शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

परिशिट-1


वर्तमान भ्रष्टाचार निरोधी व्यवस्था की खामियां 
केंद्र सरकार के स्तर पर 
केंद्र सरकार के स्तर पर हमारे पास केंद्रीय सतर्कता आयोग, विभागीय सतर्कता तथा सी.बी.आई है। केंद्रीय सतर्कता आयोग तथा विभागीय सतर्कता, भ्रष्टाचार से संबंधित मामलों को सतर्कता के संदर्भ (अनुशासनात्मक कार्यवाही ) में तथा सी.बीआई आपराधिक संदर्भ में, कार्यवाही करती है। 

केंद्रीय सतर्कता आयोग- केंद्रीय सतर्कता आयोग भारत सरकार के सतर्कता संबंधी मामलों के लिए सर्वोच्च संस्था है। 
  • इस विभाग के पास बड़े पैमाने पर शिकायतें आती हैं लेकिन उनसे निपटने के लिए सीवीसी के पास संसाधनों का अभाव है। केंद्रीय सतर्कता आयोग एक बहुत ही छोटी संस्था है, जिसके कुल कर्मचारियों की संख्या 200 से भी कम है। इसे केंद्र सरकार के 1500 से भी अधिक विभागों तथा मंत्रालयों से संम्बधित भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करनी होती है, जिनमें से कुछ विभाग अत्याधिक बडे़ हैं जैसे केंद्रीय उत्पाद, रेल, आयकर आदि । 
  • इस प्रकार यह एक डाकखाने की भांति काम करते हुए ज़्यादातर शिकायतों को संबंधित सतर्कता शाखाओं को प्रेषित करता रहता है। यह प्रत्यक्ष रूप से केवल कुछ ही मामलों में खुद जांच करता है। उदाहरण के लिए वर्ष 2009-10 में इसको प्राप्त होने वाले 1800 मामलों में से सिर्फ 11 मामलों में ही इसके द्वारा प्रत्यक्ष जांच की गई। बाकी मामले केवल आगे प्रेषित कर दिए गये। 
  • केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) मात्र एक सलाहकारी संस्था है। केंद्र सरकार के किसी भी विभाग की सतर्कता शाखा पहले मामले की जांच करती है, उसके बाद सज़ा के लिए केंद्रीय सतर्कता आयोग से सलाह मांगती है। हालांकि, उस विभाग का प्रमुख केंद्रीय सतर्कता आयोग की सिफारिशों को मानने या ना मानने कि लिए स्वतंत्र है। उन मामलों में भी जो इसके द्वारा प्रत्यक्ष रूप से जांचे गए हैं, सीवीसी सरकार को केवल सलाह दे सकता है। देखने में आया है कि किसी बडे़ अधिकारी के भ्रष्टाचार से जुड़े होने के मामल में सरकार द्वारा ऐसी सिफारिशें बहुत कम ही मानी गई हैं। 
  • केंद्रीय सतर्कता आयोग का अधिकार क्षेत्र नौकरशाहों तक ही सीमित है। राजनेता इसके क्षेत्र में नहीं आते। यदि किसी मामले में राजनेता भी शामिल हों तो यह केवल नौकरशाह की भूमिका से संबंधित मामले की ही जांच करता है। 
  • विभागीय सतर्कता शाखाओं के ऊपर इसका कोई प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं है जब की यह अधिकतम शिकायतें उन्हें ही सौंपता हैं। अकसर देखा जाता है कि शिकायत सौंपने के बाद इसे बार-बार संबंधित विभाग को याद दिलाते रहता है जिन्हें कई बार माना भी नहीं जाता। सीवीसी के पास अपने आदेशों के अनुपालन कराने की कोई शक्ति नहीं है। 
  • केंद्र सरकार के विभागों के सतर्कता शाखाओं पर केंद्रीय सतर्कता आयोग का कोई प्रशासनिक नियंत्रण नहीं है जिन्हें यह भ्रष्टाचार की शिकायतें सौंपता है। यद्यपि सरकार विभिन्न विभागों के मुख्य सतर्कता अधिकारियों की नियुक्ति करते समय केंद्रीय सतर्कता आयोगों की सलाह लेती है किंतु अंतिम निर्णय सरकार द्वारा ही लिया जाता है। साथ ही मुख्य सतर्कता अधिकारी से नीचे के अधिकारियों की नियुक्ति / तबादले उस विभाग के प्रमुख द्वारा किए जाते हैं। 
  • केंद्रीय सतर्कता आयोग की नियुक्तियां प्रत्यक्ष रूप से सरकार के नियंत्रण में होती हैं। यह नियुक्तियां विवादास्पद एवं गैर-पारदर्शी होती हैं। 
  • सीवीसी अधिनियम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सीबीआई के पर्यवेक्षण का (सुपरवाइज़ करने का) अधिकार देता है। परंतु यह अधिकार बेमानी है। केंद्रीय सतर्कता आयोग के पास किसी भी मामले में सीबीआई से कोई दस्तावेज़ मांगने या किसी विशेष तरीके से जांच करवाने की शक्ति नहीं है। इसके अलावा सीबीआई केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के बजाय सेवीवर्गीय एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के प्रशासनिक नियंत्रण में आता है। 
  • इस प्रकार केंद्रीय सतर्कता आयोग अपेक्षाकृत रूप से एक स्वतंत्र संस्था है फिर भी इसके पास न तो संसाधन है और न शक्तियां, जिससे यह जांच या कार्यवाही कर सके। केंद्रीय सतर्कता आयोग केवल एक दिखावा मात्र बन कर रह गया है। 
  • विभागीय सतर्कता शाखा- प्रत्येक विभाग में एक सतर्कता शाखा होती है जिसमें उसी विभाग के अधिकारी होते हैं (कुछ बाहरी लोगों को छोड़ कर जैसे मुख्य सतर्कता अधिकारी)। हालांकि, उसके अंदर काम करने वाले सभी अधिकारी उसी विभाग के होते है। 
  • कि विभाग के सतर्कता शाखा के सभी अधिकारी उसी विभाग से होते हैं, तो उन्हें किसी भी समय उसी विभाग में किसी अन्य पद पर भी भेज दिया जाता है। ऐसे में उनके द्वारा अपने ही सहकर्मियों या उच्च अधिकारियों के खिलाफ जांच करना असंभव हो जाता है। यदि किसी उच्च अधिकारी के खिलाफ शिकायत प्राप्त होती है तो ऐसा अधिकारी (जिसको बाद में, हो सकता है कि उसी आरोपी अधिकारी के नीचे काम करना पड़े) उसके खिलाफ प्रभावी जांच नही करता। काफी बार ऐसा भी होता है कि सतर्कता अधिकारी आरोपी अधिकारी के नीचे काम कर रहा होता है। ऐसे में ईमानदार जांच करना तो लगभग असंभव ही है। 
  • कुछ विभागों में सतर्कता अधिकारी अन्य कार्यों को भी देखते हैं। इसका मतलब है कि उसे सतर्कता का अतिरिक्त प्रभार दिया गया होता है। ऐसे में यदि कोई नागरिक शिकायत करता है तो संभव है कि उस अधिकारी को अपने आप के खिलाफ ही जांच करनी पड़ती है। यदि ऐसी शिकायत विभाग प्रमुख या सीवीसी को भी की जाती है तो भी वह अंत में उसी अधिकारी को सौंप दी जाती है। ऐसे सैकड़ों शर्मनाक उदाहरण हैं। 
  • सतर्कता विभाग से जुड़े ज्यादातर अधिकारी पहले से ही भ्रष्ट होते हैं। सतर्कता विभाग में रहते हुए वह अपने खिलाफ लगे सभी मामलों पर लीपा-पोती कि कोशिश करते हैं। इस प्रकार वे सतर्कता विभाग को भ्रष्टाचार का गढ़ बना देते हैं जहां पैसा लेकर मामले बंद किए जाते हैं। 
  • विभागीय सतर्कता शाखा किसी भी मामले के आपराधिक पहलू की जांच नहीं करती और न ही इसे प्राथमिकी (एफ.आई.आर) दर्ज करने की शक्ति होती है। 
  • इनके पास राजनेताओं के खिलाफ भी कोई शक्ति नहीं होती। 
  • चुंकि सतर्कता विभाग उस विभाग के प्रमुख द्वारा नियंत्रित होता है, इसलिए इसके द्वारा उसी विभाग के उच्च अधिकारियों के खिलाफ जांच कर पाना असंभव होता है। 
  • इस प्रकार ज्यादातर समय किसी भी विभाग की सतर्कता शाखा शिकायतों की केवल लीपा-पोती कर रहा होता है या कुछ चुने हुए अफसरों के खिलाफ ही जांच करता है। केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सी.बी.आई.)- सीबीआई के पास पुलिस थाने की तरह प्राथमिकी दर्ज करने की तथा जांच करने की शक्ति होती है। यह केंद्र सरकार से संबंधित किसी भी विभाग में स्वत: या किसी राज्य सरकार या न्यायालय के निर्देश पर जांच कर सकती है। सीबीआई के ऊपर ज़्यादा काम होने के कारण वो मामले भी स्वीकार नहीं करती जिनमें लगभग एक करोड़ का घपला हुआ हो। 
  • सीबीआई प्रत्यक्ष रूप से केंद्र सरकार के अधीन काम करती है। सीबीआई के निदेशक और अन्य सभी अधिकारी केंद्र सरकार द्वारा सीधे नियुक्त किए जाते हैं। 
  • अगर भ्रष्टाचार के मामले में संयुक्त सचिव या उसके ऊपर के स्तर के अधिकारी शामिल हों तो सीबीआई को जांच शुरू करने से पहले सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। मुकदमा चलाने के लिए भी इसे सरकार से अनुमति लेनी होती है। काफी बार जिन अधिकारियों को ऐसी अनुमति देनी होती है वे या तो स्वयं ऐसे मामलों मे लिप्त होते हैं या इनमें संलिप्त किसी राजनैतिक व्यक्ति के प्रभाव में होते हैं। 
  • किसी मामले की जांच पूरी हो जाने के बाद सीबीआई द्वारा न्यायालय में मामला दर्ज कराने के लिए वकील कानून मंत्रालय द्वारा नियुक्त किया जाता है। ऐसे में यदि किसी मामले में कोई मंत्री फंसा हुआ है तो कानून मंत्रालय ऐसा वकील चुनता है जिसका प्रयास दोषी को सज़ा दिलाने की बजाय मामले को ही खतम करा देना होता है। 
  • अत: यदि कोई शिकायत किसी मंत्री, राजनेता या नौकरशाह से संबंधित होती है जो सत्तारूढ़ का हिस्सा हो तो ऐसे मामलां में सीबीआई द्वारा सही जांच कर पाना असंभव होता है। ऐसे में सीबीआई मामले की लीपा-पोती में जुट जाती है। 
  • पुन:, सीबीआई के सरकार के अधीन होने के कारण, इसका इस्तेमाल विपक्षी राजनेताओं से सौदेबाज़ी के लिए किया जाता है। अंत:, यदि एक नागरिक किसी राजनेता या केंद्र सरकार के किसी अफसर के भ्रष्टाचार की शिकायत करना चाहता है तो कोई भी एक ऐसी भ्रष्टाचार निरोधी एजेंसी नहीं है जो सरकार से मुक्त हों और प्रभावशाली हो। सीबीआई के पास शक्ति है लेकिन स्वतंत्र नहीं है। केंद्रीय सतर्कता आयोग स्वतंत्र है लेकिन न तो उसके पास शक्ति है न ही संसाधन। 

राज्य स्तर पर 
हमारे पास ठीक ऐसी ही व्यवस्था राज्य स्तर पर भी हैं। सभी सतर्कता एजेंसियां (जैसे राज्य सतर्कता विभाग, विभागों की सतर्कता शाखा) और भ्रष्टाचार निरोधी एजेंसियां (जैसे राज्य पुलिस की भ्रष्टाचार निरोधी शाखा, सीआईडी आदि) सीधे-सीधे राज्य सरकार के नियंत्रण में काम करती हैं और इसलिए अपने राजनीतिक मालिकों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच प्रभावी तरीके से नहीं कर पाती। साथ ही, कुछ ही राज्यों में लोकायुक्त बनाए गए हैं। 

लोकायुक्त: 
  • लोकायुक्त स्वत: जांच शुरू नहीं कर सकता। उसे निर्धारित स्तर के ऊपर के अधिकारियों के खिलाफ जांच शुरू करने से पहले राज्य सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। 
  • कुछ राज्यों में, जन लोकायुक्त को केवल राजनेताओं के खिलाफ शक्ति दी गई है। यहां नौकरशाहों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों सतर्कता विभाग देखते हैं। इस प्रकार का विभाजन जांच प्रक्रिया को नुकसान पहुंचाता है। जब किसी एक मामले में जिसमें राजनेता और नौकरशाह दोनों शामिल होते हैं(जो कि आमतौर पर देखने को मिलता है), लोकायुक्त और सतर्कता विभाग दोनों ही कठिनाई महसूस करते है। 
  • लोकायुक्त केवल एक सलाहकार की भूमिका निभाता है। उसे प्रत्यक्ष रूप से मुकदमा करने की शक्ति नहीं है। वे सरकार को सिफारिश भेज सकते हैं जिसका मानना या न मानना सरकार के हाथ में होता है। इनके पास भारी मात्रा में जो शिकायतें मिलती है उनकी जांच के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं होते। 
  • लोकायुक्त की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा विवादास्पद एवं गैर-पारदर्शी तरीके से की जाती है। कुछ राज्यों में इनकी स्वतंत्रता पर भी सवाल उठे हैं। 

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