हमर लोक कला के नकल कोनो नई कर सकय। भला हमर पंडवानी ल कोनो हिंदी, अंगेरजी म गा सकत हे का? समे के संग अब यहू मन छत्तिसगढ़ के इतिहास बनतेच जात हे। हमन दूसरे के देखा-सीखी नकल उतार-उतार के एकर सुद्धता बिगाड़ के ''धोबी के कुकुर कस घर के न घाट के'' बरोबर बना डारत हन। आजकल छत्तिसगढ़ी एलबम ह तो बम गिरातेच हाबय अउ छालीवुड ह तो इहाँ के संसकिरती के, लोककला के फोकला निकालत हावय।
मोर भाखा कतेक गुरतुर, कतेक मिठास ये बात ल तो सिरिफ छत्तिसगढ़ियच मन हर जानथंय। जम्मो भाखा बोली ले सुरहि गाय कस सिधवी बिन कपट के निच्चट सांत रूप म हाबय। ''अंधवा जभे खीर खाथे तभे, पतियाथे।'' इही कहावत ह मोर छत्तिसगढ़ी भाखा ऊपर बरोबर बइठथे। बोले म रमायन, गीता के बानी कस, सुने म महतारी के लोरी कस दुलार हावय हमर छत्तिसगढ़ी भाखा म। नवा दुलहिन के पइरी के घुँघरू कस नीक भाखा म करमा, ददरिया, चंदैनी के सुर म मादर, ढोलक, गँड़वा बाजा के थाप ह परथे त लागथे ए छत्तिसगढ़ी भाखा बोली ह जम्मो भाखा बोली ल पचर्रा बना दिस। ए भाखा के नावेच हावय छत्तिसगढ़ी ! छत्तिस आगर छत्तिस कोरी मनखे मन मिलके ए भाखा ल गढ़े होंही तभे छत्तिसगढ़ी भाखा बोली नोहय, ए ह हमर छत्तिसगढ़ के जम्मो संसकिरती के दरसन आय। ऐंठी, तुर्रा, गजरा, पंडवानी, बिहाव-भड़ौनी, कमरा-खुमरी, नोई-दुहना, के चिन्हार, इही छत्तिसगढ़ी भाखा ह कराथे। ए भाखा ह तो छत्तिसगढ़ के परान आय। जेन दिन ए भाखा नंदा जाही वो दिन छत्तिसगढ़ घलो मेटा जाही।
संस्कृति अउ तिहार ह तो छत्तिसगढ़ के माई तिजोरी म भरे हावय। माता पहुँचनी के सीतला पूजा, अक्ती, ठाकुर देव पूजा साँहड़ा देव पूजा, देवारी के गउरी-गउरा, घरो घर घूमत छेरछेरा मँगइया के होली, मेला-मड़ई जइसन मया पिरीत। अउ अपन आसथा ले जुड़े अइसन तिहार कोनो जगा देखे बर नई मिलय। इँहा के तिहार सब जगा ले घुँच के रहिथे। बिहाव मँगौनी के करी लाड़ू, मोहरी, दफड़ा, निसान के बघवा कस गरजई, भड़ौनी, मायसरी लूगरा, पर्रा झुलउनी, माँदी भात, आजी गोंदली ये जम्मो ह हमर छत्तिसगढ़िया होय के पहिचान आय। लइका होय म छट्ठी-बरही, काँके पानी रिवाज ह घर म हरिक लान देथे। नानपन के गँगाजल, गजामूँग, महापरसाद, भोजली-जँवारा ह दोसती के पिरीत ल एक ठन गाँठ म बाँध देथय। दाई-ददा, कका-बबा, ममा-दाई, भऊजी, भांटो केहे के चलन इहेंच हे।
छत्तिसगढ़ के पहिराव ओढ़ाव दुरिहच ले चिनहा जथे। गरवा चरावत राउत भइया के चंदैनी गोंदा कस रिगबिग ले कुरता, सलूखा, सादा, पिंयर पंछा मुड़ म छोटकुन खुमरी, हाथ म तेंदूसार के लउठी ह सउँहत किसन भगवान के दरसन करा देथे। सुआ पाँखी लूगरा पहिरे सुवा, ददरिया गावत मोटियारी मन ल मोह लेथे। बाबू जात के हाथ के ढेरकऊवाँ, कान के बारी अउ माई लोगन के हाथ के अइँठी, अँगरी के मुँदरी, गोड़ के पइरी, कड़ा बिछिया, गर के सुँता, तुर्रा, गजरा, बइहाँ के पहुँची, कनिहा के करधन, कान म खिनवा पहिरे दाई-बहिनी मन ल देख के लागथे सिरतोन म जम्मो गहना-गुरिया ल सिंगार के लछमी दाई ह सउँहत हमर छत्तिसगढ़ म बइठे हावय। तभे तो छत्तिसगढ़ ल ''धान के कटोरा'' केहे जाथे। गमछा, लुँहगी, बंडी म लपटाय बनिहार किसनहा मन धरती दाई के सेवा बजावत घातेच सुग्घर लागथे। लुगरा, पोलखा पहिरे मुड़ ल ढाँके दाई-दीदी मन ल देखके लागथे कि जम्मो भारत भर के इात अउ संस्कार ह इही छत्तिसगढ़ म बसे हावय।
जउन किसम ले हम छत्तिसगढ़िया मन के जम्मो रासा-बासा अलग हावय उही किसम ले हमर खानपान घलो अलग हावय। बटकी म बासी चुटकी म नून निहीं त नून अउ मिरचा के भुरका चटनी कोन छत्तिसगढ़िया ल नई सुहावय। तिंवरा भाजी के गुरतुर सुवाद तो हमिच मन लेथन। देवारी के फरा, होरी के अइरसा, तीजा के ठेठरी-खुरमी, हरेली के चीला कस खाजी, रोटी-पीठा भला हमर छोंड़ दुसर मन देखे होहीं? तभे तो हम धरती म सोना उपजाए के ताकत राखथन। अथान, चटनी के ममहई ह मुहूँ म पानी लान देथे। चना-बटुरा अऊ तिवरा के होरा, तेंदू-चार के पाका, जिमीकाँदा के खोईला, रखिया के बरी के सुवाद ल हम छत्तिसगढ़िया ल छोंड़ के कोनो दूसर पाय होही?
जम्मो छत्तिसगढ़ के दरसन तो सिरिफ इहाँ के लोककला म देखे बर मिलथे। रात भर गली के धुर्रा-माटी म रमंज-रमंज के हँसई ह मनोरंजन संग गियान के भंडार घलो होथे। सुवा, करमा, ददरिया, राऊत नाचा, पंथी ह तो इहाँ के थाती आय। ढोला-मारू, लोरिक चंदा ह इहाँ परेम के संदेस देथे त भरथरी, पंडवानी ह भक्ति भाव म बुड़ो देथे। ये सब हमर लोक कला के नकल कोनो नई कर सकय। भला हमर पंडवानी ल कोनो हिन्दी, अंगेरजी म गा सकत हें का? समे के संग अब यहू मन छत्तिसगढ़ के इतिहास बनतेच जात हे। हमन दूसरे के देखा-सीखी नकल उतार-उतार के एकर सुद्धता बिगाड़ के ''धोबी के कुकुर कस घर के न घाट के'' बरोबर बना डारत हन। आजकल छत्तिसगढ़ी एलबम ह तो बम गिरातेच हावय अउ छालीवुड ह तो इहाँ के संसकिरती के, लोककला के फोकला निकालत हावय।
हमर देस लोकतंतर देस हाबय। हम ल जम्मो धरम ल माने के अधिकार, भाखा, खाए-पिए के हक हावय। त एकर पाछू इहाँ के संसकिरती, भाखा ल खिचरी बना देबो का? इहाँ के बिहाव के नेंग-जोग, चुलमाटी, पस्तेला, भड़ौनी, छट्ठी-बरही जेन ल मेटाय बर हमन हमरेच गोड़ म टँगिया मारत हन। इहाँ के जम्मो चिनहा बाखा, संस्कार ल हमर हाथ म गँवावत जावत हन त काल के दिन म ये सब ल गोड़ म खोजबो त पाबो? का छत्तिसगढ़ के इही दुरगति करे बर हमन छत्तिसगढ़ म जनम धरे हन? का हमन ल छत्तिसगढ़िया कहाए बर, छत्तिसगढ़ी बोले बर सरम लागथे? ''घर जोगी जोगड़ा'' कस ये भुइयाँ के हाल होवत जात हे। कभू सोंचे हन एमा हमर कतका हाथ हे? का ए भाखा, संसकिरिति ल सहेज के राखे के जुवाबदारी हमर नई बनय? का ए भाखा, संसकिरिति ह देहतिया, गँवईहा मन के चिन्हारी आय? का हमन हमर भाखा, संसकिरिति लोककला ल दूसर भाखा-बोली, पहिराव, ओढ़ाव, संसकार संग मिंझार के ''दार-भात खिचरी'' बना देबो? फेर हमर का चिन्हारी रइही? अगर दार-भात खिचरी बनानच हे त अपन भाखा के, बोली के लोककला के, संसकिरिति के, खान-पान के, पहिराव-ओढ़ाव के खिचरी बनावन अउ छत्तिसगढ़ के आत्मा ल जियत राखन।
जोहार छत्तिसगढ़।
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भागीरथी आदित्य, ग्राम-अन्दोरा, गरियाबंद
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