जन लोकपाल विधेयक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
जन लोकपाल विधेयक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 21 अगस्त 2011

जन-नायक

जननायक बनकर उभरे अन्ना हजारे दरअसल आम आदमी है और आम आदमी ही बने रहना चाहते हैं। इसलिए उनके हिमायत में आम आदमी भी सड़कों पर उतर आया है शायद । आंदोलन जहाँ भी पहुँचे, पर अन्ना इतिहास में अपनी कुर्सी पक्की कर चुके हैं। किन गुणों ने उन्हें जन नायक बनाया...

दो छवियां देशवासियों को काफी दिनों तक नहीं भूलेंगी।15 अगस्त की शाम को दिल्ली में महात्मा गांधी के समाधि स्थल राजघाट पर ध्यान की मुद्रा में चुपचाप अकेले बैठे अन्ना हजारे। पृष्ठभूमि में हरी घास का मैदान। हरेक मिनट बीतने के साथ चारों तरफ आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ती लोगों की भीड़। 

जिसे जब पता चला वह जहां कहीं था राजघाट की ओर दौड़ पड़ा। अगली सुबह अन्ना अपनी योजना के मुताबिक आमरण अनशन पर बैठने वाले थे। उन्हें अनशन के लिए जगह और अनुमति देने से इनकार किया जा चुका था।

ऐसे में बिना किसी पूर्व घोषणा के वह चुपचाप बापू की समाधि पर आकर बैठ गए। दो-ढाई घंटे बैठे रहे। बीच-बीच में चश्मा उतारकर आंख पोंछते अन्ना। चारों तरफ हलचल बढ़ रही थी। लोगों का हुजूम उमड़ रहा था। पर सबसे निरपेक्ष अन्ना ध्यान में डूबे वहां बैठे थे। मानो आने वाली चुनौती का मुकाबला करने के लिए शक्ति जुटा रहे हों।

दूसरी अविस्मरणीय छवि है अगले दिन देश के छोटे-बड़े कई शहरों में सड़कों पर उमड़े जनसैलाब की। अन्ना को सुबह निषेधाज्ञा का उल्लंघन करने से पहले ही हिरासत में लिया जा चुका था। 16 अगस्त की सुबह जिसने भी टेलीविजन खोला उसे अन्ना की गिरफ्तारी की खबर मिलने के साथ ही दिल्ली की सड़कों पर लोगों के एकत्र होने की तस्वीरें दिखने लगीं। जहां-जहां अन्ना को ले जाए जाने की खबर मिलती छात्रों-युवाओं की टोलियां उधर ही दौड़ जातीं। 

दोपहर तक कई स्थलों पर जोश से भरे लोगों का हुजूम इकट्ठा हो गया। दूसरे शहरों से भी ऐसे ही प्रदर्शनों की खबरें और तस्वीरें आने लगीं। हाथ में तिरंगे लिए, सिर पर अन्ना टोपीलगाए, प्लेकार्ड लहराते लोगों की तस्वीरें। शांत और उत्सुक लोगों की तस्वीरें। जरूरी और अहम काम का बीड़ा उठाने के अहसास से लबालब चेहरों की तस्वीरें। अपने भीतर गुस्से को जज्ब करते लोगों की तस्वीरें। अगले कुछ दिन टेलीविजन स्क्रीन पर ऐसी तस्वीरें आम हो गईं। उनमें विस्मय का बोध कम होता गया, लेकिन गंभीरता और जनसैलाब का आकार बढ़ता गया। 

इन दो छवियों को जोड़कर देखने पर इनमें राष्ट्रीय फलक पर एक नए जनांदोलन और जननेता का उभार देखा जा सकता है। इनमें देश की तरुणाई की अंगड़ाई है, तो एक बुजुर्ग नेता की नई विराट जनछवि भी है। 

आखिर क्या वजह है कि एक 74 बरस के बुजुर्ग ने युवाओं और लोगों की नब्ज को इस तरह छू लिया है कि जैसे पिछले दो-तीन दशकों में कोई भी दूसरा नेता नहीं कर सका? क्या वजह है कि अन्ना हजारे ने लोगों में इतने गहरे विश्वास की भावना भर दी कि उनके लिए वे सड़कों पर उतर आए? 

हाल में कोई भी दूसरा नेता इस तरह जनाकांक्षाओं का केंद्र बनकर नहीं उभर सका, जिस तरह अन्ना उभर सके? आइए अन्ना के ऐसे 10 गुणों को देखते हैं जिन्होंने उन्हें इस उम्र में देशवासियों, खासकर युवाओं के दिलों का नायक बना दिया। 

1. सादगी
अन्ना के व्यक्तित्व की जिस खूबी पर सबसे पहले ध्यान जाता है वह है उनकी सादगी। यह सादगी कदकाठी से लेकर पहनावे तक में दिखाई देती है। सफेद धोती-कुरते और टोपी से सुशोभित सामान्य कदकाठी के इस बुजुर्गवार से जुड़ने में जींसधारी युवा पीढ़ी को जरा दिक्कत नहीं हुई। 


2. सच्चाई 
सादगी पर उतना ध्यान नहीं जाता अगर उनके व्यक्तित्व में सच्चई नहीं होती। यह उनके पूरे व्यक्तित्व से झलकती है। जब उनके ऊपर यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने संस्था के धन में से दो लाख रुपए अपने जन्मदिन पर खर्च कर लिये, तो कोई विश्वास नहीं करता। 

3. पारदर्शिता
अन्ना के व्यक्तित्व में एक निश्छल पारदर्शिता है। उनके आर-पार देखा जा सकता है। उन्हें देखकर यह विश्वास होता है कि उनके पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है। कैमरे की आंख से देखने के इस दौर में व्यक्तित्व की इस पारदर्शिता को पहचानना आसान हो गया है। 

4. विनम्रता
विनम्रता अन्ना के हर शब्द और कदम से झलकती है। विनम्रता निश्छल मुस्कराहट से प्रकट होती है। उनके चेहरे पर दर्प की एक लकीर भी दिखाई नहीं देती। महाराष्ट्र में कुछ मंत्रियों के इस्तीफे का श्रेय उन्हें हासिल है। लेकिन इसका अहंकार उनमें दिखाई नहीं देता। जब वह सिर पर हाथ रखकर कहते हैं…, ‘तो मैं घर पर पानी भरूंगा’, तो यही विनम्रता ध्यान खींचती है।

5. मितभाषिता
बड़बोलापन हमारी राजनीति ही नहीं, अधिकांश अनुशासनों की पहचान बन गया है। इसके विपरीत मितभाषिता का दुर्लभ गुण अन्ना में है। उन्हें लंबी तकरीर करते मुश्किल से ही देखा गया है। कम शब्दों में अपनी बात कहकर चुप हो जाते हैं। वाचालता या अतिकथन आत्मविश्वास की कमी का परिचायक माना जाता है। अन्ना की मितभाषिता उनके आत्मविश्वास से आती है।

6. दृढ़ता
दृढ़ता के बगैर विनम्रता का ज्यादा अर्थ नहीं है। इसके बगैर विनम्रता कमजोरी बन जाती है। इसीलिए पानी भरनेकी बात में जहां विनम्रता है, वहीं उनकी दृढ़ता दिखाई देती है जब वह कहते हैं कि मैं सौ फीसदी का दावा तो नहीं करता, लेकिन जन लोकपाल बिल 60 से 65 फीसदी भ्रष्टाचार जरूर रोकेगा। 

7. सोद्देश्यता
कार्यशैली में सोद्देश्यता के बगैर लोगों के दिलों को छू पाना संभव नहीं है। यह सोद्देश्यता ही भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना को विश्वसनीय बनाती है और लोगों के मन में उम्मीद जगाती है। लोगों को लगता है कि यह एक व्यक्ति है जिसका उद्देश्य भ्रष्टाचार से निजात दिलाना है।

8. जोखिम
जोखिम का सटीक आकलन और उसे उठाने की हिम्मत नेतृत्व के लिए जरूरी गुण है। अप्रैल में जब अन्ना जंतर-मंतर पर अनशन पर बैठ रहे थे, तब खुद उन्हें भी पता नहीं था कि लोग साथ आएंगे या नहीं। पर उन्होंने जोखिम उठाया। 16 अगस्त को भी वह जोखिम उठा रहे थे। वह नाकाम भी हो सकते थे, लेकिन नाकामी के डर से वह अपने इरादे से पीछे नहीं हटे। 

9. अभिव्यक्ति
मराठी अन्ना की मातृभाषा है। हिंदी वह मराठी जुबान और मुहावरे में बोलते हैं। और कम बोलते हैं। फिर भी ऐसा क्या है कि देश के नागरिकों और युवाओं से वह इतने जबरदस्त तरीके से कनेक्ट कर सके? उनमें आम आदमी की अभिव्यक्ति का पुट है। जब पूछा जाता है कि क्या उन्हें उम्मीद है कि प्रधानमंत्री चिट्ठी का जवाब देंगे, तो वह कहते हैं उम्मीद तो रखनी है 

10. दूरदर्शिता
दूरदर्शिता अच्छे नेतृत्व का अनिवार्य गुण है। अन्ना के व्यक्तित्व में एक हद तक इसकी झलक मिलती है। अन्ना के मन में यह विश्वास होगा कि भ्रष्टाचार के सवाल पर लोग साथ आएंगे। यह विश्वास दूरदर्शिता के बगैर नहीं आ सकता था। अन्ना के आंदोलन को अभी लंबी यात्रा तय करनी होगी। इसमें उनकी दूरदर्शिता की कड़ी परीक्षा होगी।

साभार दैनिक भास्कर से


शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

जन लोकपाल क्यों ज़रूरी है?

हमारे मौजूदा भ्रष्टाचार निरोधी व्यवस्था में अनेक खामियां हैं, जिनकी वजह से पुख्ता सबूत होने के बावजूद भ्रष्ट लोगों के खिलाफ न तो ईमानदारी से जांच होती है, न ही मुकदमा चलाया जाता है और शायद ही किसी को सज़ा मिल पाती है। हमारी पूरी भ्रष्टाचार निरोधी व्यवस्था असल में भ्रष्ट लोगों को बचाने का काम करती है। हमारी भ्रष्टाचार निरोधी इकाइयों में कई खामियां हैं जिनकी वजह से वह कोई भी ईमानदार जांच करने में असमर्थ हैं। नीचे हमारी भ्रष्टाचार निरोधी तंत्र की चार प्रमुख कमियां दी गई है। हमारी भ्रष्टाचार निरोधी व्यवस्था की कमियों की विस्तृत जानकारी के लिए परिशिष्ट-1 देखें : 

क.  स्वतंत्रता का अभाव 
हमारी ज़्यादातर एजेंसियां जैसे- सीबीआई, राज्य सतर्कता विभाग, विभिन्न विभागों के आंतरिक सतर्कता विभाग, राज्य पुलिस की भ्रष्टाचार निरोधी शाखाएं इत्यादि स्वतंत्र नहीं है। अधिकतर मामलों में उन्हें अपनी जांच की रिपोर्ट उन्ही लोगों को सौंपनी होती है जो या तो आरोपी होते हैं या जिनके आरोपियों के प्रभाव में आने की संभावना होती है। उदाहरण के लिए- 
  • पंजाब के सतर्कता विभाग की जिम्मेदारी पंजाब के मुख्यमंत्री के पास है। मज़े की बात यह है कि वही सतर्कता विभाग मुख्यमंत्री तथा उनके परिवार के लोगों के विरूद्ध भ्रष्टाचार के मामलों की जांच कर रहा है तथा मुकदमा चला रहा है। क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि सतर्कता विभाग ईमानदारी से कोई जांच या मुकदमा चलाएगा
  • कृपया परिशिष्ट-2 में दी गई विस्तृत रिपोर्ट देखें कि कैसे भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण( एनएचएआई) के एक उच्च अधिकारी के घर से बेहिसाब नगद राशि मिलने के बाद भी कमल नाथ ने उस अधिकारी के विरूद्ध भ्रष्टाचार का मामला दर्ज करने की अनुमति नहीं दी। सीबीआई ने कोयला मंत्रालय के एक अधिकारी, के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की अनुमति के लिए कई बार अनुरोध किया। परंतु कोयला मंत्रालय ने अनुमति नहीं दी। वह अधिकारी बाद में सीएमडी( मुख्य प्रबंधक निदेशक) बन गया। रेलवे ने इसी तरह रेलवे भर्ती घोटाले से जुड़े उच्च अधिकारियों के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाने की सीबीआई की मांग को लटकाए रखा। 

 ख.  शक्तिहीन 
हमारी कुछ एजेंसियां जैसे मुख्य सतर्कता आयोग या लोकायुक्त स्वतंत्र तो हैं, लेकिन उनके पास कोई शक्ति नहीं है। उन्हें केवल सलाह देने वाली संस्था बनाया गया है। वे सरकार को दो तरह की सलाह देती हैं- किसी अधिकारी के खिलाफ विभागीय दंड लगाने की या उसके विरूद्ध अदालत में मुकदमा चलाने की। यह देखने में आया है कि जब भी किसी मंत्री या उच्च अधिकारी के विरूद्ध ऐसी सलाह दी जाती है, तब शायद ही उस पर अमल होता है। 

ग.  कई तरह की एजेंसियां 
सरकार ने जान बूझकर अनेक भ्रष्टाचार निरोधी एजेंसियों का गठन किया है, तथा उन्हें टुकड़ों में अधिकार प्रदान किये हैं। यह इसलिए किया गया है जिससे वे प्रभावी न हो पाएं। उदाहरण के लिये- 
  • केन्द्र सरकार के स्तर पर, भ्रष्टाचार के एक ही मामले में मुख्य सतर्कता आयोग को उच्च अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला देखना होता है तथा विभागीय सतर्कता को कनिष्ठ अधिकारियों का मामला देखना होता है। जैसे कि वरिष्ठ और कनिष्ठ अधिकारी भ्रष्टाचार में अलग-अलग लिप्त होते हैं! 
  • पुन: इसी मामलें में जहां ये दोनों एजेंसियां सतर्कता की दृष्टि से जांच, करती हैं वहीं सीबीआई इसी मामले की जांच आपराधिक दृष्टिकोण से करती है। सतर्कता तथा आपराधिक दृष्टिकोण लगभग समान होते हैं (दोनों एजेंसियां एक ही मामले की लगभग वही जांच पड़ताल अपने-अपने तरीके से करती हैं जो कि लगभग एक जैसी होती हैं। 
  • भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल के अनुसार मुख्य सतर्कता आयोग नौकरशाहों की भूमिका की जांच करेगा तथा लोकपाल राजनेताओं की भूमिका की जांच करेगा। जैसे कि राजनेता और नौकरशाह भ्रष्टाचार में अलग-अलग सम्मिलित हों ! सबसे पहले तो, इस तरह का विभाजन भ्रम पैदा करता है। दूसरा, ऐसी जांच-पड़ताल कई सालों तक चलती रहती है। उदाहरण के लिये, कॉमनवेल्थ घोटाले के स्ट्रीट लाइट, मामलें में पहले सीवीसी ने जांच की, उसके बाद सीबीआई ने जांच की तथा उसके बाद इसी मामलें में शुंगलू समिति ने भी पूछताछ की। तीसरा, यदि दो एजेंसियां अलग-अलग नतीज़ों पर पहुंचती हैं तो इससे भ्रष्ट लोगों के ख़िलाफ मामला कमज़ोर पड़ता है। ऐसी भ्रामक व्यवस्था का फायदा अंतत: भ्रष्ट लोगों को मिलता है जिनको सज़ा कभी नहीं मिलती। 

घ.  पारदर्शिता एवं आंतरिक जवाबदेही की कमी 
इसके साथ ही, इन भ्रष्टाचार निरोधी इकाइयों में आंतरिक पारदर्शिता तथा जवाबदेही की कमी है। वर्तमान में, इन भ्रष्टाचार निरोधी इकाइयों में यदि इनके खुद के कर्मचारी भ्रष्ट हो जाते हैं तो इन्हें रोकने के लिए कोई अलग से प्रभावी व्यवस्था नहीं है। 
यही कारण है कि इतनी एजेंसियों के होते हुए भी भ्रष्ट लोग शायद ही कभी जेल जाते हैं। भ्रष्टाचार बड़े फ़ायदे तथा बिना खतरे वाला व्यवसाय बन गया है। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ किसी भी प्रकार का कोई भय नहीं रह गया है। 

ड़.  हमारी भ्रष्टाचार निरोधी कानून में कई बड़ी ख़ामियां है जो भ्रष्टाचारियों का बचाव 
करती है। उदाहरण के लिए : 
आज की व्यवस्था में, यदि कोई भ्रष्ट व्यक्ति जेल में जाता है तो भी ऐसा कोई प्रावधान कानून में नहीं है जिसके द्वारा उस व्यक्ति की काली कमाई या उसके द्वारा सरकार को पहुंचाए गये नुकसान की वसूली की जा सके उसकी संपत्ति जब्त की जा सके। 

किसी मामले में जांच शुरू करने से पहले अथवा भ्रष्टाचार का मामला कोर्ट में दायर करने से पहले उस विभाग के उच्च अधिकारी या मंत्री से अनुमति लेनी पड़ती है। कई मामलों में वे खुद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार में शामिल होते हैं। इस प्रकार लगता है कि भ्रष्ट लोगों के बचाव के लिए बहुत कुछ है। इनके अलावा भी भ्रष्टाचार निरोधी कानून में अनेक खामियां हैं। जन लोकपाल अधिनियम के द्वारा भ्रष्टाचार निरोधी एजेंसियों और कानून की खामियों को ठीक करने की कोशिश की गई है। 

परिशिष्ट – 2

Government denied permission to register case 
against top NHAI officer 
Indian Express 18th Nov 2010 

The Union Ministry of Road Transport and Highways (MoRTH), under Kamal Nath, has refused the Central Bureau of Investigation (CBI) sanction to initiate an inquiry  against a top official of the National Highways Authority of India (NHAI) in connection with a corruption case registered six months ago in which two top NHAI officials were arrested. 

CBI officials said the denial of sanction came early this month after it sent several reminders to the Ministry and to the Cabinet Secretary underlining that it was Union Minister Kamal Nath who was the “competent authority” to take a final decision in the matter. 

Sources have confirmed to The Indian Express that the CBI, after seeking legal advice, has now written to Cabinet Secretary K M Chandrasekhar asking him to transfer out S I Patel, an Additional Secretary-level officer who is now posted as Member (Projects) in the NHAI. 

The Cabinet Secretary is understood to have scheduled a review meeting with CBI officials later this week. The case in question is a controversial award of contract in the 120-km Nagpur- Betul Highway (NH 69) to a Delhi-based private firm, Oriental Structural Engineers Pvt Ltd (OSEPL). The contract value, over an 18-year period, is Rs 10,800 crore, and the CBI has alleged several irregularities in the manner in which it was awarded. 

It was in May this year that the CBI registered a case after it received complaints from among the 12 other bidders and put telephones of NHAI and OSEPL under surveillance. Cash totaling Rs 1.86 crore was recovered by the CBI from NHAI officials during searches. 

The CBI called it a case of criminal conspiracy and corruption in which while awarding a contract, the NHAI had tried to “eliminate all possible contenders on one pretext or another and favoured the accused company ensuring huge financial gain to it.” 

Those arrested were a Chief General Manager and General Manager of the NHAI and two top OSEPL bosses, including its managing director. An analysis of the evidence including telephone transcripts of conversations between the two camps and emails exchanged between NHAI and OSEPL officials led the CBI to seek sanction to investigate Member (Projects) Patel too. 

Significantly, Patel was able to stay out of the country he sought several extensions of his leave all throughout the 60-day remand period of the arrested officials and returned to NHAI only after they secured bail since the CBI failed to file a chargesheet. 

The CBI version is that Patel's evidence is vital to link pieces of evidence in the case and, therefore, its urgent reminders for immediate grant of sanction. When contacted today, NHAI chairman Brajeshwar Singh told The Indian Express that he wasn't aware of the final outcome of the CBI's request for sanction since it was being handled by the Ministry. 

“The Ministry had asked us for comments and we gave them what was on our files. I am not aware of the nature of evidence with the CBI since they are not expected to share it with us,” he said. “Yes, the CBI recovered huge sums of money from two NHAI officials but again I am not aware if they were able to establish a nexus between the officers and the contract.” 

Despite senior NHAI officials being arrested and OSEPL being made the “accused” private beneficiary, the NHAI went ahead and signed the concessional agreement the final contractual procedure with the same company. This was done in end August, three months after the arrests and searches. When asked about this, NHAI chief Singh said: “Technically, the contract was awarded before the CBI action. Nobody, including the CBI, had asked us to cancel the concessional agreement. Its signing was a mere formality.” 


Coal Ministry sits on CBI requests to prosecute 
Coal India top officer 
Indian Express 7th March 2011 

The Coal Ministry is sitting on at least three requests by the CBI during the past year to initiate prosecution proceedings against S C Garg, the Chairman and Managing Director of Western Coalfields Ltd, a subsidiary of state-owned monopoly Coal India Ltd. Garg is one of the two contenders for the post of Coal India CMD. 

The investigating agency first wrote to the ministry on March 18, 2010, seeking permission to register a case of “grave misconduct” against Garg. As WCL CMD, Garg was accused of showing undue favours to Shri Sai Constructions, which was awarded a Rs 13.5 crore contract for building the Motaghat Nala. It allegedly forged bank guarantee papers to execute the works, but Garg didn't take serious action to penalise the firm. 

“The CMD of WCL is a Joint Secretary-level officer. Hence approval under Section 6A of the DSPE Act is required for carrying out an inquiry into the said allegations,” the CBI wrote in its letter to the ministry, a copy of which is with The Indian Express. But the ministry did not respond. 

According to CIL sources, while Garg constituted a committee on September 9, 2008, to ascertain if Shri Sai Constructions could be banned and penalties imposed on it, he did little to implement its recommendations. The panel had recommended banning the firm “with immediate effect” and also forfeiting the balance payment of Rs 92,23,154 against the work executed. It had also suggested recovery of over Rs.16 lakh from it for forging bank guarantees. 

Denying that he was responsible for the Motaghat Nala contract, Garg says the charges were an attempt to malign him as he was set to become CIL CMD. “The CBI has jumped midway without collecting fact or waiting for the outcome of the deliberations of the Board, which is the competent authority for giving any decision involving such expenditure (of about Rs 14 crore). I, as the MD can only decide on cases involving expenditure of up to Rs 10 crore. The Motaghat Nala contract was given before I became CMD of WCL, and I was apprised of it in July 2008. So how am I responsible?” 

He said they had realised that Shri Sai Constructions had provided a fake bank guarantee (Rs 2.24 crore), following which they had filed an FIR, forfeited their gurantee and also charged Rs 17,00,000 as interest. “I also solicited the advice of the Additional Solicitor General. The matter is with the board and a case is on against the company.” 

After the ministry didn't get back on its March 2010 letter, then CBI Director Ashwini Kumar wrote another letter to the Coal Ministry on June 10, seeking approval to prosecute Garg for “criminal misconduct”. “...so far, no action has been taken and Garg continues to enjoy his posting”, the CBI said in its second letter. However, the ministry chose to ignore this too. 

Six months later, on December 3, the CBI again reminded the ministry about its request and said that one of its Joint Director-level officers “himself had come and handed over the request for permission for registration of the case against Garg”. 

After Partha S Bhattarcharya retired as CIL CMD recently, Garg and T K Lahiry, CMD of Bharat Coking Coal Ltd, also a subsidiary of CIL, were shortlisted by the Public Enterprises Selection Board for the coveted job. 

When contacted, Coal Minister Sriprakash Jaiswal said: “We are looking into it. The law will take its own course.” He added that his ministry was waiting for the final report of the Central Vigilance Commission on Garg's candidature for becoming CIL chief. 

Incidentally, the CVC too had written a letter to the ministry on November 11 last year, endorsing the CBI's request for proceeding against Garg and asking the ministry to expressly get back to the agency on whether it was allowing prosecution, and if not, to convey the reasons for refusal. 

CBI cannot act against Railway scam accused 
Asian Age 21st July 2010 

The Central Bureau of Investigation sleuths probing the Railway Recruitment Board scam couldn't make much headway in the case of Mumbai RRB chief Mr S. M. Sharma thanks to a provision in the Delhi Special Police Establishment Act which makes government sanction mandatory before registering an FIR against an officer of the rank of joint-secretary or above under the Prevention of Corruption Act. Though the CBI allegedly found incriminating evidence against Mr. Sharma, they couldn't register an FIR against him due to Section 6A of the DSPE Act as Mr Sharma is an officer of the joint-secretary rank. 

On June 17, the CBI had written to the Centre seeking permission for initiating investigation against Mr Sharma after the arrest of his son Mr Vivek Bhardwaja. Sources in the Central Bureau of Investigation said that the agency is still awaiting the Centre's nod and this delay in obtaining permission is having a negative impact on the investigations as in several cases the accused get enough time to manipulate various aspects of the case. 

A Central Bureau of Investigation official said, “Earlier, in several cases the accused tried to seek a discharge from the case on technical grounds by raising the issue that the mandatory provision of Section 6A was not complied by the CBI.” 
Section 6A was inserted in 2003 with an intention of safeguarding public servants against mala fide and unwarranted investigations.

परिशिट-1


वर्तमान भ्रष्टाचार निरोधी व्यवस्था की खामियां 
केंद्र सरकार के स्तर पर 
केंद्र सरकार के स्तर पर हमारे पास केंद्रीय सतर्कता आयोग, विभागीय सतर्कता तथा सी.बी.आई है। केंद्रीय सतर्कता आयोग तथा विभागीय सतर्कता, भ्रष्टाचार से संबंधित मामलों को सतर्कता के संदर्भ (अनुशासनात्मक कार्यवाही ) में तथा सी.बीआई आपराधिक संदर्भ में, कार्यवाही करती है। 

केंद्रीय सतर्कता आयोग- केंद्रीय सतर्कता आयोग भारत सरकार के सतर्कता संबंधी मामलों के लिए सर्वोच्च संस्था है। 
  • इस विभाग के पास बड़े पैमाने पर शिकायतें आती हैं लेकिन उनसे निपटने के लिए सीवीसी के पास संसाधनों का अभाव है। केंद्रीय सतर्कता आयोग एक बहुत ही छोटी संस्था है, जिसके कुल कर्मचारियों की संख्या 200 से भी कम है। इसे केंद्र सरकार के 1500 से भी अधिक विभागों तथा मंत्रालयों से संम्बधित भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करनी होती है, जिनमें से कुछ विभाग अत्याधिक बडे़ हैं जैसे केंद्रीय उत्पाद, रेल, आयकर आदि । 
  • इस प्रकार यह एक डाकखाने की भांति काम करते हुए ज़्यादातर शिकायतों को संबंधित सतर्कता शाखाओं को प्रेषित करता रहता है। यह प्रत्यक्ष रूप से केवल कुछ ही मामलों में खुद जांच करता है। उदाहरण के लिए वर्ष 2009-10 में इसको प्राप्त होने वाले 1800 मामलों में से सिर्फ 11 मामलों में ही इसके द्वारा प्रत्यक्ष जांच की गई। बाकी मामले केवल आगे प्रेषित कर दिए गये। 
  • केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) मात्र एक सलाहकारी संस्था है। केंद्र सरकार के किसी भी विभाग की सतर्कता शाखा पहले मामले की जांच करती है, उसके बाद सज़ा के लिए केंद्रीय सतर्कता आयोग से सलाह मांगती है। हालांकि, उस विभाग का प्रमुख केंद्रीय सतर्कता आयोग की सिफारिशों को मानने या ना मानने कि लिए स्वतंत्र है। उन मामलों में भी जो इसके द्वारा प्रत्यक्ष रूप से जांचे गए हैं, सीवीसी सरकार को केवल सलाह दे सकता है। देखने में आया है कि किसी बडे़ अधिकारी के भ्रष्टाचार से जुड़े होने के मामल में सरकार द्वारा ऐसी सिफारिशें बहुत कम ही मानी गई हैं। 
  • केंद्रीय सतर्कता आयोग का अधिकार क्षेत्र नौकरशाहों तक ही सीमित है। राजनेता इसके क्षेत्र में नहीं आते। यदि किसी मामले में राजनेता भी शामिल हों तो यह केवल नौकरशाह की भूमिका से संबंधित मामले की ही जांच करता है। 
  • विभागीय सतर्कता शाखाओं के ऊपर इसका कोई प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं है जब की यह अधिकतम शिकायतें उन्हें ही सौंपता हैं। अकसर देखा जाता है कि शिकायत सौंपने के बाद इसे बार-बार संबंधित विभाग को याद दिलाते रहता है जिन्हें कई बार माना भी नहीं जाता। सीवीसी के पास अपने आदेशों के अनुपालन कराने की कोई शक्ति नहीं है। 
  • केंद्र सरकार के विभागों के सतर्कता शाखाओं पर केंद्रीय सतर्कता आयोग का कोई प्रशासनिक नियंत्रण नहीं है जिन्हें यह भ्रष्टाचार की शिकायतें सौंपता है। यद्यपि सरकार विभिन्न विभागों के मुख्य सतर्कता अधिकारियों की नियुक्ति करते समय केंद्रीय सतर्कता आयोगों की सलाह लेती है किंतु अंतिम निर्णय सरकार द्वारा ही लिया जाता है। साथ ही मुख्य सतर्कता अधिकारी से नीचे के अधिकारियों की नियुक्ति / तबादले उस विभाग के प्रमुख द्वारा किए जाते हैं। 
  • केंद्रीय सतर्कता आयोग की नियुक्तियां प्रत्यक्ष रूप से सरकार के नियंत्रण में होती हैं। यह नियुक्तियां विवादास्पद एवं गैर-पारदर्शी होती हैं। 
  • सीवीसी अधिनियम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सीबीआई के पर्यवेक्षण का (सुपरवाइज़ करने का) अधिकार देता है। परंतु यह अधिकार बेमानी है। केंद्रीय सतर्कता आयोग के पास किसी भी मामले में सीबीआई से कोई दस्तावेज़ मांगने या किसी विशेष तरीके से जांच करवाने की शक्ति नहीं है। इसके अलावा सीबीआई केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के बजाय सेवीवर्गीय एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के प्रशासनिक नियंत्रण में आता है। 
  • इस प्रकार केंद्रीय सतर्कता आयोग अपेक्षाकृत रूप से एक स्वतंत्र संस्था है फिर भी इसके पास न तो संसाधन है और न शक्तियां, जिससे यह जांच या कार्यवाही कर सके। केंद्रीय सतर्कता आयोग केवल एक दिखावा मात्र बन कर रह गया है। 
  • विभागीय सतर्कता शाखा- प्रत्येक विभाग में एक सतर्कता शाखा होती है जिसमें उसी विभाग के अधिकारी होते हैं (कुछ बाहरी लोगों को छोड़ कर जैसे मुख्य सतर्कता अधिकारी)। हालांकि, उसके अंदर काम करने वाले सभी अधिकारी उसी विभाग के होते है। 
  • कि विभाग के सतर्कता शाखा के सभी अधिकारी उसी विभाग से होते हैं, तो उन्हें किसी भी समय उसी विभाग में किसी अन्य पद पर भी भेज दिया जाता है। ऐसे में उनके द्वारा अपने ही सहकर्मियों या उच्च अधिकारियों के खिलाफ जांच करना असंभव हो जाता है। यदि किसी उच्च अधिकारी के खिलाफ शिकायत प्राप्त होती है तो ऐसा अधिकारी (जिसको बाद में, हो सकता है कि उसी आरोपी अधिकारी के नीचे काम करना पड़े) उसके खिलाफ प्रभावी जांच नही करता। काफी बार ऐसा भी होता है कि सतर्कता अधिकारी आरोपी अधिकारी के नीचे काम कर रहा होता है। ऐसे में ईमानदार जांच करना तो लगभग असंभव ही है। 
  • कुछ विभागों में सतर्कता अधिकारी अन्य कार्यों को भी देखते हैं। इसका मतलब है कि उसे सतर्कता का अतिरिक्त प्रभार दिया गया होता है। ऐसे में यदि कोई नागरिक शिकायत करता है तो संभव है कि उस अधिकारी को अपने आप के खिलाफ ही जांच करनी पड़ती है। यदि ऐसी शिकायत विभाग प्रमुख या सीवीसी को भी की जाती है तो भी वह अंत में उसी अधिकारी को सौंप दी जाती है। ऐसे सैकड़ों शर्मनाक उदाहरण हैं। 
  • सतर्कता विभाग से जुड़े ज्यादातर अधिकारी पहले से ही भ्रष्ट होते हैं। सतर्कता विभाग में रहते हुए वह अपने खिलाफ लगे सभी मामलों पर लीपा-पोती कि कोशिश करते हैं। इस प्रकार वे सतर्कता विभाग को भ्रष्टाचार का गढ़ बना देते हैं जहां पैसा लेकर मामले बंद किए जाते हैं। 
  • विभागीय सतर्कता शाखा किसी भी मामले के आपराधिक पहलू की जांच नहीं करती और न ही इसे प्राथमिकी (एफ.आई.आर) दर्ज करने की शक्ति होती है। 
  • इनके पास राजनेताओं के खिलाफ भी कोई शक्ति नहीं होती। 
  • चुंकि सतर्कता विभाग उस विभाग के प्रमुख द्वारा नियंत्रित होता है, इसलिए इसके द्वारा उसी विभाग के उच्च अधिकारियों के खिलाफ जांच कर पाना असंभव होता है। 
  • इस प्रकार ज्यादातर समय किसी भी विभाग की सतर्कता शाखा शिकायतों की केवल लीपा-पोती कर रहा होता है या कुछ चुने हुए अफसरों के खिलाफ ही जांच करता है। केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सी.बी.आई.)- सीबीआई के पास पुलिस थाने की तरह प्राथमिकी दर्ज करने की तथा जांच करने की शक्ति होती है। यह केंद्र सरकार से संबंधित किसी भी विभाग में स्वत: या किसी राज्य सरकार या न्यायालय के निर्देश पर जांच कर सकती है। सीबीआई के ऊपर ज़्यादा काम होने के कारण वो मामले भी स्वीकार नहीं करती जिनमें लगभग एक करोड़ का घपला हुआ हो। 
  • सीबीआई प्रत्यक्ष रूप से केंद्र सरकार के अधीन काम करती है। सीबीआई के निदेशक और अन्य सभी अधिकारी केंद्र सरकार द्वारा सीधे नियुक्त किए जाते हैं। 
  • अगर भ्रष्टाचार के मामले में संयुक्त सचिव या उसके ऊपर के स्तर के अधिकारी शामिल हों तो सीबीआई को जांच शुरू करने से पहले सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। मुकदमा चलाने के लिए भी इसे सरकार से अनुमति लेनी होती है। काफी बार जिन अधिकारियों को ऐसी अनुमति देनी होती है वे या तो स्वयं ऐसे मामलों मे लिप्त होते हैं या इनमें संलिप्त किसी राजनैतिक व्यक्ति के प्रभाव में होते हैं। 
  • किसी मामले की जांच पूरी हो जाने के बाद सीबीआई द्वारा न्यायालय में मामला दर्ज कराने के लिए वकील कानून मंत्रालय द्वारा नियुक्त किया जाता है। ऐसे में यदि किसी मामले में कोई मंत्री फंसा हुआ है तो कानून मंत्रालय ऐसा वकील चुनता है जिसका प्रयास दोषी को सज़ा दिलाने की बजाय मामले को ही खतम करा देना होता है। 
  • अत: यदि कोई शिकायत किसी मंत्री, राजनेता या नौकरशाह से संबंधित होती है जो सत्तारूढ़ का हिस्सा हो तो ऐसे मामलां में सीबीआई द्वारा सही जांच कर पाना असंभव होता है। ऐसे में सीबीआई मामले की लीपा-पोती में जुट जाती है। 
  • पुन:, सीबीआई के सरकार के अधीन होने के कारण, इसका इस्तेमाल विपक्षी राजनेताओं से सौदेबाज़ी के लिए किया जाता है। अंत:, यदि एक नागरिक किसी राजनेता या केंद्र सरकार के किसी अफसर के भ्रष्टाचार की शिकायत करना चाहता है तो कोई भी एक ऐसी भ्रष्टाचार निरोधी एजेंसी नहीं है जो सरकार से मुक्त हों और प्रभावशाली हो। सीबीआई के पास शक्ति है लेकिन स्वतंत्र नहीं है। केंद्रीय सतर्कता आयोग स्वतंत्र है लेकिन न तो उसके पास शक्ति है न ही संसाधन। 

राज्य स्तर पर 
हमारे पास ठीक ऐसी ही व्यवस्था राज्य स्तर पर भी हैं। सभी सतर्कता एजेंसियां (जैसे राज्य सतर्कता विभाग, विभागों की सतर्कता शाखा) और भ्रष्टाचार निरोधी एजेंसियां (जैसे राज्य पुलिस की भ्रष्टाचार निरोधी शाखा, सीआईडी आदि) सीधे-सीधे राज्य सरकार के नियंत्रण में काम करती हैं और इसलिए अपने राजनीतिक मालिकों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच प्रभावी तरीके से नहीं कर पाती। साथ ही, कुछ ही राज्यों में लोकायुक्त बनाए गए हैं। 

लोकायुक्त: 
  • लोकायुक्त स्वत: जांच शुरू नहीं कर सकता। उसे निर्धारित स्तर के ऊपर के अधिकारियों के खिलाफ जांच शुरू करने से पहले राज्य सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। 
  • कुछ राज्यों में, जन लोकायुक्त को केवल राजनेताओं के खिलाफ शक्ति दी गई है। यहां नौकरशाहों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों सतर्कता विभाग देखते हैं। इस प्रकार का विभाजन जांच प्रक्रिया को नुकसान पहुंचाता है। जब किसी एक मामले में जिसमें राजनेता और नौकरशाह दोनों शामिल होते हैं(जो कि आमतौर पर देखने को मिलता है), लोकायुक्त और सतर्कता विभाग दोनों ही कठिनाई महसूस करते है। 
  • लोकायुक्त केवल एक सलाहकार की भूमिका निभाता है। उसे प्रत्यक्ष रूप से मुकदमा करने की शक्ति नहीं है। वे सरकार को सिफारिश भेज सकते हैं जिसका मानना या न मानना सरकार के हाथ में होता है। इनके पास भारी मात्रा में जो शिकायतें मिलती है उनकी जांच के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं होते। 
  • लोकायुक्त की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा विवादास्पद एवं गैर-पारदर्शी तरीके से की जाती है। कुछ राज्यों में इनकी स्वतंत्रता पर भी सवाल उठे हैं। 

जन लोकपाल अधिनियम के बारे में बार-बार पूछे जाने वाले प्रश्‍न


क) क्या लोकपाल निरंकुश हो जाएगा
एक भ्रांति फैलाई जा रही है कि प्रस्तावित जन लोकपाल निरंकुश हो जाएगा तथा लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए खतरा बन जाएगा। यह बिलकुल गलत है। आइए देखते हैं कि जन लोकपाल अधिनियम में क्या प्रस्तावित है - 

1) राजनेताओं, न्यायाधीशों तथा नौकरशाह के खिलाफ जन लोकपाल भ्रष्टाचार से संबंधित मामलों की जांच करेगा तथा दोषी पाने पर न्यायालय में मामला दर्ज करेगा। सुनवाई या सज़ा का अधिकार केवल न्यायालय के पास होगा। लोकपाल के पास सज़ा देने की कोई शक्ति नहीं होगी। 

2) पर, नौकरशाहों के मामले में, यदि जांच के बाद अधिकारी को दोषी पाया जाता है तो जन लोकपाल के पास विभागीय दंड देने समेत बर्खास्त करने की शक्ति होगी। संयुक्त सचिव और उससे ऊपर के अधिकारियों के मामले में सभी संबंधित पक्षों की सुनवाई के बाद जन लोकपाल के सदस्यों की एक पीठ इस प्रकार का दंड दे सकेगी। अगर आरोपी संयुक्त सचिव या उससे निचले स्तर का हो तो उस मामले में सुनवाई जन लोकपाल के वरिष्ठ अधिकारियों की एक पीठ द्वारा की जाएगी। जन लोकपाल के इन आदेशों के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की जा सकेगी। यह व्यवस्था वर्तमान व्यवस्था से काफी बेहतर है, जिसमें आरोपी तथा उनके मित्र ही अपने खिलाफ जांच करने एवं सज़ा निर्धारित करने के लिए उत्तरदायी होते हैं। वर्तमान में, उसी विभाग के अधिकारियों द्वारा जांच की जाती है (अकसर कनिष्ठ अधिकारी अपने उच्चाधिकारियों के खिलाफ जांच करते हैं।) तथा सज़ा का निर्धारण उसी विभाग या मंत्रालय के अधिकारी द्वारा किया जाता है और उनके खिलाफ अपील भी उसी विभाग या मंत्रालय के किसी अधिकारी के पास की जाती है। चूंकि आरोपी अधिकारी उसी विभाग / मंत्रालय से संबंधित होता है इसलिए वह अपने सहकर्मियों, साथियों तथा मातहतों को प्रभावित करने में कामयाब हो जाता है। ज़्यादातर मामलों में कार्यवाही करने वाले अधिकारी भी भ्रष्टाचार में लिप्त होते है। 

वर्तमान व्य्वस्था में, इस पूरी प्रक्रिया में जनता या शिकायतकर्ता कुछ कह ही नहीं पाते। गैर-ईमानदार जांच के बाद भ्रष्ट अधिकारियों को छोड़ दिया जाता है। जन लोकपाल बिल के तहत शिकायत करने वाले को मुख्य गवाह माना जाएगा तथा उसे सुनवाई का मौका दिए बिना, मामले को बंद नहीं किया जाएगा। इस प्रकार प्रस्तावित व्यवस्था पहले के मुकाबले काफी निष्पक्ष, पारदर्शी तथा जवाबदेह है। 

ख) क्या जन शिकायतों को लोकपाल की परिधि में लाना चाहिए ?क्या इससे लोकपाल का कार्यभार अत्याधिक बढ़ने के कारण लोकपाल व्यवस्था चरमरा जाएगी
जन लोकपाल बिल में प्रस्तावित शिकायत निवारण व्यवस्था के तहत कोई भी शिकायत सीधे जन लोकपाल के सदस्यों तक नहीं पहुंचेगी। जब किसी विभाग के प्रमुख समेत संबंधित अधिकारी किसी नागरिक की शिकायत का निस्तारण करने में असफल होंगे, तब ये शिकायत जन लोकपाल के सतर्कता अधिकारी तक पहुंचेगी। सतर्कता अधिकारी शिकायत का हल निकालने के अलावा विभाग के प्रमुख समेत संबंधित अधिकारियों को दंडित भी करेगा। यह उम्मीद है कि यह व्यवस्था दंड के डर से विभागों के प्रमुख अपनी व्यवस्था को मजबूत करना शुरू कर देंगे। साथ ही, प्रत्येक विभाग को अपने-अपने नागरिक अधिकार पत्र तैयार करने होंगे। वे पहले खुद इस बात का अंदाज़ा लगाएंगे कि उन्हें अपने नागरिक अधिकार पत्र में क्या रखना है जिससे वे अपनी प्रतिबद्धता को पुख्ता कर सकें। हालांकि, यह माना जा रहा है कि सभी विभाग एक ही साल के भीतर सार्वजनिक कामों से जुड़े मामलों को अपने नागरिक अधिकार पत्र में लाएंगे। 

यह भी आशंका जताई जा रही है कि जन लोकपाल के पास शिकायतों का अम्बार लग जाएगा और काम ठप्प हो जाएगा। यह आशंका सही नहीं है क्योंकि सिर्फ उन्हीं शिकायतों को स्वीकार किया जाएगा जो नागरिक अधिकार पत्र के उल्लंघन से संबंधित होंगी। एक बार के लिए अगर हम मान भी लें कि किसी विभाग के खिलाफ लाखों शिकायतें आ जाती हैं तो भी जन लोकपाल की व्यवस्था ठप्प नहीं होएगी। इनसे केवल कुछ जगहों के कुछ विभागों के सतर्कता अधिकारियों का काम रुक सकता है। ऐसे में यदि जन लोकपाल यह महसूस करता है कि अधिक सतर्कता अधिकारियों की जरूरत है, तो उसके पास और सतर्कता अधिकारियों को नियुक्त करने की शक्ति होगी। 

भ्रष्टाचार के खिलाफ अवाज़ उठाने वालों (व्हि्सल ब्लोअर) का संरक्षण


समस्या क्या है
यदि कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाता है तो ऐसी कोई संस्थानहीं है जो उसे विश्‍वसनीय तथा प्रभावशाली संरक्षण प्रदान कर सके। वह केवल पुलिस के पास जा सकता है। आमतौर पर पुलिस उन्हीं लोगों के नियंत्रण में होती है जो खुद भ्रष्ट हैं। मिसाल के तौर पर, यदि कोई स्थानीय सांसद या विधायक लोगों का उत्पीड़न करता है तो ऐसे में पुलिस कुछ नहीं करती। 

जन लोकपाल बिल में प्रस्तावित व्यवस्था 
जन लोकपाल एक स्वतंत्रसंस्था होने के नाते भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले व्यक्ति को किसी भी हानि से संरक्षण दिलाने के लिए सक्षम तथा उत्तरदायी होगा और साथ ही इन मामलों में जांच तथा मुकदमें का आदेश देगी । यदि जन लोकपाल के अधिकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले व्यक्ति को पर्याप्त संरक्षण दिलाने में नाकामयाब होता है और व्यक्ति को वाकई में कोई हानि पहुंचती है, तो ऐसे अधिकारी के विरु) आपराधिक कार्यवाही की जाएगी (यदि उसके पासखुद को बेकसूर साबित करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं है)। 

भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले व्यक्ति स्थानीय सतर्कता (विजिलेंस) अधिकारी या जन लोकपाल के अध्यक्ष या सदस्यों से सुरक्षा की मांग कर सकता है। इन्हें मामले की गंभीरता को देखते हुए निश्‍चित समय सीमा में कार्यवाही करनी होगी। भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले व्यक्ति के पास जन लोकपाल के सदस्यों से व्यक्तिगत तौर पर मिलने या वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के द्वारा बात करने का 

अधिकार होगा (यदि वह स्वयं जन लोकपाल भवन तक जाने में असमर्थ हैं।) 
भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले व्यक्ति का यदि मानसिक उत्पीड़न होता है तो जन लोकपाल शिकायतकर्ता एक महीने के अंदर आवश्यक सुरक्षा दिलाएगा। शारीरिक हानि का भय होने पर, जन लोकपाल भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले व्यक्ति की शिकायत दर्ज कराने के कुछ ही घंटों में या अधिक से अधिक एक सप्ताह के भीतर मामले की गंभीरता को ध्यान में रखकर अनिवार्य सुरक्षा मुहैया कराएगा । यदि शारीरिक नुकसान पहले ही हो चुका है तो जन लोकपाल शिकायत दर्ज कराने के 24 घंटे के भीतर ही आगे होने वाले किसी और नुकसान से संरक्षण दिलायेगा। साथ ही जन लोकपाल पुलिस को नुकसान पहुंचाने वाले के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज करने का आदेश भी देगा। 

अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले किसी व्यक्ति के खिलाफ प्राधिकारियों द्वारा कोई झूठा मामला दर्ज हुआ हो तो जन लोकपाल ऐसे मामले की वापसी भी सुनिश्‍चित करेगा। 

झूठी और भ्रमित करने वाली शिकायतों के खिलाफ सुरक्षा 
झूठी शिकायत : अगर कोई व्यक्ति बिना किसी आधार के किसी अन्य को परेशान करने की मंशा से शिकायत करता है तो शिकायतकर्ता पर जन लोकपाल की ओर से आर्थिक दंड लगाया जाएगा। हालांकि, कमज़ोर सबूतों के होने कि स्थिति में शिकायतकर्ता को दंडित नहीं किया जाएगा। जन लोकपाल या लोकायुक्त के अध्यक्ष या किसी सदस्य के खिलाफ झूठी शिकायत यदि कोई शिकायत बिना किसी आधार के अध्यक्ष या किसी सदस्य को परेशान करने की मंशा से की जाती है तो सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय ऐसे शिकायतकर्ता के खिलाफ आर्थिक दंड लगा सकते हैं तथा जेल की सज़ा भी दे सकते हैं। 

भारतीय गणना

आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!