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रविवार, 22 नवंबर 2015

मनखे बर बरदान... तुलसी के बिरवा

संगवारी हो हमर संस्किरिति अऊ परमपरा म रूख.राई के बड़ महातम बताय गे हे। वो रूख-राई म तुलसी के बिरवा हे जेकर नाव घलो ल बड़ पबरित के साथ लेय जाथे। जम्मो बिरवा म तुलसी के बिरवा ल परमुख बताय गे हे। हमर घर म माइलोगन मन तुलसी के बिरवा के पूजा-पाठ कई जुग ले करत आवत हे। तुलसी के बिरवा हिन्दुमन के अलावा बौद्ध, जैन अऊ सिख धरम म समान रूप ले सनमानित हे। पराचीन संत के संगे-संग पुरान अऊ नीति सास्त्र के लोककथा मन म तुलसी के बरनन घातेच मिलथे। ग्रीस के चर्च म तुलसी
के पूजा आज भी होथे अऊ सेंत बिजली जयंती के दिन तुलसी के परसाद ल माइलोगन घर-घर म बगराथे। पुरान के कथा अनसार सागर मंथन म चउदा रतन निकलिस जेमा एक तुलसी घलो रिहिस तुलसी म लवछमी के निवास होथे एकरे सेति पंचामरित य तुलसी के दल डाले जथे। माने जथे के भगवान बिन तुलसी के कोनो परसाद ल गरहन नई करय। तुलसी के महिमा के बखान करत गाँव के माइलोगन गीत गाथे के- 
‘‘पानमंजरी काढा बनाबो जरी पेंड़ कंठी माला। 
तोर महिमा ल गाबो जय हो उसी माता।।’’ 

पदमपुरान के अनुसार जे घर म तुलसी के बिरवा हाबे उहाँ तिरदेव बरमहा, बिस्नु अऊ महेस के बास होथे। तुलसी के जरी म जम्मो तीरथ, बीच म जम्मो देवता अऊ उपर के डारा म जम्मो बेद के निवास माने गे हे। संस्किरित म तुलसी ल ‘‘हरिपिरया’’ केहे गेहे। पुरान के कथा के अनुसार राजा भिरगु ले नारद केहे रिहिस के तुलसी के बिरवा के पुजा करे ले ओतके कन फल मिलथे जतका गंगा नहाय म। मरनी के बेरा म जेन मनखे ह तुलसी के बिरवा तीर अपन परान तियागही ओला जमराज ह नई देख पाय चाहे मनखे कतको पापी राहय। बरम्हवैबर्त पुरान म बताय गेहे -

‘‘त्रिलोकेषु च गुल्घाणं वृक्षाणां देवं पुजने।
प्रधान रूपा तुलसी भविष्यति वरानने।।’’

संगवारी हो एखर मतलब हे के तीनो लोक म जतका बिरवा हे ओ जम्मो म तुलसी सरेस्ठ हे। पुरान म तुलसी ल भगवान किरिस्न धरमपत्नि केहे गे हे एकरे सेती हर जग, हवन, उपासना अऊ पुजा-पाठ म तुलसी जरूरी हे। तुलसी के बिरवा अँगना के न सिरफ सोभा बढाथे बल्कि घर के मनखे मन ल सुद्ध हवा घलो देथे। तुलसी, पीपर, बर अऊ लीम ए चारो रूख ह रतिहा म घलो आकसिजन देथे बाकी जम्मो रूख-राई मन रतिहा कारबन डाइ आकसाइड छोंरथे। एकरे सेती ए चारो रूख धारमिक महत्व के संगे-संग अधयातमिक महत्व घलो राखथे। नारद पुरान म केहे गेहे के हुलसी के बिरवा ल पानी अरपित करइया, तुलसी के जरी करा के माटी के टिका लगइया, तुलसी के चारोखुँट काँटा के घेरा करइया अऊ तुलसी के पत्ता ले भगवान बिस्नु के पुजा करइया ल जनम-मरन के चक्कर ले मुक्ति मिल जथे। बाहनमन ल तुलसीदल अरपित करे ले तीन पीढ़ी तक ले बरम्हलोक म जघा मिलथे। तुलसी के अतेक महातम के एला जुठा हाथ म छूए तक नई जाय। परसाद के साथ तुलसीदल के परयोेग सुभ फलदाईं माने जथे। जऊन घर म तुलसी के बिरवा रइथे। वो घर म सुख, समरिद्धि, सांति अऊ संपननता रइथे। घर के वास्तु दोस ह घलो तुलसी के बिरवा लगाय ले सिरा जथे। तुलसी के पत्ती म कईठन गुन समाय रहिथे। मलेरिया के हवा ल सिरवाय बर तुलसी के पत्ती रामबान आवय। 

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दिनेश रोहित चतुर्वेदी
खोखरा, जांजगीर

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

छत्तीसगढ़ धान का कटोरा है

कारण और निदान

कर्म संस्कृति का जनक है और संवाहक भी। व्यक्तिसः या सामूहिक रुप से किये गये धर्मनिष्ठ कर्म का कालान्तर में पुनरावृत्ति होते रहने से सांस्कृतिक अस्तित्व का आविर्भाव होता है। ऐसे बहुत से कर्म हैं जिसे हम कर्तव्य निर्वहन, हित संवर्धन या मानवता की वेदी पर रखकर जाने-अनजाने संपादित तो करते हैं, किंतु उनका
दूरगामी परिणाम इतना सुखद और लोक-मंगलकारी होगा, इसकी कल्पना भी नहीं किये होते हैं। कुछ ऐसी ही एक घटना इतिहास के गर्भ में छुपी हुई है, जिसके कारण छत्तीसगढ़ “धान का कटोरा” बन गया। कविवर श्री लक्ष्मण मस्तुरिया का गीत मोर छत्तीसगढ़ ला कहिथे भइया “धान के कटोरा”, इसे वर्तमान में जन-जन तक रमा दिया है। 
पूरी दुनिया में छत्तीसगढ़ ही एक ऐसा प्रदेश है जिसे “धान का कटोरा से संबोधित किया जाता है। इस प्रकार का संबोधन अन्य देश या प्रदेश के लिए नहीं मिलता। एक दूसरा संबोधन - उत्तरी अमेरिका के प्रेयरी प्रदेश के लिये है। उसे “रोटी की टोकरी” कहा जाता है। प्रेयरी प्रदेश “रोटी की टोकरी” है तो छत्तीसगढ़ “धान का कटोरा”। इन दोनों शब्दों के वजन और अर्थगत अंतर से आप सभी भलीभाँति परिचित हैं, तथापि अंतरपक्ष पर विहंगम दृष्टि डालने पर -
  • “कटोरा” धातु निर्मित होता है, इस कारण यह काफी मजबूत, वजनी और मूल्यवान होता है, किंतु “टोकरी” बाँस से बनी होने के कारण कमजोर, हल्की और सस्ती होती है। 
  • “रोटी की टोकरी” से आशय है- गेहूँ उत्पादक क्षेत्र और “धान का कटोरा” से आशय धान उत्पादक क्षेत्र से है। धान के फसल के लिए खेत में पानी देर तक भरा रहना चाहिये। इसलिये धान क्षेत्र के लिए “कटोरा” और गेहूँ फसल के लिये जमीन में केवल नमी चाहिये। इसलिये गेहूँ क्षेत्र के लिये “टोकरी” शब्द का उपयोग पूर्वजों द्वारा किया गया है। क्योंकि “कटोरा” में भरा हुआ पानी देर तक रहता है और “टोकरी” में पानी भरें भी तो वह शीघ्र रीस जाता है। दोनों प्रदेशों की भौगोलिक स्थितियाँ ठीक इसके अनुकूल हैं। 
  • कीमत की दृष्टि से धान मँहगा अनाज है। गेहूँ धान की तुलना में सस्ता है। 
  • धान में भरण-पोषण की क्षमता अधिक होती है। प्रति एकड़ उत्पादन भी अधिक होता है। परिणाम स्वरूप धान उत्पादक क्षेत्र धन-जन से सुसंपन्न होते हैं, जबकि गेहूँ में भरण-पोषण की क्षमता कम तथा प्रति एकड़ उत्पादन भी कम होने के कारण वहाँ की स्थिति धन-जन से कमजोर होती है। 
इस प्रकार छत्तीसगढ़ भारत-माता की गोद पर बसा विश्व का एक ऐसा महान प्रदेश है जिसे “धान का कटोरा” जैसे संपन्नता बोधक शब्द से नवाजा गया है। तभी तो लक्ष्मण मस्तुरिया अपने गीत में आगे कहते हैं- लक्ष्मी दाई के कोरा भइया, “धान के कटोरा”। 

प्रश्न अब भी अपने जगह पर स्थिर है कि छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा होने का गौरव कैसे प्राप्त हुआ ? इसका रहस्य इस ऐतिहासिक घटना के गर्भ में निहित है। 

इस वसुंधरा पर भगवान का अवतार किसी कारण विशेष के निमित्त ही नहीं प्रत्युत अनेकानेक कारणों से होते हैं। उन समस्त कारणों के मूल में जनकल्याण एवं धर्म स्थापना की भावना होती है। इसी तारतम्य में एक बार धर्म स्थापना एवं जनकल्याण के निमित्त भगवान शंकर भगवती सती के साथ ग्राम चौरेल के गौरैया प्राँगण में पधारकर लीला सम्पन्न किये। यह लीला प्रचलित किवदंतियों पर आधारित त्रेतायुगीन है। 

त्रेतायुग में तपस्वी वेशधारी एवं पत्नी-वियोग से व्यथित श्रीरामचंद्र जी को देखकर भगवती सती को उनके सच्चिदानंद होने पर संदेह उत्पन्न हो गया। इस संदेह के निवारणार्थ जब भगवान शंकर ने परीक्षा लेने की बात कही तो भगवती सती ने सीता का रूप धारण कर श्रीरामचंद्र जी की परीक्षा ली। इस घटना के पश्चात भगवान शंकर और सती इसी “गौरैया” स्थान पर पधारे। 

संध्याकालीन भोजन हेतु भगवती सती चावल चुनकर जल लेने बावली चली गईं। भगवान शंकर समय का उपयोग करते हुए ध्यान में बैठ गये। जब सती जल लेकर वापस लौटीं तो देखती हैं कि- गौरैया नामक चिड़िया चुने हुए चावल को चुग रही है। सती के पास आने पर गौरैया चिड़िया अपने चोंच में कुछ दाने दबाकर उड़ गई। देखने में यह घटना बहुत छोटी और सामान्य लगती है, किंतु चिड़िया के इस कार्य से भगवती सती धर्म-संकट में पड़ गईं। चावल चिड़िया द्वारा जूठा कर दिया गया। जूठे चावल को जान बूझकर स्वामी को खिलाना धर्म विरुद्ध है और दूसरा चावल भी नहीं है जिससे भोजन बनाया जा सके। स्वामी को बिना भोजन कराये भूखे विश्राम कराना भी पत्नी धर्म के विरुद्ध है। इस धर्म संकट का मूल कारण चावल चूगने वाली गौरैया चिड़िया थी। इस कारण उस चिड़िया के इस व्यवहार से क्षुब्ध भगवती सती माता ने धर्म-संकट के निवारणार्थ भगवान शंकर से प्रार्थना करने लगी। इससे भगवान शंकर का ध्यान भंग हो गया सती माता ने पूरा वृतांत सुनाकर नारी धर्म निर्वाह के मार्ग में उत्पन्न समस्या का समाधान करने तथा उस चिड़िया से चावल वापस लाने के लिये निवेदन की। चावल के वापस नहीं आने से क्षेत्रवासियों के समक्ष क्षुधा पूर्ति की विकट समस्या आ जाती। भगवान शंकर ने सती के वचनों में जनकल्याण की पवित्र भावना देखकर अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। वहाँ से क्रोध का जन्म हुआ जो गौरैया चिड़िया का पीछा करने लगा। 

गौरैया चिड़िया तब तक काँकेर की उत्तरी पहाड़ी तक पहुँच चुकी थी। वहाँ देवपरियाँ संध्या भ्रमण कर रही थी। उनके पास जाकर गौरैया चिड़िया त्राहिमाम! त्राहिमाम!! क्रंदन करने लगी। 

देवपरियाँ असहाय चिड़िया की करुण पुकार सुनकर रुक गई। प्रथम देवपरी कौतुहलवश पूछने लगी -क्या बात है ? किससे रक्षा? कौन सा संकट?

चिड़िया- भगवान शंकर जी के क्रोध से रक्षा। मेरे प्राण-रक्षा का संकट, देवियों ! 

दुसरी देवपरी- भगवान शंकर के क्रोध से तुम्हारी रक्षा? तुम्हारे प्राण का संकट ? बात समझ नहीं आ रही है, स्पष्ट करो। 

चिड़िया- आप सभी देख रहे है मै एक छोटी सी चिड़िया हूँ। मुझे गौरैया के नाम से जानते हैं। मेरा जीवन प्रकृति पर आधारित है। प्रकृति द्वारा जो मेरे भोजन के योग्य मिलता है वही मेरा भोजन होता है। आज मुझे चावल मिला। मैं उसे खा ही रही थी कि माता सती आ पहुँचीं। मुझे क्या पता था कि माता सती ने भोजन पकाने के लिए उसे चुन कर रखी हैं। मुझे चावल चुगते हुए देखकर चावल जूठा हो जाने की बात को नारी धर्म पालन मे अवरोध उत्पन्न होने का विषय बना लीं, और भगवान शंकर का ध्यान भंग कर धर्म पालन करने के लिये मार्ग प्रशस्त करने का हठ करने लगीं। भगवान शंकर का तीसरा नेत्र खुल गया। जिससे उत्पन्न क्रोध मेरा पीछा कर रहा है। मेरी रक्षा कीजिये। 

तीसरी देवपरी- प्रकृति आधारित दैनिक क्रियाओं पर सामान्य व्यक्ति भी क्रोध नहीं करता। भगवान शंकर कैसे क्रोधित होंगे ? 

प्रथम देवपरी - हाँ गौरैया ! यह कैसे संभव है? भगवान तो करुणानिधान हैं, क्रोध कैसे करेंगें। 

चिड़िया - पर सच्चाई तो यही है देवियों। मैं क्या करूँ ? 

तीसरी देवपरी - अगर तुम्हारी बातें सत्य हैं तो इस घटना के पीछे कोई लीला का आभाश होता है। इस लीला के लिए तुम निमित्त बनी हो तो इसे अपना सौभाग्य मानो गौरैया; भगवान शंकर के शरण में जाओ। 

पहली और दूसरी परी - हाँ गौरैया ! भगवान शंकर के शरण में जाओ, तुम्हारा अवश्य कल्याण होगा। 

चिड़िया- जैसी आप लोगों की आज्ञा। 

देवपरियों से चर्चा के दौरान चिड़िया की चोंच में दबा चावल जमीन पर गिर गया। अब तक क्रोध गौरैया चिड़िया के पास तक पहुँच चुका था। जब उसे अपने गिरफ्त मे लिया तो क्रोध के ताप से चिड़िया का शरीर झुलसने लगा। ब्याकुल होकर चिड़िया भगवान शंकर का स्मरण कर बोली - हे देवाधिदेव ! मुझे अपने शरण में लीजिये। मेरे प्राण की रक्षा कीजिये। मेरी गलतियों पर मुझे क्षमा कीजिये प्रभु !

इस प्रकार भगवान शंकर के शरणागत होते ही गौरैया चिड़िया की शारीरिक व्याकुलता समाप्त हो गई और क्रोध के साथ जाने लगी। इस किवदंती के अनुसार पूर्व में गौरैया चिड़िया का रंग सफेद था, किंतु क्रोध के ताप के प्रभाव से उसका पंख हल्का भूरा और काला हुआ है। ज्ञातव्य है कि गौरैया चिड़िया को ब्राह्मण पक्षी भी कहा जाता है। ब्राहमणों की धर्मपरायण्ता, न्याय प्रियता एवं पवित्रता का भाव प्रथमतः उनके स्वेत वस्त्रों से सूचित होता है। कुछ ऐसे ही भाव से गौरैया चिड़िया को उनके श्वेत वर्ण और गृहों में वास करने के कारण ब्राह्मण पक्षी तो आज भी कहा जाता है, किंतु उनका वर्ण इस घटना के बाद से बदल गया। 

गौरैया चिड़िया त्राहिमाम् ! त्राहिमाम्! करती हुई भगवान शंकर और माता सती के समक्ष उपस्थित हुई। भगवान शंकर ने सती को प्रश्न भरे नजरों से देखा तो माता सती ने अपनी योग शक्ति से एक नारी प्रतिमा को अवतरित किया और उस प्रतिमा को प्राण-दान देने के लिये भगवान शंकर से निवेदन की। भगवान शंकर ने उस प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की और पूरे क्षेत्र में अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूज्य होने का आशीर्वचन प्रदान किया। 

भगवान शंकर अर्थात्‌ गोंड़ जाति का ईष्ट देव “गौरा” तथा सती अर्थात “गौरी” दोनों की दिव्य शक्ति से उत्पन्न होने के कारण उसे “देवी गौरैया माता” के नाम से प्रसिद्धि मिली। ज्ञातव्य है कि सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ दंडकारण्य का महत्वपूर्ण अंग रहा है। दंडकारण्य गोंडवाना प्रदेश में आता है यहाँ गोंड़ जाति की बहुलता रही है। गोंड़ जाति में आज भी गौरी-गौरा की पूजा एवं विवाहोत्सव बड़े धूमधाम के साथ दीपावली की रात को मनाया जाता है, जिसमें सभी ग्राम एवं नगरवासी शामिल होते हैं। इस देवी के अवतरण का कारण गौरैया चिड़िया रही है। इस कारण चिड़िया के नाम के आधार पर भी “देवी गौरैया माता” के नाम से विख्यात हुई ऐसा माना जा सकता है। माता सती ने भगवान से पुनः निवेदन की- “हे स्वामी ! इस क्षेत्रवासीयों के जीवन निर्वाहक सामाग्री चावल को गौरैया चिड़िया द्वारा उठा लिया गया है। इससे क्षेत्रवासी अतृप्त क्षुधा से ग्रसित हो जायेंगे। उनकी भोजन व्यवस्था का उपाय कीजिये।” 

भगवान शंकर लोककल्याण की भावना देखकर तनिक मुस्काए, फिर गौरैया चिड़िया के चोंच से गिरे हुए चावल को आशीष देते हुए कहा- तुम उसी स्थान से नदी के रूप में प्रवाहित होकर देवी गौरैया का पग-प्रक्षालन करते रहोगे। देवी गौरैया के चरण-स्पर्श होने पर तुम्हारे जल का जहाँ तक विस्तार होगा वह पूरा क्षेत्र चावल उत्पादन के लिए प्रसिद्ध होगा। 

इस प्रकार नदी की उत्पत्ति चावल के गिरे हुए दानों से हुई मानी जाती है। चावल को संस्कृत में “ताँदुल” कहा जाता है। इस कारण नदी का नाम “ताँदुला” पड़ा। 

ज्ञातव्य है कि ताँदुला, शिवनाथ नदी तथा शिवनाथ महानदी की सहायक नदी है। महानदी बेसीन संपूर्ण छत्तीसगढ़ में फैले होने के कारण ताँदुला का जल संपूर्ण छत्तीसगढ़ में सिंचित होता है। इस कारण देश में सर्वाधिक चावल का उत्पादन छत्तीसगढ़ में होता है। संभवतः यही कारण है कि छत्तीसगढ़ को “धान का कटोरा” होने का गौरव प्राप्त हुआ है। 

देवी गौरैया माता का यह पावन प्रांगण ग्राम-चौरेल की पूर्वी सीमा पर स्थित है। प्रांगण के पूर्वी भाग से ताँदुला नदी प्रवाहित होती है, जो वास्तु के विचार से अत्यंत उत्तम है। 

“चौरेल” का अर्थ है- चावल+रेला (प्रचुरता) अर्थात जहाँ प्रचुर मात्रा में चावल होता हो। बुजुर्गों के अनुसार चौरेल के चावल की प्रसिद्धि बालोद, दुर्ग, राजनादगाँव, बेमेतरा, और कबीरधाम जिले तक फैली हुई थी, किंतु वर्तमान वैज्ञानिक उर्वरकों एवं औषधियों के प्रयोग से स्थिति में अब परिर्वतन मिलता है। 

एक दूसरी किवंदती के अनुसार चौरेल का प्राचीन नाम “चौरागढ़” था। यहाँ चौरस नामक सम्राट का साम्राज्य था। उस सम्राट का विवाह “बोड़की” नामक कन्या से हुआ था। बोड़की रामायण की शबरी जिसने भगवान श्रीरामचंद्र जी को जूठे बेर खिलाई थी, की सगी बहन थी। बोड़की की प्रतिमा चौरेल भाँठा (मैदान) में आज भी अनगढ़ शिला-रूप में स्थित है। उस मैदान को “बोड़कई भाँठा” के नाम से जाना जाता है, चूँकि बोड़की भील जाति की आदिवासी महिला थी। आदिवासियों की प्रवृत्ति के अनुरूप बोड़की की प्रवृत्ति भी मदिरापान करने की रही होगी। शायद इसी कारण बोड़कई भाँठा में महुआ वृक्षों की अधिकता रही हो, जो आज भी आंशिक रूप में मिलता है, किंतु उस मैदान को “मउहारी भाँठा” न कहकर “बोड़कई भाँठा” के नाम से जाना जाता है, क्योंकि उसी मैदान पर संभवतः बोड़की का निवास भवन रहा हो। “चौरस” नामक सम्राट के नाम पर इस राजधानी का नाम “चौरागढ़” पड़ा था, जो अब परिवर्तित होकर “चौरेल” के नाम से जाना जाता है। यह चौरेल, गुण्डरदेही-विकासखण्ड, जिला-बालोद में स्थित है। 

इस प्रकार भगवान की अमृत कथा को अपने हृदय में सहेज कर रखने वाले चुनिंदा स्थानों में एक नाम चौरेल भी है, जहाँ माँ गौरैया वास करती हैं। 
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चंद्रकुमार चंद्राकर, अर्जुन्दा





सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

तुलसी के आरोग्यकारी गुण

तुलसी एक निरापद एंटिबॉयोटिक औषधि है। इसे सर्वरोगहारी कहा जाता है। यह औषधि शारीरिक एवं मानसिक रोगों का शमन करती है। हमारी धर्मशास्त्रों में इसकी महिमा गाई गई है। आयुर्वेद की दृष्टि से भी इसे अनेक रोगों में प्रभावकारी पाया है। तुलसी का पौधा भी पीपल की तरह सतत्‌ ऑक्सीजन प्रदान कर मानवमात्र के लिए परम कल्याणकारी है। विकिरण के दुष्प्रभाव को दूर करने का गुण तुलसी में है। तुलसी के दो प्रकार हैं-  एक रामा तुलसी, जिसके पत्ते हरे होते हैं तथा दूसरी श्यामा, जिसके पत्ते काले होते हैं। आयुर्वेद ने दोनों के गुण समान बताए हैं।
खाँसी में- अड़ूसे के पत्ते का रस एवं तुलसी के पत्तों के रस को शहद के साथ मिलाकर सेवन करने से खाँसी में बड़ा लाभ होता है। अदरक के रस के साथ तुलसी के पत्तों का रस, काली मिर्च के साथ सेवन करने से खाँसी का वेग शांत होता है।
दाँतों के दर्द में- तुलसी के पत्ते काली मिर्च के साथ पीसकर छोटी-छोटी सी गोली बनाकर दर्द वाले दाँतों के बीच दबाकर रखने से दाँत दर्द बंद होता है।
पीनस रोग में- तुलसी के पत्ते या मंजरी को पीसकर कपड़े से छान कर चूर्ण बना लेना चाहिए तथा इसे नस्य के रूप में सुँघाना चाहिए। इससे नाक से बदबू आना बंद हो जाता है। मस्तिष्क के कृमि नष्ट हो जाते हैं।
कान की पीड़ा- तुलसी के पत्तों का रस निकालकर हलका गरम करके 2-3 बूंद कान में टपकायें। इससे कान का दर्द बंद हो जाता है। तुलसी के पत्तों का रस दो भाग तथा सरसों का तेल एक भाग मंद आग पर गरम कर सिध्द तेल बना लें। यह तेल जब भी कान में दर्द हो, 1-2 बूंद डालने से कान की पीड़ा दूर होती है।
दाद में- चर्मरोगों में तुलसी को बड़ी प्रभावी औषधि माना गया है। तुलसी के पत्तों को पीसकर उसमें नीबू का रस मिलाकर कुछ दिन तक दाद पर लगाने से (लेप करने से) दाद समाप्त हो जाता है।
अन्य चर्मरोगों में- तुलसी के पत्तों को गंगाजल में पीसकर नित्य लगाने से सफेद दाग मिट जाते हैं। तुलसी के पत्तों का रस दो भाग तथा तिल का तेल एक भाग लेकर मंद आँच में पकायें। ठीक पक जाने पर छान लें। यह तेल खुजली इत्यादि चर्मरोगों में भी लाभकारी है।
चेहरे के सौंदर्य के लिये- चेहरे के सौंदर्य के लिये तुलसी के पत्तों को पीसकर उबटन लगायें।
मलेरिया में- एक गिलास पानी में 21 तुलसी के पत्ते एवं 2 काली मिर्च पीसकर डालें तथा इस पानी को उबालें जब आधा पानी शेष रहे तब उतारकर ठंडा करें। चाय की तरह यह काढ़ा रोगी को पिला दें, इससे पसीना आकर ज्वर दूर होगा।
सर्प विष में- तुलसी विषनाशक है। सर्पदंश की स्थिति में तुलसी के पत्तों का रस अधिक से अधिक मात्रा में मिलायें तथा तुलसी की जड़ को घिसकर शरीर में दंशस्थल पर लेप करें। सर्पदंश से पीड़ित रोगी यदि बेहोशी में हो तो उसके कान एवं नाक में तुलसी के पत्तों का रस डालना चाहिए। इससे बेहोशी दूर होगी एवं सर्पविष का प्रभाव दूर हागा। केले के तने का रस भी तुलसी के पत्तों के रस के साथ देने से बड़ा प्रभावकारी होता है।
दस्त में- तुलसी के पत्तों का काढ़ा बनाकर उसमें थोड़ी मात्रा में जायफल पीसकर मिला दें और रोगी को पिला दें, इससे लाभ होता है। 200 ग्राम दही में तुलसी के पत्ते 1 ग्राम पीसकर मिला दें तथा 3 ग्राम ईसबगोल, 5 ग्राम बिल्व चूर्ण (बेलचूर्ण) भी मिला दें, इससे पतले दस्त में लाभ होगा।
उल्टी में- उल्टी की स्थिति में तुलसी के पत्ते का रस शहद के साथ चटाते हैं। अदरक का रस, तुलसी के पत्ते का रस, छोटी इलायची के साथ पीसकर देने से उल्टी बंद हो जाती है।
गठिया रोग में-तुलसी में वातनाशक गुण है। तुलसी के काढ़े के प्रयोग से नाड़ियों का दर्द, बंद हो जाता है। यदि जोड़ों का दर्द हो रहा हो तो तुलसी के पत्तों का रस पीते रहने से लाभ होता है। मोच एवं चोट पर पत्तों के रस की मालिश की जाती है। तुलसी के पंचांग को पानी में उबालकर भाप लेने से भी जोड़ों के दर्द, लकवा, गठिया इत्यादि में लाभ होता है।
मुँह की दुर्गंध में- प्रात: स्नान के पश्चात पाँच पत्ते जल के साथ निगल लेने से मुँह की दुर्गंध एवं मस्तिष्क की निर्बलता दूर होती है। स्मरणशक्ति तथा मेधा की वृध्दि होती है।
सिरदर्द में-आधासीसी के दर्द में तुलसी की छाया में सुखाई मँजरी 2 ग्राम लेकर शहद के साथ सेवन कराने से लाभ होता है। काली तुलसी की जड़ का चंदन की तरह घिसकर लेप करने से सिरदर्द मिटता है। तुलसी के सूखे पत्तों का चूर्ण या बीजों का चूर्ण पीसकर कपड़े से छान लें तथा सूँघने की तरह सूँघने से सिरदर्द मिटता है।
बालतोड़ में- तुलसी के पत्ते तथा पीपल की कोमल पत्तियों को पीसकर दिन में दो बार लेप करने से लाभ होता है।
बच्चों के पेट फूलने पर- अवस्थानुसार 1-2 ग्राम तुलसी के पत्ते का रस पिलाने से लाभ होता है।
पेट के कीड़े- तुलसी के 11 पत्ते पीसकर 1 ग्राम बायबिडंग चूर्ण तथा ताजे जल के साथ सुबह-शाम देने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।
प्रदर रोग में- अशोक के पत्तों और तुलसी के पत्तों का काढ़ा बनाकर कुछ दिन देने से लाभ होता है।
हिचकी एवं अस्थमा में-10 ग्राम तुलसी के रस में लाभ होता है।

झूठ का सहारा न लें शादी के रिश्ते में

जब अपने पुत्र या कन्या की शादी करनी हो तो कुछ माता-पिता अपने बच्चों के बारे में होनेवाले नये रिश्तेदारों को गलत जानकारी देते हैं। यदि इस आधार पर कोई रिश्ता तय हो जाता है तो उसका भविष्य में गंभीर परिणाम हो सकता है। 

इस मामले में विशेषतया लड़की के माता-पिता यदि लड़के के पक्ष को अपने बेटी की झूठी प्रशंसा तथा अनावश्यक जानकारी पहुँचाये और यदि इसके पश्चात विवाह हो जाता है तो शादी के बाद लड़की का सांसारिक जीवन कष्टमय बन सकता है। 

ललिता एम.ए. अनुतीर्ण थी। उसकी शादी होनेवाली थी तो उसके पिताजी ने वर के पिता को यह सरासर झूठ बताया कि उनकी बेटी एम.ए. पास है। शादी के बाद जब ललिता के पति को यह अवगत हुआ कि वह एम.ए. पास नहीं है तो उसको मायके पहुँचा दिया गया और यह हिदायत दी गयी कि जब वह एम.ए. पास हो जाए तभी अपने ससुराल आए। 

सरोज की शादी तय होने के पहले सरोज के माता-पिता ने वर पक्ष को यह जानकारी पहुँचाई कि सरोज को गायन में बड़ी रुचि है। वह अच्छा गाती है। लड़केवाले बहुत खुश हुए शादी के बाद जब सरोज पहली बार ससुराल गई तो उसके घर के सभी छोटे सदस्य उससे कोई गीत सुनने की जिद्द करने लगे। सरोज चुप रही सबसे छोटे देवर ने कहा “भाभाजी, हमने सुना है कि आप बहुत अच्छा गाती हैं। वैसे यदि अभी कोई गीत गाने का मन न हो तो सिर्फ गुनगुना दीजिये। गाना आपसे फिर कभी सुन लेंगे।’’ 

सरोज से जब नहीं रहा गया तो उसने कहा, “मैं गाना नहीं गा सकती। मुझे गीत भी गुनगुनाना नहीं आता। आपको किसने बता दिया कि मैं गायिका हूँ?’’

यह सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ। सरोज की ओर सभी देखते रहे। इससे सरोज के पति और सास-ससुर को बड़ा दु:ख हुआ कि सरोज के माता-पिता ने शादी के पहले उसकी झूठी प्रशंसा की। 

ज्योति के विवाह के लिए उसके माता-पिता प्रयास कर रहे थे। परंतु कहीं भी बात नहीं बन पा रही थी। लड़केवाले देखने आते और ज्योति को चश्मा लगा देखकर उसे नापसंद कर चले जाते थे। जब एक रिश्तेदार को बिना चश्मा लगाये ज्योति को दिखाया गया तो उसे पसंद कर लिया गया। ज्योति की शादी हो गई। 

शादी के बाद ससुराल में ज्योति ने चश्मा लगाया तो उसक ससुराल के सभी सदस्यों को ताजुब हुआ। 
“बहू, तुमको चश्मा लगता है?’’
सास ने सवाल किया, “कितने पॉवर का है?’’
“ज्योति, क्यों लगाती हो, तुम यह चश्मा?’’ ज्योति के पति ने जानना चाहा। 
“चश्मा न लगाने से मेरा सिरदर्द करता है, इसलिए इसे लगाती हूँ,’’ ज्योति ने कहा,
“यदि मैं यह जानता कि तुम्हारी आँखें कमजोर है और तुम्हें चश्मा लगता है तो मैं तुमसे शादी कभी न करता’’ ज्योति के पति ने नाराजगी व्यक्त की। 

वंदना के हाथ और पैर पर सफेद दाग थे, जब शादी तय हुई थी तो लड़केवालों से यह बात छुपाई गई थी, शादी के बाद जब वह सफेद दाग वंदना के पति और सास ने देखे तो उसे सीधे उसके मायके पहुँचा दिया गया। 

लड़कियों के माता-पिता ही नहीं, बल्कि लड़कों के माता-पिता तथा रिश्तेदार भी दहेज के लालच में अच्छे घराने के लड़की से शादी, लड़के की झूठी तारीफ करके करते हैं, ऐसे अनेक उदाहरण हमारे भारतीय समाज में देखने-सुनने को मिलते हैं। 

झूठी प्रशंसा का आधार बनाकर जो शादी होती है, उसमें कभी भी दरार पड़ने की आशंका बनी रहती है-ऐसे रिश्ते अटूट नहीं रह पाते। लड़की का जीवन दुखमय बन सकता है। ससुराल में उसे सबके ताने सुनने पड़ते हैं। कहा जाता है एक झूठ छुपाने के लिए कई बार झूठ बोलना पड़ता है फिर भी झूठ की पोल एक दिन खुल ही जाती है। इसलिए जब शादी तय हो तो खास तौर पर लड़कीवाले वर पक्ष को तथा रिश्तेदारों को अपनी कन्या के बारे में गलत जानकारी न दें और न ही अनावश्यक और झूठी तारीफ करें।
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-पांडुरंग भोपले ग्राम व पोस्ट-सारसी (कोठोड़ा)

रविवार, 16 मार्च 2014

सराररा सुन ले मोर कबीर

होली का पर्व अटूट प्रेम का प्रतीक है। भक्त पर भगवान का अटूट प्रेम। प्रकृति भी प्रेम-रंग से सराबोर हो जाती है। पलास वृक्ष के लाल पुष्प- गुच्छों की छटा, भौरों का गुंजार, कोयल की मीठी कूक जन-मन में अद्भुत खुशियों का संचार करती है। लोग झूमते हैं, गाते हैं, एक-दूसरे से गले मिलते हैं जिससे शारीरिक ऊष्मा में वृद्धि हो जाती है। इस ऊष्मा का शमन करने के लिए पलास के रंग का एक-दूसरे पर छिड़काव कर स्नान किया जाता है। ताकि बंधुत्व (प्रेम) भाव का जोश लंबे समय तक बना रहे। लिया है।


आप भी इस बात से परिचित होंगे कि- होली में फाग-गीत गाने के पूर्व कबीर के दोहे बोले जाते हैं और दोहे के पूर्व-‘सनु ले सराररा मोर कबीर’! कहा जाता है। फाग-गीत में कबीर का क्या संबंध है और कबीर से सराररा का क्या संबंध हो सकता है? प्रत्येक फाग-गीत गायकों के द्वारा इस परंपरा का निर्वहन किया जाता है। चूँकि परंपराएँ जन-कल्याण के लिए होती हैं। इस लिए इस परंपरा का भी कोई कल्याणकारी उद्देश्य होगा। इस पर भी विचार किया जाना चाहिए ।
आज तक के इतिहास में कबीर वह व्यक्तित्व है जो सर्वधर्म समभाव के सिदृधांत पर चलकर बुलंदी के साथ अपनी बात समाज के सामने रखी। उन्होने जातिवाद, वर्ग भेद, पॅूंजीवाद आदि सामाजिक दोषों को कभी स्थान नहीं दिया। कारण की सभी प्राणी एक ही परमात्मा के संतान हैं।, सभी में समान गुण हैं। सभी का शरीर पंचतत्वों से बना है और अंत में पंचतत्वों में ही होना है। इसलिए सर्वशक्तिमान, चराचर के स्वामी परमपिता परमात्मा से अटूट प्रेम करने का संदेश आजीवन समाज को देते रहे। यही जीवन कल्याण का वह मार्ग है जो आत्मा को परमात्मा से जुड़ना है। शायद इसी भाव धारा के कारण फाग-गीतों के पूर्व कबीर के दोहे प्रतीकात्मक रूप से बोले जाते हैं ताकि समस्त प्राणी जगत में परस्पर प्रेम का संदेश फैले। 

दूसरी बात कबीर का सराररा से संबंध की है, तो इस जानने के लिए कृपया आगामी होली पर्व की प्रतीक्षा करें ....

चन्द्रकुमार चन्द्राकर 
अर्जुन्दा
दिनांक - १६-०३-२०१४

शनिवार, 1 मार्च 2014

नौकरी

रमेश रात के नौ बजे गॉंव के एकमात्र विडियो सेन्टर से फिल्म देखकर घर आया, उसे आश्‍चर्य हुआ घर का फाटक खुला था। कमरे से रोशनी आ रही थी, रसोई घर से बर्तनोंकी आवाज आ रही थी, उसी समय सुषमा रसोई घर से निकली। पति को प्रणाम किया- ‘‘अरे! तुम कब आई, तुम्हें तो इतनी जल्दी नहीं आना था। तुम तो कहकर गई थी मैं एक माह के लिए जा रही हूँ’’ रमेश ने कहा। ‘‘पिताजी आपकी नौकरी के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। शिक्षा मंत्री उनके सहपाठी रहे हैं, उन्होंने आश्‍वासन दिये हैं, आप अपनी नौकरी पक्की समझें।’’ ‘‘ऐसा सुनते-सुनते पूरा वर्ष व्यतीत हो गया, लेकिन अभी तक तो नौकरी मिली नहीं। मैं तंग आ गया हूँ, इन आश्‍वासनों से, मैं शादी अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद करना चाहता था, लेकिन आपके पिताजी ने ऐसा सब्जबाग दिखाया, कि कुछ मत पूछो उसने कहा था कि इधर शादी हुई और उधर नौकरी पक्की समझो।’’ पत्नी ने दुखी होते हुए कहा-‘‘इसमें मेरा क्या कसूर है, मैं तो जानती भी नहीं थी कि इस तरह से आपको आश्‍वासन दिया गया है।’’ ‘‘मैंने कब कहा कि तुम्हारा दोष है। दोष मेरा है, मेरे नसीब का है। माता-पिता बूढ़े हैं। जवान बहन अभी तक कुवॉंरी बैठी है, घर की हालत कुछ ठीक नहीं है, ऐसे में मेरा बेरोजगार होना कितने दुर्भाग्य की बात है।’’ रमेश एम.ए.करने के बाद भी बेरोजगार था। घर में कुल पॉंच सदस्य थे। जायजाद के नाम पर मिट्टी का पुराना घर था, जिसकी मरम्मत हुए बरसों बीत गया था। उस पुराने घर में रहना अपने आप को खतरे में डालना था। रमेश के पिताजी सेवानिवृत्त शिक्षक थे, जिसके पेंशन से घर का गुजारा मुश्किल से चलता था। अपना पेट काटकर उसे उसके पिताजी ने एम.ए. तक किसी प्रकार पढ़ाया था। उसे अपने बुढ़ापे में एक सहारे की आवश्यकता थी। घर के सदस्यों को रमेश से आशा थी, वही उसका केन्द्रबिंदु था, किन्तु रमेश निराश था। वह आत्मकेंद्रित हो गया था। उसे काम की तलाश थी, वह मेहनती था। उसने एक स्वप्न देखा था, जो सरकारी नौकरी के अभाव में अधूरा था। 

सुषमा का कोई दोष नहीं था। फिर भी अपने आप को दोषी समझ रही थी। इस एक वर्ष में उसने जीवन के कई रंग देखे थे, लेकिन वह आशावादी थी, रमेश उसके लिए ईश्‍वर से बढ़कर था। वह समर्पित भाव से पति की सेवा करती थी। उसके दर्द को समझती थी और हमेशा ममतामयी मॉं की तरह सॉंत्वना देती। रात के अंधकार में जब सारा घर नींद की आगोश में डूबा रहता, सुषमा जागती रहती और इस घर के कल्याण के लिए ईश्‍वर से प्रार्थना करती। कभी - कभी ऐसा लगता, जैसे रमेश उसे बहुत प्यार करता है, लेकिन अगले क्षण उसका व्यवहार बदल जाता, करवट बदलती सुषमा बोली- ‘‘ऐजी ! सुनते हो क्या?’’ ‘‘हूँ ... सुन रहा हूँ! आप ऐसा क्यों नहीं करते, मेरे नाम का जो पॉंच हजार रूपये बैंक में जमा है उससे छोटा-मोटा दुकान खोल लेते।’’ ‘‘सुषमा! तुम्हारा पैसा है, मैं उसे छू भी नहीं सकता, आज तक तुम्हारे लिए एक साड़ी तक तो नहीं खरीद सका हूँ, तुम्हारा पैसा लेना मुझसे नहीं हो सकेगा और फिर लोग क्या कहेंगे कि पत्नी के पैसे से दुकान खोला है।’’ ‘‘अरे! आप मुझे अपने से अलग क्यों समझते हैं। क्या पत्नी को इतना भी अधिकार नहीं है, कि संकट में पति की सहायता कर सके?’’ ‘‘नहीं सुषमा! मैं ऐसा नहीं समझता, तुम्हारा पैसा मेरा पैसा है और मेरा पैसा तुम्हारा, मगर मेरा भी तो कर्तव्य है कि मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करूँ।’’ ‘‘जब आप समर्थ हो जायेंगे तो करेंगे ही, तब तक के लिए मुझे एक मौका तो दीजिये। इसी बहाने अपना कर्तव्य पूरा कर सकूँ और आपके चरणों में स्थान पा सकूँ। ’’

‘‘ये क्या कह रही है सुषमा! क्या तुम्हें ऐसा महसूस होता है कि मैंने तुम्हें संपूर्ण हृदय से नहीं चाहा है? यदि तुम ऐसा सोचती हो तो यह तुम्हारा मुझ पर अन्याय है, तुम ऐसा ख्याल हृदय से निकाल दो, कि तुम्हारे पिताजी के धोखा देकर शादी करने से मैं तुमसे नाराज हूँ। हर हाल में तुम मेरी पत्नी हो और मैंने तुम्हें पत्नी का पूरा मान दिया है, अब सो जाओ रात अधिक हो गई है। अमावस्या की रात बीतने पर आशा का प्रकाश फैलेगा और हमारी जिंदगी खुशियों से भर जाएगी।’’ रमेश के पिता जी भी पूछते- ‘‘क्यों बेटा! आवेदन कहॉं-कहॉं दिया है?’’ ‘‘शिक्षा विभाग, रेलवे, बैंक इत्यादि सभी जगह के लिए दिया है पिताजी! साक्षात्कार भी दे आया हूँ, लेकिन पोस्टिंग लेटर नहीं आया है।’’ इतना सुनकर पिताजी गुमशुम हो जाते। रमेश को यह देखकर बहुत दुख होता कि पिताजी मेरी बेकारी से परेशान रहते हैं और उनकी परेशानी का कारण वह स्वयं है, लेकिन मुँह से कुछ न कहते हुए भी आँखों से सब कुछ व्यक्त हो जाता। स्नेहमयी मॉं की आँखें कमजोर है, लेकिन कुछ न कुछ अपने हाथों से पकाकर रमेश को खिलाती है। रमेश कहता- मॉं..! तुम मेरी फिक्र छोड़ो, अब मैं बच्चा थोड़े ही हूँ, मेरे लिए क्यों चिंतित रहती है। रमेश की बहन मालती छोटी उम्र में ही बहुत जिम्मेदार हो गई है। उसकी शादी की चर्चा एक दो जगह चल रही है, लेकिन लेन-देन के कारण बात आगे बढ़ न सकी वह सुंदर सी गुड़िया अप्सरा से कम न थी, जिस घर में जाती घर स्वर्ग बन जाता, लेकिन इस स्वर्ग की कल्पना करनेवाले इस समाज में कितने लोग हैं? मालती कहती- ‘‘मॉं आपने अभी तक भोजन नहीं किया है। दोपहर बीत रही है चलो! मैं अपने हाथों से खिला देती हूँ।’’ ‘‘आज मेरा उपवास है’’ मॉं कहती। ‘‘मैं जानती हूँ मॉं! तुम्हारा कैसा उपवास है, देखो मॉं! तुम कितनी दुबली हो गई हो।’’ ‘‘अब मेरे मोटी होने के दिन थोड़े हैं, रे!’’ मॉं कहती और मालती आह भरकर रह जाती। 

गॉंव के बीच में एक सड़क दुर्ग से बालोद जाती है। गॉंव की आबादी यही कोई पॉंच हजार के करीब होगी। गॉंव में एक अशासकीय हाईस्कूल है, जिसे एक समिति संचालित करती है। गॉंव के दाऊजी उनके अध्यक्ष हैं। एकदिन मुझे बुलाकर बोले-‘‘रमेश तुम व्याख्याता पद के लिए आवेदन दे दो, हमारे यहॉं एक पद खाली है, तुम्हारी नियुक्ति मैं करवा दूँगा, ऐसे अभी खाली ही हो। ‘‘ मैंने आवेदन दे दिया दाऊ जी की कृपा से मुझे व्याख्याता की नौकरी मिल गयी। डुबते को तिनको का सहारा। मुझे थोड़ी राहत मिली, क्योंकि नौकरी के लिए चक्कर लगाते-लगाते निराश हो गया था। गॉंव के अधिकांश मित्र बेरोजगार थे। उनकी तुलना में मैं अपने को बड़ा भाग्यशाली समझता हूँ, जिस दिन मुझे प्रथम वेतन मिला मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने पिताजी के लिए कमीज, मॉं के लिए साड़ी, बहन के लिए स्नो-पावडर, पत्नी के लिए चप्पल खरीदा। घर के सभी लोग मेरी खुशी में साथ दे रहे थे। हालॉंकि तनख्वाह कम थी, लेकिन भविष्य मंगलमय प्रतीत हुआ। मैंने एक किलोग्राम मिठाई खरीदा और दाऊ से मिलने चल पड़ा, बैठक में प्राचार्य महोदय से बातकर रहे थे। मुझे बोले-‘‘आओ रमेश! बैठो।’’ मैंने दाऊजी और प्राचार्य महोदय को प्रणाम किया और कुर्सी पर बैठ गया। मिठाई का डिब्बा दाऊजी की ओर बढ़ा दिया-‘‘अरे! भाई यह क्या है? बच्चों के लिए मिठाई लाया हूँ, आज मुझे प्रथम वेतन मिला है, मैं आपका एहसान कभी नहीं भूल सकता।’’ ‘‘इसमें एहसान कैसा भाई, तुम मेरे मित्र के पुत्र हो, तो मेरे भी पुत्र हुए न! तुम्हारे पिताजी कभी भी आज तक नौकरी की चर्चा नहीं किये, जबकि उसके साथ मेरा नित्य का उठना बैठना चलता है। यह तो अच्छा हुआ जो दुर्ग में तुम्हारे ससुर से भेंट हो गई। उन्होंने कहा - कि सुषमा मायके आई थी और रमेश की नौकरी के लिए कहने लगी। जब उन्हें पता चला कि मैंने रमेश को नौकरी का आश्‍वासन देकर सुषमा की शादी की है, तो नाराज होकर तुरंत अपनी ससुराल चली आई। मैंने बहुत समझाने की कोशिश की उसे रोकना चाहा, लेकिन वह रूकी नहीं, बेटा! कोई इस तरह मॉं-बाप से नाराज होता है। तुम सुषमा को समझाना तुम्हारे श्‍वसुर का शिक्षामंत्री क्लासफेलो हैं, बहुत जल्दी शिक्षाविभाग में उच्चश्रेणी शिक्षकों की नियुक्ति होनेवाली है, उसमें तुमको जरूर लिया जाएगा। तब तक गॉंव के उच्चतर माध्यमिक शाला में पढ़ाओ! तुम्हारे पिताजी बहुत ही स्वाभिमानी ब्यक्ति हैं, मैं उसका दिल से इज्जत करता हूँ।’’ मुझे मालूम है दाऊ जी कभी किसी का बुरा नहीं चाहते और न ही किसी को गलत आश्‍वासन देते हैं। मैंने दाऊ जी से इजाजत ली और उठ खड़ा हुआ खुशी-खुशी घर आया पत्नी मुझे खुश देखकर आनंदित हुई। उसने कहा- ‘‘क्या कोई सरकारी नौकरी मिल गई?’’ ‘‘नहीं बल्कि मिलनेवाली है।’’ और तब से पोष्टमैन का इंतजार कर रहा हूँ। 

अचानक पोष्टमैन की आवाज सुनकर चौंक गया। जल्दी से बाहर आया, ‘‘रमेश बाबू आपका बुकपोष्ट है।’’ कहकर लेटर मुझे थमाया और चला गया। मैंने पत्र खोलकर देखा, मेरा बी.एड. के लिए सलेक्शन पत्र था। एक सप्ताह के अंदर प्रशिक्षण महाविद्यालय रायपुर में ज्वाइन कर लेना है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूँ? पत्नी ने तनिक मुस्कुराते हुए कहा- ‘‘आप बी. एड. ज्वाइन कर लीजिये ट्रेण्ड होने के बाद चांसेस बढ़ जाएगी।’’ ‘‘लेकिन पिताजी से राय लेने के बाद ही कुछ करूँगा, लगता है अब मेरे अच्छे दिन आनेवाले हैं।’’ 

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

गुड़िया

कचरी मायके गई है। आज एक माह बीत गया, फिर भी वह ससुराल आने का नाम ही नहीं ले रही है। छोटी गुड़िया की याद रह-रहकर दिल को कचोट रही है। घर में बाबा और बूढ़ी मॉं गुड़िया की ही चर्चा करते रहते हैं। दादी पोपले मुँह से दादाजी को सम्बोधित कर कहती है- ‘‘गुड़िया ला देखे बहुत दिन होगे हे, वोहा तोर संग गली घूमे बर कतिक जिद करे, रहि-रहि के गुड़िया हा नज़र मा झुलत रहिथे।’’ दादाजी आत्मविभोर होकर कहते हैं-

‘‘हॉं खोरी मोर बिना गुड़िया कइसे ऊँहा खेलत होही, बिसरू हा जाके बहू ला ले आतीस।’’ ‘‘बहू ला, घर दुआर के चिंता तक नइ हे, का करबोन भला...उँकर घर-उकर दुआर ओला चिंता नइ हे, काम करत-करत मोरो हॉंत-गोड़ मा पीरा भर जथे।’’ दादा अपने अतीत में खो जाते हैं। कुछ सोचते-सोचते मुस्कुराने लगते हैं। दादी उसको कुरेदने लगती है- ‘‘आज तो मेहा तोला अब्बड़ मुस्कुरात देखत हँव, का बात हे... मोला बता न..!’’ दादाजी को पुरानी बात याद आ गई थी, गॉंव से दस कोस उत्तर में उसका ससुराल था। उस समय दादी जी यही कोई सोलह साल की थी। दादाजी अपने ससुराल विक्रमपुर से गौना कराकर आये थे। शादी तो बचपन में ही हो गई थी, लेकिन गौना बहुत बाद में हुआ दादाजी उस समय नवयुवक थे। शरीर में ताकत और हृदय में उत्साह था। अपनी पत्नी का सुबह शाम घर आँगन में काम करना देखते रहते और अपने भाग्य को सँराहते रहते थे। पत्नी का मुख उसे गमकता हुआ, झूमती हुई, नई धान की बाली जैसे लगती और वर्षा ॠतु के फुहार जैसे आह्लादित करती रहती, नये कपड़े और सुगंधित तेल की सुगंध उनके नथुनों में अब भी समाये हुए लगते। ‘‘कस खोरी..! तोला मायके जाय के इच्छा नइ होय का..?’’ ‘‘काबर नइ होही, बबा..! फेर... घर गिरहस्ति के चिंता तो लगे रहिथे, फेर... तेहा जान देबे तब ना..! अऊ मेहा चल दुहूँ ते...तेहा मोर बिना रहि सकबे? चार दिन ले जादा होय ताहने पीछू-पीछू लाय बर चल देस।’’ दादाजी जोर से हँसते हैं। 

दादाजी के एक ही पुत्र है, जिसका नाम बिसरू है, बिसरू की शादी आज से चार साल पूर्व किसनपुर के संपन्न किसान ररूहा की इकलौती पुत्री से बड़े धूमधाम के साथ हुई थी। बड़े घर की बेटी कचरी, बहुत सुशील और धार्मिक विचारों की महिला है, उसे पति का पूर्ण विश्‍वास और प्रेम प्राप्त है, उसकी एकमात्र पुत्री सुषमा डेढ़ साल की है। उसका स्वास्थ्य अचानक खराब हो गया। कचरी अपने पिता से कहती- ‘‘उनका गुस्सा बड़ा तेज है, मुझको ससुराल पहुँचा दो!’’ ‘‘लेकिन बेटी! तुम देख ही रही हो, गुड़िया बीमार है और ऐसी हालत में तेज बुखार में हवा लग जाने का डर है, क्यों नहीं तुम्हारे ससुराल में संदेश भेज दिया जावे, दामाद आकर देख लेगा, यहॉं दवाई तो चल रही है।’’ कचरी मन में सोचने लगी- ‘‘हाय भगवान! ससुराल जाने के समय ही गुड़िया को बीमार पड़ना था, वे ऐसे ही नाराज हो रहे होंगे, फिर ऊपर से यह विपदा।’’ उसे बिसरू का पिटना याद आ गया। पिछले बरस किस बुरी तरह से पीटा था। सात दिन तक खाट में पड़ी थी, अब ये अलग बात है कि बाद में पछताते और क्षमा मॉंगते रहे, बिसरू सॉंवले रंग का आकर्षक युवक है, गोरी चिट्टी कचरी से उसे विशेष मोह है। गुड़िया अपने मॉं के रंग में गई है। घर में अकेली संतान होने के कारण गुड़िया सभी को प्यारी है, उसी गुड़िया की बीमारी सुनकर बिसरू परेशान हो गया और ससुराल जाने की तैयारी करने लगा। ‘‘बापू जी! आप भी चलिये! गुड़िया गंभीर रूप से बीमार है, हिचकी लेकर बेहोश हो जाती है| आँखें इधर-उधर घुमाती है तेज बुखार है उतरने का नाम ही नहीं लेता, पता नहीं क्या हालत है।’’ ‘‘बेटा ! तुम आज चले जाओ, मैं कल सुबह जाऊँगा।’’ क्वॉंर का कृष्ण पक्ष है, रात अंधेरी है, किसनपुर जाने के लिए कोई गाड़ी नहीं है। अंतिम गाड़ी पॉंच बजे पूर्व चली गई है। अंत में लाचार बिसरू रेतवाली ट्रक में बैठ जाता है। उसे रह-रहकर कचरी पर क्रोध आ रहा है- ‘‘इतने दिनों तक मायके में रहने का क्या तुक है? मैंने जल्दी आने को कहा था, है ही जिद्दी, आखिर अपनी इच्छानुसार रही। मौसम बदल रहा है, यहॉं-वहॉं का पानी, नन्ही जान में इतनी ताकत ही कहॉं है, कि सहन कर सके।’’ आखिर परिणाम स्वरूप गुड़िया बीमार पड़ गई। ‘‘बाबू जी! आप की मंजिल आ गई, उतरिये।’’ ‘‘धन्यवाद ड्रायवर साहब! आपने ऐन वक्त में सहायता की, यदि आप मुझे नहीं मिलते तो मैं यहॉं तक कैसे आता’’ बिसरू ने कहा। ‘‘कोई बात नहीं भाई! हम तो इधर ही आ रहे थे’’ ड्रायवर ने कहा। गाड़ी स्टार्ट की- ‘‘अच्छा नमस्ते जी!’’ रात के दस बज गये हैं, गॉंव के कुत्ते अजनबी को देखकर भौंकने लगते और चुप हो जाते। ससुराल का एक परिचित ब्यक्ति मिला- ‘‘अरे भाई बिसरू! इतनी रात को आ रहे हो’’ आश्‍चर्यपूर्वक उस ब्यक्ति ने कहा। ‘‘हॉं भाई रामू! अचानक खबर मिली कि गुड़िया की तबियत खराब है, तो दौड़ा चला आ रहा हूँ।’’ ‘‘चलिये! आपके ससुराल तक छोड़ देता हूँ, दाऊ जी, ओ दाऊ जी! देखिये आपके घर मेहमान आये हैं|’’ ‘‘आता हूँ भाई! आता हूँ।’’ दरवाजे पर खड़े रामू और अपने दामाद को साहू जी अंदर ले आये उसी समय गुड़िया के कराहने की आवाज आयी बिसरू ने कहा-‘‘बाबू जी! अब गुड़िया की तबियत कैसी है।’’ ‘‘तेेज बुखार है बेटा! अभी तक उतरा नहीं है, आओ अंदर आ जाओ।’’ राम्हू और बिसरू गुड़िया को देखते हैं। ‘‘बुखार तेज है, वह रह-रहकर कराहती है’’ साहू जी कहते हैं। ‘‘अभी चार बजे हम लोग दुर्ग से आये हैं। डॉक्टर के पास ले गये थे। इंजेक्शन और दवाई दिये हैं, लेकिन अभी तक फायदा नहीं हुआ है, झाड़फूँक भी चल रहा है। अच्छा भैया! मैं चलता हूँ, रात्रि भी ज्यादा हो रही है।’’ बिसरू कुछ दूर तक राम्हू को पहुँचाने आया घर के सभी लोग गुड़िया के खाट के चारों ओर बैठ गये। ‘‘कैसे कचरी! मैं तुम्हें जल्दी घर आने को कहा था ना? उधर मॉं को भोजन पकाने में बहुत कष्ट हो रहा है।’’ डरते हुए कचरी कहती है-‘‘मैं मामा के यहॉं चली गयी थी, इसलिए इतनी जल्दी घर न आ सकी और जब वापस जाने की सोची तब गुड़िया बीमार पड़ गई।’’ ‘‘गुड़िया कब से बीमार है?’’ ‘‘अभी तीन दिन हुआ है, शुरू में वैद्य जी से इलाज चल रहा था। फायदा नहीं होने पर दुर्ग ले गये थे। आज ही चार बजे वापस आये हैं’’, कचरी ने कहा।

बीच-बीच में गुड़िया कराहने लगी और बेहोशी में छटपटाती| कुछ समय बाद बुखार कम हुआ और गुड़िया सोने लगी, फिर भी हाथ पैर अभी भी गर्म था। ‘‘अच्छा बेटा! तुम आराम करो, थके हुए हो,’’ यह कहकर साहू जी अपने कमरे में चले गये बिसरू की सास कचरी को बचपन में ही छोड़कर भगवान को प्यारी हो गई थी। कचरी को अपनी मॉं का थोड़ा-थोड़ा ख्याल है, कितनी प्यार से गीत गाकर रात में कचरी को थपकी देकर सुलाती थी।‘‘अजी! सो गये क्या?’’ ‘‘नहीं जाग रहा हूँ, आज नींद ही नहीं आ रही है’’ ‘‘और मुझे भी’’ कचरी ने कहा। कंडील के धुंधले प्रकाश में बिसरू ने देखा, गुड़िया अपनी मॉं के सीने से चिपककर सो रही थी धीरे-धीरे बिसरू नींद की आगोश में समाता चला गया। रात का तीसरा पहर बीत चला था। आकाश चारों तरफ से अंधकार से ढँका था। घर के सभी प्राणी गहरी नींद में सो रहे थे। सुबह जब बिसरू की नींद खुली तो सूर्योदय हो चुका था।आँगन में कचरी बर्तन मॉंज रही थी और गुड़िया खाट में बैठी रो रही थी आज का सुबह बहुत अच्छा लगा| आँगन में मुनगे के डाली पर तरोई के पीले फूल सुंदर लग रहे थे। बिसरू ने गुड़िया के माथे पर हाथ रखा बुखार उतर चुका था। उसने गुड़िया को चिपका लिया गुड़िया चुप हो गई। उसी समय कचरी अपने पति को जगे देखकर एक लोटा पानी लाई और चाय की पानी रखने रसोई में चली गई बिसरू चाय पीकर आवश्यक कार्यों से निवृत्त होने चला गया। दाऊ जी बैठक में अपने नौकरों को आवश्यक हिदायतें दे रहे थे। ‘‘नाश्ता कर लिया बेटा।’’ ‘‘हॉं बाबू जी!’’ ‘‘तुम्हारे यहॉं फसल कैसी है?’’ ‘‘क्या बतायें बाबू जी! बोनी के समय ही धान नहीं जगा, बाद में दँतारी में एवं लाई चोपी बोये, जिसके फलस्वरूप आठ आना एवं दस आना बीज मात्र ही जगा, बोआई पीछे होने के कारण फसल कमजोर है। धान में चितरी बीमारी लग गई है, नहर में पानी भी कम छोड़ा है, पानी के लिए लोगों में लड़ाई हो रही है। कचरी! तैयार हो जाओ, आज घर जाना है’’, बिसरू ने कहा- ‘‘बाबू से पूछ लिए होते।’’ ‘‘मैंने उनसे आज्ञा ले ली है, गुड़िया को आज बुखार नहीं है, लेकिन चिड़चिड़ी हो गई है। खेलने के वस्तु को भी फेंकती है।’’

घर के आँगन में दादी जी और दादाजी बैठे हैं। ‘‘कस बबा तेहा गुड़िया ला देखेबर जाहूँ केहे रेहेस, तोला देखत होही।’’ ‘‘का बतॉंवव खोरी! पानी के झगड़ा ल निपटाय बर, पँचइत बइठे रिहिसे, ओमा नइ जातेव, ते गॉंव के मन चिथों-चिथों करतिस। मोर कुरता ला लातो मेहा अभीच जाहूँ। मोर दिल हा घबरावत है, गुड़िया कइसे हे, हे भगवान! बनेच-बने राखबे।’’ उसी समय बिसरू-कचरी-गुड़िया के साथ आते हैं। गुड़िया दादाजी को देखकर अपनी मॉं की गोद से उतरने के लिए मचलने लगती है ‘‘बा...बा...!’’ गुड़िया मॉं की गोद से उतरकर दादाजी के गोद में बैठ जाती है। ‘‘कस बहू! नानुक लइका के तोला कुछु फिकर नइ लागे। घर दुआर के फिकर नइ हे, ते नइ हे, महीना भर बीते के बाद, घर के खियाल आवत हे’’ दादाजी कहता। कचरी चुप रह जाती गुड़िया कमजोर और दुबली हो गई है। उसे देखकर दादी की आँखें गीली हो जाती है और दादाजी के हाथों से गुड़िया को लेकर अपनी छाती से लगा लेती है, मानों उसे अब अपने से अलग ही नहीं करेगी।

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

वेदना

चोरी करते शर्म नहीं आती, इतने कम उम्र में गलत काम करने लग गये, भीड़ में खड़े एक बुजुर्ग आदमी ने कहा। वह कोई पंद्रह वर्षीय नवयुवक था, जो गर्दन नीचे किये चुपचाप मार खाये जा रहा था। उसे दुख मार खाने का नहीं था, जिसकी मॉं मृत्युशैया पर पड़ी दवाई के अभाव में दम तोड़ रही हो उसे मारखाने की चिंता ही कहॉं हो सकती है। उसे केमिस्ट की दुकान से दवाई चुराते दुकानदार ने पकड़ लिया, बात ही बात में भीड़ इकट्ठी हो गई| मार से कपड़े जगह-जगह से फट गया था। कॉलर फटकर झूलने लगा था। इसी समय पुलिस इंस्पेक्टर अजीत सिंह ने एक भद्दी सी गाली देते हुए उस लाचार युवक को एक डंडा जमाया और दुकानदार से बोला-

‘‘आप रिपोर्ट लिखाने थाने चलिये! इस बदमाश को मैं वहीं ले जा रहा हूँ।’’ दो दिन का भूखा वह युवक लड़खड़ाता हुआ चल रहा था, रह-रहकर आँखों के सामने मॉं का मुर्झाया चेहरा घूम रहा था। असमय बुढ़ी हो चली मॉं पड़ोस में झाड़ू-पोछा करके अपनी और बेटे सरजू का पेट किसी तरह पालती थी। सरजू के पिता अपनी पत्नी को छोड़कर किसी अन्य औरत को घर में रख लिया और उसकी मॉं और सरजू को ठोकरे खाने के लिए घर से बेइज्जत करके निकाल दिया। सरजू अपने पिताजी को जानता तक नहीं था। स्नेहमयी मॉं अपने बच्चे को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देती। सरजू किसी तरह आठवीं कक्षा उत्तीर्ण हो गया। प्रकृति भी गरीबों पर वज्र के समान टूटती है। काम करते-करते मॉं बेदम हो जाती है। ऊपर से खॉंसी का जोर मुँह से बलगम के साथ खून जाने लगा। मालिकों ने उसे काम से छुट्टीकर दी, स्कूल से आने पर सरजू मॉं की हालत देख रो पड़ा, घर में राशन खत्म हो गया था। पास में एक भी पैसा नहीं था। मॉं को पड़ोसवालों ने सरकारी अस्पताल में भर्ती कर दिया, लेकिन दवाई के आभाव में दिनों दिन उसकी हालत खराब होती गई।

सरजू की पढ़ाई छुट गई, वह सड़कों पर घूम-घूमकर अखबार बेचा करता। कुछ पैसे मिल जाते, जिसमें कुछ पैसों की दवाई और कुछ पैसे अपने भोजन पर खर्च करता। रात के समय हॉटल में काम करता, सुबह शाम अपनी मॉं से मिल आता। एकदिन डॉक्टर ने कहा- ‘‘तुम अपने घर के किसी जिम्मेदार सदस्य को भेेजना| तुम ! मत आया करो? तुम्हारी मॉं को टी.बी हो गई है।’’
‘‘मेरा इस दुनियॉं में मॉं के सिवाय कोई नहीं, मैं किसे लाऊँ डॉक्टर साहब!’’ सरजू ने करूण स्वर में रोते हुए कहा। डॉ. दवाई की पर्ची थमा गया- ‘‘देखो! यह दवाई और इंन्जेक्शन बहुत जरूरी है, देरी होने से मरीज को खतरा है।’’ सरजू सुनकर हक्का-बक्का रह गया। इतने बड़े शहर में पहचानवाला कोई न था। होटलवाला भी बगैर माह बीते पैसे देनेवाला नहीं था। केमिस्ट की दुकान पर सरजू ने दवाई का पर्ची दिया दुकानदार ने दवाई पैकेट में बॉंध दिया साथ ही बिल भी और दूसरे ग्राहक को निपटाने लगा। बिल देखकर सरजू को दिन में तारे नज़र आने लगा, बिल पूरे पॉंच सौ रूपये का था। कुछ सोचकर सरजू दवाई की पैकेट लेकर भागने लगा।अचानक दुकानदार की नज़र उधर चली गयी और चोर-चोर चिल्लाना शुरू कर दिया। सरजू के पीछे लोग दौड़ने लगे, भीड़ में घुसने से पहले एक आदमी ने उसे पकड़ लिया। भीड़ इकट्ठी हो गई। लोगों ने मार-मारकर उसकी हालत खराब कर दी। कमीज खींचतान में जगह-जगह से फट गया। मोटे ताजे थानेदार को अपने तरफ आते देख सरजू थर-थर कॉंपने लगा, कातर स्वर में बोला- ‘‘मेरी मॉं को बचा लो साहब! आपके बाल बच्चे सलामत रहे|’’ थानेदार ने डॉंटते हुए कहा-‘‘तुम चुपचाप रहो| नहीं तो काल कोठरी में बंदकर दूँगा|’’ और दुकानदार का रिपोर्ट लिखने लगा| ‘‘हॉं तो मिस्टर मेहता! जो दवाई पैकेट में हैं, किस बीमारी की दवा है।’’ ‘‘इसे डॉक्टर ने टी.बी. के लिए लिखा है’’ मेहता ने कहा। ‘‘आप रिपोर्ट में हस्ताक्षर कर दीजिये, जरूरत पड़ने पर आपको तकलीफ करना होगा।’’ ‘इसमें तकलीफ की क्या बात है इंस्पेक्टर साहब! मैं हाजिर हो जाऊँगा’’ चलते हुए मेहता ने कहा। सरजू के शरीर से डर के कारण पसीना छुटने लगा। मार के कारण दोनों गाल-लाल हो गये थे।सरजू ने रोते हुए इंस्पेक्टर के पैर पकड़ लिये- ‘‘मुझे छोड़ दीजिये साहब! मेरी मॉं दवाई के अभाव में मर जाएगी|’’ ऐसा लगा जैसे सारे शरीर में वेदना का साम्राज्य हो अपमान और कष्ट से शरीर निर्जीव सा हो रहा था। इंस्पेक्टर के पूछने पर सरजू ने बताया कि-‘‘मेरी मॉं बीमार है और अस्पताल में भर्ती है, यदि उन्हें दवाई और इंजेक्शन समय पर नहीं मिला तो वह मर जाएगी और मैं अनाथ हो जाऊँगा, मेरे पास दवाई के पैसे नहीं थे, इसलिए दवाई का पैकेट लेकर भाग रहा था और पकड़ा गया।’’ ‘‘तुम्हारी मॉं का नाम क्या है और किस अस्पताल में भर्ती है? अगर तुमने झूठ बोलने की कोशिश की तो छ: माह के लिए अंदर कर दूँगा।’’ ‘‘मैं झूठ नहीं बोलूँगा साहब! मेरी मॉं का नाम पार्वती है और जिला चिकित्सालय में भर्ती है। 

इंस्पेक्टर साहब सोचने लगे- ‘‘यह लड़का चोर होता तो गल्ला का पैसा लेकर भागता या पाकेट मारता, जरूर कोई मजबूरी है।’’ इतना सोचते ही सरजू पर दया आ गई, उसे अपना बचपन याद आ गया। कितने कष्ट सहे थे उसने, यदि स्वामी विवेकानंद आश्रम का सहारा नहीं मिलता तो आज वह भी चोर उच्चका होता, बचपन से ही वह अनाथ था। उसकी पढ़ाई-लिखाई आश्रम में शुरू हुआ था और वह आज सम्मानजनक पद पर है। सरजू का चेहरा देखकर ही समझ गया था कि वह भूखा है। सिपाही को पास के हॉटल से भोजन लाने के लिए कहता है और बड़े प्रेम से सरजू को भोजन खिलाया, जिस प्रकार से चट्टान को भेदकर पानी का स्त्रोत निकलता है, उसी प्रकार अजीत सिंह के हृदय से दया उमड़ पड़ी। सरजू को अपने साथ मोटरसायकल में बिठाकर अस्पताल लाया। टी.बी.वार्ड में अपनीं मॉं को देखकर सरजू सन्न रह गया। उसकी मॉं भगवान को प्यारी हो गई थी। एक मॉं ही थी, लेकिन वह भी सरजू को अकेला छोड़कर चली गई, वह अपनी मॉं के चरणों में माथा टेककर रोने लगा- ‘‘मॉं..! मैं, किसके सहारे इस निर्दयी दुनियॉं में रहूँगा। मैं, क्यों जिंदा हूँ? मॉं..! मुझे अपने पास बुला लो, इस संसार में मेरा कोई नहीं है’’ कहकर सरजू विलाप करने लगा इंस्पेक्टर ने उसे सॉंत्वना दी-‘‘जिसका कोई नहीं होता, उसका ईश्‍वर ही रखवाला होता है’’ कहते हुए उनका स्वर पीड़ा से भर गया। आज का दिन सरजू के लिए अंधकार लेकर आया था। उसके चारों ओर निराशा का अंधेरा छाया हुआ था। श्मशानघाट से आते हुए सरजू बहुत उदास था। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। रात्रि का अंधकार धीरे-धीरे गहरा होने लगा, बाहर का सन्नाटा सरजू के दिल-दिमाग में समाता चला गया। एकांकी जीवन की वेदना सरजू के चेहरे से परिलक्षित होने लगा, वह पागलों की तरह चिल्लाता, कभी अपने आप से बातें करने लगता। 

सरजू की हालत देख इंस्पेक्टर अजीत सिंह उसे अपने साथ घर ले आया। इंस्पेक्टर साहब अपने क्वॉटर में अकेला रहता था। उनकी शादी अभी नहीं हुई थी, थाने का चौकीदार इसके लिए खाना बना देता था। ‘‘देखो तुम अभी मेरे साथ ही रहोगे, फिर आगे देखेंगे कि क्या करना है’’ कहकर इंस्पेक्टर साहब थाना चले गये। शाम को इंस्पेक्टर साहब घर आये, तब देखा कि सरजू शून्य में एकटक न जाने क्या देख रहा था और अपने आप बुदबुदा रहा था। इंस्पेक्टर साहब उसे अपने साथ बरामदे में ले गया। लोटा थमाते बोला जाओ- ‘‘मुँह-हाथ धो लो! भोजन करेंगे।’’ चौकीदार ने दोनों को भोजन परोस दिया, सरजू से कुछ न खाया गया। उसे मॉं की याद आने लगी, किसी तरह दो-चार कौर खाकर मुँह-हाथ धोने उठ गया। दूसरे दिन इंस्पेक्टर साहब ने स्वामी विवेकानंद आश्रम में फोन किया बोला- ‘‘मैं एक लड़के को लेकर आ रहा हूँ, उसे वहीं आश्रम के विद्यालय में पढ़ाना है, वहीं आश्रम में रहेगा।’’ सरजू को इंस्पेक्टर साहब ने आश्रम में भर्ती करा दिया। सप्ताह में बीच-बीच में देखने आ जाता। सरजू अपने मॉं को नहीं भूल सका था, वह अब भी उदास दिखाई देता था। इंस्पेक्टर साहब उसे बहुत समझाते उसकी आवश्यकताओं का ख्याल रखते। दिन बितने लगा, अप्रैल में सरजू का वार्षिक परीक्षा परिणाम घोषित हुआ, सरजू अपने कक्षा के सभी सेक्सन में टॉप किया था। इंस्पेक्टर साहब कुछ आश्‍वस्त हुये, सरजू का रहन-सहन पहनावा सब कुछ बदल गया था। अब उसे देखकर कोई भी नहीं कह सकता था, कि वह अनाथ बालक है, इंस्पेक्टर साहब सरजू के लिए सब कुछ था। उसे वह भगवान से भी बढ़कर मानता था। उसके एक इशारे में सब कुछ करने को तैयार रहता। आई.पी.एस. का आज परिणाम आया। सरजू प्रसाद का फोटो पेपर में छपा है, टॉपटेन में सरजू प्रसाद का नाम मोटे-मोटे अक्षरों में छपा है।इंस्पेक्टर अजीत सिंह आज बहुत खुश है, अपना कर्तव्य उसने बखूबी निभाया है। उसने एक अनाथ बालक को पुलिस कप्तान बना दिया। उसके दिल पर रखा बोझ आज उतर गया। उसने अपना कर्ज आज चुकता कर दिया था। सरजू प्रसाद की उपलब्धि पर आज कई लोग इंस्पेक्टर के घर बधाई देने आये। ‘‘दादा! आज मॉं की समाधि पर माथा टेकने जायेंगे’’ सरजू प्रसाद ने इंस्पेक्टर अजीत सिंह से कहा। आज नदी किनारे सरजू प्रसाद के साथ अजीत सिंह उसकी मॉं की समाधि पर फूल चक्र अर्पित कर रहे थे। वे बहुत खुश थे| सरजू अपनी मॉं की समाधि पर आँसू बहा रहा था। मॉं की यादें उसकी धरोहर थी, उनके चेहरे में वेदना की घनी छाया नज़र आ रही थी। मॉं..! आज तुम नहीं हो, लेकिन तुम्हारा आशीर्वाद मेरे साथ है मुझे आशीर्वाद नहीं दोगी ? मॉं।’’ 

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

कुलक्षणी


राधा को खाना-पीना अच्छा नहीं लगता। सिर में दर्द की शिकायत रहती, दिन में एकाध बार उल्टी हो जाती राधा परेशान थी। सास कहती- ‘‘क्यों बेटी! तुम्हारी तबियत कैसी है? ठीक तो हूँ मॉं जी! आज कल मैं देख रही हूँ, तू ठीक से खाती-पीती नहीं, कितनी दुबली हो गई है।’’ सास दुलार से बहू की ओर देखकर कहती। रसोई घर में इमली खाती पकड़ी गई, सास को देखकर हाथ पीछे करती हुई राधा झेंप गयी। ‘‘क्यों बहू! तू इमली खा रही है! देख तेरा आज से काम करना बंद रौताईन सारा काम करेगी, तू चुपचाप बैठी रहना’’ सास हँसते हुए कहती। नहीं मॉं जी! मैं इतनी कमजोर तो नहीं हूँ। क्यों रे रामू! तू बहू को दिन भर इधर-उधर दौड़ाता है। कभी पानी दे, कभी दतौन ला, कभी कमीज के बटन टॉंक आज से बहू काम नहीं करेगी, अपना काम तू खुद करना। छोटे-मोटे काम करने से इसके हाथ थोड़े ही घिस जाऐंगे मॉं! रामू कहता। तू नहीं जानता रे! जा अपना कामकर, रामू बड़बड़ करते खेत चला गया।

राधा दर्द से चीख पड़ती रह-रहकर टीस उठती घर भर परेशान। मॉं...! राधा का खयाल रखना कहते हुए रामू डॉक्टर बुलाने पास के कस्बे में दौड़ा। वहॉं प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। डॉक्टर की मोटर सायकल गली में आकर रूक गई। रामू डॉक्टर का बैग पकड़े आगे-आगे घर में प्रवेश किया, रामू के पिताजी बैठक के चक्कर काट रहे थे। उन्हें कुछ आशा बंधी। इंजेक्शन लगाते हुए डॉक्टर बोले- ‘‘डरने की कोई बात नहीं है, दस-पंद्रह मिनट में डिलिवरी हो जाएगी।’’ राधा को होश आने लगा अपने बगल में उसे नरम-गरम वस्तु का आभास हुआ। धीरे-धीरे आँखें खोलती हुई उसे शांति महसूस हुई। मॉं की ममता छलकने लगी, किन्तु सारी खुशी क्षण भर में जाती रही जब उसे यह पता चला कि इस बार भी लड़की हुई है। उसे पति के शब्द बार-बार याद आने लगी। ‘‘तुम फिकर मत करो राधा..! इस बार जरूर लड़का होगा|’’ रामू को बेटा खेलाने का शौक था, लेकिन भगवान की मर्जी के सामने इंसान क्या कर सकता है। राधा प्रार्थना करती ‘‘कम से कम एक पुत्र मुझे दे देते भगवान तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता, तुम्हारे यहॉं कुछ कमी तो नहीं हो जाती।’’ लगातार तीन लड़कियों को जन्म देते-देते राधा आधा हो गई। शरीर में थोड़ी भी जान नहीं बची।

आज से छह वर्ष पूर्व रामू की शादी हुई थी। राधा छम-छम करते ससुराल आयी, तो पास-पड़ोस में उसके सुंदरता की चर्चा होने लगी। रूपवती, गुणवती बहू पाकर सास अपने भाग्य को सराहने लगी। गृहकार्य में निपुण राधा मधुर स्वभाव की थी। सास कहती- ‘‘राधा बेटी! जरा गरम पानी तो देना। ससुर कहते- ‘‘बहू! जरा चाय तो बनाना मेहमान आये हैं। सभी बहू की प्रशंसा करते, रामू फूला नहीं समाता।समय पंख लगाकर उड़ने लगा। दिन भर काम करते राधा को पता ही नहीं चलता कि कब सुबह से शाम हो जाती। निम्न मध्यम वर्ग परिवार के नाम से सास-ससुर, पति और स्वयं राधा। घर में दस एकड़ जमीन गुजारा आराम से चल जाता। गॉंव से दो मील की दूरी पर बाजार लगता गॉंव के लोग बुधवार को सप्ताह भर का सामान खरीद लाते। रामू कहता- ‘‘तुम्हारे लिए रसगुल्ला लाऊँगा।’’ राधा के गाल शर्म से लाल हो जाते होंठ फड़कने लगते वह आँचल में मुँह छुपाकर भाग जाती। रामू सायकल लेकर बाजार जाता गली की मोड़ पर घंटी बजाता, राधा दरवाजे से अपने पति को देखती रहती जब तक रामू निगाह से ओझल नहीं हो जाता। बीते दिनोंकी याद आते ही राधा कहीं खो जाती।

गॉंव का चैतू रामू का दोस्त बधाई देते हुए कहता- ‘‘अब तो मुँह मीठा करा यार कितनी सुंदर बच्ची है। तू तो बड़ा भाग्यशाली है यार! साक्षात लक्ष्मी ने तेरे घर जन्म लिया है। अरे! क्या बात है तू बोलता क्यों नहीं यार! क्या तुझे कोई खुशी नहीं है? अरे! दिल क्यों छोटा करता है। मुझे देख शादी हुए दस वर्ष बीत गये, लेकिन तुम्हारी भाभी ने आज तक एक चुहिया तक नहीं जनी। गॉंव के प्रमुख ब्यक्ति चाय-नाश्ता करते रामू को बधाई देते और चले जाते, घर में कोई खुश नहीं रामू अपने सीने पर बोझ महसूस करता मॉं-बाप बूढ़े हैं। पके आम के सामान न जाने कब चू पड़े? पोता देखने के लिए आँखें तरसती रही, सास बात-बात पर ताना देती बहू तो करमजली है। क्या करूँ मॉं जी! मेरे हाथ की बात तो नहीं है राधा रूआँसी हो कहती। घर में नित्य कलह होने लगा। ससुर बहू का पक्ष लेकर पत्नी को डॉंटते- ‘‘इस में इस बेचारी का क्या कसूर है?’’ समय कभी रूकता नहीं दुख बिन बुलाये मेहमान की तरह आता है। बहू को पुत्रीव्रत प्रेम करनेवाला ससुर बेटे-बहू और पत्नी को बिलखते छोड़कर इस संसार से विदा हो गये| पति वियोग में रामू की मॉं दिल की मरीज हो गई। राधा सुबह रामू को चाय देते हुए बोली-‘‘मॉं जी..! अभी तक सो रही है, मैं दो बार दरवाजे से वापस आई हूँ।’’ रामू मॉं को जगाते हुए उठने को कहता है इसके पूर्व मॉं को देख अचानक रामू का दिल बैठता हुआ महसूस हुआ, नाड़ी गायब थी, मुँह खुला का खुला रह गया था। एक सप्ताह के अंदर रामू के माता-पिता उसे छोड़कर स्वर्ग चले गये। रामू के ऊपर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। वह संसार में अपने को अकेला महसूस करने लगा। 

समय का चक्र घूमता रहा आषाढ़ का महीना आया आकाश में काले-काले मेघ छाते, लेकिन पता नहीं पानी कहॉं चला जाता, बरसने का नाम ही नहीं लेता किसानोंको निराशा होने लगी, आँखें आकाश की ओर उठाये राधा कहती- ‘‘सुनते हो जी! आज चॉंवल खत्म हो गया है। दुकानदार आगे देने से इनकार करते हैं। पहले का कर्ज चुकाओ तब देंगे।’’ बच्चे रोटी के लिए रोते घर में तीन दिन से चूल्हा नहीं जला, छोटी बच्ची दूध के लिए मचलती, भूखे मॉं के तन में दूध कहॉं से आता। राधा रामू को अपने जेवर उतारकर कहती- ‘‘इसे बेचकर आओ! कम से कम कुछ दिन के लिए भोजन का प्रबंध हो जाएगा।’’ रामू दुखी स्वर में लेने से इनकार करते हुए कहता है- ‘‘नहीं राधा! नहीं, मुझसे यह नहीं होगा, मैं बैलों की जोड़ी बेचकर चॉंवल सब्जी आटा लाऊँगा।’’ इस वर्ष इन्द्र महाराज हम पर कुपित हैं इसलिए एक बूंद पानी नहीं बरसा, फिर आगे सोचेंगे बाजार में पॉंच हजार जोड़ी की बैल को पॉंच सौ में भी लेने को कोई तैयार नहीं हुआ, लाचार रामू गहना गिरवी रखकर खाने पीने का सामान लाया।

चलो राधा! अब शहर चलें... इस गॉंव में क्या रखा है? लोग गॉंव छोड़कर शहर की ओर भाग रहे हैं| गॉंव श्मशान हो रहा है इस अकाल ने अच्छे-अच्छे की कमर तोड़कर रख दी है, राधा दुखी मन से घर में ताला लगाकर चाबी रामू को थमा दी और गाड़ी में बैठ गयी। तीनों बच्चियॉं सहमी मॉं के पास बैठ गयी। स्वामी भक्त कुत्ता मोती गाड़ी के आगे कभी पीछे दौड़ लगाता। राधा को खयाल आया जब डोली से इस घर में पैर रखी थी तब सभी लोग कितने खुश थे। उसने लंबी सॉंस खिंची और आँखें गीली हो गई। चलते-चलते दोपहर हो गई। पास में कुआँ देख रामू ने गाड़ी रोक दी बच्चियॉं प्यासी थी। घर से लाये रोटी सबने गुड़ के साथ खाये और पानी पीये।मोती अपने मालिक के पास पुंछ हिलाते हुए बैठा था। रामू ने स्नेह से थपथपाया चलो मोती अब चलो, राधा मन में विचार कर रही थी दुर्दिन में कोई साथ नहीं देता। अपने सभी पराये हो जाते हैं। गाड़ी शहर के बाहर नदी किनारे रूक गई| रामू गाड़ी से उतरकर झोपड़ी के पास बैठे एक वृद्ध ब्यक्ति से बोला- ‘‘बाबा आप लोग कहॉं से आये हैं? उस ब्यक्ति का नाम मुरली था। उम्र पचास वर्ष के लगभग रही होगी।उदास स्वर में उत्तर दिया यहॉं से २०मील की दूरी पर बिसनपुर नाम का गॉंव है वहीं का रहनेवाला हूँ। इस अकाल में यहॉं चले आये हैं। घर में अच्छी खेती है, लेकिन आज यहॉं हम मजदूरी कर जीवन व्यतीतकर रहें हैं। करीब बीस झोपड़ी थे। रामू शहर से बांस बल्ली लाकर झोपड़ी तैयार कर लिया वह मेहनती किसान था। एक सेठ के यहॉं बोझा ढोने का कार्य मिल गया। इस तरह अपने परिवार का भरण पोषण करने लगा। 

मुरली की पत्नी लक्ष्मी और राधा में बहनापा हो गया। लक्ष्मी राधा से अपने बच्चों का रोना रोते हुई कहती-‘‘क्या बताऊँ बहन मेरे पॉंच बच्चे हैं, दो अभी छोटे हैं, बाकी तीनों निकम्मे हैं। हमारा हाथ बँटाना तो दूर हम पर बोझ बने हैं। बड़ा लड़का गोपाल हमेशा बीमार रहता है। आधी कमाई उसकी दवाई में खर्च हो जाती है| उससे छोटा कमल अवारा है, हमारी सुनता ही नहीं बल्कि उल्टे धौंस देता है, उससे छोटी मुनिया ब्याह लायक हो गई है। हमारे बिरादरी का कोई लड़का हो तो बताना, राधा को लक्ष्मी का दुख अपने दुख से ज्यादा लगा उसे लक्ष्मी से सहानुभूति हो गई। रात रोने-धोने की आवाज से रामू और राधा की नींद खुल गई आँख मलते हुए रामू मुरली के झोपड़ी के पास गया। लक्ष्मी रोते हुए अपनी छाती पीट रही थी। ‘‘हाय इसी दिन के कुलक्षणी को बड़ा किया था। पता होता तो गला घोंटकर मार डालती।’’ पता चला मुनिया किसी के साथ भाग गई है। आये दिन शहरी छोकरे चक्कर काटते थे। कल ३:३० वाली सिनेमा देखने गई थी, तो अभी तक घर नहीं पहुँची|।अंतिम बार उसे किसी लड़के साथ देखा गया था। कमल पिछले सप्ताह झगड़े में एक आदमी को चाकू मार दिया था, उसे पुलिस पकड़कर ले गई कोई जमानत लेने वाला नहीं मिला। दुख की अधिकता के कारण मुरली को दिल का दौरा पड़ा, लक्ष्मी अकेली बेचारी बच्चों को संभालती कि मुरली को। रामू राधा को लक्ष्मी की देखभाल के लिए छोड़कर मुरली को जिला अस्पताल में भरती करा दिया। धीरे-धीरे मुरली की हालत सुधरती गई मुरली ठीक होकर घर आ गया। 

एक दिन बस्ती में मुनिया अपने मॉं-बाप के झोपड़ी के बाहर रो रही थी, उसके कपड़े मैले-कुचैले और फटे हुए थे, जिस लड़के के साथ भागी थी उसने उसको मारपीटकर घर से निकाल दिया है, अत: वह वापस अपने बाप के घर आ गई है और अपने किये पर पछता रही है। अकाल के कारण न जाने कितने लड़कियॉं घर से भाग गई और अपने भाग्य पर रो रही है, कितने घर बर्बाद हो गये हैं। रामू सोचने लगा लोग पेट भरने के लिए अपनी इज्जत बेच रहे हैं। जमीन जायजाद बेच रहे हैं, ताकि पापी पेट को दो जून खाना मिल सके अकाल जो कराये थोड़ा है। बस्ती के लोग दिन भर काम करने शहर चले जाते, बस्ती में छोटे बच्चे और बूढ़े ब्यक्ति दिन को दिखाई पड़ते। पूरा बस्ती सूना है। मुनिया का पति शराब के नशे में मुनिया को अपने साथ चलने को कहता है| ‘‘घर में कोई नहीं है, मैं ऐसे कैसी जा सकती हूँ? बापू के आते तक रूक जाओ फिर तुमने तो मुझे घर से निकाल दिया है मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती।’’ ‘‘साली नखरे करती है मेरे साथ जाने से मना करती है, सतिसावित्री बनती है यहॉं धंधा करती है। बुला अपने यार को’’ कहकर मुनिया की चोटी पकड़कर मारने लगा, मुनिया प्राण बचाने इधर-उधर भागने लगी रास्ते में पड़े पत्थर को देख मुनिया रूक गयी। रूक जाओ नहीं तो मार डालूँगी कहकर अपने पति को डराने लगी। तब तक उसका पति नजदीक आ गया| उसने मुनिया का गला पकड़ लिया, खींचतान में उसका हाथ गले पर कसता चला गया। मुनिया की आँखें फटी की फटी रह गयी। जीभ बाहर निकल आया, मुनिया का प्राणान्त हो गया। मुनिया की मॉं अपनी बेटी को कुलक्षणी कहती थी, वही उसके शरीर से लिपटकर रोने लगी। आज मुनिया सदा के लिए संसार से विदा हो गई थी।


विश्राम सिंह चंद्राकर
अध्यक्ष, सरस साहित्य समिति गुण्डरदेही

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

माँ

लक्ष्मी का विवाह बहुत आलीशन ढंग से सपन्न हुआ था, जैसे ही दाऊ विश्राम सिंह के घर में पैर रखी तब खुशी का ठिकाना न था, लेकिन ‘लिखा करम में जो है विधाता मिटाने वाला कोई नहीं’ वाली बात लक्ष्मी के सिर पर आ गयी। जब दौलत आसमाँ तक पैर पसार लेता है, तब दो लत आ ही जाती है। किसी भी चीज की अधिकता चैन उड़ा ले जाता है। यही बात हुबहू दाऊ विश्राम सिंह के सामने जुबान तक हिला नहीं पाती थी। पहले तो पत्नी को पैर की जूती समझते थे। आज जब नारियों का आत्मबल जागा है, नारी शक्ति चहुँ ओर दिखाई देती है। 

पहले नारी को भोग्या समझी जाती थी। सहमी-सहमी लक्ष्मी साहस कर दाऊ विश्राम सिंह से बोली- आपका गाँव में खूब सम्मान है, सब आदर की दृष्टि से आपको देखते हैं, आपके वचनामृत के लिए लोग तरसते हैं, लेकिन कुछ दिनों से आपमें वह बात दिखाई नहीं देती है, मैं बड़ी जतन से भोजन तैयार कर आपकी बाट जोहती रहती हूँ, लेकिन आप थोड़ा सा भी मेरी ओर ख्याल नहीं रखते, सुनकर दाऊ आग बबूला हो गया- तुम्हारी ये हिम्मत कि मेरे सामने जुबान हिलाती है। मैं कुछ भी करूँ, क्या तेरे बाप-दादे की कमाई से ऐश करता हूँ? मेरे पूर्वजों की सम्पत्ति है, मैं कुछ भी करूँ, तुम्हें बोलने की जरूरत नहीं। बात-बात में बात बढ़ ही जाती है। लक्ष्मी की बात का असर प्रतिकूल होने लग गया। अब तो दाऊ विश्राम सिंह ठाकुर पूरी तरह बुरी लत के शिकार हो गये। 

कभी लड़खड़ाता हुआ चला आता। घर के सामनों को फेंक देता। लक्ष्मी परेशान हो गई थी। आखिर अपनी राम कहानी किसे सुनाती, सुनने पर लोग हँसने के सिवाय और क्या करते। लक्ष्मी और ठाकुर साहब के आपसी झगड़े से घर के अमन चैन उड़ गये, एकमात्र पुत्र होने के कारण माँ-बाप से कुछ कहते भी नहीं बनता था। माँ-बाप सयाने हो गये थे, उम्र की अधिकता शरीर को कमजोर बना दिया था, परंतु आज बुढ़ी माँ देवकी ने कहा- बहू को खोटी क्यों कहते हो, घर के कामों से लेकर हम लोगों का भी ख्याल रखती है। पिता दाऊ घनश्याम सिंह कुछ नहीं कहते थे। समय आने पर सब ठीक हो जायेगा, इस विचार के शांत गंभीर व्यक्ति थे। लक्ष्मी सगर्भा होते हुए भी गृहकाज में जुटी रहती थी। घर में पुन्नी नाम की एक काम करने वाली महिला आती थी। लक्ष्मी के व्यवहार से वह खूब प्रसन्न रहती। लक्ष्मी भी पुन्नी को खूब मानती थी। पुन्नी लक्ष्मी को समझाया करती थी, देख मालकिन धीरज में काम बनता है। समय एक समान नहीं रहता अच्छे दिन आते देर नहीं लगती। 

ठाकुर साहब कुछ कहें सुन लीजिए, ठाकुर सब कुछ ज्यादती में उतर आये एकदिन बेहोश घर में आकर तमतमा गये और लक्ष्मी के गाल पर दो तमाचा जड़ दिये। लक्ष्मी जोरों से चिल्लाकर रोयी अब देवकी से रहा नहीं गया, बोल पड़ी- बेवजह बेचारी को क्यों मार दिये। मैं तो मेरा अकेला बेटा सूरज की तरह है कहकर गर्व करती थी, लेकिन शर्म से आज मेरा सिर झुक गया, दुनिया के लोग क्या कहेंगे। घर को तमाशा बनाकर रख दिया। बिना कसूर हरकत करने लग गये हो। विश्राम सिंह अपनी माँ को बोला चुप रहो बूढ़ी कितने दिन तक साथ देगी, साँस के कुछ दिन रह गये है और शिक्षा देने चली। 

देवकी के अंतस में विश्राम सिंह के वचन काँटो की तरह चुभने लगे और हाय कहते-कहते काल कवलित हो गई। लक्ष्मी उदास रहने लगी एकमात्र लक्ष्मी के लिए सहारा पिता तुल्य ससुर थे। जो देवता-तुल्य थे। उनके समय में घर की मर्यादा और थी। लक्ष्मी का कुछ दिनों बाद एक संतान आ गयी, धूमधाम से नामकरण संस्कार संपन्न हुआ। लक्ष्मी को साहस आ गया। सन्तान के आने से लक्ष्मी को आधार मिला। दाऊ विश्राम सिंह समाजिक नियमानुसार सभी, कार्य सम्पन्न किये। लेकिन बुरी आदत से बाज नहीं आये। गाँव की एक महिला जो अपनी ससुराल को छोड़कर मायके में बैठी थी, उससे अनैतिक संबंध था दिन में विश्राम सिंह दोस्ती-यारी में गुजारता और रात उस महिला के घर में व्यतीत करता। 

एकदिन उस महिला को लेकर अपने घर ले आया। लक्ष्मी सिहर उठी, जुबान तक हिला नहीं सकी। अपनी बीती किससे कहती। बूढ़े दाऊ भी जान गये। पारिस्थिति प्रतिकूल जान चुप रह गये। एकदिन लक्ष्मी से रहा नहीं गया। लक्ष्मी तो परेशान रहती थी। अब दोनों ओर से ताने-बाने सुनते कान पक गये। अपने छोटे बच्चे कमल को लेकर अपनी मायके जाने को सोचती। बूढ़े दाऊ के चरण छूकर जब जाने लगी तब दाऊ ने कहा- मैं बेआधार हो जाऊँगा लक्ष्मी..! कुल में दाग लग जायेगा, हमारे खानदान में इस तरह कभी कोई घटना नहीं हुई है। दाऊ घनश्याम सिंह के कहने से लक्ष्मी रूक गई। 

कुछ दिनों बात दाऊ घनश्याम सिंह भी स्वर्गवास सिधार गये। अब लक्ष्मी अनाथ हो गई। एकमात्र सहारा भी छोड़ गये। रातदिन परेशान रहती। दाऊ विश्राम सिंह लक्ष्मी के हाथ को पकड़कर घर से बाहर कर दिया। कमल को लेकर अपने मायके पहुँची, तो पिता रामसिंह माता कुन्ती के दुख का पारावार न रहा। बेटी जब ससुराल से खुशी-खुशी आती है, तब आनंद का ठिकाना नहीं रहता, लेकिन जब पीहर से अपमानित होकर मैहर आती है तब माँ बाप पर बज्र का पहाड़ गिर जाता है, लेकिन नारी का दो ही ठिकाना होता है ‘ससुरे और माइके’ माइके में रहकर कमल को पढ़ाने-लिखाने लग गई यहाँ तक की मजदूरी करके जीवन निर्वाह करने लगी। कमल देखते-देखते बड़ा हो गया। वह अपनी माँ को सब कुछ मानने लग गया, अपनी माँ लक्ष्मी को दो रूपों में देखता पिता को वह जानता ही न था। कमल पढ़-लिखकर जवान हो गया। बी.एस.सी. तक की शिक्षा प्राप्त कर विद्यालय में शिक्षक हो गया, कहा जाता है माँ प्रथम गुरू होती है तो बेटा महान बन जाता है, भारत की संस्कृति में अनेक इस तरह कथायें है। कमल पर अच्छा संस्कार पड़ गया। 

शासकीय सेवा में लगने के कारण अनेक रिश्ते आने लगे। पास के ही श्यामपुर गाँव के दाऊ फूलसिंह की सुकुमारी कन्या उषा के साथ कमल का रिश्ता तय हो गया। विवाह की तैयारी प्रारंभ हो गई। लक्ष्मी की माँग में सिंदूर, हाथ में चूड़ियाँ देखते ही बनता था, सिर से कभी आँचल छूटता न था। पति से अलग रहकर भी सती की तरह जीवन-यापन करती थी। 

विवाह का समय नजदीक आते गया लक्ष्मी के आँसू बरबरस छलक पड़ते थे, जैसे आपदा से घिरी हो, बिस्तर पर जाने से पहले सोचती पिता के होते हुए भी आज कमल बिन पिता का हो रहा हैं। मैं अपने कर्तव्य से कैसे वंचित होऊँ, दुनिया के लोग क्या कहेंगे। लोकलाज तथा सामाजिक भय के कारण लक्ष्मी नारायणपुर अपने पति के पास संदेश भिजवाती है। दाऊ विश्राम सिंह जब से लक्ष्मी को अलग किया है तब से लाचार हो गया था। चेहरे में झुरियाँ तथा मुरझाया चेहरा और शरीर दुर्बल हो गया था। घर में उसकी रखैल चम्पा बहुत कर्कश थी रात की नींद और दिन को चैन महिनों उड़ गया था, जैसे ही कमल के विवाह का संदेश पाया, दाऊ विश्राम सिंह के हृदय में पिता का प्यार उमड़ पड़ा। वह कमल और लक्ष्मी को देखने व्याकुल हो रहा था। रास्ते भर सोचते विचारते जैसे ही लक्ष्मी की कुटिया के पास पहुँचा, पुकारा- लक्ष्मी..! दरवाजा खोलो। सचमुच कहा गया है दुख में साथ देने वाली धर्मपत्नी ही है। जैसे ही लक्ष्मी दरवाजा दाऊ विश्राम सिंह की दीनता पर आँसू छलक पड़े। दाऊ विश्राम सिंह कहने लगा। लक्ष्मी मुझे क्षमा करो, जवानी और दौलत के मद में मैं तुम्हें छोड़ दिया था। लक्ष्मी बोली सुबह का भूला यदि शाम को घर लौट आये तो सब क्षम्य होता है। 

लक्ष्मी और दाऊ विश्राम सिंह की बातें सुनकर कमल ने कहा- माँ..! ये बताओ ये कौन हैं, कैसे आये हैं? लक्ष्मी बोली- बेटा..! यही तुम्हारे पिता हैं। सब कुछ बताने पर कमल बोला माँ मेरे तो सब कुछ आप हैं, आपके आँचल की छाया ने मुझे जीवन दिया है, मैं माँ के कर्ज से उऋण नहीं हो सकता। ये तो सब ठीक है लेकिन पिता का गौरव होने का भी तुम्हें सौभाग्य मिल गया। अपना कर्तव्य का निर्वहन कराना पुत्र का धर्म है। मुझसे भी अधिक सम्मान पिता को दोगे। कमल माता-पिता का आर्शीवाद पाकर परिणय-बंधन में बंध गया। उषा वधू बनकर लक्ष्मी के घर आ गयी, तब विश्राम सिंह बोला- बेटा..! अब अपनी माँ और बहू को लेकर अपने घर चलो। दाऊ विश्राम सिंह अपने परिवार को लेकर जैसे ही हवेली पहुँचा, चम्पा रुपये पैसे को लेकर फरार हो गई थी। विश्राम सिंह पश्चाताप करते रहा, तमाम बुरी आदत को छोड़ अभिमान चकनाचूर हो गया। हवेली के शानो-शौकत फिर लौट आयी और स्वर्ग सा लगने लगा। सभी आनंदित होकर जीवन व्यतीत करने लगे। 

आँसू

ग़म के आँसू और खुशी के आँसू हर व्यक्ति के जीवन में आता है। ग़म को भुलाना और खुशियों में मुस्कुराना प्रकृति की अद्भूत कृति है। इससे आज तक कोई नहीं बच पाया है, तो भला किशन कैसे बच सकता था। उनके जीवन में भी काफी उतार-चढ़ाव आये। उसके विवाह हुए दो वर्ष हुए थे उनकी पत्नी श्यामा सगर्भा हुई, शिशु वात्सल्य नर्सिंग होम में डिलेव्हरी के लिये खुशी-खुशी श्यामा को किशन ले गया।

कुछ घंटों प्रतिक्षा के बाद श्याम ने बिटिया जन्म दी। किशन झूम उठा, मेरे आँगन में किलकारी गूँजेगी, अनगिनत सपने संजोने लगा, एकाएक नर्स किशन को कहती है- भाई साहब..! अपनी देवी की हालत का भी ख्याल करें, इतने में दूसरी परिचारिका आकर कहती है- भाई साहब..! बेटी तो पा गये आप, अपनी पत्नी खो गये। किशन के होश उड़ गये, चक्कर खाकर फर्श पर गिर पड़ा, मरीजों के देखभाल में आये हुये सज्जनों ने किशन के मुसीबत के सहभागी बनकर धीरज बँधाया। पूर्व में ही किशन लाल ने अपनी बिटिया का नाम श्वेता सोच लिया था।

जैसे ही श्यामपुर गाँव में अपनी पत्नी की निर्जीव काया और बच्ची को लेकर आया गाँव में भूचाल आ गया, बहुत बड़ी भीड़ उसके घर के चारों ओर दिखाई देने लगे, कुछ लोगों ने माथे पर हाथ धर दिये तो कुछ लोग किशन लाल को धीरज बँधाने लगे और बोले बच्ची का ख्याल कीजिये, दूर के रिश्तेदार भी आ गये। दाह-संस्कार किया गया, तत्पश्चात लोग अपने-अपने घर वापिस लौट गये।

घर का कोना कोना साँय-साँय लगता था। श्यामा की तश्‍वीर को देखकर किशन लाल के आँख से आँसू झर-झर झरने लगे। अपनी बिटिया श्वेता को बाँहो में रखकर सोचा यह भी क्या जीवन है कि मेरी लाडली का अब क्या होगा, एक ओर स्कूल की सेवा, दूसरी ओर श्वेता का लालन- पालन, कुछ बड़े सुलझे लोगों ने कहा- किशन लाल जी..! आपको गृहस्थी बसाना ही पड़ेगा, आज के जमाने में सहयोग की भावना ही कहाँ रह गई है कि ‘स्वारथ लाग करें सब प्रीति’ वाली बात दिखाई देने लगा है। किशन लाल के पास सबकी बातों को सुनने के आलावा रह क्या गया था, मन ही मन सोचता भगवान की भी अजीब दास्तान है। समय बीतते गया, श्वेता स्कूल जाने के लायक हो गयी, पड़ोसन सुखिया सेवा सुश्रुवा करके अपने घर की राह नाप लेती थी।

देखते ही देखते श्वेता कुछ होश संभाली और पापा सबकी मम्मी है और मेरी मम्मी कहाँ है, इतना सुनते ही किशन सजल हो जाता। बिटिया तुम्हारी मम्मी भगवान के घर चली गई है। कब लौटेगी? किशन ने कहा कुछ दिनों बाद लौट आयेगी। श्वेता पहली कक्षा में पढ़ने लगी। तब मेम ‘माँ’ पर एक कहानी कहने लगी, श्वेता बहुत ध्यान से कहानी सुनकर अपनी भींगी आँसूओं को हाथ से पोंछने लगी, तब मेम दास ने कहा- श्वेता..! आज तुम्हारी आँखें गिली है क्या बात है बेटा बोलो तो सही? मेम मेरी मम्मी भगवान के घर से अब तक नहीं लौटी है। मेम को समझते देर नहीं लगी, श्वेता को लेकर मेडम दास आयी और बोली- किशन लाल जी..! अब श्वेता समझदार हो रही है भुलावा देना ठीक नहीं, वास्तविकता को कब तक छिपाते रहेंगे? किशन लाल जी के पास मौन होने के सिवा कुछ शेष नहीं रह गया था। आँखें नम, हाथ जुड़े स्थिति देखकर श्वेता स्तब्ध रह गई, श्वेता बोली- पापा..! मम्मी नहीं लौटेगी? किशन ने कहा। बेटा..! नहीं लौटेगी। एक बार श्वेता चित्कार उठी और सिर पकड़कर बैठ गई और अपनी मम्मी की तस्वीर को एक टक निहारती खड़ी रह गई। किशन लाल श्वेता को पुचकारते दुलारते कहा- बेटी..! विधि के विधान के आगे नतमस्तक होना पड़ता है, तुम खूब पढ़ो और माँ का नाम रोशन करो, तू तो मेरी रोशनी है, यह जीवन अब तेरे लिये समर्पित है।

कुछ बरस बाद जब श्वेता यौवन की दहलीज पर कदम रखी, तब किशन लाल के चेहरे में चिंता की रेखायें उभर आयीं और इससे उबर पाना मुश्किल जान पड़ा, तब अपने ही कलेजे के टुकड़े से क्या छिपाना, हिम्मत जुटाते किशन लाल ने कहा बेटी बिटिया परायी धन होती है और फर्ज़ पूरा करना मेरा धर्म है। श्वेता की समझ में बात आ गई और बोली- पापा..! चाहे जो भी हो, अकेले आपको नहीं छोड़ सकती। मझधार में हो तो उसका निदान आवश्यक है कहकर श्वेता ने कहा मुझे बिदा करने के पहले आपके लिये घर बसाना उचित है, नहीं तो बेअधर हो जायेंगे, अकेलापन शरीर को दुर्बल और मन को कमजोर बना देता है।

गाँव में ही सजातीय परित्यक्ता सुशीला कन्हैया लाल की सज्ञान बिटिया किसी की सहारा के लिये बाट जोहती गुजर-बसर कर रही है। मैं प्रयास करती हूँ और सुशीला के विचारों से अवगत होकर आपको पापा मैं खबर करती हूँ। किसी का घर-संसार बसाना पुण्य है। किसी परित्यक्ता को अपना कर उसके जीवन की बगिया में जल सिंचन करने से बढ़कर और क्या पूजा हो सकती है।

किशन लाल अपनी बिटिया की सयानी बात सुनकर हतप्रभ हो गया और सोचने लगा श्वेता इतनी समझदार हो गई है लेकिन ‘सौतेली’ शब्द उनके जेहन को बेचैन कर दिया, यह कईयों के जीवन को बरबाद करने वाली बात है। श्वेता ने कहा- पापा..! पुरानी घिसी-पिटी बातों को लेकर चलने से दकियानुसी विचार मन में आते हैं, नये विचार, सकारात्मक सोच से जीवन दीर्घायु होता है। पापा मेरी बात मान जाइये, सुशीला मान गई है उनके परिवार को स्वीकार कर, ले आया। सुशीला श्वेता को खूब प्यार करने लगी, ऐसा लगता कि भगवान श्वेता की माँ को लौटा दिया है। किशन का उजड़ा घर बस गया। घर में खुशिहाली लौट आया।

श्वेता जैसे ही इक्कीस बरस की हुई, सुंदरता अपना पहचान बनाने चली। अनेक रिश्ते आये, अंत में हिमाँशु नाम के अच्छे लड़के के साथ श्वेता परिणय बंधन में बंध गई। श्वेता के पापा किशन लाल और मम्मी सुशीला हँसते-हँसते श्वेता को बिदा किये, लेकिन किशन लाल फिर एक बार दुख रूपी सरिता में डूबा सा नजर आने लगा, बड़ी जतन से पाला, पोसा आज मेरी दहलीज को छोड़ किसी दूसरे आँगन में शोभायमान होगी और अपने सद्व्यवहार से सबको खुशियाँ प्रदान करेगी। इस तरह विचार करते आँखों में किशन लाल के आँसू छलक आये। सुशीला किशन लाल को भावविभोर देखकर व्याकुलता के साथ बोली- श्वेता ने हम दोनों के आँसू पोंछकर हमारा नया संसार बसाकर अपनी नयी जिंदगी प्रारंभ करने जा रही है, हम श्वेता को अपनी ओर से कभी पीड़ा नहीं देंगे, बल्कि उसकी आँखों में खुशियाँ ही देखें ऐसा जीवन व्यतीत करेंगे और समाज को हम अपने सद्‌व्यवहार का परिचय देकर एक सीख देंगे कि ‘जिंदगी में तूफान आते हैं लेकिन इससे हार नहीं मानना चाहिए’।

रामदास


हाथ में छीनी, हथौड़ा, घन काँधे पर लटकाये, नगर के गलियों में घूमता रामदास- ‘राम का नाम लेकर जो मर जायेंगे, अमर नाम दुनिया में कर जायेंगे’ गाता हुआ सबसे राम-रमव्वल करता काम के खोज में घुमता था। रामदास की आवाज को सुनकर लोग अपने चौखट से निकलकर पूछते- कहो रामदास..! कहाँ काम चल रहा है? रामदास कहता- भैय्या..! काम इतने हैं कि राम की कृपा से फुर्सद नहीं है। श्यामलाल मास्टरजी सेवानिवृत्त हो चुके थे। 

सेवा में रहते बेचारा मकान बनाने की बात सोच नहीं सकता था, जैसे ही रिटायर्ड हुआ रामदास से पूछा- रामदास..! अटैच लेटबाथ बनाने का सोच रहा हूँ, क्या उसके लिए जमीन की खुदाई कर दोगे, मशीन लौट गया लेकिन खुदाई नहीं कर सका? रामदास ने कहा- मास्टर जी..! आप जैसे सज्जन इंसान के घर काम करने का मजा कुछ और ही है, सप्ताह भर में खुदाई करके रामदास मास्टरजी के चरण छूकर विदा होने लगा। तब मास्टरजी हजार रुपये देकर कहा- रामदास..! सुख-दुख में भी मेरा खयाल रखना, क्योंकि मेरे दोनों बेटे रतन और कमल बाहर सर्विस में है। मैं और तुम्हारी माँ (मास्टर की पत्नी) दोनों ही घर पर रहते हैं और देवीजी को हाथ जलाना पड़ता है। ठीक है मास्टरजी..! दुनिया से आदमी जब जब विदा होता है तो खाली हाथ जाता है, रहते तक मेरा है फिर क्या रखा है, जो कुछ रहता है तो व्यवहार को लोग याद करते हैं। ऐसा कहकर रुपये लेकर चला गया और जाकर अपनी पत्नी सुमित्रा को हजार रुपये दिया। सुमित्रा उछल पड़ी चूँकि हजार रुपये के नोट को पहली बार देखी थी। बड़े जतन से पेटी पर रख दी। 

नगर के ही दाऊ किशन लाल, रामदास के घर पहुँचा और पुकारने लगा, रामदास आवाज सुनकर निकला और चरण छुकर- मेरे गरीब की कुटिया में दाऊजी आ गये, खुशी का ठिकाना न रहा। हाथ जोड़कर रामदास ने पूछ- दाऊजी ..! कहिये, क्या सेवा करूँ? दाऊ किशनलाल ने कहा- सुना हूँ मामूली मास्टरजी के घर लेटबाथ बन गया, जो मेरी हवेली में नहीं है, चल अभी..! जल्दी खुदाई कर ताकि जल्दी मैं भी लेटबाथ तैयार कर सकूँ। रामदास- हाँ दाऊजी..! बस यही काम है। सप्ताह भर में दाऊजी की घर की खुदाई हुई। पाँच सौ रुपये देकर दाऊ किशन लाल, रामदास को बिदा किया। घर में पहुँचकर अपनी पत्नी को जब दाऊजी के दिए हुए रुपये को दिया तब सुमित्रा आग बबूला हो गया और बोली- ‘नाम बड़े दर्शन छोटे’ रामपुर के दाऊ किशनलाल और पाँच सौ रुपये दिये। रामदास बोला- सुमित्रा..! ज्यादा चटोरी मत बन, दीवार के भी कान होते हैं। भगवान की कृपा से कहीं और मिल जायेगा। कुछ दिनों बाद सुमित्रा खाट पकड़ ली। 

नजदीक के सरकारी अस्पताल में रामदास अपनी पत्नी को दिखाया, डॉक्टर साहब किसी बड़े अस्पताल के लिए रिफर कर दिये। रामदास माथे पर हाथ धर लिया। आगे बड़े डॉक्टर को दिखाने में काफी रुपये लगेंगे। चिंता में पड़ गया पर हाथ पर हाथ धरे रहने से कुछ नहीं होता, चलूँ दाऊजी के हवेली में दाऊ जी को दया आ जाय, जैसे ही रामदास दाऊजी के दौलतखाने में पहुँचा। दाऊजी- रामदास..! कैसे आना हुआ? रामदास- दाऊ जी..! मेरी पत्नी बीमार पड़ गई है, बड़े डॉक्टर को दिखाने सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ने कहा है, कृपया करके दया कीजिये और पन्द्रह हजार रुपये मुझे देने की कृपा करेंगे, मैं मेहनत मजदूरी करके रुपये चुका दूँगा। भौंहे टेढ़ी करते हुए दाऊ किशन लाल बोले- दो दिन हुए मेरे बेटे व्यापार के लिए रुपये ले गये हैं, नहीं तो तुम्हारे लिए थोड़े कोई बात थी, ऐसा कहते हाथ पोंछ लिया। 

रामदास विचार करने लगा दाऊ जी की तो ये हाल है तो मेरा क्या हाल होगा? फिर भी मन को धीरज बँधाते श्यामलाल मास्टरजी के घर गया, श्यामलाल जी बड़े दयालु थे। रामदास का लटका हुआ चेहरा देखकर पूछा- कहो रामदास..! राम का दास क्यों है उदास...कारण तो बताओ सही मेरे पास? रामदास बोला- मास्टर जी..! सुमित्रा कुछ दिनों से बीमार है, उसे कोई बड़े अस्पताल ले जाना जरुरी है। हाथ खाली हो गये हैं, सप्ताह भर से काम धँधे बंद है। मुझे पन्द्रह हजार रुपये की आवश्यकता है। श्याम- लाल जी ने कहा- रामदास..! मुसीबत में जो साथ दे वही तो इन्सान है, मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है। इतना कहकर मास्टर जी ने पन्द्रह हजार रुपये रामदास के हाथों में दिए। रामदास सजल होकर मास्टर जी के पैरों तले गिर पड़ा और बोला- धन्य है मास्टर जी..! मेरे लिए आप साक्षात देवता हैं। मैं जल्दी रुपये लौटा दूँगा। 

रामदास घर गया और सब बात अपनी पत्नी सुमित्रा से कहा। सुमित्रा बोली- हम लोग मास्टरजी के जन्म-जन्मान्तर ऋणी रहेंगे। रामदास अपनी पत्नी का ईलाज कराकर मास्टरजी के घर गया और रुपये लौटाने लगा। मास्टर जी ने कहा- रामदास मुझे रुपये नहीं चाहिए, एक ही बात कह रहा हूँ, हम दोनों का शरीर अब पुराना हो गया है। धर्मपुत्र बनकर तुम दोनों हमारे घर में ही रहकर हमारी देख-रेख करो। मेरे दोनों बेटे परदेश में रहते परदेशी हो गये हैं। रामदास और उसकी पत्नी सुमित्रा, मास्टरजी और उनकी पत्नी की सेवा में जुट गये। रामदास और सुमित्रा मास्टरजी के बहू-बेटे की भाँति सेवा करने लगे। रामपुर के लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते धन्य है मास्टरजी, धन्य है रामदास। 

दीपावली अवकाश में जब मास्टरजी के दोनों बेटे अपने परिवार सहित घर पहुँचे तब रामदास और सुमित्रा को देखकर अपने पिता से आश्चर्यचकित होकर पूछे- पिताजी..! ये कौन है? तब मास्टर जी ने कहा- ये मेरे धर्म के बहु और बेटे है। तुम दोनों अपने-अपने ठिकाने में ही रहो मेरे सुख-दुख में रामदास और सुमित्रा है। कभी-कभी सुधी ले लिया करो। अब मैं और तुम्हारी माँ सुखपूर्वक दिन गुजार रहें है। श्वाँसा का क्या ठिकाना।


मर्यादा


पंडित कन्हैया लाल जी अपने गाँव नंदनपुर के साथ ही साथ पूरे इलाके के बड़े प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य के साथ ही प्रवचनकर्ता थे। उनके प्रवचन सुनने लोगों की अपार भीड़ देखते ही बनती थी। पंडित जी का व्यक्तित्व देखते ही बनता था। साथ ही उनका लिबास भी आकर्षक रहता था। परमसुख की धोती कोसा का कुरता, चमकता हुआ गले में दुपट्टा काफी आकर्षक लगता था। घोड़े की सवारी करते थे, बाजार-हाट, मण्डाई में जब पहुँचते तो उसके चरण छूने लोग दौड़ पड़ते थे जिसके घर में पंडित जी पहुँचे गये तो समझो उनके घरों में चार-चाँद लग गये। 

कुछ इस तरह उनको शोहरत ईश्वर की ओर से मिला था जो पण्डित जी के नजरों में आ जाते निहाल हो जाते थे। धन से पण्डित जी आबाद थे लेकिन कह गया है कि- ‘भगवान कहीं न कहीं कुछ न कुछ कमी कर देते हैं’ उनके आँगन में बच्चों की किलकारी का अभाव था। बड़ी पत्नी से कोई संतान न था। लाख उपवास, व्रत, मनौती के बाद भी तकदीर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। गाँव के बड़े-बूढ़ों ने कहा- महराज..! आपकी बड़ी हवेली है और हवेली बिन दीपक के अंधियारा उचित नहीं है, अच्छा होता इसके लिए क्यों न दूसरी देवी ले आते। पण्डित जी गाँव के सियानों की बात मान कर चम्पा नाम की सीधी गंभीर स्वभाव वाली कन्या ब्याह कर ले आये। 

पण्डित जी की बड़ी पत्नी उमा सुशीला थी। काफी देवी-देवताओं को मानने वाली थी। भजन, पूजन में अधिकांश समय व्यतीत होता था। विपरीत परिस्थितियों में भी मुस्कुराना उसकी स्वभाव की पहचान थी। कुछ कालोपरांत भगवत कृपा से दोनों पण्डिताइन सगर्भा हो गई। दोनों की गोद में बड़ा प्यारा दुलारा आ गया। पण्डित जी नौ-निहाल हो गये, एक की कामना थी भगवान की ओर से दो पूत-सपूत निकले। विद्याधन के साथ ही वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने लगे। युवा दहलीज पर कदम रखते ही दोनों पण्डित जी के लाल उँची शिक्षा प्राप्त करने अन्यत्र नगर चले गये। सही उम्र में पहुँचने पर दोनों का विवाह रमा और उषा के साथ सम्पन्न हो गया। बड़ा पुत्र सुधीर, छोटा पुत्र सुनील दोनों मित्रवत रहते थे, दोनों के बीच बलदाऊ और कृष्ण के समान मित्रता थी। ऊँची शिक्षा प्राप्ति के बाद दोनों को नौकरी मिल गई बड़ा सुधीर लड़का सुधीर शिक्षक हो गया और दूसरा लड़का सुनील अभियंता हो गया। एकदिन सुनील अपने अग्रज सुधीर से बोला- भैया..! एक बात कहूँ आप अपने बहू को आशीर्वाद दे दीजिए ताकि भगवान हम दोनों को सही सलामत रखे। सुधीर ने कहा- सुनील..! तुम्हारा भाग्य बड़ा प्रबल है, तुम अभियंता हो और तुम्हारी देवी भी पढ़ी लिखी और सुन्दर भी है। मैं कहाँ प्राथमिक शाला का शिक्षक और तुम्हारी भाभी भोली-भाली है, लेकिन मुझे इस बात का गर्व रहता है कि मेरा अनुज मेरा खूब आदर करता है और अपने भाभी को भाभी माँ कहकर सम्मान देता है। सच कहूँ सुनील मेरा छाती फूल जाता है। 

एकदिन पण्डित जी बोले- सुनील..! तुम अपने परिवार के साथ रहो, क्योंकि तुम्हारी नौकरी काफी परेशानी की नौकरी है। हाथ जलाना ठीक नहीं। सुधीर की मामूली नौकरी है घर पर रह कर मेरे काम में हाथ बँटायेगा और हम लोगों की सेवा करेगा। पण्डित जी के नेक सलाह से सुनील खुश हो गया अंधा चाहे दो आँख वाली बात हो गयी और अपनी पत्नी उषा के साथ सर्विस करने नागपुर चला गया। पण्डित जी के जीवन में बाँछे खिल गई। अखबार के पन्नों में उनका नाम सुर्खियों में आने लग गया। खुशी के दिन जल्दी बीत जाती है। कुछ दिनों बाद सुनील पिता बनने का स्वप्न देखने लगा। सुनील की पत्नी सगर्भा हो गई। एकाएक दर्द से व्याकुल होकर सुनील की पत्नी चिखने लगी। 

समीप के हॉस्पिटल में सुनील उषा को चेक कराने ले गया लेकिन कुछ भी राहत नहीं मिलने पर डॉक्टर बड़े हॉस्पिटल के लिए रिफर कर दिये। बड़े हॉस्पिटल के डॉक्टर ने कहा- मामला बड़ा रिस्की है फिर भी हम प्रयास करते हैं। सजल नेत्रों से अपने अग्रज सुधीर के पास पत्र भेजा। भैया आप जल्दी आ जावो। पत्र पाकर सुधीर जल्दी ही सुनील से मिलने गया। सुनील ने कहा- भैया..! जब आपकी बहू पहली बार अपने मायके से हमारे घर आयी थी तब आप पहली बार देखे थे। आज बेड पर पड़ी असहाय हो गई है, डॉक्टर ने जवाब दे दिया है। चलिए आप अंतिम क्षणों में देख लीजिए। जैसे ही आपात कक्ष में सुनील की पत्नी को देखने गया मरनासन्न स्थिति में राम-राम रट लगा रही थी जब सुधीर को देखा तो मेरे जेठ मेरे देवता हैं, भाव व्यक्त हुआ सुधीर फफककर रो पड़ा और सुनील को गले लगा कर भाई रे..! बहू को जब मैं पहली बार देखा था तब लक्ष्मी की तरह दमक रही थी आज अंतिम समय में भी मर्यादा का ख्याल रखकर देवी के रूप में परिलक्षित हो रही है। दोनों भाई लिपटकर रोने लगे। सुधीर ने कहा- भाई..! धीरज रखो सुहागिन होकर संसार से बिदा होना सौभाग्य की बात है और जीवन में जो मर्यादा का ख्याल रखते हैं और नारी जीवन पाने के यथार्थ को जो समझते हैं वही नारी सीता, सावित्री, अनुसुइया होती है। पतिव्रता धर्म ही नारी का आभूषण है इसका सदा ख्याल हमारे परिवार में हमारी बहूरानी ने रखा। कुछ देर बाद हॉस्पिटल के वार्ड ब्वाय ने खबर किया कि आप लोग कमरा नं. १४ से डेड बॉडी ले जायें। 

सुनील पर पहाड़ टूट गया उषा के पार्थिव शरीर को नंदपुर गाँव लाया गया। उसकी मातम-पुरसी में हजारों लोग पहुँचे थे। क्षण भर में चिता जलकर राख हो गया। अश्रुपुरित सजल नेत्रों से लोगों ने विदा किया। श्रद्धासुमन अर्पित किये जब सुनील घर पहुँचा माथे पर हाथ रख कर रो रहा था। तब सुधीर ने कहा- मेरे भाई..! यह संसार है संसार में सुख-दुख लगा रहता है। एक बात कहूँ... बहू की मर्यादा का पालन घर में सबको करना चाहिए। बहू आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन दीवार पर जो उसकी तस्वीर टंगी हुई है। देख उसमें मुस्कान है लेकिन मर्यादा सहित दिखाई दे रही है। मर्यादा ही जीवन का श्रृंगार है मर्यादामय जीवन जीते हुए संसार में पहचान बनाकर हमारी बहू दुनियाँ से चली गई लेकिन तुम अकेले नहीं हो, उसकी मर्यादा तुम्हारे साथ है। हम सब तुम्हारे सुख-दुख के सदैव भागी रहेंगे। ऐसा कहकर सुधीर भाई के सजल नेत्रों को अपने रूमाल से पोंछने लगा और हृदय से सुनील को लिपटा लिया।


गरीब की कुटिया

श्यामा घास-फूस से बनी झोपड़ी में रहती थी। वह भूल नहीं सकती वह दिन जब मोहन के पिताजी जीवित थे, अब वैधव्य ने उसे बड़ी तंगी के दिन दिये थे। मोहन छोटा था तभी उसके पिताजी चल बसे, उनके जाने के बाद तो मेहनत मजदूरी ही उसका सहारा था। कभी वह किसी के घर बर्तन माँजती, तो कभी खेतों में काम करने जाती। 

मोहन ५ साल का हुआ तो उसे उसकी पढ़ाई और स्कूल जाने की चिंता सताने लगी। कभी वह अन्य बच्चों को यूनिफार्म में स्कूल जाते देखती तो उसकी उत्कृष्ट अभिलाषा और बढ़ जाती। आर्थिक तंगी को बर्दाश्त करनेवाली श्यामा सोचती- वह कहाँ से लाये बेटे के लिए यूनिफार्म, पुस्तकें कापियाँ। क्या अपने बेटे को वह निरक्षर रख देगी? सवाल उसके जेहन में कौंध-कौंध उठता। 

ऐसा कभी नहीं होगा, वह स्वयं समाधान कर लेती। चाहे कर्ज करना पड़े पर बेटे को पढ़ायेगी जरुर। वह दृढ़ संकल्पित थी। क्यों न हो, जो अतीत में उसने भोगा पर्याप्त न था ? 

सहसा श्यामा उठी और दौड़ी-दौड़ी पहुँच गई गाँव के साहूकार रामलाल के पास जाकर बोली- सेठ जी..! बच्चे को पढ़ाना है, स्कूल में दाखिल करना है कृपया १०० रुपये की मदद कर देंगे..! याचना भरे शब्दों में वह बोली। रामलाल के चेहरे पर कुटिल मुस्कान उभर आई, बोला- पैसे तो दूँगा पर सूद लगेगा और समय पर चुका देना। श्यामा तो पाई-पाई चुकाने को तैयार थी। रामलाल ने पैसे दिये। पैसे पाकर उसमें गजब की शक्ति आ गई। बाजार पहुँची, मोहन के लिए स्कूल के कपड़े, प्रारंभिक कक्षा की पुस्तकें एवं कापियाँ खरीदी। मोहन को स्कूल ले गई और नाम लिखवा दिये। 

मोहन नित्य स्कूल जाने के लिए निकलता तो श्यामा मन ही मन बड़ी प्रसन्न होती। मोहन स्कूल से लौटता, सबक बनाता गुरुजनों को दिखाकर वाहवाही लूटता। कक्षा शिक्षक व प्रधानाध्यापक उसकी होशियारी पर गर्व करते। दिन बीतते जा रहे थे। प्रत्येक वर्ष मोहन सर्वश्रेष्ठ अंक पाकर उत्तीर्ण होता। स्कूल मित्र, पड़ोसी व ग्राम्यजन उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। उधर मेहनत-मजदूरी करके श्यामा ने रामलाल का हर कर्जा अदा कर दिये और जब कक्षा १२वीं का परीक्षा परिणाम निकला, मोहन दौड़ता हुआ घर आया, माँ के चरण छुआ, परिणाम सुनकर श्यामा के खुशी के आँसू टपक पड़े। मोहन प्रावीण्य सूची में प्रथम स्थान पर था। 

प्रथम सोपान पूरा हुआ था। अब दूसरा सोपान कैसे पूरा हो- श्यामा सोचती। उच्च शिक्षा के लिए पैसों की जरुरत थी। अकस्मात प्रबंध संभव ना था। श्यामा ने एक कठोर निर्णय लिया, अपनी कुटिया को गिरवी रखने का। येन-केन-प्रकारेण वह अपने बच्चे को उच्च शिक्षा प्रदान कराना चाहती थी। श्यामा पुनः गई रामलाल से अनुरोध करने। रामलाल चबुतरे पर बैठकर उँगलियों से कुछ गिन रहा था, तभी श्यामा वहाँ पहुँची। रामलाल की आँखों में चमक आ गई। श्यामा ने आने का आशय बताया और कहा- मैं अपनी कुटिया गिरवी रखती हूँ पर आप बच्चे के पढ़ाई होते तक पैसा पूर्ति करेंगे। रामलाल की बाँछे खिल गई, अगर ये बुढ़िया कुटिया ना छुड़ा सकी तब उसकी संपत्ति मेरी हो जायेगी। बिना ना नुकुर के उसने पैसे देना प्रारंभ कर दिये। 

वक्त बीतते देर कहाँ लगती है, वह दिन भी आ गया जब मोहन की पढ़ाई पूरी हो गई। स्नातकोत्तर परीक्षा में भी उसने प्रावीण्य स्थान प्राप्त किया। अखबार के मुखपृष्ठ पर नाम प्रकाशित हुआ। श्यामा की खुशी का पारावार ना रहा। उसका सपना जो साकार हो रहा था। एकदिन मोहन के एक मित्र ने आकर सूचना दी- मौसीजी..! प्रावीण्य सूची होने के कारण मोहन तुरन्त एक बैंक का अधिकारी बन गया है। श्यामा इसी दिन का बाट जोह रही थी। मोहन के मित्र ने जैसे ही यह खुशी की बात बताई, उसने मिठाई का एक टुकड़ा उसके मुँह में ठूस दिया । काम से निवृत्त होकर वह मिठाई का पैकेट लेकर रामलाल के घर की ओर चल पड़ी। पहुँचते ही बेटे के कॉलेज में उत्तीर्ण होने व बैंक अधिकारी बन जाने का समाचार सेठ को सुनाई। रामलाल पर मानों गाज गिर गया... कहाँ उसने सोचा था गरीबों की कुटिया हथियाने की बात, उल्टा हो गया... यह सोच वह फुसफुसाने लगा- राम-राम, राम-राम। श्यामा उलझन में फँस गई, उसकी खुशी में खुशी व्यक्त करने के बजाय सेठ जी क्या सोच रहे हैं। उसने टोका- ये आप राम-राम कैसे कह रहे हैं, मेरा बेटा पास हो गया और अधिकारी बन गया, मैं यही बताने आई हूँ, यह लो मिठाई। बरबस रामलाल को मिठाई खानी पड़ी तभी एक कार आकर रूकी। उसमें से मोहन निकला और माँ की ओर लपका, श्यामा भी पुत्र को देखकर आँचल फैला दिये। प्रेम व ममता से वातावरण उल्लासित हो रहा था। अचानक मोहन ने रुपयों की गड्डी रामलाल की ओर बढ़ा दी, कहा- लीजिए कुटिया को गिरवी रखने की पूरी राशि सूद सहित, पैसे गिन लीजिए।  इस प्रकार गरीब की कुटिया तबाह होने से बच गई और ममता का स्वप्न पूरा हो गया।

भारतीय गणना

आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!