शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

छत्तीसगढ़ धान का कटोरा है

कारण और निदान

कर्म संस्कृति का जनक है और संवाहक भी। व्यक्तिसः या सामूहिक रुप से किये गये धर्मनिष्ठ कर्म का कालान्तर में पुनरावृत्ति होते रहने से सांस्कृतिक अस्तित्व का आविर्भाव होता है। ऐसे बहुत से कर्म हैं जिसे हम कर्तव्य निर्वहन, हित संवर्धन या मानवता की वेदी पर रखकर जाने-अनजाने संपादित तो करते हैं, किंतु उनका
दूरगामी परिणाम इतना सुखद और लोक-मंगलकारी होगा, इसकी कल्पना भी नहीं किये होते हैं। कुछ ऐसी ही एक घटना इतिहास के गर्भ में छुपी हुई है, जिसके कारण छत्तीसगढ़ “धान का कटोरा” बन गया। कविवर श्री लक्ष्मण मस्तुरिया का गीत मोर छत्तीसगढ़ ला कहिथे भइया “धान के कटोरा”, इसे वर्तमान में जन-जन तक रमा दिया है। 
पूरी दुनिया में छत्तीसगढ़ ही एक ऐसा प्रदेश है जिसे “धान का कटोरा से संबोधित किया जाता है। इस प्रकार का संबोधन अन्य देश या प्रदेश के लिए नहीं मिलता। एक दूसरा संबोधन - उत्तरी अमेरिका के प्रेयरी प्रदेश के लिये है। उसे “रोटी की टोकरी” कहा जाता है। प्रेयरी प्रदेश “रोटी की टोकरी” है तो छत्तीसगढ़ “धान का कटोरा”। इन दोनों शब्दों के वजन और अर्थगत अंतर से आप सभी भलीभाँति परिचित हैं, तथापि अंतरपक्ष पर विहंगम दृष्टि डालने पर -
  • “कटोरा” धातु निर्मित होता है, इस कारण यह काफी मजबूत, वजनी और मूल्यवान होता है, किंतु “टोकरी” बाँस से बनी होने के कारण कमजोर, हल्की और सस्ती होती है। 
  • “रोटी की टोकरी” से आशय है- गेहूँ उत्पादक क्षेत्र और “धान का कटोरा” से आशय धान उत्पादक क्षेत्र से है। धान के फसल के लिए खेत में पानी देर तक भरा रहना चाहिये। इसलिये धान क्षेत्र के लिए “कटोरा” और गेहूँ फसल के लिये जमीन में केवल नमी चाहिये। इसलिये गेहूँ क्षेत्र के लिये “टोकरी” शब्द का उपयोग पूर्वजों द्वारा किया गया है। क्योंकि “कटोरा” में भरा हुआ पानी देर तक रहता है और “टोकरी” में पानी भरें भी तो वह शीघ्र रीस जाता है। दोनों प्रदेशों की भौगोलिक स्थितियाँ ठीक इसके अनुकूल हैं। 
  • कीमत की दृष्टि से धान मँहगा अनाज है। गेहूँ धान की तुलना में सस्ता है। 
  • धान में भरण-पोषण की क्षमता अधिक होती है। प्रति एकड़ उत्पादन भी अधिक होता है। परिणाम स्वरूप धान उत्पादक क्षेत्र धन-जन से सुसंपन्न होते हैं, जबकि गेहूँ में भरण-पोषण की क्षमता कम तथा प्रति एकड़ उत्पादन भी कम होने के कारण वहाँ की स्थिति धन-जन से कमजोर होती है। 
इस प्रकार छत्तीसगढ़ भारत-माता की गोद पर बसा विश्व का एक ऐसा महान प्रदेश है जिसे “धान का कटोरा” जैसे संपन्नता बोधक शब्द से नवाजा गया है। तभी तो लक्ष्मण मस्तुरिया अपने गीत में आगे कहते हैं- लक्ष्मी दाई के कोरा भइया, “धान के कटोरा”। 

प्रश्न अब भी अपने जगह पर स्थिर है कि छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा होने का गौरव कैसे प्राप्त हुआ ? इसका रहस्य इस ऐतिहासिक घटना के गर्भ में निहित है। 

इस वसुंधरा पर भगवान का अवतार किसी कारण विशेष के निमित्त ही नहीं प्रत्युत अनेकानेक कारणों से होते हैं। उन समस्त कारणों के मूल में जनकल्याण एवं धर्म स्थापना की भावना होती है। इसी तारतम्य में एक बार धर्म स्थापना एवं जनकल्याण के निमित्त भगवान शंकर भगवती सती के साथ ग्राम चौरेल के गौरैया प्राँगण में पधारकर लीला सम्पन्न किये। यह लीला प्रचलित किवदंतियों पर आधारित त्रेतायुगीन है। 

त्रेतायुग में तपस्वी वेशधारी एवं पत्नी-वियोग से व्यथित श्रीरामचंद्र जी को देखकर भगवती सती को उनके सच्चिदानंद होने पर संदेह उत्पन्न हो गया। इस संदेह के निवारणार्थ जब भगवान शंकर ने परीक्षा लेने की बात कही तो भगवती सती ने सीता का रूप धारण कर श्रीरामचंद्र जी की परीक्षा ली। इस घटना के पश्चात भगवान शंकर और सती इसी “गौरैया” स्थान पर पधारे। 

संध्याकालीन भोजन हेतु भगवती सती चावल चुनकर जल लेने बावली चली गईं। भगवान शंकर समय का उपयोग करते हुए ध्यान में बैठ गये। जब सती जल लेकर वापस लौटीं तो देखती हैं कि- गौरैया नामक चिड़िया चुने हुए चावल को चुग रही है। सती के पास आने पर गौरैया चिड़िया अपने चोंच में कुछ दाने दबाकर उड़ गई। देखने में यह घटना बहुत छोटी और सामान्य लगती है, किंतु चिड़िया के इस कार्य से भगवती सती धर्म-संकट में पड़ गईं। चावल चिड़िया द्वारा जूठा कर दिया गया। जूठे चावल को जान बूझकर स्वामी को खिलाना धर्म विरुद्ध है और दूसरा चावल भी नहीं है जिससे भोजन बनाया जा सके। स्वामी को बिना भोजन कराये भूखे विश्राम कराना भी पत्नी धर्म के विरुद्ध है। इस धर्म संकट का मूल कारण चावल चूगने वाली गौरैया चिड़िया थी। इस कारण उस चिड़िया के इस व्यवहार से क्षुब्ध भगवती सती माता ने धर्म-संकट के निवारणार्थ भगवान शंकर से प्रार्थना करने लगी। इससे भगवान शंकर का ध्यान भंग हो गया सती माता ने पूरा वृतांत सुनाकर नारी धर्म निर्वाह के मार्ग में उत्पन्न समस्या का समाधान करने तथा उस चिड़िया से चावल वापस लाने के लिये निवेदन की। चावल के वापस नहीं आने से क्षेत्रवासियों के समक्ष क्षुधा पूर्ति की विकट समस्या आ जाती। भगवान शंकर ने सती के वचनों में जनकल्याण की पवित्र भावना देखकर अपना तीसरा नेत्र खोल दिया। वहाँ से क्रोध का जन्म हुआ जो गौरैया चिड़िया का पीछा करने लगा। 

गौरैया चिड़िया तब तक काँकेर की उत्तरी पहाड़ी तक पहुँच चुकी थी। वहाँ देवपरियाँ संध्या भ्रमण कर रही थी। उनके पास जाकर गौरैया चिड़िया त्राहिमाम! त्राहिमाम!! क्रंदन करने लगी। 

देवपरियाँ असहाय चिड़िया की करुण पुकार सुनकर रुक गई। प्रथम देवपरी कौतुहलवश पूछने लगी -क्या बात है ? किससे रक्षा? कौन सा संकट?

चिड़िया- भगवान शंकर जी के क्रोध से रक्षा। मेरे प्राण-रक्षा का संकट, देवियों ! 

दुसरी देवपरी- भगवान शंकर के क्रोध से तुम्हारी रक्षा? तुम्हारे प्राण का संकट ? बात समझ नहीं आ रही है, स्पष्ट करो। 

चिड़िया- आप सभी देख रहे है मै एक छोटी सी चिड़िया हूँ। मुझे गौरैया के नाम से जानते हैं। मेरा जीवन प्रकृति पर आधारित है। प्रकृति द्वारा जो मेरे भोजन के योग्य मिलता है वही मेरा भोजन होता है। आज मुझे चावल मिला। मैं उसे खा ही रही थी कि माता सती आ पहुँचीं। मुझे क्या पता था कि माता सती ने भोजन पकाने के लिए उसे चुन कर रखी हैं। मुझे चावल चुगते हुए देखकर चावल जूठा हो जाने की बात को नारी धर्म पालन मे अवरोध उत्पन्न होने का विषय बना लीं, और भगवान शंकर का ध्यान भंग कर धर्म पालन करने के लिये मार्ग प्रशस्त करने का हठ करने लगीं। भगवान शंकर का तीसरा नेत्र खुल गया। जिससे उत्पन्न क्रोध मेरा पीछा कर रहा है। मेरी रक्षा कीजिये। 

तीसरी देवपरी- प्रकृति आधारित दैनिक क्रियाओं पर सामान्य व्यक्ति भी क्रोध नहीं करता। भगवान शंकर कैसे क्रोधित होंगे ? 

प्रथम देवपरी - हाँ गौरैया ! यह कैसे संभव है? भगवान तो करुणानिधान हैं, क्रोध कैसे करेंगें। 

चिड़िया - पर सच्चाई तो यही है देवियों। मैं क्या करूँ ? 

तीसरी देवपरी - अगर तुम्हारी बातें सत्य हैं तो इस घटना के पीछे कोई लीला का आभाश होता है। इस लीला के लिए तुम निमित्त बनी हो तो इसे अपना सौभाग्य मानो गौरैया; भगवान शंकर के शरण में जाओ। 

पहली और दूसरी परी - हाँ गौरैया ! भगवान शंकर के शरण में जाओ, तुम्हारा अवश्य कल्याण होगा। 

चिड़िया- जैसी आप लोगों की आज्ञा। 

देवपरियों से चर्चा के दौरान चिड़िया की चोंच में दबा चावल जमीन पर गिर गया। अब तक क्रोध गौरैया चिड़िया के पास तक पहुँच चुका था। जब उसे अपने गिरफ्त मे लिया तो क्रोध के ताप से चिड़िया का शरीर झुलसने लगा। ब्याकुल होकर चिड़िया भगवान शंकर का स्मरण कर बोली - हे देवाधिदेव ! मुझे अपने शरण में लीजिये। मेरे प्राण की रक्षा कीजिये। मेरी गलतियों पर मुझे क्षमा कीजिये प्रभु !

इस प्रकार भगवान शंकर के शरणागत होते ही गौरैया चिड़िया की शारीरिक व्याकुलता समाप्त हो गई और क्रोध के साथ जाने लगी। इस किवदंती के अनुसार पूर्व में गौरैया चिड़िया का रंग सफेद था, किंतु क्रोध के ताप के प्रभाव से उसका पंख हल्का भूरा और काला हुआ है। ज्ञातव्य है कि गौरैया चिड़िया को ब्राह्मण पक्षी भी कहा जाता है। ब्राहमणों की धर्मपरायण्ता, न्याय प्रियता एवं पवित्रता का भाव प्रथमतः उनके स्वेत वस्त्रों से सूचित होता है। कुछ ऐसे ही भाव से गौरैया चिड़िया को उनके श्वेत वर्ण और गृहों में वास करने के कारण ब्राह्मण पक्षी तो आज भी कहा जाता है, किंतु उनका वर्ण इस घटना के बाद से बदल गया। 

गौरैया चिड़िया त्राहिमाम् ! त्राहिमाम्! करती हुई भगवान शंकर और माता सती के समक्ष उपस्थित हुई। भगवान शंकर ने सती को प्रश्न भरे नजरों से देखा तो माता सती ने अपनी योग शक्ति से एक नारी प्रतिमा को अवतरित किया और उस प्रतिमा को प्राण-दान देने के लिये भगवान शंकर से निवेदन की। भगवान शंकर ने उस प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की और पूरे क्षेत्र में अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूज्य होने का आशीर्वचन प्रदान किया। 

भगवान शंकर अर्थात्‌ गोंड़ जाति का ईष्ट देव “गौरा” तथा सती अर्थात “गौरी” दोनों की दिव्य शक्ति से उत्पन्न होने के कारण उसे “देवी गौरैया माता” के नाम से प्रसिद्धि मिली। ज्ञातव्य है कि सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ दंडकारण्य का महत्वपूर्ण अंग रहा है। दंडकारण्य गोंडवाना प्रदेश में आता है यहाँ गोंड़ जाति की बहुलता रही है। गोंड़ जाति में आज भी गौरी-गौरा की पूजा एवं विवाहोत्सव बड़े धूमधाम के साथ दीपावली की रात को मनाया जाता है, जिसमें सभी ग्राम एवं नगरवासी शामिल होते हैं। इस देवी के अवतरण का कारण गौरैया चिड़िया रही है। इस कारण चिड़िया के नाम के आधार पर भी “देवी गौरैया माता” के नाम से विख्यात हुई ऐसा माना जा सकता है। माता सती ने भगवान से पुनः निवेदन की- “हे स्वामी ! इस क्षेत्रवासीयों के जीवन निर्वाहक सामाग्री चावल को गौरैया चिड़िया द्वारा उठा लिया गया है। इससे क्षेत्रवासी अतृप्त क्षुधा से ग्रसित हो जायेंगे। उनकी भोजन व्यवस्था का उपाय कीजिये।” 

भगवान शंकर लोककल्याण की भावना देखकर तनिक मुस्काए, फिर गौरैया चिड़िया के चोंच से गिरे हुए चावल को आशीष देते हुए कहा- तुम उसी स्थान से नदी के रूप में प्रवाहित होकर देवी गौरैया का पग-प्रक्षालन करते रहोगे। देवी गौरैया के चरण-स्पर्श होने पर तुम्हारे जल का जहाँ तक विस्तार होगा वह पूरा क्षेत्र चावल उत्पादन के लिए प्रसिद्ध होगा। 

इस प्रकार नदी की उत्पत्ति चावल के गिरे हुए दानों से हुई मानी जाती है। चावल को संस्कृत में “ताँदुल” कहा जाता है। इस कारण नदी का नाम “ताँदुला” पड़ा। 

ज्ञातव्य है कि ताँदुला, शिवनाथ नदी तथा शिवनाथ महानदी की सहायक नदी है। महानदी बेसीन संपूर्ण छत्तीसगढ़ में फैले होने के कारण ताँदुला का जल संपूर्ण छत्तीसगढ़ में सिंचित होता है। इस कारण देश में सर्वाधिक चावल का उत्पादन छत्तीसगढ़ में होता है। संभवतः यही कारण है कि छत्तीसगढ़ को “धान का कटोरा” होने का गौरव प्राप्त हुआ है। 

देवी गौरैया माता का यह पावन प्रांगण ग्राम-चौरेल की पूर्वी सीमा पर स्थित है। प्रांगण के पूर्वी भाग से ताँदुला नदी प्रवाहित होती है, जो वास्तु के विचार से अत्यंत उत्तम है। 

“चौरेल” का अर्थ है- चावल+रेला (प्रचुरता) अर्थात जहाँ प्रचुर मात्रा में चावल होता हो। बुजुर्गों के अनुसार चौरेल के चावल की प्रसिद्धि बालोद, दुर्ग, राजनादगाँव, बेमेतरा, और कबीरधाम जिले तक फैली हुई थी, किंतु वर्तमान वैज्ञानिक उर्वरकों एवं औषधियों के प्रयोग से स्थिति में अब परिर्वतन मिलता है। 

एक दूसरी किवंदती के अनुसार चौरेल का प्राचीन नाम “चौरागढ़” था। यहाँ चौरस नामक सम्राट का साम्राज्य था। उस सम्राट का विवाह “बोड़की” नामक कन्या से हुआ था। बोड़की रामायण की शबरी जिसने भगवान श्रीरामचंद्र जी को जूठे बेर खिलाई थी, की सगी बहन थी। बोड़की की प्रतिमा चौरेल भाँठा (मैदान) में आज भी अनगढ़ शिला-रूप में स्थित है। उस मैदान को “बोड़कई भाँठा” के नाम से जाना जाता है, चूँकि बोड़की भील जाति की आदिवासी महिला थी। आदिवासियों की प्रवृत्ति के अनुरूप बोड़की की प्रवृत्ति भी मदिरापान करने की रही होगी। शायद इसी कारण बोड़कई भाँठा में महुआ वृक्षों की अधिकता रही हो, जो आज भी आंशिक रूप में मिलता है, किंतु उस मैदान को “मउहारी भाँठा” न कहकर “बोड़कई भाँठा” के नाम से जाना जाता है, क्योंकि उसी मैदान पर संभवतः बोड़की का निवास भवन रहा हो। “चौरस” नामक सम्राट के नाम पर इस राजधानी का नाम “चौरागढ़” पड़ा था, जो अब परिवर्तित होकर “चौरेल” के नाम से जाना जाता है। यह चौरेल, गुण्डरदेही-विकासखण्ड, जिला-बालोद में स्थित है। 

इस प्रकार भगवान की अमृत कथा को अपने हृदय में सहेज कर रखने वाले चुनिंदा स्थानों में एक नाम चौरेल भी है, जहाँ माँ गौरैया वास करती हैं। 
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चंद्रकुमार चंद्राकर, अर्जुन्दा





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