शनिवार, 1 मार्च 2014

नौकरी

रमेश रात के नौ बजे गॉंव के एकमात्र विडियो सेन्टर से फिल्म देखकर घर आया, उसे आश्‍चर्य हुआ घर का फाटक खुला था। कमरे से रोशनी आ रही थी, रसोई घर से बर्तनोंकी आवाज आ रही थी, उसी समय सुषमा रसोई घर से निकली। पति को प्रणाम किया- ‘‘अरे! तुम कब आई, तुम्हें तो इतनी जल्दी नहीं आना था। तुम तो कहकर गई थी मैं एक माह के लिए जा रही हूँ’’ रमेश ने कहा। ‘‘पिताजी आपकी नौकरी के लिए जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। शिक्षा मंत्री उनके सहपाठी रहे हैं, उन्होंने आश्‍वासन दिये हैं, आप अपनी नौकरी पक्की समझें।’’ ‘‘ऐसा सुनते-सुनते पूरा वर्ष व्यतीत हो गया, लेकिन अभी तक तो नौकरी मिली नहीं। मैं तंग आ गया हूँ, इन आश्‍वासनों से, मैं शादी अपने पैरों पर खड़ा होने के बाद करना चाहता था, लेकिन आपके पिताजी ने ऐसा सब्जबाग दिखाया, कि कुछ मत पूछो उसने कहा था कि इधर शादी हुई और उधर नौकरी पक्की समझो।’’ पत्नी ने दुखी होते हुए कहा-‘‘इसमें मेरा क्या कसूर है, मैं तो जानती भी नहीं थी कि इस तरह से आपको आश्‍वासन दिया गया है।’’ ‘‘मैंने कब कहा कि तुम्हारा दोष है। दोष मेरा है, मेरे नसीब का है। माता-पिता बूढ़े हैं। जवान बहन अभी तक कुवॉंरी बैठी है, घर की हालत कुछ ठीक नहीं है, ऐसे में मेरा बेरोजगार होना कितने दुर्भाग्य की बात है।’’ रमेश एम.ए.करने के बाद भी बेरोजगार था। घर में कुल पॉंच सदस्य थे। जायजाद के नाम पर मिट्टी का पुराना घर था, जिसकी मरम्मत हुए बरसों बीत गया था। उस पुराने घर में रहना अपने आप को खतरे में डालना था। रमेश के पिताजी सेवानिवृत्त शिक्षक थे, जिसके पेंशन से घर का गुजारा मुश्किल से चलता था। अपना पेट काटकर उसे उसके पिताजी ने एम.ए. तक किसी प्रकार पढ़ाया था। उसे अपने बुढ़ापे में एक सहारे की आवश्यकता थी। घर के सदस्यों को रमेश से आशा थी, वही उसका केन्द्रबिंदु था, किन्तु रमेश निराश था। वह आत्मकेंद्रित हो गया था। उसे काम की तलाश थी, वह मेहनती था। उसने एक स्वप्न देखा था, जो सरकारी नौकरी के अभाव में अधूरा था। 

सुषमा का कोई दोष नहीं था। फिर भी अपने आप को दोषी समझ रही थी। इस एक वर्ष में उसने जीवन के कई रंग देखे थे, लेकिन वह आशावादी थी, रमेश उसके लिए ईश्‍वर से बढ़कर था। वह समर्पित भाव से पति की सेवा करती थी। उसके दर्द को समझती थी और हमेशा ममतामयी मॉं की तरह सॉंत्वना देती। रात के अंधकार में जब सारा घर नींद की आगोश में डूबा रहता, सुषमा जागती रहती और इस घर के कल्याण के लिए ईश्‍वर से प्रार्थना करती। कभी - कभी ऐसा लगता, जैसे रमेश उसे बहुत प्यार करता है, लेकिन अगले क्षण उसका व्यवहार बदल जाता, करवट बदलती सुषमा बोली- ‘‘ऐजी ! सुनते हो क्या?’’ ‘‘हूँ ... सुन रहा हूँ! आप ऐसा क्यों नहीं करते, मेरे नाम का जो पॉंच हजार रूपये बैंक में जमा है उससे छोटा-मोटा दुकान खोल लेते।’’ ‘‘सुषमा! तुम्हारा पैसा है, मैं उसे छू भी नहीं सकता, आज तक तुम्हारे लिए एक साड़ी तक तो नहीं खरीद सका हूँ, तुम्हारा पैसा लेना मुझसे नहीं हो सकेगा और फिर लोग क्या कहेंगे कि पत्नी के पैसे से दुकान खोला है।’’ ‘‘अरे! आप मुझे अपने से अलग क्यों समझते हैं। क्या पत्नी को इतना भी अधिकार नहीं है, कि संकट में पति की सहायता कर सके?’’ ‘‘नहीं सुषमा! मैं ऐसा नहीं समझता, तुम्हारा पैसा मेरा पैसा है और मेरा पैसा तुम्हारा, मगर मेरा भी तो कर्तव्य है कि मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करूँ।’’ ‘‘जब आप समर्थ हो जायेंगे तो करेंगे ही, तब तक के लिए मुझे एक मौका तो दीजिये। इसी बहाने अपना कर्तव्य पूरा कर सकूँ और आपके चरणों में स्थान पा सकूँ। ’’

‘‘ये क्या कह रही है सुषमा! क्या तुम्हें ऐसा महसूस होता है कि मैंने तुम्हें संपूर्ण हृदय से नहीं चाहा है? यदि तुम ऐसा सोचती हो तो यह तुम्हारा मुझ पर अन्याय है, तुम ऐसा ख्याल हृदय से निकाल दो, कि तुम्हारे पिताजी के धोखा देकर शादी करने से मैं तुमसे नाराज हूँ। हर हाल में तुम मेरी पत्नी हो और मैंने तुम्हें पत्नी का पूरा मान दिया है, अब सो जाओ रात अधिक हो गई है। अमावस्या की रात बीतने पर आशा का प्रकाश फैलेगा और हमारी जिंदगी खुशियों से भर जाएगी।’’ रमेश के पिता जी भी पूछते- ‘‘क्यों बेटा! आवेदन कहॉं-कहॉं दिया है?’’ ‘‘शिक्षा विभाग, रेलवे, बैंक इत्यादि सभी जगह के लिए दिया है पिताजी! साक्षात्कार भी दे आया हूँ, लेकिन पोस्टिंग लेटर नहीं आया है।’’ इतना सुनकर पिताजी गुमशुम हो जाते। रमेश को यह देखकर बहुत दुख होता कि पिताजी मेरी बेकारी से परेशान रहते हैं और उनकी परेशानी का कारण वह स्वयं है, लेकिन मुँह से कुछ न कहते हुए भी आँखों से सब कुछ व्यक्त हो जाता। स्नेहमयी मॉं की आँखें कमजोर है, लेकिन कुछ न कुछ अपने हाथों से पकाकर रमेश को खिलाती है। रमेश कहता- मॉं..! तुम मेरी फिक्र छोड़ो, अब मैं बच्चा थोड़े ही हूँ, मेरे लिए क्यों चिंतित रहती है। रमेश की बहन मालती छोटी उम्र में ही बहुत जिम्मेदार हो गई है। उसकी शादी की चर्चा एक दो जगह चल रही है, लेकिन लेन-देन के कारण बात आगे बढ़ न सकी वह सुंदर सी गुड़िया अप्सरा से कम न थी, जिस घर में जाती घर स्वर्ग बन जाता, लेकिन इस स्वर्ग की कल्पना करनेवाले इस समाज में कितने लोग हैं? मालती कहती- ‘‘मॉं आपने अभी तक भोजन नहीं किया है। दोपहर बीत रही है चलो! मैं अपने हाथों से खिला देती हूँ।’’ ‘‘आज मेरा उपवास है’’ मॉं कहती। ‘‘मैं जानती हूँ मॉं! तुम्हारा कैसा उपवास है, देखो मॉं! तुम कितनी दुबली हो गई हो।’’ ‘‘अब मेरे मोटी होने के दिन थोड़े हैं, रे!’’ मॉं कहती और मालती आह भरकर रह जाती। 

गॉंव के बीच में एक सड़क दुर्ग से बालोद जाती है। गॉंव की आबादी यही कोई पॉंच हजार के करीब होगी। गॉंव में एक अशासकीय हाईस्कूल है, जिसे एक समिति संचालित करती है। गॉंव के दाऊजी उनके अध्यक्ष हैं। एकदिन मुझे बुलाकर बोले-‘‘रमेश तुम व्याख्याता पद के लिए आवेदन दे दो, हमारे यहॉं एक पद खाली है, तुम्हारी नियुक्ति मैं करवा दूँगा, ऐसे अभी खाली ही हो। ‘‘ मैंने आवेदन दे दिया दाऊ जी की कृपा से मुझे व्याख्याता की नौकरी मिल गयी। डुबते को तिनको का सहारा। मुझे थोड़ी राहत मिली, क्योंकि नौकरी के लिए चक्कर लगाते-लगाते निराश हो गया था। गॉंव के अधिकांश मित्र बेरोजगार थे। उनकी तुलना में मैं अपने को बड़ा भाग्यशाली समझता हूँ, जिस दिन मुझे प्रथम वेतन मिला मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने पिताजी के लिए कमीज, मॉं के लिए साड़ी, बहन के लिए स्नो-पावडर, पत्नी के लिए चप्पल खरीदा। घर के सभी लोग मेरी खुशी में साथ दे रहे थे। हालॉंकि तनख्वाह कम थी, लेकिन भविष्य मंगलमय प्रतीत हुआ। मैंने एक किलोग्राम मिठाई खरीदा और दाऊ से मिलने चल पड़ा, बैठक में प्राचार्य महोदय से बातकर रहे थे। मुझे बोले-‘‘आओ रमेश! बैठो।’’ मैंने दाऊजी और प्राचार्य महोदय को प्रणाम किया और कुर्सी पर बैठ गया। मिठाई का डिब्बा दाऊजी की ओर बढ़ा दिया-‘‘अरे! भाई यह क्या है? बच्चों के लिए मिठाई लाया हूँ, आज मुझे प्रथम वेतन मिला है, मैं आपका एहसान कभी नहीं भूल सकता।’’ ‘‘इसमें एहसान कैसा भाई, तुम मेरे मित्र के पुत्र हो, तो मेरे भी पुत्र हुए न! तुम्हारे पिताजी कभी भी आज तक नौकरी की चर्चा नहीं किये, जबकि उसके साथ मेरा नित्य का उठना बैठना चलता है। यह तो अच्छा हुआ जो दुर्ग में तुम्हारे ससुर से भेंट हो गई। उन्होंने कहा - कि सुषमा मायके आई थी और रमेश की नौकरी के लिए कहने लगी। जब उन्हें पता चला कि मैंने रमेश को नौकरी का आश्‍वासन देकर सुषमा की शादी की है, तो नाराज होकर तुरंत अपनी ससुराल चली आई। मैंने बहुत समझाने की कोशिश की उसे रोकना चाहा, लेकिन वह रूकी नहीं, बेटा! कोई इस तरह मॉं-बाप से नाराज होता है। तुम सुषमा को समझाना तुम्हारे श्‍वसुर का शिक्षामंत्री क्लासफेलो हैं, बहुत जल्दी शिक्षाविभाग में उच्चश्रेणी शिक्षकों की नियुक्ति होनेवाली है, उसमें तुमको जरूर लिया जाएगा। तब तक गॉंव के उच्चतर माध्यमिक शाला में पढ़ाओ! तुम्हारे पिताजी बहुत ही स्वाभिमानी ब्यक्ति हैं, मैं उसका दिल से इज्जत करता हूँ।’’ मुझे मालूम है दाऊ जी कभी किसी का बुरा नहीं चाहते और न ही किसी को गलत आश्‍वासन देते हैं। मैंने दाऊ जी से इजाजत ली और उठ खड़ा हुआ खुशी-खुशी घर आया पत्नी मुझे खुश देखकर आनंदित हुई। उसने कहा- ‘‘क्या कोई सरकारी नौकरी मिल गई?’’ ‘‘नहीं बल्कि मिलनेवाली है।’’ और तब से पोष्टमैन का इंतजार कर रहा हूँ। 

अचानक पोष्टमैन की आवाज सुनकर चौंक गया। जल्दी से बाहर आया, ‘‘रमेश बाबू आपका बुकपोष्ट है।’’ कहकर लेटर मुझे थमाया और चला गया। मैंने पत्र खोलकर देखा, मेरा बी.एड. के लिए सलेक्शन पत्र था। एक सप्ताह के अंदर प्रशिक्षण महाविद्यालय रायपुर में ज्वाइन कर लेना है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूँ? पत्नी ने तनिक मुस्कुराते हुए कहा- ‘‘आप बी. एड. ज्वाइन कर लीजिये ट्रेण्ड होने के बाद चांसेस बढ़ जाएगी।’’ ‘‘लेकिन पिताजी से राय लेने के बाद ही कुछ करूँगा, लगता है अब मेरे अच्छे दिन आनेवाले हैं।’’ 

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आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!