हाथ में छीनी, हथौड़ा, घन काँधे पर लटकाये, नगर के गलियों में घूमता रामदास- ‘राम का नाम लेकर जो मर जायेंगे, अमर नाम दुनिया में कर जायेंगे’ गाता हुआ सबसे राम-रमव्वल करता काम के खोज में घुमता था। रामदास की आवाज को सुनकर लोग अपने चौखट से निकलकर पूछते- कहो रामदास..! कहाँ काम चल रहा है? रामदास कहता- भैय्या..! काम इतने हैं कि राम की कृपा से फुर्सद नहीं है। श्यामलाल मास्टरजी सेवानिवृत्त हो चुके थे।
सेवा में रहते बेचारा मकान बनाने की बात सोच नहीं सकता था, जैसे ही रिटायर्ड हुआ रामदास से पूछा- रामदास..! अटैच लेटबाथ बनाने का सोच रहा हूँ, क्या उसके लिए जमीन की खुदाई कर दोगे, मशीन लौट गया लेकिन खुदाई नहीं कर सका? रामदास ने कहा- मास्टर जी..! आप जैसे सज्जन इंसान के घर काम करने का मजा कुछ और ही है, सप्ताह भर में खुदाई करके रामदास मास्टरजी के चरण छूकर विदा होने लगा। तब मास्टरजी हजार रुपये देकर कहा- रामदास..! सुख-दुख में भी मेरा खयाल रखना, क्योंकि मेरे दोनों बेटे रतन और कमल बाहर सर्विस में है। मैं और तुम्हारी माँ (मास्टर की पत्नी) दोनों ही घर पर रहते हैं और देवीजी को हाथ जलाना पड़ता है। ठीक है मास्टरजी..! दुनिया से आदमी जब जब विदा होता है तो खाली हाथ जाता है, रहते तक मेरा है फिर क्या रखा है, जो कुछ रहता है तो व्यवहार को लोग याद करते हैं। ऐसा कहकर रुपये लेकर चला गया और जाकर अपनी पत्नी सुमित्रा को हजार रुपये दिया। सुमित्रा उछल पड़ी चूँकि हजार रुपये के नोट को पहली बार देखी थी। बड़े जतन से पेटी पर रख दी।
नगर के ही दाऊ किशन लाल, रामदास के घर पहुँचा और पुकारने लगा, रामदास आवाज सुनकर निकला और चरण छुकर- मेरे गरीब की कुटिया में दाऊजी आ गये, खुशी का ठिकाना न रहा। हाथ जोड़कर रामदास ने पूछ- दाऊजी ..! कहिये, क्या सेवा करूँ? दाऊ किशनलाल ने कहा- सुना हूँ मामूली मास्टरजी के घर लेटबाथ बन गया, जो मेरी हवेली में नहीं है, चल अभी..! जल्दी खुदाई कर ताकि जल्दी मैं भी लेटबाथ तैयार कर सकूँ। रामदास- हाँ दाऊजी..! बस यही काम है। सप्ताह भर में दाऊजी की घर की खुदाई हुई। पाँच सौ रुपये देकर दाऊ किशन लाल, रामदास को बिदा किया। घर में पहुँचकर अपनी पत्नी को जब दाऊजी के दिए हुए रुपये को दिया तब सुमित्रा आग बबूला हो गया और बोली- ‘नाम बड़े दर्शन छोटे’ रामपुर के दाऊ किशनलाल और पाँच सौ रुपये दिये। रामदास बोला- सुमित्रा..! ज्यादा चटोरी मत बन, दीवार के भी कान होते हैं। भगवान की कृपा से कहीं और मिल जायेगा। कुछ दिनों बाद सुमित्रा खाट पकड़ ली।
नजदीक के सरकारी अस्पताल में रामदास अपनी पत्नी को दिखाया, डॉक्टर साहब किसी बड़े अस्पताल के लिए रिफर कर दिये। रामदास माथे पर हाथ धर लिया। आगे बड़े डॉक्टर को दिखाने में काफी रुपये लगेंगे। चिंता में पड़ गया पर हाथ पर हाथ धरे रहने से कुछ नहीं होता, चलूँ दाऊजी के हवेली में दाऊ जी को दया आ जाय, जैसे ही रामदास दाऊजी के दौलतखाने में पहुँचा। दाऊजी- रामदास..! कैसे आना हुआ? रामदास- दाऊ जी..! मेरी पत्नी बीमार पड़ गई है, बड़े डॉक्टर को दिखाने सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ने कहा है, कृपया करके दया कीजिये और पन्द्रह हजार रुपये मुझे देने की कृपा करेंगे, मैं मेहनत मजदूरी करके रुपये चुका दूँगा। भौंहे टेढ़ी करते हुए दाऊ किशन लाल बोले- दो दिन हुए मेरे बेटे व्यापार के लिए रुपये ले गये हैं, नहीं तो तुम्हारे लिए थोड़े कोई बात थी, ऐसा कहते हाथ पोंछ लिया।
रामदास विचार करने लगा दाऊ जी की तो ये हाल है तो मेरा क्या हाल होगा? फिर भी मन को धीरज बँधाते श्यामलाल मास्टरजी के घर गया, श्यामलाल जी बड़े दयालु थे। रामदास का लटका हुआ चेहरा देखकर पूछा- कहो रामदास..! राम का दास क्यों है उदास...कारण तो बताओ सही मेरे पास? रामदास बोला- मास्टर जी..! सुमित्रा कुछ दिनों से बीमार है, उसे कोई बड़े अस्पताल ले जाना जरुरी है। हाथ खाली हो गये हैं, सप्ताह भर से काम धँधे बंद है। मुझे पन्द्रह हजार रुपये की आवश्यकता है। श्याम- लाल जी ने कहा- रामदास..! मुसीबत में जो साथ दे वही तो इन्सान है, मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है। इतना कहकर मास्टर जी ने पन्द्रह हजार रुपये रामदास के हाथों में दिए। रामदास सजल होकर मास्टर जी के पैरों तले गिर पड़ा और बोला- धन्य है मास्टर जी..! मेरे लिए आप साक्षात देवता हैं। मैं जल्दी रुपये लौटा दूँगा।
रामदास घर गया और सब बात अपनी पत्नी सुमित्रा से कहा। सुमित्रा बोली- हम लोग मास्टरजी के जन्म-जन्मान्तर ऋणी रहेंगे। रामदास अपनी पत्नी का ईलाज कराकर मास्टरजी के घर गया और रुपये लौटाने लगा। मास्टर जी ने कहा- रामदास मुझे रुपये नहीं चाहिए, एक ही बात कह रहा हूँ, हम दोनों का शरीर अब पुराना हो गया है। धर्मपुत्र बनकर तुम दोनों हमारे घर में ही रहकर हमारी देख-रेख करो। मेरे दोनों बेटे परदेश में रहते परदेशी हो गये हैं। रामदास और उसकी पत्नी सुमित्रा, मास्टरजी और उनकी पत्नी की सेवा में जुट गये। रामदास और सुमित्रा मास्टरजी के बहू-बेटे की भाँति सेवा करने लगे। रामपुर के लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते धन्य है मास्टरजी, धन्य है रामदास।
दीपावली अवकाश में जब मास्टरजी के दोनों बेटे अपने परिवार सहित घर पहुँचे तब रामदास और सुमित्रा को देखकर अपने पिता से आश्चर्यचकित होकर पूछे- पिताजी..! ये कौन है? तब मास्टर जी ने कहा- ये मेरे धर्म के बहु और बेटे है। तुम दोनों अपने-अपने ठिकाने में ही रहो मेरे सुख-दुख में रामदास और सुमित्रा है। कभी-कभी सुधी ले लिया करो। अब मैं और तुम्हारी माँ सुखपूर्वक दिन गुजार रहें है। श्वाँसा का क्या ठिकाना।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें