाँधी जयंती सम्पन्न हुई।

डॉ. बघेल ने पं. रविशंकर शुक्ला से मतभेद के कारण मंत्री मण्डल से इस्तीफा दिया था। कारण पं. जी के प्रधानमंत्री बनने की खुशी में, महासमुंद के सेठ नेमीचंद श्री श्रीमाल ने उन्हें चाँदी से तौलने की योजना बनाई। इसे मूर्तरूप देने के लिये प्रशासन के माध्यम से आदिवासी क्षेत्र पिथौरा, सराईपाली, बसना, महासमुंद, बागबाहरा के किसानों से चंदा जबरदस्ती वसूल किया जाने लगा। लोगों ने अपना खेती-बाड़ी गाय-बकरी-मुर्गी यहाँ तक कि घर के जेवर एवं बर्तन बेचकर चंदा चुकाया। इसकी तिखी प्रतिक्रिया हुई, कुछ आदिवासियों ने नागपुर (सी.पी. एवं बरार की राजधानी) जाकर डॉ. बघेल को अपनी व्यथा कथा सुनाई। उन्हें परस्पर विश्वांस नहीं हुआ उन्होंने प्रधानमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल से मिलकर इस विषय में चर्चा की, पंडितजी ने कहा- “राजनीति में यह सब चलता है हालांकि मैंने शासकीय कर्मचारियों को ऐसा कोई आदेश नहीं दिया है, इसलिये रोक लगाने के आदेश की जरूरत नहीं है। “डॉ. बघेल ने छत्तीसगढ़ के इसी शोषण, पीड़ा, लूट के विरूद्ध व्यथित दुखी होकर अपना इस्तीफा दिया था।

ग्राम-मौहागाँव सिलयारी त. व जि. रायपुर के एक अनुसूचित जाति के किसान को सरकार द्वारा पंप लगाने के लिये 6,000/- (छः हजार) रूपये मंजूर किया गया। तत्कालीन तहसीलदार ने उसे 4,000/- (चार हजार) रूपये ही देकर, बाँकी अपने पास रख लिया, इसकी शिकायत उक्त किसान ने डॉ. साहब से की। वे उस समय धरसींवा के विधायक थे। तहसीलदार के विरूद्ध मामला दायर किया, रायपुर के वकील डॉ. बघेल के तरफ से खड़ा होने तैयार नहीं हुये, दुर्ग से तामस्कर वकील को लाकर भ्रष्टाचार का मुकदमा जीते। तहसीलदार को बर्खास्त कर दिया गया।

डॉ. बघेल का जीवन, ऐसे कितनों ही घटनाओं से भरा पड़ा है। उन्होंने अपने 39 वर्ष (सन् 1931 से 1969) के राजनैतिक जीवन में जीवन पर्यंत दलित-शोषित, मजदूर, किसानों एवं गरीब जनता की आवाज बुलंद की और बदले में कभी भी कुछ पाने की कामना नहीं की। खासकर आर्थिक लाभ कभी नहीं उठाया। प्रजातंत्र की महत्ता को आमजनता तक पहुँचाने सतत्‌ संघर्ष किया ।

छत्तीसगढ़-राज्य आंदोलन
वैसे सप्रे स्कूल में सन् 1946 में आयोजित ‘प्रदेश काँग्रेस कमेटी‘ की बैठक में तामस्कर वी.वाय. ने, छत्तीसगढ़ को अलग राज्य का दर्जा दिलाने की बात रखी थी, लेकिन “प्रदेश काँग्रेस कमेटी” में, जिसके अध्यक्ष पं. रविशंकर शुक्ला थे, वी.वाय.तामस्कर के प्रस्ताव को अनसुनी कर दी।

डॉ. बघेल के मन में पृथक छत्तीसगढ़-राज्य के माँग ने, तब घर कर लिया, जब सन् 1948 में उन्होंने रविशंकर शुक्ल मंत्री मंडल से, पिथौरा, बसना-सरायपाली के पिछड़े, आदिवासियों से जबरन चंदा वसूल की गई थी। डॉ. बघेल इस प्रकरण से इतने द्रवित हुये, कि उन्होंने शुक्ल मंत्रीमंडल से ही इस्तीफा दे दिया। उन्होंने एक लेख लिखा, र्शीर्षक था- “क्षुब्ध-छत्तीसगढ़” इस लेख से रायपुर-बिलासपुर और दुर्ग ये तीन जिले और हाल के विलीनीकरण से शामिल हुये, 14 राजवाड़े यही छत्तीसगढ़ का इलाका है। सत्ता के मद में माते लोगों को भुलावे में डालने के लिये, छत्तीसगढ़ के परम पुनीत जागरण के कोलाहल को पाकिस्तानी नारा कहकर दफना देना चाहते हैं। वे कहते हैं “छत्तीसगढ़िया चेतना की आवाज लगाने वाले देश के दुश्मन हैं। उनके साथ शासन रियायत ना करेगा। उन्हें कुचल देगा। देखो खबरदार कोई साथ मत देना, नहीं तो आफत मोल लोगे।”

छत्तीसगढ़ के हित में जो अपना हित समझते है, वे हमारे भाई है, जो छत्तीसगढ़ का राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं अन्य तरीकों से शोषण करना चाहते है, हमारे प्रेम के पात्र नहीं हो सकते। क्या यह विचार देशद्रोह पूर्ण है? यदि हो, तो हम अपना बचाव नहीं करना चाहते। यदि हमारे विचार में भूल हो तो, हमें प्रेम से समझाया जाय। हम वायदा करते हैं, कि समझ लेने पर हम अपनी भूल सुधार लेगें, परंतु यदि धमकी के बल पर हमें दबाने की कोशिश की गई, तो हमारा हृदय स्वीकार नहीं कर सकेगा।

डॉ. रामलाल कश्यप जी (पूर्व कुलपति पं.र.वि.वि. रायपुर) ने जब वे जबलपुर कृषि महाविद्यालय में अध्ययनरत थे, तो डॉ. बघेल से पूछा- आप छत्तीसगढ़ी आंदोलन के प्रेणता माने जाते हैं, तो आपके छत्तीसगढि़या की परिभाषा क्या है ? डॉ. बघेल ने उत्तर दिया “जो छत्तीसगढ़ के हित में अपना हित समझता है। छत्तीसगढ़ के मान- सम्मान को अपना मान-सम्मान समझता है और छत्तीसगढ़ के अपमान को अपना अपमान समझता है, वह छत्तीसगढि़या है। चाहे वह किसी भी धर्म, भाषा, प्रांत जाति का क्यों न हो।”

ठाकुर प्यारेलाल सिंह द्वारा सम्पादित, प्रकाशित अर्ध सप्ताहिक पत्र “राष्ट्रबंधु” में डॉ. बघेल के लेख प्रमुखता से प्रकाश्ज्ञित होते थे। अन्होने आचार्य कृपलानी के लेखों का, अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद, भी किया। बलौद की एक सभा में डॉ. साहब ने कहा था- “आज प्रत्येक छत्तीसगढ़िया समझ रहा है, कि आज प्रजातांत्रिक राज्य हो गया है, किन्तु असली स्वराज तो कोषों दूर है।” वे मानते थे कि छत्तीसगढ़-राज्य के असली शोषक एवं शोषित कभी एक साथ नहीं रह सकते। शोषण, अन्याय और दमन जहाँ है, वहाँ स्वराज्य हो नहीं सकता, यह उनकी निश्चित धारणा थी। उनका तो बस एक ही लक्ष्य था- “छत्तीसगढ़ के सोये स्वाभिमान को जगाना उसके गौरव गरिमा को उजागर करना उसे शोषण, अन्याय और दमन से मुक्त करना।” 

सन् 1956 में छत्तीसगढ़ राज्य की कल्पना को साकार रुप देने जुझारु एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं का एक वृहद सम्मेलन राजनांदगाँव में आयोजित किया गया। दाऊ चन्द्रभूषण दास इसके संयोजक थे। पहले सत्र की अध्यक्षता बैरिस्टर मोरध्वजलाल श्रीवास्तव एवं दूसरे सत्र की अध्यक्षता बाबू पदुमलाल पन्नालाल बक्शी ने की। इसमें सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ से लगभग दो हजार सक्रिय कार्यकर्ता शामिल हुये। सम्मेलन में 'छत्तीसगढ़ी महासभा'' का गठन हुआ और डॉ. खूबचन्द बघेल इस महासभा के सर्वसम्मति से अध्यक्ष निर्वाचित हुये। दशरथलाल चौबे सचिव तथा केयूर भूषण एवं हरि ठाकुर को संयुक्त सचिव के पद पर मनोनित किया गया। डॉ. साहब ने अपने अध्यक्षीय भाषण में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के माँग पर (औचित्य पर) व्यापक प्रकाश डाला फलस्वरुप सर्वसम्मति से ''छत्तीसगढ़ राज्य'' निर्माण का प्रस्ताव पारित किया गया। इतिहास ने एक नया मोड़ लिया। पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के स्थापना के संघर्ष की नींव डल गई। 

25 सितम्बर 1967 को 'छत्तीसगढ़ी महासभा' को पुनर्गठित करने भोला कूर्मि छात्रावास, रायपुर में एक सभा आयोजित की गई। इसमें छत्तीसगढ़ के 500 सक्रिय कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। अध्यक्षता साहित्यकार बाबू मावली प्रसाद श्रीवास्तव ने की। डॉ. खूबचन्द बघेल सर्वसम्मति से इसके अध्यक्ष चुने गये। तथा परसराम यदु, रेशमलाल जाँगड़े, पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी ‘विप्र’, तथा पं. गंगाधर दुबे उपाध्याय चुने गये। साहित्यकार हरि ठाकुर सचिव तथा रामाधार चन्द्रवंशी कोषाध्यक्ष निर्वाचित हुये। डॉ. साहब, राज्यसभा सदस्य केन्द्रीय स्टील माइन्स एवं मिनरल समिति एवं नेशनल रेल्वे यूजर्स सलाहकार समिति के सदस्य थे। स्थानीय लोगों को सरकारी एवं गैरसरकारी संस्थाओं के नौकरियों में प्राथमिकता दिलवाने कई आंदोलन छेड़े। दिनांक 8 फरवरी 1967 को दुर्ग जिले के अहिवारा में भातृसंघ का विशाल सम्मेलन बृजलाल वर्मा जी, की मुख्यआतिथ्य में राजा नरेशचन्द्र सिंह ने उद्धाटन किया। छत्तीसगढ़ राज्य की माँग को लेकर डॉ. साहब ने पूरे छत्तीसगढ़ का सघन दौरा कर प्रचार-प्रसार किया। आज छत्तीसगढ़ में जो जनचेतना दिखाई देती है, उसके पीछे डॉ. साहब का पसीना एवं परिश्रम है। ''छत्तीसगढ़ भातृ संघ'' आगे चलकर इतना प्रभावी हुआ कि पं. श्यामाचरण शुक्ल की सरकार ने शासकीय कर्मचारियों को इसकी सदस्यता ग्रहणकर कार्यकलापों में हिस्सा लेने पर पाबंदी, सामान्य प्रशासन विभाग के ज्ञापन क्रं 0527/567/ध/62 दिनांक 23.09.1971 द्वारा लगायी थी। इस ज्ञापन को श्री प्रकाश चन्द्र सेठी की सरकार (म.प्र.शासन) ने दिनांक 19.05.1974 के ज्ञापन क्रमांक 5-/75/3/1 द्वारा निरस्त किया। आज डॉ. बघेल संपूर्ण छत्तीसगढ़ शासन ने उनके नाम से प्रतिवर्ष 2 लाख रुपये के पुरुस्कार दिये जाने की घोषण की है।

सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कार्य
छत्तीसगढ़ी साहित्य के क्षेत्र में उनका विशेष योगदान रहा है। डॉ. बघेल मौलिक चिंतक थे। नित्य सुबह चार बजे उठकर ध्यान और चिंतन में मग्न हो जाते थे। उनकी लेखनी काफी सशक्त थी। डॉ. बघेल को हर वक्त छत्तीसगढ़ियों की पिछड़ी मानसिकता, दब्बुपन, आर्थिक गुलामी की पीड़ा सताती थी। आखिर मेरे छत्तीसगढ़ में क्या कमी है? यह हमेशा वो चिंतन करते रहते थे। छत्तीसगढ़ी में उन्होंने तीन नाटक लिखे पहला 'ऊंच-नीच' समाज में व्याप्त छुआ-छूत और जातिवाद पर करार प्रहार करते हुये। दूसरा 'करम-छँड़हा' छत्तीसगढ़ के आम आदमी की गाथा उसकी बेबसी का वर्णन एवं तीसरा ''जनरैल सिंग'' जो छत्तीसगढ़ के दब्बुपन को दूर करने का रास्ता सुझाया। इन नाटकों को मंचित करने का दायित्व भी उन्होंने स्वयं निभाया। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय ''भारतमाता'' नामक नाटक लिखकर मंचित करवाया। मंचन के माध्यम से पथरी, कुरुद आदि गाँवों से धन एवं सहयोग एकत्रित कर प्रधानमंत्री राहत कोष में भिजवाया। रायपुर के समाचार-पत्रों अन्य प्रचार माध्यमों में लेख लिखकर हमेशा अपने विचारों से लोगों को अवगत कराते रहते थे। महात्मा ज्योतिबा फुले, महात्मा गाँधी एवं डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारधाराओं से ओतप्रोत ये लेख रायपुर से प्रकाशित साप्ताहिक ''राष्ट्रबंधु'' के माध्यम से प्रसारित होते रहते थे।

अपने विचारों को लिपिबद्ध करने के लिये रोज डायरी एवं रजिस्टर का इस्तेमाल किया करते थे। अपने लेखन में डॉ. साहब ने अपने विचारों के अलावा महत्वपूर्ण घटनाओं को भी स्थान दिया हैं। वे सारी घटनायें जो उनके 'सामाजिक परिवर्तन’ के आंदोलन एवं राजनैतिक संघर्ष के दौरान घटी का विस्तृत विवरण उनकी डायरी एवं रजिस्टरों में मिलती है। अपने लेखन एवं बातों को लोगों तक रोचक ढंग से पेश करने के लिये शेरों-शायरी, कहावतें, मुहावरों का उपयोग कर चुटिला बनाना उनकी खूबी थी। शेर जो उन्हें प्रिय था, हमेशा युवकों को प्रेरणास्वरुप सुनाया करते थे:-
क्या हुआ मर गये, वतन के वास्ते।
बुलबुले भी होते हैं कुर्बान, चमन के वास्ते॥
खाली न बैठ, कुछ-ना-कुछ किया कर।
कुछ ना मिले तो, पैजामा उधेड़कर सिया कर॥

साँस्कृतिक चेतना फैलाने उन्होंने अपने दामाद दाऊ रामचन्द्र देशमुख को प्रेरित कर ''चंदैनी गोंदा'' नामक सांस्कृतिक संस्था का सृजन करवाया। जिसकी ख्याति ना केवल छत्तीसगढ़ में, बल्कि सम्पूर्ण भारत में फैली। इस साँस्कृतिक संस्था का शुभारंभ एवं समापन डॉ. बघेल के जन्म स्थली ग्राम-पथरी से हुआ।

डॉ. बघेल के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुये, छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार मधुकर खेर लिखते हैं- प्रचार तंत्र का स्वन्तत्र एवं जाल न होने के कारण डॉ. बघेल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को स्थान नहीं मिल पाया जिसके वो हकदार थे।

डॉ. खूबचन्द बघेल को प्रोफेसर रंगा, चौधरीचरण सिंह एवं महेन्द्र सिंग टिकैत से कम नहीं आँका जा सकता। 1965 के भीषण अकाल के दौरान 'टाइम्स' अमेरिका की महिला पत्रकार संवाददाता लिखती हैं- मेरे 2 घंटे तक डॉ. खूबचन्द बघेल का इन्टरव्यू लेने के बाद छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े क्षेत्र में ऐसा जुझारु, कर्मठ, नेतृत्व भी हो सकता है, इस बात पर मुझे आश्चर्य है।

ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी जुझारु, जबरदस्त राजनेता, सामाजिक परिवर्तन के प्रणेता, छत्तीसगढ़ राज्य के प्रथम स्वप्न ट्टष्टा एवं महान सपूत जिन्होंने आम जनता को स्वतन्त्रता के बाद भारतीय संविधान के तहत प्राप्त प्रजातांत्रिक अधिकारों की सतत्‌ रक्षा के लिये लोगों को जागृत करने का संघर्ष किया। प्रजातंत्र को वीरकाल तक स्थापित रखने के महत्व और उस पर आघात करने वाले कारणों एवं लोगों के विरुद्ध सतत्‌ संघर्ष करते रहने का संदेश दिया। संसद के शीतकालीन सत्र में भाग लेने वे दिल्ली गये हुये थे। इसी दौरान 22 फरवरी सन् 1969 को हृदयकालीन रुक जाने से उनका दिल्ली में निधन हुआ। उनकी अंत्येष्टी रायपुर के महादेव घाट में की गई। ऐसे महान व्यक्तित्व को उनके ही प्रेरणा वाक्य से श्रद्धाँजली अर्पित करते हैं- 
दिये बिना संताप किसी को,
झुके बिना यदि खल के आगे।
संतो का कर सकुँ अनुसरन,
तो थोड़े में ही सब कुछ जागे॥

शुक्रवार, 10 जून 2016

गँवात जाथे हमर महतारी भासा

छत्तिसगढ़ राज ल बने सोला बछर होगे हे तभो ले छत्तिसगढ़िया अऊ छत्तिसगढ़ भासा के कोनों बिकास नई होय सके हे। सबो राज म उहाँ के लइका मन बड़ मान-सम्मान ले अपन महतारी भासा ल गोठियाथे। अऊ तो अऊ हमरो राज म आके अपन भासा म गोठियाथे, फेर हमर राज म अइसे नई हे, हमरे राज के भाई-बहिनी मन अपन भासा म नई गोठियावय तेखरे सेती हमर महतारी भासा ह कहुँ गँवावत जात हे। छत्तिसगढ़ म छत्तिसगढ़ी भासा ल सबो कोती नई बोलय, कोनो-कोनो कोती दु-चार मनखे मन जेन अपन छत्तिसगढ़ी भासा म गरब करथे, तेन मन बोलेथे, गुनथे अऊ लिखथे घलोक। बस उही मन छत्तिसगढ़ी भासा ल जगाय के परियास करत हे। जउँन मन ठेठ छत्तिसगढ़िया हाबय तेन मन ये सब देख के अब्बड़ कलपत हे कि उँखर राज म उँखरे भासा ल गोठियाय बर संगी-संगवारी मन लजाथे, अऊ दुसर भासा ल बड़ गोठियाथे।
आघु के बाढ़त बेरा म अइसने रही त आघु के अवइया लइका मन ह छत्तिसगढ़ी भासा ल भुला जाही। येखर असतित्व के नास हो जाही, छत्तिसगढ़ के बिकास के साँथ उँखर भासा ल सबो जगह बिकसित करना होही। छत्तिसगढ़ी भासा के जनवइया मन ल येखर बर विचार करके अपन मेहनत ले एला आघु बढ़ाय बर अपन-अपन योगदान देना चाही। छत्तिसगढ़िया संगी-संगवारी मन ल अपन भासा ल गोठियाय बर उही बाहिर के अवइया मनखे मन ले सिखना चाहि, जउँन मन बाहिर राज ले आके अपन बोली-भासा ल घलोक नई भुलाय। अपने बोली-भासा म अपन संगी-संगवारी मन ले गोठियाथे, अऊ वोमन ल अपन महतारी भासा ले अब्बड़ मया रहिथे। जेन मनखे मन अपन महतारी भासा छत्तिसगढ़ी म पढ़े-लिखे हाबय तेखरो अतेक पढ़े के बाद कोनों बिकास नई हो सके हे, वहु मन भटकत हे, अऊ दूसर भासा बोलइया लइका मन दुरिहा-दुरिहा म जा के बसे हे नउकरी करथे, कहिके अऊ कोनों मनखे छत्तिसगढ़ी भासा नई सिख सकत हे, एखर कारन हावय के छत्तिसगढ़ भासा के कोनों बिकास अभी तक ले नई हो सके हे। 

छत्तिसगढ़ी भासा ल आघु बढ़ाये बर इहाँ के सियान, साहितकार, अधिकारी, मंतरी अऊ आम मनखे ल अपन-अपन कोती ले पराथमिक सिच्छा म लागु करना पड़ही। जेकर से लइका मन एखर बारे म जान सके अपन भाखा ल सीख सकय अऊ अपन महतारी भासा ल आघु बढ़ाय सकय, फेर छत्तिसगढ़ी भासा ल राज-काज के भासा म घलोक मिलाय बर परही तब हमर भासा के पहिचान होही। 
----------------------------------------------------------------------------------
अनिल कुमार पाली 
तारबाहर, बिलासपुर (छ.ग.) मोबा. 7722906664



दार-भात अउ खिचरी


हमर लोक कला के नकल कोनो नई कर सकय। भला हमर पंडवानी ल कोनो हिंदी, अंगेरजी म गा सकत हे का? समे के संग अब यहू मन छत्तिसगढ़ के इतिहास बनतेच जात हे। हमन दूसरे के देखा-सीखी नकल उतार-उतार के एकर सुद्‌धता बिगाड़ के ''धोबी के कुकुर कस घर के न घाट के'' बरोबर बना डारत हन। आजकल छत्तिसगढ़ी एलबम ह तो बम गिरातेच हाबय अउ छालीवुड ह तो इहाँ के संसकिरती के, लोककला के फोकला निकालत हावय।
मोर भाखा कतेक गुरतुर, कतेक मिठास ये बात ल तो सिरिफ छत्तिसगढ़ियच मन हर जानथंय। जम्मो भाखा बोली ले सुरहि गाय कस सिधवी बिन कपट के निच्चट सांत रूप म हाबय। ''अंधवा जभे खीर खाथे तभे, पतियाथे।'' इही कहावत ह मोर छत्तिसगढ़ी भाखा ऊपर बरोबर बइठथे। बोले म रमायन, गीता के बानी कस, सुने म महतारी के लोरी कस दुलार हावय हमर छत्तिसगढ़ी भाखा म। नवा दुलहिन के पइरी के घुँघरू कस नीक भाखा म करमा, ददरिया, चंदैनी के सुर म मादर, ढोलक, गँड़वा बाजा के थाप ह परथे त लागथे ए छत्तिसगढ़ी भाखा बोली ह जम्मो भाखा बोली ल पचर्रा बना दिस। ए भाखा के नावेच हावय छत्तिसगढ़ी ! छत्तिस आगर छत्तिस कोरी मनखे मन मिलके ए भाखा ल गढ़े होंही तभे छत्तिसगढ़ी भाखा बोली नोहय, ए ह हमर छत्तिसगढ़ के जम्मो संसकिरती के दरसन आय। ऐंठी, तुर्रा, गजरा, पंडवानी, बिहाव-भड़ौनी, कमरा-खुमरी, नोई-दुहना, के चिन्हार, इही छत्तिसगढ़ी भाखा ह कराथे। ए भाखा ह तो छत्तिसगढ़ के परान आय। जेन दिन ए भाखा नंदा जाही वो दिन छत्तिसगढ़ घलो मेटा जाही।

संस्कृति अउ तिहार ह तो छत्तिसगढ़ के माई तिजोरी म भरे हावय। माता पहुँचनी के सीतला पूजा, अक्ती, ठाकुर देव पूजा साँहड़ा देव पूजा, देवारी के गउरी-गउरा, घरो घर घूमत छेरछेरा मँगइया के होली, मेला-मड़ई जइसन मया पिरीत। अउ अपन आसथा ले जुड़े अइसन तिहार कोनो जगा देखे बर नई मिलय। इँहा के तिहार सब जगा ले घुँच के रहिथे। बिहाव मँगौनी के करी लाड़ू, मोहरी, दफड़ा, निसान के बघवा कस गरजई, भड़ौनी, मायसरी लूगरा, पर्रा झुलउनी, माँदी भात, आजी गोंदली ये जम्मो ह हमर छत्तिसगढ़िया होय के पहिचान आय। लइका होय म छट्ठी-बरही, काँके पानी रिवाज ह घर म हरिक लान देथे। नानपन के गँगाजल, गजामूँग, महापरसाद, भोजली-जँवारा ह दोसती के पिरीत ल एक ठन गाँठ म बाँध देथय। दाई-ददा, कका-बबा, ममा-दाई, भऊजी, भांटो केहे के चलन इहेंच हे। 

छत्तिसगढ़ के पहिराव ओढ़ाव दुरिहच ले चिनहा जथे। गरवा चरावत राउत भइया के चंदैनी गोंदा कस रिगबिग ले कुरता, सलूखा, सादा, पिंयर पंछा मुड़ म छोटकुन खुमरी, हाथ म तेंदूसार के लउठी ह सउँहत किसन भगवान के दरसन करा देथे। सुआ पाँखी लूगरा पहिरे सुवा, ददरिया गावत मोटियारी मन ल मोह लेथे। बाबू जात के हाथ के ढेरकऊवाँ, कान के बारी अउ माई लोगन के हाथ के अइँठी, अँगरी के मुँदरी, गोड़ के पइरी, कड़ा बिछिया, गर के सुँता, तुर्रा, गजरा, बइहाँ के पहुँची, कनिहा के करधन, कान म खिनवा पहिरे दाई-बहिनी मन ल देख के लागथे सिरतोन म जम्मो गहना-गुरिया ल सिंगार के लछमी दाई ह सउँहत हमर छत्तिसगढ़ म बइठे हावय। तभे तो छत्तिसगढ़ ल ''धान के कटोरा'' केहे जाथे। गमछा, लुँहगी, बंडी म लपटाय बनिहार किसनहा मन धरती दाई के सेवा बजावत घातेच सुग्घर लागथे। लुगरा, पोलखा पहिरे मुड़ ल ढाँके दाई-दीदी मन ल देखके लागथे कि जम्मो भारत भर के इात अउ संस्कार ह इही छत्तिसगढ़ म बसे हावय। 

जउन किसम ले हम छत्तिसगढ़िया मन के जम्मो रासा-बासा अलग हावय उही किसम ले हमर खानपान घलो अलग हावय। बटकी म बासी चुटकी म नून निहीं त नून अउ मिरचा के भुरका चटनी कोन छत्तिसगढ़िया ल नई सुहावय। तिंवरा भाजी के गुरतुर सुवाद तो हमिच मन लेथन। देवारी के फरा, होरी के अइरसा, तीजा के ठेठरी-खुरमी, हरेली के चीला कस खाजी, रोटी-पीठा भला हमर छोंड़ दुसर मन देखे होहीं? तभे तो हम धरती म सोना उपजाए के ताकत राखथन। अथान, चटनी के ममहई ह मुहूँ म पानी लान देथे। चना-बटुरा अऊ तिवरा के होरा, तेंदू-चार के पाका, जिमीकाँदा के खोईला, रखिया के बरी के सुवाद ल हम छत्तिसगढ़िया ल छोंड़ के कोनो दूसर पाय होही? 

जम्मो छत्तिसगढ़ के दरसन तो सिरिफ इहाँ के लोककला म देखे बर मिलथे। रात भर गली के धुर्रा-माटी म रमंज-रमंज के हँसई ह मनोरंजन संग गियान के भंडार घलो होथे। सुवा, करमा, ददरिया, राऊत नाचा, पंथी ह तो इहाँ के थाती आय। ढोला-मारू, लोरिक चंदा ह इहाँ परेम के संदेस देथे त भरथरी, पंडवानी ह भक्ति भाव म बुड़ो देथे। ये सब हमर लोक कला के नकल कोनो नई कर सकय। भला हमर पंडवानी ल कोनो हिन्दी, अंगेरजी म गा सकत हें का? समे के संग अब यहू मन छत्तिसगढ़ के इतिहास बनतेच जात हे। हमन दूसरे के देखा-सीखी नकल उतार-उतार के एकर सुद्‌धता बिगाड़ के ''धोबी के कुकुर कस घर के न घाट के'' बरोबर बना डारत हन। आजकल छत्तिसगढ़ी एलबम ह तो बम गिरातेच हावय अउ छालीवुड ह तो इहाँ के संसकिरती के, लोककला के फोकला निकालत हावय। 

हमर देस लोकतंतर देस हाबय। हम ल जम्मो धरम ल माने के अधिकार, भाखा, खाए-पिए के हक हावय। त एकर पाछू इहाँ के संसकिरती, भाखा ल खिचरी बना देबो का? इहाँ के बिहाव के नेंग-जोग, चुलमाटी, पस्तेला, भड़ौनी, छट्ठी-बरही जेन ल मेटाय बर हमन हमरेच गोड़ म टँगिया मारत हन। इहाँ के जम्मो चिनहा बाखा, संस्कार ल हमर हाथ म गँवावत जावत हन त काल के दिन म ये सब ल गोड़ म खोजबो त पाबो? का छत्तिसगढ़ के इही दुरगति करे बर हमन छत्तिसगढ़ म जनम धरे हन? का हमन ल छत्तिसगढ़िया कहाए बर, छत्तिसगढ़ी बोले बर सरम लागथे? ''घर जोगी जोगड़ा'' कस ये भुइयाँ के हाल होवत जात हे। कभू सोंचे हन एमा हमर कतका हाथ हे? का ए भाखा, संसकिरिति ल सहेज के राखे के जुवाबदारी हमर नई बनय? का ए भाखा, संसकिरिति ह देहतिया, गँवईहा मन के चिन्हारी आय? का हमन हमर भाखा, संसकिरिति लोककला ल दूसर भाखा-बोली, पहिराव, ओढ़ाव, संसकार संग मिंझार के ''दार-भात खिचरी'' बना देबो? फेर हमर का चिन्हारी रइही? अगर दार-भात खिचरी बनानच हे त अपन भाखा के, बोली के लोककला के, संसकिरिति के, खान-पान के, पहिराव-ओढ़ाव के खिचरी बनावन अउ छत्तिसगढ़ के आत्मा ल जियत राखन। 
जोहार छत्तिसगढ़।
---------------------------------------------------------------------------------
भागीरथी आदित्य, ग्राम-अन्दोरा, गरियाबंद 









गुरुवार, 9 जून 2016

छत्तीसगढ़ी पर विभिन्न भाषाओं का प्रभाव

भारतीय आर्य भाषाओं द्वारा निरंतर विदेशी शब्द गृहित किए जाते रहे हैं। तद्‌नुसार छत्तीसगढ़ी जनभाषा में भी विदेशी शब्द पर्याप्त संख्या में प्रयुक्त होने लगे हैं। छत्तीसगढ़ी जनभाषा में कुछ विदेशी शब्द संस्कृत तथा मध्यकालीन आर्य भाषाओं से होते हुए प्रविष्ट हुए हैं तथा वहुत से शब्द आधुनिक काल में हिन्दी के माध्यम से छत्तीसगढ़ी जनभाषा में आए हैं।

आधुनिक काल में हिन्दी-उर्दू-हिन्दुस्तानी के माध्यम से छत्तीसगढ़ी जनभाषा में आए हुए शब्द पश्तो, तुर्की, फारसी, अरबी, उर्दू, पुर्तगाली, नेपाली और अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं के हैं। इन शब्दों का उच्चारण छत्तीसगढ़ी जनभाषा की ध्वनिमीय व्यवस्था के अनुरूप परिवर्तित हो गया है। इस तरह देखें तो छत्तीसगढ़ी पर विभिन्न देशों के भाषाओं का प्रभाव मिश्रित होता चला गया है-


तुर्की का प्रभाव


भारत में अनेक वर्षों तक तुर्कों का राज्य था। इसी अवधि में तुर्की के अनेक शब्द भारतीय आर्य
भाषाओं में प्रविष्ट होते हुए छत्तीसगढी जनभाषा में आ गए हैं जो इस प्रकार हैं-
उजबक, कलगी, कुली, कैंची, गलीचा, चाकू, दरोगा आदि।



फारसी का प्रभाव 

छत्तीसगढी जनभाषा में हिन्दी-उर्दू-हिन्दुस्तानी के माध्यम से आए हुए फारसी के कतिपय शब्द
प्रयुक्त होते हैं जो निम्नलिखित हैं- 
पाजामा-पाजामा 
ले-कवा-लकवा 
साफी-साफा
हलवा-हलवाई
हलवा-हलुवा 
और 
दरजी-रजी आदि


नेपाली का प्रभाव

छत्तीसगढ़ी जनभाषा में व्यवहार होनेवाली कुछ नेपाली शब्द इस प्रकार हैं-
अधिया, आरा, किरिया, गोदना, गौंटिया, गोंटी, जाँगर, डिंगरा, ढेंकी, फोकट, भकला, भंडारा, भूतहा और लुरकी आदि।


अरबी का प्रभाव

छत्तीसगढ़ी जनभाषा में व्यवहार होनेवाली कतिपय अरबी शब्द निम्नलिखित हैं- 
अलबत्ता, औकात, कुर्सी, जम्मा-जम्मों, जहाज, बरकत, मोक्कदम-मुकद्दम और रकम। 


पुर्तगाली का प्रभाव

छत्तीसगढ़ी जनभाषा में व्यवहार होनेवाली कतिपय पुर्तगाली शब्द निम्नलिखित हैं-
अनानास, अलमारी, मामला, गोदाम, गोभी, चहा-चाय, सीपा-पीपा, मिसतिरी-मिस्त्री आदि।

------------------------------------------------------------
डॉ. व्यास नारायण दुबे
हरिभूमि/चौपाल में 09-06-2016 को प्रकाशित 

रविवार, 10 जनवरी 2016

अब्बड़ सुग्घर हमर गाँव

मय ह नानकन रेहेंव तब के बात आय। आघु हमर गाँव म नान-नान माटी के बने छिटका कुरिया, कुँदरा बरोबर डारा-पाना, राहेर, बेसरम के काँड़ी म छबाय राहय अऊ एक-दूसर मनखे मन के घर कुरिया ह थोरकिन दुरिहा-दुरिहा म राहय। गाँव गली ह हेल्ला-हेल्ला कस दिखय। जब बरसात के पानी, बादर, हवा, बँड़ोरा आवय त कतको के घर कुरिया मन ओदर जाय, चुहई के मारे खड़ा होय के जगा नई राहत रहिच। हमर दाई-ददा मन बारों महिना घर-कुरिया ल मोची कस चप्पल-जूता बरोबर तुनत-तानत राहय। गिने-चुने कोनो मंडल गौंटिया राहय तिकर मन के घर ह बड़े-बड़े मुड़का धारन वाले राहय। हमर गाँव के दाई-माई मन रात-दिन, काम-बुता करके आवय ताहन अपन-
अपन घर कुरिया म खुसर जाए, काकरो मेर बने किसम के सुख-दुख गोठियाय बताय के फुरसत घलो नई मिलत रहिच। हमर गाँव म गुड़ी चउरा रमायन, रामलीला ग्राम पंचायत स्कूल, अस्पताल, आँगनबाड़ी, सिसु मंदिर काँही के साधन नई रहिच। हमर गाँव के दाई-दीदी, भाई-भईया मन आन गाँव म पाँच-छै कोस ल रंेगत पढ़े-लिखे बर जाय लटपट म चउथी-पाँचवी तक पढ़े-लिखे राहयं। कतको भाई-दाई मन आन गाँव म पढ़े-लिखे बर नई जान कहिके पढ़े-लिखे नई रहिच।
दूसर मन आन गाँव जाय बर सड़क नई बने रहिच फेर पैडगरी, भरर्री भाँठा ल नाहकत आय-जाय बरसात के दिन हमर गाँव मन म माड़ी भरके चिखला मन माते राहय। मच्छर, मेंचका, कीरा-मकोरा, मन कबड्डी खेलँय। दूसर म हमर गाँव म बने किसम के सुख-सुविधा के अँजोर घलो नई रहिच। बिजली-पानी के समसिया घलो राहय। ककरो घर बिजली नई लगे रहिच हमर गाँव म दू- तीन ठन मंडल गौटिया घर कुआँ राहय। हमर गाँव के दाई दीदी मन सुत-उठके बड़े बिहिनिया डोलची धरके कुआँ म पानी भरे जाय। डोलची म बड़ेक जान कुआँ के तरी के जात ले डोरी बाँधे राहय। आघु कुआँ मन म लोहा के गडगड़ी लगे राहय जउन ल चक्का काहय, डोलची के डोरी ल चक्का म लगा ओरमा दँय ताँहन डोलची ह गड़गड़-गड़गड़ कुआँ के तरी म जाके बुड़ जाय ताहन हमर दाई मन धीरे-धीरे ऊपर कोती खिंचय ताहन डोलची ल हाथ म धरके हँउला, बाँगा पानी भरँय। पानी भरई म एक जुअर घलो पहा जाय। पानी काँजी भर के काम बुता म जाय। जब हमर गाँव के दाई-माई मन ल बीमारी जुड़, सरदी, खांँसी, घाव-गांेदर होवय त गँवइहा दवाई ल खा-पी के अपन तन के पीरा ल मिटवा डरँय। गाँव में डागटर अस्पताल नई राहय। जब कोंनो ल जादा बीमारी आवय त दूसर गाँव जाय ले परय हमर गाँव के दाई-माई मन अड़बड़ दुख ल तापे हे। जबर कमईया गाँव के दाई-माई मन पथरा म पानी ओगराय म कमी नई करत रिहिस। कुछु जिनिस के मसीन नई रिहिस रात-दिन बाँह के भरोसा जिनगी ल सँजोवत राहय। काम बुता करके आतिस तहाँ धान ल ढेंकी म कुटँय कनकी ल जाँता म पिसय तब जेवन बनावय। फेर आज के जबाना देखते-देखत अइसन आगे त हमर गाँव, गली, खोर ह सरग बरोबर दिखे बर धरलिच। हमर गाँव के दाई-माई मन के खवई-पियई, पहिरई, ओढ़हई, रहई-बसई ह पुन्नी कस चंदा अँजोर होय बर धरलिस। हमर गाँव के गली-गली म तेल चुपरे कस सीमेंट के सड़क बनगे। चारों कोती चमके बर धरलिच। इसकूल, असपताल, गुड़ी, चउँरा, रामलीला रंगमंच, ग्राम पंचायत, आँगनबाड़ी, सिसु मंदिर, हाट चउँरा किसम-किसम के सुख-सुविधा हमर गाँव म मिलत हे। आज इसकूल खुले म कोनो भाई बहिनी मन पढ़े लिखे बर नई घुटत हें। जउन गरीब मनखे मन नई पढ़-लिख सकँय तिकर मन बर हमर देस के सरकार ह फोकट म पढ़हावत लिखावत हे। गरीब मन के सुख-सुविधा बर किसम-किसम के योजना फोकट म गरीब मन के बीमारी के इलाज बर स्मारट कारड जउन म फोकट म इलाज होवत हे असपताल लेगे बर 108 अबुलेंस जचकी वाले दाई बहिनी मन बर महतारी एक्सपरेस बेरोजगारी दूर करे बर रोजगारी गारंटी, वृद्धा पेंसन, अटल आवास, सौच-सौचालय घर-घर म नल जल योजना, बिजली के अँजोर खेती-बारी बर मोटर पंप कनेक्सन सस्ता म बिजली गाँव के गली-गली म कूड़ा-करकट, कचरा ल साफ-सुथरा करे खातिर स्वच्छता अभियान जीवन बीमा, बहिनी मन बर सइकिल इसकूल म दार-भात हरियर-हरियर साग-भाजी घलो इसकूल के लईका मन बर सुघ्घर योजना निकाले गेहे। गरीबी ल हटाय के खातिर कोनो भूख म झन राहय कइके दु रुपिया एक रुपिया किलो चाउर जेकर कोनो नइये तेन गरीब ल फोकट म चाउर, नून देवत हे। हमर गाँव के माटी के घर कुरिया-कुंदरा बरोबर राहय तउन मन ईटा-पथरा, सीमेंट म दिखे बर धरलिस। चारांे कोती फल-फूल हरियर रुख-राई मन ल मोह डरीस। आज हमर गाँव म गियान के अँजोर होय बर धरलिस। हमर गाँव म घर बइठे गरीबी ल दूर करे के खातिर सुख के सपना देखई या मन के सपना पूरा होवत हे। 

आज हमर गाँव सुग्घर दिखे म थोरको कमी नइये। 

हमर गाँव सुघर गाँव दिखे बर धरलिच आज। 
घर बइठे मिलत हाबय सुग्घर काम काज।।
आवव बइठजी जुड़ालव मोर मया के छाँव।
सुत-उठ बड़े बिहनिया छत्तिसगढ़ महतारी के परव पाँव।।

==========================
नरेन्द्र वर्मा 
देशबंधु मड़ई अंक ले

अँकाल के पीरा

छत्तिसगढ़ ह अँकाल के पीरा झेलत हावय। कई जगह फसल नई होय हावय। एसो अँकाल घोसित करे के बाद राज्योत्सव ल एक दिन मनाय के घोसना करे गीस। एक दिन के राज्योत्सव म खरचा नई होईस का? एक दिन के ताम-झाम म घलो ओतके खरचा होथे। पेंडाल लगाना फेर निकालना। खरचा तो सिरिफ बिजली, पानी के बाढ़तिस। ये एक दिन भी काबर?
अलंकरन समारोह रखे गीस। छत्तिसगढ़ अकाल के मार ल झेलत हावय। हमर किसान बर अवइया बछर ह भुखमरी के रद्दा देखावत हावय। तब ये समारोह काबर? येमा खरचा नई होईस का? अलंकरण ल एक बछर बर रोके जा सकत रिहिस हे। 2-2 लाख रुपिया देय गीस तेन ल गरीब किसान बर राखे जतिस त बने होतिस। ये पइसा बाँटना जरूरी रहिस हे का? राजभासा ह साहित्यकार मन के सम्मान करिस तब कोनो राज म हजार-दू-हजार साहितकार ल साल-नरियर संग देय गीस अऊ कहूँ पइसा नइये कहिके नई देय गीस। नई देय के उदाहरन मेहा हावँव। तब आज ये पइसा काबर बाँटे गीस।
लोक कलाकार के अपमान होईस ये अलग। कार्यकरम बर छोटे मंच लोक कलाकार मनबर अऊ बड़े मंच बड़े कलाकार मन बर। लोक कलाकार ल छोटे समझे गीस। पानी बंटवाय के काम करे गीस। हमर छत्तिसगढिया साहित्यकार अऊ लोक कलाकार मन नाराज हावँय। बाजू म ‘जबर गोहार’ के धरना रहिस हे। भासा के लड़ई चलत हावय। लोक कलाकार, साहितकार जुरियाय रिहिन हें। कुछ मन देखे बर घलो इन्डोर स्टेडियम म गे रिहिन हें। जब देखे गीस के उँखर लोक कलाकार मन ल पानी पियाय बर कहे गे हावय। बहुत बेज्जती महसूस होइस। अतेक बड़ कार्यकरम म पानी पियाय बर नई रखे रिहिन का? येती तो पइसा बाँटत हावय, तामझाम म खरचा करत हावँय अऊ एक पानी बँटइया नी रख सकँय। आज जब सासन हर हमर लोक कलाकार के सम्मान नी करही त दूसर मन कइसे करही। हमर राज महकमा मन हमर संस्कृति करमी ल अपमानित करथे तभे तो छत्तिसगढ़ म दूसर राज के मनखे के भरमार हावय। ये मन कइसे सम्मान करहीं। येला अपनापन तो नी कहे जा सकय। अकाल के सुरता अब कोनो ल नई आवत हावय। महँगाई के मार झेलत राज एक बंद जगह म राज्योत्सव मना लीस। आम जनता जिहाँ पहुँच नी पइस। बीटीआई गराउंड रहितस त आम जनता घलो देख सकतिस।
एक नवंबर, सिक्छा बर छत्तिसगढ़ी माध्यम अऊ अलंकरण तिन विरोधाभास आयोजन होईस। एक नवंबर छत्तिसगढ़ स्थापना दिवस जिहाँ सासन अपन उन्नति देखावत हावय, ‘जबर गोहार’ म लोक कलाकार साहितकार अपन भासा बर लड़त हावँय। कामकाज के भासा तो होवय छत्तिसगढ़ी। प्राथमिक इसतर म माधियम तो बने छत्तिसगढ़ी। अऊ दूसर डाहर उही मेर छत्तिसगढि़या कलाकार के अपमान होवत हावय। छोटे मंच अऊ पानी पियावत हावँय। अँकाल के नाँव म रोके लाखों रुपिया अलंकरन म बाँटत हावँय। येला तो सी.एम. हाउस म कर देतिन तभो बने रहिस हे।
---------------------------------------
सुधा वर्मा 
देशबंधु के मड़ई अंक ले

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

मुर्रा के लाड़ू

घातेच दिन के बात आय। ओ जमाना म आजकाल कस टीवी, सिनेमा कस ताम-झाम नइ रहिस। गाँव के सियान मन ह गाँव के बीच बइठ के आनी-बानी के कथा किस्सा सुनावँय। इही कहानी मन ल सुनके घर के ममादाई, ककादाई मन अपन-अपन नाती-नतरा ल कहानी सुना-सुना के मनावँय। लइका मन घला रात-रात जाग के मजा ले के अऊ-अऊ कहिके कहानी सुनँय। ओही जमाना के बात ये जब मँय छै-सात बरस के रहे होहूँ। हमन तीन भाई अऊ ममा के तीन झन लइका। ममादाई ले रोज साँझ होतिस तहाँले कहानी सुनाय बर पदोय लगतेन। ममादाई पहिली खा-पी लव फेर सुते के बेर कहानी सुनाहूँ कहिके मनावय। हमन मामी ल जल्दी खाय बर दे कहिके चिल्लात राहन। खातेन-पीतेन अऊ चुमुक ले खटिया म कथरी ओढ़ के बइठ जातेन अऊ ममादाई ल जल्दी आ कहिके गोहरातेन। ममादाई ल बरोबर खटिया-पिढ़िया नइ करन देत रहेन। तभो ले ममादाई अपन काम बूता ल करके खटिया म सूतत-सूतत कहानी सुनाय ल सुरु करय 

नवागढ़ के हाट-बजार म राजू अऊ ओखर संगी सत्तू दुनों झन लइका घूमत रहिन। आनी-बानी के समान बेंचावत राहय। कोनो मेर साग-भाजी, बंगाला गोल-गोल, मुरई लंबा-लंबा रोंठ रोंठ, गोलईंदा भाँटा...। कोनो मेर नवाँ-नवाँ कपड़ा अऊ का-का। ऐखर ले ओमन ल का करे बर रहे। ओमन ल थोड़े साग भाजी लेना रहिस। ओमन तो घूमत मजा लेत रहिन। खई खजाना खोजत रहिन। ये पसरा ले… ओ पसरा। 

मिठई के दुकान म सजे रहय जलेबी गोल-गोल, छँड़िया मिठई सफेद-सफेद पेंसिल असन, बतासा फोटका असन। दुनों लइका के मन ललचाय लगिस। राजू मेर एको पइसा नइ रहय। ओ का करतिस देखत भर रहय। सत्तू धरे रहय चार आना फेर ओखर मन का होइस काँही नइ लेइस। दुनों झन आगू बढ़गे। आगू म केंवटिन दाई मुर्रा, मुर्रा के लाड़ू अऊ गुलगुल भजिया धरे बईठे रहय। राजू कन्नखी देखय पूरा देख पारीहँव त मुहूँ म पानी आ जाही। सत्तू ह गुरेर के देखय येला खाँव के ओला। फेर सत्तू कुछु नइ लेइस। चल यार घर जाबो कहिके वोहा हाट ले रेंगे लगिस। दुनों झन पसरा छोंड़ घर के रद्दा हो लिन। रद्दा म सत्तू के सइतानी मन म कुछु बिचार अइस ओ हर राजू ले कहिस चल तँय घर चल मँय आवत हँव। ओ हर ऐती ओती करत फेर बाजार म आगे। राजू ल कुछ नइ सुझिस का करँव का नइ करँव फेर सोंचिस चल बाजार कोती एक घाँव अऊ घूम के आ जाँव पाछू घर जाहूँ। 

राजू धीरे-धीरे हाट म आगे। देख के ओखर आँखी मुँदागे। सत्तू ह कागज म सुघ्घर मुर्रा के लाड़ू धरे-धरे कुरूम-कुरूम खावत रहय। राजू के बालमन म विचार के ज्वार-भाटा उछले लगिस। 
मोर संगी...ओखर पइसा...का करँव...। 
टुकुर-टुकुर देखय अऊ सोंचय। मुहूँ डहर ले लार चुचवात रहय। अब्बड़ धीरज धरे रहय फेर सहावत नइ रहय। कोकड़ा जइसे मछरी ल देखत रहिथे ओइसने। ओइसनेच झपटा मारिस। मुर्रा के लाड़ू ल धरिस अऊ फुर्र...। 
सत्तू कुछु समझे नइ पाइस का होगे। हाथ म लाड़ू नइ पाके रोय लगिस। भागत राजू के कुरता ल देख के चिन्ह डारिस। राजू लाड़ू लूट के भाग गे। सत्तू रोवत-रोवत आवत राहय। ओतकेच बेर ओखर ममा चैतराम ओती ले आवत रहिस। भाँचा ल रोवत देख अकबका गे। 
- का होगे भाँचा? काबर रोवत हस। 
- का होगे गा? 
सत्तू सुसकत-सुसकत बताइस ओखर मुर्रा के लाड़ू 
राजू ह... 
धर के भगा गे...। 
काबर गा? 
सुसकत-सुसकत सत्तू जम्मो बात ल बताइस। 
-ओ हो… भाँचा तोरो गलती नइये। तोला अइसन नइ करना रहिस। चल तोर बर अऊ मुर्रा के लाड़ू ले देथँव। सत्तू फेर कागज म सुघ्घर मुर्रा के लाड़ू धरे कुरूम-कुरूम खाये लगिस। 

ओती बर राजू ह मुर्रा के लाड़ू धरे खुस होगे अऊ खाये बर मुहूँ म गुप ले डारिस। जइसने मुहूँ म लाड़ू के गुड़ ह जनाइस ओला अपन दाई के बात के सुरता आगे- 
-बेटा हमन गरीब आन। हमर ईमान ह सबले बड़े पूँजी आय। हमला अपन मेहनत के ही खाना चाही। दूसर के सोन कस चीज ल घला धुर्रा कस समझना चाही। 
राजू के मुहूँ म लाड़ू धरायेच रहिगे न वो खा सकत रहिस न उगले सकत रहिस। मुहूँ ह कहत हे, हमला का जी खाये ले मतलब, स्वाद ले मतलब। बुद्धि काहत हे, नहीं दाई बने कहिथे। दूसर के चीज ला ओखर दे बिना नइ खाना चाही। मन अऊ बुद्धि म उठा-पटक होय लगिस। मन जीततिस त लाड़ू कुरूम ले बाजय। बुद्धि जीततिस चुप साधय। अइसने चलत रहिस लाड़ू अधियागे। 
बुद्धि मारिस पलटी अऊ मन ल दबोच लिस। मुहूँ ले मुर्रा लाड़ू फेंकागे। राजू दृढ़ मन ले कसम खाय लगिस-‘‘आज के बाद अइसन कभू नइ करँव अपन कमई के ल खाहूँ, दूसर के सोन कस जिनिस ल धुर्रा माटी कस मानहूँ, मँय अब्बड़ पढ़िहँव अऊ बड़का साहेब बनिहँव।’’ 

सत्तू ल मुर्रा के लाड़ू ल वापिस करे बर ठान के राजू ह हाट के रद्दा म आगे। सत्तू सुघ्घर ममा के दे लाड़ू ल खात रहय। राजू अपन दुनों हाथ ल माफी माँगे के मुदरा म सत्तू कोती लमा देइस। अब तक सत्तू ल घला अपन कपटी स्वभाव के भान होगे रहिस। वो हर हँस के राजू के हाथ ले मुर्रा के लाड़ू ले के बने मया लगा के एक ठन मुर्रा के लाड़ू राजू के मुहूँ म डारिस। दुनो संगी अब हँस-हँस के संगे-संग मुर्रा के लाड़ू खाय लगिन कुरूम-कुरूम। 

कहानी सिरावत-सिरावत ममादाई ऊँघावत रहय। मँय पूछ परेंव फेर राजू के का होइस? दुनों झन बने रहिन नहीं। ममादाई कहिस बेटा, ‘मन के जीते जीत हे, मन के हारे हार।’ जऊन मन बुद्धि ले सख्त होहीं तेन सफल होबे करही। राजू आज कलेक्टर साहेब हे। तहुँमन मन लगा के सुघ्घर पढ़हू। चलो अभी सुत जावब। 
महूँ राजू कस बनहँव सोंचत-सोंचत कतका बेरा नींद परिस। बिहनिया होइस नइ जानेंव। 
============================================= 
-रमेश कुमार सिंह चौहान मिश्रापारा, नवागढ.जिला-बेमेतरा (छग) 
देशबंधु मड़ई अंक में प्रकाशित 

पंचइत म एसपी राज

हमर देस ल नारी परधान देस केहे गे हे। नारी के महिमा घलो चारों खुट ले सुने अऊ देखे बर मिलथे। सरकार घलो नवाँ-नवाँ नियम अऊ कानून म नारी परधान देस कहि-कहि के सहर त सहर का गाँव का कसबा न बारी लगय न बखरी, न बहरा लागे न डोली चारों कोती नारी राज घर म रंधनी खोली सुन्ना परगे, कपड़ा दुकान म आय बर बिहाव म सरी दुकान म लुगरा मन रखायच हे पेंट अऊ कमीज के खरीदइया म घलो नारी मन के प्रधानता देखे बर मिलत हे। ऊपर ले खाल्हे अऊ खाल्हे ले ऊपर कोती पंचइत राज ले दिल्ली तक एके ठन सोर नारी अइसन नारी वइसन। मुड़ी म पागा नारी के होही त मरद के मुड़ी म का होही। मरद मन संसो म परगे, के हमर सरी जिनीस ल अऊरत मन नंगा डरिस त हमरे का ठिकाना। चारों मुड़ा मरद ल अपन कमीज कुरथा ल बँचाय बर भागत देख के मोरो मन म डर हमागे के अइसन का बात होगे के सरी मरद परानी संसो म पर गेहे। दू-चार झन मनखे जेमन भागत राहँय तेला बला के पूछेंव के-‘का होगे... काबर भागत हो बबा..!’ 

मोर भाखा ल सुन के चारों सियान हँफरत-हँफरत ठहिर के कहिथे-‘हमर गाँव के अब नइये ठिकाना बाबू..!’ अतका काहत सियान मन उहाँ ले भाग गिस। सियान मन ल हँफरत देख के महूँ अबाक रहिगेंव के अतेक बड़का का बात होगे गाँव म? सियान मन ल तको परान बँचा के भागे ल धरलिस। बुधेस नाँव के सियान कहिथे-‘गाँव म चारों कोती एके ठन गोठ हे बाबू के गाँव-गाँव म नवाँ एस.पी. आगे इही डर के मारे हँफरत, भागत अऊ गिरत-हपटत आवत हन। 

मय मन म सोंचेव-के एस.पी. त जिला भर के पुलिस मन के साहब होथे। पंचइत म कहाँ आही। इही सोंच के मँय अचंभा म परगेंव। थोरिक बेर त मोला कहीं कुछु नइ जनइस-के हमर गाँव म नवाँ एस.पी. कइसे आही! ओतकी बेर एक झिन पल्टीन नाँव के माई लोगिन लकर-धकर अपन दू झिन लईका हुरहा-धुरहा पावत काहत राहय-‘जउँहर होगे दाई..! नवाँ सरपंच का बनायेन कल्लई होगे। चलव रे मोर लईका मन। गाँव म नवाँ एस.पी. आगे कहिथें करम छॉंड़ दिस दाई।’ एक ठिन लईका ल पाय रिहिस दुसरइया लईका पावत रिहिस। पहिली पाय रिहिस ते हुरहा गिरगे। पल्टीन उही मेर बईठ के रोय ल धरलिस। 

दूसर कोती ले सगोबती, रमसीला आथे अऊ पल्टीन ल पूछथे-‘काबर रोवत हस पल्टीन, काबर तँय रोवत हस या..? का बात होगे के तँय गोहार पार के रोवत हस?’ 
पल्टीन कहिथे-‘काला बतावँव गो... बड़ करलई होगे।’ 
सगोबती कहिथे- ‘का बात के करलई होगे या..? कुछु बताबे त हमुमन ल समझ म आही।’ 
रमसीला कहिथे- ‘रोते रहिबे का? हमर देस नारी परधान देस आय (रमसीला पल्टीन के आँसू ल अपन अछरा म पोंछत कहिथे) नी रोय बहिनी चुप हो जा। थोरकिन रूक के हरहिंछा बता के का बात होगे? तँय काबर रोवत हस?’ 
पल्टीन कहिथे-‘गाँव भर म गोहार परत हे, के हमर गाँव म नवाँ एस.पी. आगे। जउँहर भईगे दाई जउँहर भईगे। हमर लईकामन के नइ ये अब ठिकाना नवाँ एस.पी. हमर लईका मन ल मार डरही। गाँव के जगेसर कोतवाल हाँका पारत उही मेर आके हाँका पारथे- के गाँव के गराम पंचइत म काली मँझनियॉं कुन नवाँ सरपंच अऊ पंच मन के सपत गरहन राखे गेहे। ठउँक्का बाद म गराम पंचइत म काली मँझनियॉं कुन नवाँ सरपंच अऊ पंच मन के सपत गरहन राखे गेहे। ठउका बाद म गराम सभा होही अऊ पंचइत म माँदी खवाही। कोनो मन अपन घर म चूल्हा झन बारहू होऽऽऽऽ... हाँका पारत कोतवाल घला अपन रद्दा चल दिस। 
पल्टीन, रमसीला अऊ सगोतीन कोतवाल के हाँका ल सुन के गोहार पार के रोय ल धरलिस। पंचइत कोती ले गाँव के सियान गोठियात मंद के निसा म झुमरत तीनों झिन तिर आके पूछथें- 
गाँव के कोदू मंडल कहिथे- चुप हो जाओ नोनी का बात होगे तेला बतावव? बोलते-बोलत कोदू मंडल मंद के निसा म उही मेर गिरगे। 
उखर संग म आय गाँव के किसनहा सुखराम बबा ऊपर घलो मंद के भूत झपाय राहय। मंद के निसा म सुखराम बबा कहिथे-कुछु नी होय गा टूरी मन चुनई के मंद के निसा म रोवत हे। सबो झिन ल बिलहोरत हे बुजेरी के मन ह काहत सुखराम बबा अपन संगवारी संग चल दिस। कइसनों कर के रतिहा के चार पहर बितिस। 

पहट के गाँव के जम्मो लईका, सियान, माईंलोगन मन डफरा, डमऊ, मंजीरा, गोला, निसान संग जुलूस म आगू-आगू मुहूँ म रंग गुलाल बोथ्थाय झुमर-झुमर के नाँचत नवा सरपंच संग जम्मो पंच मन रंग म बुड़े अपन-अपन मरद संग पंचइत कोती जावत हे। 
मँय उही मेरा खड़े-खड़े देखत हँव के-सरपंच इहाँ के मरद के नरी म सरपंच के नरी ले जादा माला ओरमत हे। ओसने पंच मन के मरद के नरी के हाल हे। उँखर मरद मन अँटिया के रेंगत राहय मानो उही मन पंचइत के पंच सरपंच बने हे तइसे। देखत-देखत गाँव के जम्मो झिन पंचइत म सकलागे। पंचइत के आगू गाँधी पाँवरा मेर पंच-सरपंच ल किरिया खवाय बर मंच बने हे। पंच-सरंपच मन अपन हाँत ल आगू कोती लमाके किरिया खा के कहिथें, के गाँव बिकास के गंगा बोहाबो। 
ओतकिच बेर माईंलोगन मन के भीड़ ले गोहार परे ल धरलिस। पोंगा म कतको घॉंव चुप रेहेबर कहि डरिस फेर कोनो काखरो कहाँ सुनत हें। देखते-देखत माई लोगन के झगरा मरद मन डाहर मात गे। सुरू होगे पटकिक के... पटका। दोंहे.... दोंहे, भदा-भद जतका मुहूँ ओतके गोठ। सबो के मुहूँ म एके ठन गोठ-के नवाँ एस.पी. हमर गाँव म काबर आही। कोन लानही तेला देखबो। 

गाँव म कतको परकार के मनखे होथे। झगरा के गोठ-बात के चरचा ल सुन के पुलुस के डग्गा म अड़बड़ झिन पुलुस मन भरा के आगे। फेर झगरा त झगरा आय। पुलुस देखे न कोरट। कूद दिस ते कूद दिस। चुप करात भर ले करइस। नइ माने के एके ठिन चारा। पुलुस मन जो लउठी भंजिस के जम्मों भीड़ गदर-फदर भागिस। गाँव के चरचा एस.पी. करत रहिगे। डग्गा म बइठार के पुलुस मन गाँव म झगरा मतईया टूरा-टूरी, लईका-सियान अऊ माईंलोगन मन ल तको थाना लेग के ओइला दिस। 

दुसरइया दिन नवाँ सरपंच अऊ पंच मन थाना म जाके गाँव के मनखे मन के झगरा के कारन पूछिस। पल्टीन कहिथे-‘‘गाँव भर म चिहोर परत रिहिस के गाँव म नवाँ एस.पी. आगे। डर के मारे सबो झिन हड़बड़ागेन नोनी।’’ 
नवाँ सरपंच कहिथे- ‘‘गाँव म कोनो नवाँ एस.पी. आही कही कहिके। सरी गाँव म झगरा मता देस लईका-त-लईका सियान ल तको धँधवा देस। आय होरी तिहार म गाँव के मन ल रोवा देस। सरपंच संग पंच मन घलो पुलुस मन के साहेब ल मना डरिस। साहब नइ मानिस त दू बात कहिके सरपंच पंच मन अपन-अपन घर म आगे। 
वो डाहर पुलुस मनगाँव के जम्मो झन ल नियाव बर कोरट म लेगिन। करिया कोट पहिरे उकील मन कोनो ये डाहर जाय त कोना वो डाहर जाय। 
कोरट के मुहाटी मेर ले सफेद कुरथा पहिरे डोकरा बानी के मनखे ह गाँव म झगरा मतईया मन के नाँव ल धरत हाँका पार के जम्मों झन परसार सही बड़ जानी कुरिया म बलइस। उहाँ उँचहा कुरसी म करिया कुरथा पहिरे आँखी म करिया फरेम के चस्मा पहिरे मनखे ह गाँव के जम्मो झन ल पूछिस- ‘‘के का बात होगे? का बात बर झगरा मतायेव गाँव म?’’ 

गाँव वाले मन के उकील गाँव म झगरा काबर होइस ते बात ल नियाव करइया ल बतइस वो डहर उकील बतात रहाय त गाँव के जम्मो झन के आँखी हाँत म तराजू धरे आँखी म फरीया बॉंधे पुतरी ऊपर टेके हे अऊ जम्मो झिन अपने अपन म गोठियात हे। के इही नवाँ एस.पी. होही का? मंगल नाव के जवान टूरा कहिथे-‘‘ये त अँधरी हावय गा। अँधरी हमर गाँव के एस.पी. कइसे होही। हमर गाँव म का अँधरी राज करही? फोक्कट के गोठियाथव ते।’’ 
सुरेस नाँव के टूरा कहिथे- ‘‘अरे बइहा बुध के, ये कोरट आय कोरट। कोन हमर गाँव के नवाँ एस.पी. हरे तेला त पहिली जानन। फोक्कट के गोहार पारत हस निपोर मुहूँ ल कथरी सिले सही चुप नइ रहि सकस।’’ 
ओतकी बेर सलेन्द कइथे- ‘‘ते कोन होथस रे...! हमर मुहूँ ल कथरी कस सिलईया। हमूँ मनखे हरन हमू ल हमर गाँव के गोठ ल जाने के हक हे। बड़ा मुड़पेलवा कस हुसियारी मारत हे बइहा बुध के हा। इहाँ ले बाहिर निकल तहाँन मँय तोला छरियाथँव।’’ 
कोरट म हल्ला होवत देखिस त उँचहा कुरसी म बइठे नियाव करइया साहब ह दू घॉंव टेबिल ठठात किहिस-‘‘चुप हो जाओ निहीं तो भितरा दूँगा। ये हल्ला करे के सजा जम्मों झन ल भुगते बर परही। डर के मारे जम्मो झन चुपे होगे।’’ 
ओतकी बेरा उँचहा कुर्सी म बईठे नियाव देवइया साहब ह-गाँव के जम्मो मनखे ल फेर पूछिस-‘‘के बने-बने बतावव का होइस? का बात बर गाँव में झगरा मतायेव?’’ 
गाँव के सियान सुखराम कहिथे-‘‘बात अइसन हे साहब- के हमर गाँव के पंचईत चुनई के फइसला बने-बने निपटिस। बने नाँचत जात रेहेन। त ओतकी बेर सहर ले दू-चार झन टूरा मन फटफटी म बइठे-बइठे नरियात अइस। उही दिन ले उही बात बर हमर सरग सही गाँव म झगरा मात गिस।’’ 
नियाव देवइया साहेब कहिथे- ‘‘एसपी जिला भर के अधिकारी होथे अऊ जिलाच म ओखर आफिस होथे। कोनो जरूरीच काम परही तभे च वोहा तुँहर गाँव म जाही। गाँव म एस.पी. नइ होय पुलुस तुँहर रकछा बर हाबे।’’ 
अइसन सुग्घर गोठ ल सुनके गाँव के सरी मनखे चुपेच होगे। ओतकीच बेर कोनो बात ल धर के सलेन्दअऊ सुरेस म झगरा माते ल धरिस। उन्हें दूनों मन धरी के धरा होगे। दूनों एके ठिन बात बोले-‘‘नवाँ एसपी आगे।’’ 
नियाव देवइया साहब टेबिल ल ठठात फेर कहिथे-‘‘चुप रहो बड़ नरिया डरेव। तुहीच मन बतावव के गाँव म नवाँ कोन एस.पी. आगे?’’ 
सलेन्द्र अऊ सुरेस डर्रात कहिथे- ‘‘सहर के टूरा मन बतइस साहब।’’ 
नियाव देवइया साहब कहिथे-‘‘का बात ल सहर के टूरा मन बतइस बोलव।’’ 
साहब के गोठ सुनके सुरेस सरी बात ल बताथे- ‘‘के साहब सहर के टूरामन बतइस गाँव म एस.पी. आगे। ऊँखर ले पूछेन त वोमन किहीन-बाई-बनिस सरपंच त ओखर मरद होइस एस.पी. माने सरपंच पति अऊ पंच मन के मरद पंचपति परमेसर होही। 
सलेन्द्र कहिथे-‘‘उही गोठ ल सुनके ऊँखर संग म हमू मन जिन्दाबाद-मुर्दाबाद कही परेन साहब।’’ 
सुरेस कहिथे-‘‘बस अइसनेच गोठ हरे साहब। 
परसार सहीं बड़ जनी कोरट कुरिया म चारो खुँट के मनखे मन दुनो झन के गोठ ल सुनके हाँस-हाँस के कठल गे। कतको झिन त हाँस-हाँस के ओछर-बोकर तको डरिस। जेन ल देखबे त उही हाँसते रहाय। सबो झिन ल हाँसत देख के गाँव के मन सकपकाय भोकवा कस देखते रहिगे। 
थोकुन बेरा म खॉंसी-खखरई बंद होइस त सलेन्दनियाव देवइया साहब ल कहिथे-‘‘हमन कोनो हाँसी मजाक के लइक गोठिया परेन का साहब के हमर कोती ले कोनो गलती होगे का? सबो झन हाँस डरेव। बस हमी मन भोकवा कस ठाढ़े हन।’’ 
नियाव देवइया साहब टेबिल ठठात गोहार पारथे-‘‘आरडर.... आरडर।’’ 
जम्मों झन चुप होगे त नियाव देवइया कहिथे- ‘‘ये सबो गोठ-बात गाँव के सिक्छा के कमी के खातिर देखे बर परत हे। सरकार गाँव-गाँव म पढ़व-अउ बढ़व कहिके साक्षरता किलास लगा के कतकोन खर्चा करिस तभो ले जम्मो अप्पड़ के अप्प़ड़। ऊपर ले झगरा-झँझट करके मुड़ी फोड़ी-फोड़ा कर डरिस।’’ 

नियाव देवइया साहब गाँव वाले मन ल समझात कहिथे-‘‘के तुँहर झगरा ल खत्म करव अऊ बने-बने जिनगी ल जीयव। मनखे बर मनखे बने के उदिम करव। सबके मन म मया-परेम जगावव। आगू होरी तिहार हे बने मया परेम लगाती तिहार ल मनावव। काली पंच अऊ सरपंच संग इँहा आहू त नवाँ गोठ-बात ल करबो। कोरट के समे खत्म होइस।’’ जम्मों सियान, जवान मन अपन-अपन डेरा म हाँसत गोठियात लहूटिस। 

दूसरईया दिन कोरट के बेरा प पंच-सरपंच संग गाँव के जम्मो झन नियाव करइया साहब ले मिलथे। नियाव करइया साहब ह सरपंच ल कहिथे-‘‘तुँहर गाँव म झगरा के एके ठिन कारन हे वोहे असिक्छा, गाँव के मनखे मन के अप्पड़ होना। सबो पंच सरंपच पढ़े-लिखे दिखथव। गाँव के मन ल बने समझत ले पढ़ावव। गाँव म साक्छरता के संदेस ल आगू लावव। गाँव के मन सिक्छित होहीं त गाँव म नवाँ अँजोर बगरही अऊ गाँव म सुख के गंगा सुग्घर बोहाही।’’ नियाव देवइया साहब सरपंच संग जम्मो पंच मन ल ऊँखर जीत बर गाड़ा अकन शुभकामना देके जम्मो झन ल बिदा करिस। 

सरपंच अऊ पंच मन ओसने करिस जइसन साहब बताय रिहिस। नवा सरपंच दसाबाई गाँव के साक्षरता किलास म गाँव के जम्मों लईका-सियान-जवान सब्बो झन ल पढ़ाय ल सुरू कर दिस। गाँव के मन नवाँ-नवाँ जिनिस सीख के अपन खुद के पॉंव म खड़े होगे फेर अपन लईका मन ल अपन घरे म पढ़ा-पढ़ा के नवाँ रद्दा देखाय के नवाँ-नवाँ उदिम करत हे। गाँव म कभू पंथी त कभू रीलो त कभू रीलो त कभू करमा-ददरिया म अपन सुर लमात देवी-देवता के पराथना करत नवाँ जिनगी जीये के मन म आस धरे सुख के जिनगी जीयत हे। 

देखते-देखत होरी तिहार आगे। गाँव के मन पँचकठिया टुकना म परसा, सेम्हर फूल के पंखुरी ल घर म लानके लाली रंग बनाके के होली मनाय के उदिम तको करत हे। गाँव के गौरा पाँवरा म बाजत नँगारा, डमउ, टासक, निसान, मंजीरा, ढोलक अऊ गोला के पार ल कोनो पाही गा। गाँव के चारों खुँट माँदर सँही नँगारा घटकत हे। आनी-बानी के फाग ल गा-गा गाँव के जम्मो लईका सियान मन खुदे नाँचत हे अऊ जम्मो झन ल नँचात हें। 

रतिहा के पबरित बेरा म होही के पूजा करके गाँव के जम्मो सियान अपन गाँव के रक्छा बर देवी देवता ल गोहरात होरी ल जरा के उही मेर कसम खाथे। के हमर गाँव म सेम्हर, परसा के रंग ले होरी खेलत आय हन आगू घलो हमर पुरखौती के चिन्हा के रंग ले होरी खेलबो। कोनो ह कोनो के मुहूँ-कान म चिखला, माटी, चीट अऊ आनी-बानी के रंग नई पोतय। 

गाँव म पहाती ले संझौती बेरा तक लईका मन तिलक होरी खेलत सियान मन के माथा म गुलाल के टीका लगा के सियान मन ले असीस पावत अपन जिनगी ल सँवारे के परयास करते हे अऊ नँगारा संग एके ठिन राग लमावत हे- 

हमर गाँव म आगे अँजोर, परसा सेम्हर लाली ल घोर। 
माया परेम के लाली धरके, ये दे आगे होरी तिहार॥ 
ठेठरी, खुरमी, बबरा ल खाके, बने मनावव तिहार। 
जीयत रहिबो त फेर देखबो, आगू के होरी तिहार॥ 
============================================
प्रदीप पान्डेय ‘‘ललकार’’ संबलपुर : देशबंधु मड़ई अंक में प्रकाशित

माटी महतारी

सोनारू तँय ह बइठे-बइठे काय सोचत हाबस। बेटा, जऊन होगे तऊन होगे। अब तोर सोंचे ले हमर जमीन ह नइ आवय। जा रोजी-मंजूरी करके ले आ बेटा, पानी-पसिया पीबो। निहीं त भूखे मरे ल परही। थोर बहुँत पढ़े-लिखे रहितेंव रे सोनारू.. त तोर बाप, कका अऊ गाँव के मन ल समझातेंव। दलाल के बात म नइ आतेंव।
बबा हमन तो फेक्टरी म माटी महतारी ल बेंच के अपन गोड़ म टँगिया ल चला डरे हाबन अऊ एकर भुगतना ल हमन सात पीढ़ी ले भुगते ल परही बबा। सिरतोन काहत हाबस सोनारू... मंद पीके तोर बाप ह करनी करे हावय अऊ हमन ल भुगते ल परही रे। चार ठन खेत ह हमन ल पोसत रिहिस बेटा..! ‘माटी ह महतारी आवय’ अऊ सबके पेट ल भरथे रे, फेर एक ठन फेक्टरी ह एक मनखेच ल मजदूरी के काम दिही जेमा घर के दस मनखे के पेट ह नइ पलय बेटा..! सिरतोन काहत हाबस बबा फेक्टरी म काम करे बर पढ़े-लिखे अऊ सिच्छित चाही हमन तो अप्पड़ आन बबा। फेर साहेब-अधकारी मन तो पढ़े-लिखे हावँय तभो ले हमर मन बर नइ सोंचिन। हमर दू फसली भुँईंया ल बंजर बता के अँगठा चपका दीन। (ओतके बेर सोनारू के काकी आइस)- ‘तोर कका ह चार दिन होगे, बेटा नइ आय हे गा। चार दिन होगे घर म हँड़िया नइ चढ़े हाबय।’ जानत हँव काकी... फेर काय करहूँ थोरकन तहसीली म जाके पूछताछ करबे तहॉं कुछु भी कहिनी बना के जेल म ओइला देवत हाबय काकी।

कोतवाल ह हॉंका पारत रिहिस। चिचियावत सोनारू के घर करा अइस, सोनारू पूछथे- ‘अब काके बईठका आय बबा।’
-‘काला बतावँव रे सोनारू, हमन ल रद्दा बतइया समारू गुरुजी ह घलो अब इहॉं ले चल दिही।
-‘काबर?’
-‘ओकर बदली करदीन बेटा..! गुरुजी मन मुआवजा ल नइ ले हाबय अऊ गाँव वाला मन ल सीखोवत हाबय कहिके उही पूछे खातिर तोर ककामन गे रिहिस। तेला जेल म डार देहे।
-‘साहब मन हमर मन के बात ल काबर नइ सुनय कका।’
-‘अरे बेटा, हमन गरीब किसान आवन गा... साहब मन ल काय दे सकबो। फेक्टरी वाला मन कलेक्टर ले लेके पटवारी ल चार चकिया दें हाबय। तेकर सेती तो ओमन रोज गाँव के चक्कर मारथें। गाँव के दलाल मन घलो मालामाल हो गेहें।’
दस बजे बिहनिया खा-पी के गुड़ी म सकलाहू होऽऽऽऽऽ..! बारा गाँव के मनखे मन घलो आहीं होऽऽऽऽऽ..! कोतवाल ह पूरा बस्ती म हाँका पार के चल देथे। ओतके बेरा सरपंच ह सोनारू के बबा करा आइस।
-‘पा लगी मंडल कका।’
-‘खुसी रा बेटा..! अब कइसे करबो कका अब तो कइसनों करके हमन ला फेक्टरी वाला मन ल भगाय ल लागही बेटा! कतको मन तो मुआवजा लेके पइसा ल खा डरे हावय, आधा झन मन बाँचे हावय। फेक्टरी के खुले ले कका कोसा पालन केन्द्र ह घलो बरबाद हो जही। फेक्टरी के गरमी म कोसा कीरा मर जही, त कँड़ोरो के लगाय रुपिया ह बरबाद हो जही। सरकार के काय जाही बेटा..! जनता के कमई ल पानी कस बोहाही नहीं त का। कतको बेरोजगार होही त ओला काय फरक परही। फेक्टरी वाला मन नोट के गड्डी ल धराही तहॉं सब चुप हो जहीं। ले कका बिहनिया कुन गुँड़ी म आ फेर।

होत बिहनिया गाँव म चहल-पहल सुरू होगे। काबर बारा गाँव के लोगन मन आय के सुरू करदे रिहिस। दस बजते साठ गुड़ी म मनखे मन खमखमागे। दुदमुहॉं लइका मन ल पीठ म बॉंध केझॉंसी के रानी बरोबर माईलोगिन मन आय रहिन। काबर कोंनो महतारी ह अपन लईका के पेट म लात नइ मार सकँय। सरपंच ह कथे- कइसे बतावव काय करबो तऊन ल.. ओतके बेरा एक ठन चार पहिया ह आके ठाड़ होगे। सब उही ल देखे बर धरलीन। सोचे लगीन फेर पुलिस वाला मन पकड़े बर आवत हावँय। कोंनो-कोंनो मन तो कइथे- आज मारबो नहीं त मरबो। फेर अपन महतारी ल बेचन निहीं। गाड़ी ले श्रीवास्तव साहब ह उतरीस जऊन ह गाँव वाला मन के हिमायती राहय। सरपंच कइथे- ‘नमस्ते साहब..! कइसे आय हावव..!’

मँय ह ये बताय बर आय हाबँव कि मोर इँंहा ले बदली होगे, अब तुमन कइसे करहू तेकर फैसला ल तुही मन ल करे बर परही। मोला ससपेंड घलो कर सकत हाबय। फेर मँय ह कइसनों करके जी-खा लुहूँ। तुमन ल अपन लड़ई खुदे लड़े बर परही। काबर दलाल मन तुँहरे घर म बइठे हाबय। सबला मोर राम-राम। मँय ह जावत हँव फेर एक ठन बात काहत हँव सबला बेचहू फेर धरती दाई, अन्न देवइया ल फेक्टरी बर झन बेचहू। श्रीवास्तव बाबू ह गाड़ी म बइठ के लहुटगे। थोरकन बेर-बर सन्नाटा ह पसरगे। काबर? पढ़े-लिखे एक झन रद्दा बतइया रिहिस वहु ह अब नइ रइही। समारू गुरुजी ह अपन बदली रोकवाय बर उही ह साहर म साहब मन के चक्कर काटत हावय।

मंडल ह खड़ा होके कइथे- अरे बाबू हो! हमन का चार दिन जीबो के आठ दिन, फेर तुमन ह मंद महुआ म मुआवजा ल लेके उड़ा डरे हाबव। फेर अभी आधा आदमी ह पइसा नइ ले हाबय। तुमन ह पइसा कइसनों करके लहुटाहू। आयतु ह खड़ा होके कइथे- दू साल होगे खेत मन परिया परे हाबय त पइसा ल कइसे लहुटाबो। सरंपच ह कइथे- ‘मैं ह एक ठन बात काहत हाबँव। हमन नंदिया ल बॉंधबो अऊ फेक्टरी बर जमीन हावय तेमा बॉंध बनाबो अऊ बढ़िया फसल लेके कम्पनीवाला के पइसा ल लहुटाबो नंदिया के तीरे-तीरे फलदार रूख लगाबो। करजा हाबय तऊँन ल सब मिल के हमन छूटबो तब ए माटी महतारी ह बॉंचही अऊ एकर सिवाय हमन मन करा कोन्हो चारा नइये।

तब सोनारू ह खड़े होके कइथे सरपंच कका ह बने काहत हाबय। अगर हमन एक होके करजा ल नइ छूटबो त हमन सदादिन बर बनिहार रहिबो। फेक्टरी के पानी ह नंदिया म मिलही त वहु ह जहर बन जाही। हवा ह घलो बिगड़ जही। सब मनखे मन चिचियाइस। हमन ल मँजूर हाबय। मँजूर हाबय। सोनारू ह फेर कइथे- हमन तो नइ पढ़ेन फेर अपन लइका मन ल इसकुल भेजबो। पढ़ाबो तभे हमन ला फेर कोनो दलाल मन कोरा कागज मन अँगठा नइ लगवाही। इही भुँईंया के सेवा करत अपन ये बारा गाँव ल फेक्टरी के गुलामी ले अजाद कराबो। मंद मउहा ल पियइया हो अब तुमन ल सीखे ल लागही कि एक फेक्टरी ह एक झन ल कुली के काम दिही हम अप्पड़ के खरही नइ गॉंजय। ओमन ल तो पढ़े-लिखे आदमी चाही। फेर हमर धरती महतारी ह अप्पड़ अऊ पढ़े-लिखे सबला पोसथे।

सरपंच ह कइथे- त फेर सब साबर, कुदारी, रापा, टँगिया, झउँहा धरके परनदिन पॉंच बजे पहुँच जहू। ग्यारा बजे फेक्टरी के भूमिपूजन हाबय त ओकर पहिली हमन ल गड्ढा खोदना हाबय। अब सब अपन-अपन घर जावव। अतका जान लेव हमन ल ओ दिन मरे ल घलो पर सकथे अऊ मारे ल घलो लागही। काबर फेक्टरी वाला मन लाव-लसकर लेके आही। सब जनता के भुँईंया के कसम खाके जय-जयकार करत अपन-अपन घर लहुटगे। मंडल ह कइथे- अब तो ये दोगला मन ल मारेच बर लागही बेटा..! जब अँगरेज ल हमन भगा सकथन त ए फेक्टरी वाला मन कोन खेत के मुरई आय।

तीसर दिन ग्यारा बजे फेक्टरी वाला मन बड़े-बड़े गाड़ी वाला मन घलो रिहिस गाँव वाला मन सब काम ल छोड़-छॉंड़ के देखे लगीस हजारों झन मनखे सबके हाथ म हँथियार। साहब मन कॉंपे ल धरलीस, पछीना घलो बोहाय ल धर लीस। एक झन दलाल ह कइथे- साहेब, काली रतिहा ग्यारा बजे गेहन त कॉंही नइ खनाय रिहिस अऊ कतका बेर सउँहो तरिया खनागे। बड़े साहब के मुहूँ ले बक्का नइ फूटिस काबर ओहा छै महीना पहिली पटवारी अऊ डिप्टी कलेक्टर के हालत ल देखे रिहिस दुनों झन के मुहूँ लहूलुहान। थोरको चिन्हारी नइ रिहिस साहब ह चुपचाप गाड़ी म बइठके ड्राइवर ल गाड़ी चालू करे बर कइथे। साहब के देखते-देखत सब ह ओकर पीछू-पीछू गाड़ी म बइठ के लहुटगें। समझगें एक ठन लकड़ी ल तो आसानी से तोड़ डारबो फेर लकड़ी के बोझा ल नइ टोर सकन। गाँव वाला मन बड़ खुस होइस अऊ तिहार असन नाचे लगीस काबर? ओमन अपन सात पीढ़ी ल बनिहार बनाय ले बचा लीन। बॉंध बने ले फसल लहलहाना सुरू होगे। मंद मउहा ऊपर घलो रोक लग गे। दलाल मन गाँव छोंड़ के भाग गे। सब अपन लइका मन ल इसकुल भेजे लगीन, ताकि फेर कोनो दलाल मन कोरा कागज म अँगठा झन लगवाय।
========================================
गीता शिशिर चन्द्राकर, भिलाई-३ देशबंधु मड़ई अंक में प्रकाशित

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

सतरंगी फागुन के रंगरेला होली

सँझा होवत गाँव के गुड़ी म लइका जवान अऊ सियान सबो जुरियाथँय। इही समे एक ले बढ़ के एक फागगीत सन रंग सिताथँय, गुलाल उड़ाथें। लइकामन के पिचकारी घलो उनिहाय रथँय। रंगे-रंग म चोरबोराय लइकामन नाचे-कूदे म बियस्त रथँय। इलका हो सियान, बेटा जात हो या माई लोगन हो, अमीर हो या गरीब। सब के सब रंग-गुलाल म बोथाय फागुन के छतरंगी तिहार होली ल सारथक करथँय। कोनों रंग या गुलाल कोनो ल रंगे बर नइ बिसरय। येकर ले इस्पस्ट हे के हम होली के यथारतता ल समझन अऊ सबर दिन कायम रखन, तभे हमर होली मनई सारथक होही। 
हमर छत्तिसगढ़ी रीति-रिवाज, परम्परा अऊ संस्कृति के सबो सार बात ह तिहार-बार समाय रथँय। वइसने छत्तीसगढ़ ल तिहार-बार के गढ़ कहे जा सकथे। बारो महीना तिहार मनाय जाथें इहाँ। जनम के सिधवा महिनतकस छत्तीसगढ़िया भाईमन के परेम अऊ सादगी तिहार-बार म झलकथे। लोगन एक तिहार मनाय के बाद अवइया तिहार के अगोरा म हँसी-खुसी समे बिताथे। हमर गाँव-देहात म बइसाख के अक्ती ले तिहार-बार के मुंड़ा घेराथँय जेन हा फागुन के होली म सिराथँय। ये रंगरेला होली फागुन के अगोना पाख के पुन्नी म मनाय जाथँय। होली परब फूलमाला के एक निक-सुग्घर पिंयर गोंदा आय। 
होली ले जुड़े किवदंती 
हर तिहार धरम, दरसन अऊ अधियात्म म जुड़े होथे। कोनों न कोनों रीति अऊ नीति तिहार बार म बिलकुल समाय रथँय। मनुख जात ल प्रकृति ले भेंट संसकिरिति के झलक तिहार म देखे ल मिलथे। रंग-रंग के किवदंती हमर तिहार-बार के संबंध म सुने ल मिलथँय। जइसे एक पौरानिक कथा ले सुने ल मिलथे कि सतजुग म सिरीहरी बिसनु के नरसिंह अवतार के कथा परसंग ले होली मनाय के परम्परा जुड़े हावय। कहे जाथँय दानवराज हिरन्यकस्यप जेन ह खुद ल भगवान मानँय। अपन राज म अपने नाम जपे के प्रचार-प्रसार करे रिहिस। प्रजा राजा के डर म भगवान के नाम बिसरान लागिस। फेर उही राजा के बेटा प्रहलाद भगवान बिसनु के परमभक्त होइस। प्रहलाद के हरिनाम पिता हिरन्यकस्यप ल थोरिक नइ भाइस। राजा बेटा प्रहलाद के ऊपर अतियाचार करिस। आखिर म राजा अपन बहिनी होलिका मेर प्रहलाद के हरिभक्ति के बात रखिस। होलिका ल बरम्हा ले वरदान मिले रिहिस के आगी (अग्निदेव) वोला कभू नइ जला सके। बरदान पाये ले होलिका ल बड़ा गरब रिहिस। भाई के आगिया मुताबिक बालक प्रहलाद ल गोदी म ले के बरत आगी म बइठगें। भक्त प्रहलाद बंबर असन बरत आगी ले बाँचगे पर अहंकार अऊ अति-अनुचित बिसवाँस म माते होलिका जर के राख होगे। येकर ले इही पता चलथँय के ईस्वरनिस्ठा ल पाप अऊ अहंकार दुनों मिलके घलो नइ पछाड़ सकँय। इही समे ले समाज म फइले बुराई ल अच्छाई ले अऊ पाप ल पुन्य ले खतम करे के उद्देस्य ले होलिका दहन के परम्परा चल पड़ीस। आज गाँव-गाँव म फागुन लगते एक जगा छेना-लकड़ी सकेलथें। अंजोरी पाख के पुन्नी रात में लइका-सियान सकला के हुम-धूप देथे। गाँव-परमुख या बइगा हर सकेलाय लकड़ी म आगी ढिलथे। इही बेरा जम्मो झन मदमस्त हो हाँसी-खुसी ले झाँझ-मँजीरा अऊ 
ढोल-नँगारा बजावत, अलाप मारत, सुमरनी फाग गीत गाथँय:- 
सदा भवानी दाहिनी सन्मुख गवरी गनेस।
पांच देव मिल रक्छा करे, बरम्हा, बिसनु, महेस।
ये मनाबो रे ल, परथम चरन गनपति ल
काकर बेटा गनपति भव, काकर भगवान
काकर बेटी देवी कारका, काकर हनुमान
परथम चरन...
गवरी के बेटा गनपति भव, कौसिलिया के भगवान
भैरव की बेटी देवी कारका, अँजनी के हनुमान
प्रथम चरन गनपति ला...। 
लोगन होलिका दहन के दूसर दिन ओ जगह म जाके जुड़ाय राख ल चिमटी म धर के एक-दूसर के माथा म लगा के होली के बधई देथँय। इही राख ल घाव-गोंदर, खस्सू-खजरी म चुपरे ले घाव माड़ जाथँय। ये ह एक गँवइहा बिस्वास आय।
रंग-रोगन के गरीब तिहार 
होलिकादहन के दूसर दिन धुरेड़ी होथे। ये दिन रंग-गुलाल के दिन आय। ये दिन ल गाँव-गाँव म नोनी-बाबू, लइका-सियान मिलजुल के रंगहा-तिहार के रूप म मनाथें। सुने ल मिलथे के दुवापर जुग म भगवान सिरी किरिस्न बृन्दाबन म गोप-गुवालिन सन बन के सुन्दरता ल देख भाव-विभोर हो के नाचिन- गाइन अऊ एक परम्परा चल पड़िस। हमर गाँव देहात म ये दिन लोगन के मन बडा प्रफुल्लित रथँय। एक दूसर ऊपर रंग-गुलाल लगाथँय। नत्ता-गोत्ता मुताबिक एक-दूसर ल पयलगी करथँय। लइकामन के लइकापना धुर्रा अऊ चिखला म इही दिन घलो देखे ल मिलथे। ये तिहार के सबसे बड़े बिसेसता ये आय के ये गरीब के तिहार आय। कम खरचा-पानी म बने-बने निपट जथें। एक-दूसर याने अमीर-गरीब रंग-गुलाल लगइक-लगा होथँय। अमीरी-गरीबी के कोनो बिलग चिन्हारी नइ होय। जवनहा संगी मन बिहनिया नौ-दस बजे ढोल-नँगारा अऊ झाँझ-मँजीरा बजावत, रंग-गुलाल म गोड़-मुड़ बोथाय घर-घर म जा के फाग सन राग लमियाथँय-
'अरे हाँ हो .... हो 
पातर पान बंभूर के, केरापान दलगीर
पातर मुहूँ के छोकरी, बात करे गंभीर।
राजा बिकरमादित महाराजा
केंवरा लगे तोर बागों में
के ओरी बोय राजा केकती अऊ केंवरा
के ओरी अनार महाराजा
ए कि एओरी बोये राजा केकती अऊ केंवरा
दुई ओर अनार महाराजा।
केंवरा लगे हे तोर बागो में ... राजा बिकरमा...।'
सँझा होवत गाँव के गुड़ी म लइका जवान अऊ सियान सबो जुरियाथँय। इही समे एक ले बढ़के एक फागगीत सन रंग सिताथँय, गुलाल उडाथँय। लइकामन के पिचकारी घलो उनिहाय रथँय। रंगे-रंग म चोरबोराय लइकामन नाचे कूदे म बियस्त रथँय। लइका हो सियान, बेटा जात हो या माई लोगन, अमीर हो या गरीब सब के सब रंग-गुलाल म बोथाय फागुन के छतरंगी तिहार होली ल सारथक करथँय। कोनों रंग या गुलाल कोनो ल रंगे बर नइ बिसरय। येकर ले इस्पस्ट हे के हम होली के यथारतता ल समझन अऊ सबर दिन कायम रखन, तभे हमर होली मनई सारथक होही। बबा उमर के मन हू...हू...हू... करत इही बेरा अपन सियनही जिनगी के अनुभव ल नवा पीढ़ी ल बाँटत, डंडा नाचत, संदेस पठोथँय-
'अरे हो, अरे हाँ हाँ हो
सरसती ने सर दिया, गुरू ने दिया गियान
माता पिता ने जनम दिया, रूप दिया भगवान
तरी नरी ना ना मोर न हा ना रे भाई 
ये न हा ना ना मोर ना ना रे भाई 
बड़ सतधारी लखनजाति राजा
तरी नरी हू... हू... हू..
फूटे बंधा के पानी नइ पिअँय 
टूटे चाँवर के भानस नइ खावय 
पर तिरिया के मुख नइ देखय
तरी नरी ना ना मोर न हा ना रे भाई
बस सतधारी लखनजाति...।'
रितुराज के पहुँना फागुन 
फागुन महीना रितुराज के राज म पहुँना कस आथँय। राजसी पहुँनई होथँय फागुन के। सरद-गरम मिश्रित पुरवई के रंग म सवार फागुन चंदन सही फुदकी ल निहारत मधुमास के महल म अमरथँय। रंगरेला फागुन के सुन्दरई ल देख अमराई बउरा जाथँय। कोयली के कंठ ले सिंगारगीत निकलथँय। परसा अऊ सेमर के सजई-संवरई घात सुहाथँय फागुन ला। पंदरा दिन के साँवरी सलौनी अँधियारी पाख फागुन ल बिलमाथँय, ताहन पारी आथँय चिकनी गोरी अँजोरी पाख के भला कइसे बिसरा ज ही फागुन ल। पिंयर देही छात रूपसी चंदा ह अँजोरी पाख अऊ फागुन के मेल-मिलाप देख मुस्कुरावत रथँय।
गाँव-गँवई के दरसन 
हमर गाँव-देहात म देवारी के बाद खेत-खार अऊ कोठार के बियस्तता ले घर-दुआर के बिगड़े स्थिति फागुन महीना म सुधरथँय। इही महीना ढोल-नँगारा के संग फाग गुंजन लागथँय। चौपाल के खनक बढ़ जाथे। काम-बुता ले फुरसत हो लोगन परछी अऊ चँवरा म बइठ तास म रमे रथे। पासा ढुलावत बीते खेती किसानी के दिन बादर के गोठ गोठियावत रथे। कोनों-कोनों छेत्र म गाँव भर के नवकर जइसे गहिरा, लोहार, नउ बरेठ मन के दिन-बादर (सेवा-अवधि) फागुन महीना म पूरा होथे। इही महीना म लोगन-लोगन ल मँगनी-बरनी अऊ बर बिहाव के सुरता आबे करथे, संगे-संग अवइया, चइत नवरात्रि के गोठ, खेती-किसानी के गोठ जइसे बीज-भात, नाँगर-बक्खर काँटा-खुटी, बन बुटा, मेंड़पार, माल-मत्ता (बइला-वइला) के गोठ फागुन के गोठ होथे। कमाय-खाय बर परदेस गेये लोगन फागुन के होली तिहार मनाय बर अपन जनम भुइँया जरूर लहुटथे। इही फागुन महिना म फेर एक घाँव गाँव-गँवई के दरसन होथे। 
ठेठरी रोटी के मजा 
लोगन माघ के महीना के निकलते अऊ फागुन के लगते ओन्हारी सियारी लुवत-टोरत अऊ मिंजत खानी ठुठुर-ठाठर करत लुथे-टोरथे अऊ घइरथे-सइतथे। माँघ के ओन्हारी ले ही फागुनहा होली के रोटी-पीठा के चुरई निरभर करिथे। बने-बने ओन्हारी-सियारी होथे त रोटी-पीठा घलो बने-बने चुरथे। तिली, अरसी, सरसो के तेलपइत, उरिद-मूँग दार ले बरा, लाख-लाखड़ी अऊ चना बेसन के भजिया अऊ ठेठरी जम्मो सकलाथे त होली के रोटी चुरथे। कोनों, कभू, कतको अऊ कुछु बना के खाय, चाहे झन खाय, पर तिहार बार के तेलहा रोटी राँध के खाय ल कोनों नइ छोड़ँय। अपन-अपन इच्छा अऊ हेसियत मुताबिक जरूर राँधहीं, खाहीं। बरा, सोंहारी, भजिया ह लगभग सबो तिहार म जनम लेवत रइथें पर ठेठरी ह फागुन के होली म ही अवरतथँय। दिगर तेलहा रोटी ह एक-दू दिन म लरजाये ल धरथे, फेर ठेठरी के बात अलग हे। बनाये म घला सहज। ये ल लाख-लाखड़ी या चना बेसन ल बने सान के नान-नान लोई धरके उबड़ी (उल्टी) थारी, कोपरी या चँवकी म हथेली ले, पतला-पतला डोरी असन बरे जाथे। बरे के बाद बीच ले मोड़ के एक घाँव अऊ मोड़े जाथे। ताहन फेर डबकत तेल म डार के बनाय जाथँय। येला तिहार के दिन खाले, आन दिन अऊ पंदरा-महिना दिन ले घला रख ले। कुछु नइ होवय, खावत रा ठुठुर-ठुठुर। येकर सेती सियान मन कहे हावय 'माँघ के ठुठुर-ठाठर अऊ फागुन के ठेठरी।'
माँस-मंदिरा के अवगुन 
सुग्घर रूप से फागुन महीना के गुनगान होली म जबड़ अवगुन घला समाय रथे। जेमा माँस-मंदिरा के उपयोग परमुख हावय। कइसन तो अइसे समझे के होली ह पिये-खाय के तिहार आय। ये माँस-मंदिरा ले तिहार के अच्छा-मंगल सइतानास हो जथँय। पीअई-खवई ले लोगन के आरथिक स्थिति सिखाथँय, अऊ मारपीट ले समाज म हिंसा उपजथे। हिंसा के पिकी बैर के बिरिक्छ बन के समाज म सिरीफ काँटा बगराथे। समाज म मनुखपना ल बनाये राखे बर ये माँस मंदिरा ल बिसरान, ठेठरी खावन, रंग-गुलाल लगावत होली मनावन अऊ कहन - 'होली हे।' 

भारतीय गणना

आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!