कचरी मायके गई है। आज एक माह बीत गया, फिर भी वह ससुराल आने का नाम ही नहीं ले रही है। छोटी गुड़िया की याद रह-रहकर दिल को कचोट रही है। घर में बाबा और बूढ़ी मॉं गुड़िया की ही चर्चा करते रहते हैं। दादी पोपले मुँह से दादाजी को सम्बोधित कर कहती है- ‘‘गुड़िया ला देखे बहुत दिन होगे हे, वोहा तोर संग गली घूमे बर कतिक जिद करे, रहि-रहि के गुड़िया हा नज़र मा झुलत रहिथे।’’ दादाजी आत्मविभोर होकर कहते हैं-
‘‘हॉं खोरी मोर बिना गुड़िया कइसे ऊँहा खेलत होही, बिसरू हा जाके बहू ला ले आतीस।’’ ‘‘बहू ला, घर दुआर के चिंता तक नइ हे, का करबोन भला...उँकर घर-उकर दुआर ओला चिंता नइ हे, काम करत-करत मोरो हॉंत-गोड़ मा पीरा भर जथे।’’ दादा अपने अतीत में खो जाते हैं। कुछ सोचते-सोचते मुस्कुराने लगते हैं। दादी उसको कुरेदने लगती है- ‘‘आज तो मेहा तोला अब्बड़ मुस्कुरात देखत हँव, का बात हे... मोला बता न..!’’ दादाजी को पुरानी बात याद आ गई थी, गॉंव से दस कोस उत्तर में उसका ससुराल था। उस समय दादी जी यही कोई सोलह साल की थी। दादाजी अपने ससुराल विक्रमपुर से गौना कराकर आये थे। शादी तो बचपन में ही हो गई थी, लेकिन गौना बहुत बाद में हुआ दादाजी उस समय नवयुवक थे। शरीर में ताकत और हृदय में उत्साह था। अपनी पत्नी का सुबह शाम घर आँगन में काम करना देखते रहते और अपने भाग्य को सँराहते रहते थे। पत्नी का मुख उसे गमकता हुआ, झूमती हुई, नई धान की बाली जैसे लगती और वर्षा ॠतु के फुहार जैसे आह्लादित करती रहती, नये कपड़े और सुगंधित तेल की सुगंध उनके नथुनों में अब भी समाये हुए लगते। ‘‘कस खोरी..! तोला मायके जाय के इच्छा नइ होय का..?’’ ‘‘काबर नइ होही, बबा..! फेर... घर गिरहस्ति के चिंता तो लगे रहिथे, फेर... तेहा जान देबे तब ना..! अऊ मेहा चल दुहूँ ते...तेहा मोर बिना रहि सकबे? चार दिन ले जादा होय ताहने पीछू-पीछू लाय बर चल देस।’’ दादाजी जोर से हँसते हैं।
दादाजी के एक ही पुत्र है, जिसका नाम बिसरू है, बिसरू की शादी आज से चार साल पूर्व किसनपुर के संपन्न किसान ररूहा की इकलौती पुत्री से बड़े धूमधाम के साथ हुई थी। बड़े घर की बेटी कचरी, बहुत सुशील और धार्मिक विचारों की महिला है, उसे पति का पूर्ण विश्वास और प्रेम प्राप्त है, उसकी एकमात्र पुत्री सुषमा डेढ़ साल की है। उसका स्वास्थ्य अचानक खराब हो गया। कचरी अपने पिता से कहती- ‘‘उनका गुस्सा बड़ा तेज है, मुझको ससुराल पहुँचा दो!’’ ‘‘लेकिन बेटी! तुम देख ही रही हो, गुड़िया बीमार है और ऐसी हालत में तेज बुखार में हवा लग जाने का डर है, क्यों नहीं तुम्हारे ससुराल में संदेश भेज दिया जावे, दामाद आकर देख लेगा, यहॉं दवाई तो चल रही है।’’ कचरी मन में सोचने लगी- ‘‘हाय भगवान! ससुराल जाने के समय ही गुड़िया को बीमार पड़ना था, वे ऐसे ही नाराज हो रहे होंगे, फिर ऊपर से यह विपदा।’’ उसे बिसरू का पिटना याद आ गया। पिछले बरस किस बुरी तरह से पीटा था। सात दिन तक खाट में पड़ी थी, अब ये अलग बात है कि बाद में पछताते और क्षमा मॉंगते रहे, बिसरू सॉंवले रंग का आकर्षक युवक है, गोरी चिट्टी कचरी से उसे विशेष मोह है। गुड़िया अपने मॉं के रंग में गई है। घर में अकेली संतान होने के कारण गुड़िया सभी को प्यारी है, उसी गुड़िया की बीमारी सुनकर बिसरू परेशान हो गया और ससुराल जाने की तैयारी करने लगा। ‘‘बापू जी! आप भी चलिये! गुड़िया गंभीर रूप से बीमार है, हिचकी लेकर बेहोश हो जाती है| आँखें इधर-उधर घुमाती है तेज बुखार है उतरने का नाम ही नहीं लेता, पता नहीं क्या हालत है।’’ ‘‘बेटा ! तुम आज चले जाओ, मैं कल सुबह जाऊँगा।’’ क्वॉंर का कृष्ण पक्ष है, रात अंधेरी है, किसनपुर जाने के लिए कोई गाड़ी नहीं है। अंतिम गाड़ी पॉंच बजे पूर्व चली गई है। अंत में लाचार बिसरू रेतवाली ट्रक में बैठ जाता है। उसे रह-रहकर कचरी पर क्रोध आ रहा है- ‘‘इतने दिनों तक मायके में रहने का क्या तुक है? मैंने जल्दी आने को कहा था, है ही जिद्दी, आखिर अपनी इच्छानुसार रही। मौसम बदल रहा है, यहॉं-वहॉं का पानी, नन्ही जान में इतनी ताकत ही कहॉं है, कि सहन कर सके।’’ आखिर परिणाम स्वरूप गुड़िया बीमार पड़ गई। ‘‘बाबू जी! आप की मंजिल आ गई, उतरिये।’’ ‘‘धन्यवाद ड्रायवर साहब! आपने ऐन वक्त में सहायता की, यदि आप मुझे नहीं मिलते तो मैं यहॉं तक कैसे आता’’ बिसरू ने कहा। ‘‘कोई बात नहीं भाई! हम तो इधर ही आ रहे थे’’ ड्रायवर ने कहा। गाड़ी स्टार्ट की- ‘‘अच्छा नमस्ते जी!’’ रात के दस बज गये हैं, गॉंव के कुत्ते अजनबी को देखकर भौंकने लगते और चुप हो जाते। ससुराल का एक परिचित ब्यक्ति मिला- ‘‘अरे भाई बिसरू! इतनी रात को आ रहे हो’’ आश्चर्यपूर्वक उस ब्यक्ति ने कहा। ‘‘हॉं भाई रामू! अचानक खबर मिली कि गुड़िया की तबियत खराब है, तो दौड़ा चला आ रहा हूँ।’’ ‘‘चलिये! आपके ससुराल तक छोड़ देता हूँ, दाऊ जी, ओ दाऊ जी! देखिये आपके घर मेहमान आये हैं|’’ ‘‘आता हूँ भाई! आता हूँ।’’ दरवाजे पर खड़े रामू और अपने दामाद को साहू जी अंदर ले आये उसी समय गुड़िया के कराहने की आवाज आयी बिसरू ने कहा-‘‘बाबू जी! अब गुड़िया की तबियत कैसी है।’’ ‘‘तेेज बुखार है बेटा! अभी तक उतरा नहीं है, आओ अंदर आ जाओ।’’ राम्हू और बिसरू गुड़िया को देखते हैं। ‘‘बुखार तेज है, वह रह-रहकर कराहती है’’ साहू जी कहते हैं। ‘‘अभी चार बजे हम लोग दुर्ग से आये हैं। डॉक्टर के पास ले गये थे। इंजेक्शन और दवाई दिये हैं, लेकिन अभी तक फायदा नहीं हुआ है, झाड़फूँक भी चल रहा है। अच्छा भैया! मैं चलता हूँ, रात्रि भी ज्यादा हो रही है।’’ बिसरू कुछ दूर तक राम्हू को पहुँचाने आया घर के सभी लोग गुड़िया के खाट के चारों ओर बैठ गये। ‘‘कैसे कचरी! मैं तुम्हें जल्दी घर आने को कहा था ना? उधर मॉं को भोजन पकाने में बहुत कष्ट हो रहा है।’’ डरते हुए कचरी कहती है-‘‘मैं मामा के यहॉं चली गयी थी, इसलिए इतनी जल्दी घर न आ सकी और जब वापस जाने की सोची तब गुड़िया बीमार पड़ गई।’’ ‘‘गुड़िया कब से बीमार है?’’ ‘‘अभी तीन दिन हुआ है, शुरू में वैद्य जी से इलाज चल रहा था। फायदा नहीं होने पर दुर्ग ले गये थे। आज ही चार बजे वापस आये हैं’’, कचरी ने कहा।
बीच-बीच में गुड़िया कराहने लगी और बेहोशी में छटपटाती| कुछ समय बाद बुखार कम हुआ और गुड़िया सोने लगी, फिर भी हाथ पैर अभी भी गर्म था। ‘‘अच्छा बेटा! तुम आराम करो, थके हुए हो,’’ यह कहकर साहू जी अपने कमरे में चले गये बिसरू की सास कचरी को बचपन में ही छोड़कर भगवान को प्यारी हो गई थी। कचरी को अपनी मॉं का थोड़ा-थोड़ा ख्याल है, कितनी प्यार से गीत गाकर रात में कचरी को थपकी देकर सुलाती थी।‘‘अजी! सो गये क्या?’’ ‘‘नहीं जाग रहा हूँ, आज नींद ही नहीं आ रही है’’ ‘‘और मुझे भी’’ कचरी ने कहा। कंडील के धुंधले प्रकाश में बिसरू ने देखा, गुड़िया अपनी मॉं के सीने से चिपककर सो रही थी धीरे-धीरे बिसरू नींद की आगोश में समाता चला गया। रात का तीसरा पहर बीत चला था। आकाश चारों तरफ से अंधकार से ढँका था। घर के सभी प्राणी गहरी नींद में सो रहे थे। सुबह जब बिसरू की नींद खुली तो सूर्योदय हो चुका था।आँगन में कचरी बर्तन मॉंज रही थी और गुड़िया खाट में बैठी रो रही थी आज का सुबह बहुत अच्छा लगा| आँगन में मुनगे के डाली पर तरोई के पीले फूल सुंदर लग रहे थे। बिसरू ने गुड़िया के माथे पर हाथ रखा बुखार उतर चुका था। उसने गुड़िया को चिपका लिया गुड़िया चुप हो गई। उसी समय कचरी अपने पति को जगे देखकर एक लोटा पानी लाई और चाय की पानी रखने रसोई में चली गई बिसरू चाय पीकर आवश्यक कार्यों से निवृत्त होने चला गया। दाऊ जी बैठक में अपने नौकरों को आवश्यक हिदायतें दे रहे थे। ‘‘नाश्ता कर लिया बेटा।’’ ‘‘हॉं बाबू जी!’’ ‘‘तुम्हारे यहॉं फसल कैसी है?’’ ‘‘क्या बतायें बाबू जी! बोनी के समय ही धान नहीं जगा, बाद में दँतारी में एवं लाई चोपी बोये, जिसके फलस्वरूप आठ आना एवं दस आना बीज मात्र ही जगा, बोआई पीछे होने के कारण फसल कमजोर है। धान में चितरी बीमारी लग गई है, नहर में पानी भी कम छोड़ा है, पानी के लिए लोगों में लड़ाई हो रही है। कचरी! तैयार हो जाओ, आज घर जाना है’’, बिसरू ने कहा- ‘‘बाबू से पूछ लिए होते।’’ ‘‘मैंने उनसे आज्ञा ले ली है, गुड़िया को आज बुखार नहीं है, लेकिन चिड़चिड़ी हो गई है। खेलने के वस्तु को भी फेंकती है।’’
घर के आँगन में दादी जी और दादाजी बैठे हैं। ‘‘कस बबा तेहा गुड़िया ला देखेबर जाहूँ केहे रेहेस, तोला देखत होही।’’ ‘‘का बतॉंवव खोरी! पानी के झगड़ा ल निपटाय बर, पँचइत बइठे रिहिसे, ओमा नइ जातेव, ते गॉंव के मन चिथों-चिथों करतिस। मोर कुरता ला लातो मेहा अभीच जाहूँ। मोर दिल हा घबरावत है, गुड़िया कइसे हे, हे भगवान! बनेच-बने राखबे।’’ उसी समय बिसरू-कचरी-गुड़िया के साथ आते हैं। गुड़िया दादाजी को देखकर अपनी मॉं की गोद से उतरने के लिए मचलने लगती है ‘‘बा...बा...!’’ गुड़िया मॉं की गोद से उतरकर दादाजी के गोद में बैठ जाती है। ‘‘कस बहू! नानुक लइका के तोला कुछु फिकर नइ लागे। घर दुआर के फिकर नइ हे, ते नइ हे, महीना भर बीते के बाद, घर के खियाल आवत हे’’ दादाजी कहता। कचरी चुप रह जाती गुड़िया कमजोर और दुबली हो गई है। उसे देखकर दादी की आँखें गीली हो जाती है और दादाजी के हाथों से गुड़िया को लेकर अपनी छाती से लगा लेती है, मानों उसे अब अपने से अलग ही नहीं करेगी।
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