लक्ष्मी का विवाह बहुत आलीशन ढंग से सपन्न हुआ था, जैसे ही दाऊ विश्राम सिंह के घर में पैर रखी तब खुशी का ठिकाना न था, लेकिन ‘लिखा करम में जो है विधाता मिटाने वाला कोई नहीं’ वाली बात लक्ष्मी के सिर पर आ गयी। जब दौलत आसमाँ तक पैर पसार लेता है, तब दो लत आ ही जाती है। किसी भी चीज की अधिकता चैन उड़ा ले जाता है। यही बात हुबहू दाऊ विश्राम सिंह के सामने जुबान तक हिला नहीं पाती थी। पहले तो पत्नी को पैर की जूती समझते थे। आज जब नारियों का आत्मबल जागा है, नारी शक्ति चहुँ ओर दिखाई देती है।
पहले नारी को भोग्या समझी जाती थी। सहमी-सहमी लक्ष्मी साहस कर दाऊ विश्राम सिंह से बोली- आपका गाँव में खूब सम्मान है, सब आदर की दृष्टि से आपको देखते हैं, आपके वचनामृत के लिए लोग तरसते हैं, लेकिन कुछ दिनों से आपमें वह बात दिखाई नहीं देती है, मैं बड़ी जतन से भोजन तैयार कर आपकी बाट जोहती रहती हूँ, लेकिन आप थोड़ा सा भी मेरी ओर ख्याल नहीं रखते, सुनकर दाऊ आग बबूला हो गया- तुम्हारी ये हिम्मत कि मेरे सामने जुबान हिलाती है। मैं कुछ भी करूँ, क्या तेरे बाप-दादे की कमाई से ऐश करता हूँ? मेरे पूर्वजों की सम्पत्ति है, मैं कुछ भी करूँ, तुम्हें बोलने की जरूरत नहीं। बात-बात में बात बढ़ ही जाती है। लक्ष्मी की बात का असर प्रतिकूल होने लग गया। अब तो दाऊ विश्राम सिंह ठाकुर पूरी तरह बुरी लत के शिकार हो गये।
कभी लड़खड़ाता हुआ चला आता। घर के सामनों को फेंक देता। लक्ष्मी परेशान हो गई थी। आखिर अपनी राम कहानी किसे सुनाती, सुनने पर लोग हँसने के सिवाय और क्या करते। लक्ष्मी और ठाकुर साहब के आपसी झगड़े से घर के अमन चैन उड़ गये, एकमात्र पुत्र होने के कारण माँ-बाप से कुछ कहते भी नहीं बनता था। माँ-बाप सयाने हो गये थे, उम्र की अधिकता शरीर को कमजोर बना दिया था, परंतु आज बुढ़ी माँ देवकी ने कहा- बहू को खोटी क्यों कहते हो, घर के कामों से लेकर हम लोगों का भी ख्याल रखती है। पिता दाऊ घनश्याम सिंह कुछ नहीं कहते थे। समय आने पर सब ठीक हो जायेगा, इस विचार के शांत गंभीर व्यक्ति थे। लक्ष्मी सगर्भा होते हुए भी गृहकाज में जुटी रहती थी। घर में पुन्नी नाम की एक काम करने वाली महिला आती थी। लक्ष्मी के व्यवहार से वह खूब प्रसन्न रहती। लक्ष्मी भी पुन्नी को खूब मानती थी। पुन्नी लक्ष्मी को समझाया करती थी, देख मालकिन धीरज में काम बनता है। समय एक समान नहीं रहता अच्छे दिन आते देर नहीं लगती।
ठाकुर साहब कुछ कहें सुन लीजिए, ठाकुर सब कुछ ज्यादती में उतर आये एकदिन बेहोश घर में आकर तमतमा गये और लक्ष्मी के गाल पर दो तमाचा जड़ दिये। लक्ष्मी जोरों से चिल्लाकर रोयी अब देवकी से रहा नहीं गया, बोल पड़ी- बेवजह बेचारी को क्यों मार दिये। मैं तो मेरा अकेला बेटा सूरज की तरह है कहकर गर्व करती थी, लेकिन शर्म से आज मेरा सिर झुक गया, दुनिया के लोग क्या कहेंगे। घर को तमाशा बनाकर रख दिया। बिना कसूर हरकत करने लग गये हो। विश्राम सिंह अपनी माँ को बोला चुप रहो बूढ़ी कितने दिन तक साथ देगी, साँस के कुछ दिन रह गये है और शिक्षा देने चली।
देवकी के अंतस में विश्राम सिंह के वचन काँटो की तरह चुभने लगे और हाय कहते-कहते काल कवलित हो गई। लक्ष्मी उदास रहने लगी एकमात्र लक्ष्मी के लिए सहारा पिता तुल्य ससुर थे। जो देवता-तुल्य थे। उनके समय में घर की मर्यादा और थी। लक्ष्मी का कुछ दिनों बाद एक संतान आ गयी, धूमधाम से नामकरण संस्कार संपन्न हुआ। लक्ष्मी को साहस आ गया। सन्तान के आने से लक्ष्मी को आधार मिला। दाऊ विश्राम सिंह समाजिक नियमानुसार सभी, कार्य सम्पन्न किये। लेकिन बुरी आदत से बाज नहीं आये। गाँव की एक महिला जो अपनी ससुराल को छोड़कर मायके में बैठी थी, उससे अनैतिक संबंध था दिन में विश्राम सिंह दोस्ती-यारी में गुजारता और रात उस महिला के घर में व्यतीत करता।
एकदिन उस महिला को लेकर अपने घर ले आया। लक्ष्मी सिहर उठी, जुबान तक हिला नहीं सकी। अपनी बीती किससे कहती। बूढ़े दाऊ भी जान गये। पारिस्थिति प्रतिकूल जान चुप रह गये। एकदिन लक्ष्मी से रहा नहीं गया। लक्ष्मी तो परेशान रहती थी। अब दोनों ओर से ताने-बाने सुनते कान पक गये। अपने छोटे बच्चे कमल को लेकर अपनी मायके जाने को सोचती। बूढ़े दाऊ के चरण छूकर जब जाने लगी तब दाऊ ने कहा- मैं बेआधार हो जाऊँगा लक्ष्मी..! कुल में दाग लग जायेगा, हमारे खानदान में इस तरह कभी कोई घटना नहीं हुई है। दाऊ घनश्याम सिंह के कहने से लक्ष्मी रूक गई।
कुछ दिनों बात दाऊ घनश्याम सिंह भी स्वर्गवास सिधार गये। अब लक्ष्मी अनाथ हो गई। एकमात्र सहारा भी छोड़ गये। रातदिन परेशान रहती। दाऊ विश्राम सिंह लक्ष्मी के हाथ को पकड़कर घर से बाहर कर दिया। कमल को लेकर अपने मायके पहुँची, तो पिता रामसिंह माता कुन्ती के दुख का पारावार न रहा। बेटी जब ससुराल से खुशी-खुशी आती है, तब आनंद का ठिकाना नहीं रहता, लेकिन जब पीहर से अपमानित होकर मैहर आती है तब माँ बाप पर बज्र का पहाड़ गिर जाता है, लेकिन नारी का दो ही ठिकाना होता है ‘ससुरे और माइके’ माइके में रहकर कमल को पढ़ाने-लिखाने लग गई यहाँ तक की मजदूरी करके जीवन निर्वाह करने लगी। कमल देखते-देखते बड़ा हो गया। वह अपनी माँ को सब कुछ मानने लग गया, अपनी माँ लक्ष्मी को दो रूपों में देखता पिता को वह जानता ही न था। कमल पढ़-लिखकर जवान हो गया। बी.एस.सी. तक की शिक्षा प्राप्त कर विद्यालय में शिक्षक हो गया, कहा जाता है माँ प्रथम गुरू होती है तो बेटा महान बन जाता है, भारत की संस्कृति में अनेक इस तरह कथायें है। कमल पर अच्छा संस्कार पड़ गया।
शासकीय सेवा में लगने के कारण अनेक रिश्ते आने लगे। पास के ही श्यामपुर गाँव के दाऊ फूलसिंह की सुकुमारी कन्या उषा के साथ कमल का रिश्ता तय हो गया। विवाह की तैयारी प्रारंभ हो गई। लक्ष्मी की माँग में सिंदूर, हाथ में चूड़ियाँ देखते ही बनता था, सिर से कभी आँचल छूटता न था। पति से अलग रहकर भी सती की तरह जीवन-यापन करती थी।
विवाह का समय नजदीक आते गया लक्ष्मी के आँसू बरबरस छलक पड़ते थे, जैसे आपदा से घिरी हो, बिस्तर पर जाने से पहले सोचती पिता के होते हुए भी आज कमल बिन पिता का हो रहा हैं। मैं अपने कर्तव्य से कैसे वंचित होऊँ, दुनिया के लोग क्या कहेंगे। लोकलाज तथा सामाजिक भय के कारण लक्ष्मी नारायणपुर अपने पति के पास संदेश भिजवाती है। दाऊ विश्राम सिंह जब से लक्ष्मी को अलग किया है तब से लाचार हो गया था। चेहरे में झुरियाँ तथा मुरझाया चेहरा और शरीर दुर्बल हो गया था। घर में उसकी रखैल चम्पा बहुत कर्कश थी रात की नींद और दिन को चैन महिनों उड़ गया था, जैसे ही कमल के विवाह का संदेश पाया, दाऊ विश्राम सिंह के हृदय में पिता का प्यार उमड़ पड़ा। वह कमल और लक्ष्मी को देखने व्याकुल हो रहा था। रास्ते भर सोचते विचारते जैसे ही लक्ष्मी की कुटिया के पास पहुँचा, पुकारा- लक्ष्मी..! दरवाजा खोलो। सचमुच कहा गया है दुख में साथ देने वाली धर्मपत्नी ही है। जैसे ही लक्ष्मी दरवाजा दाऊ विश्राम सिंह की दीनता पर आँसू छलक पड़े। दाऊ विश्राम सिंह कहने लगा। लक्ष्मी मुझे क्षमा करो, जवानी और दौलत के मद में मैं तुम्हें छोड़ दिया था। लक्ष्मी बोली सुबह का भूला यदि शाम को घर लौट आये तो सब क्षम्य होता है।
लक्ष्मी और दाऊ विश्राम सिंह की बातें सुनकर कमल ने कहा- माँ..! ये बताओ ये कौन हैं, कैसे आये हैं? लक्ष्मी बोली- बेटा..! यही तुम्हारे पिता हैं। सब कुछ बताने पर कमल बोला माँ मेरे तो सब कुछ आप हैं, आपके आँचल की छाया ने मुझे जीवन दिया है, मैं माँ के कर्ज से उऋण नहीं हो सकता। ये तो सब ठीक है लेकिन पिता का गौरव होने का भी तुम्हें सौभाग्य मिल गया। अपना कर्तव्य का निर्वहन कराना पुत्र का धर्म है। मुझसे भी अधिक सम्मान पिता को दोगे। कमल माता-पिता का आर्शीवाद पाकर परिणय-बंधन में बंध गया। उषा वधू बनकर लक्ष्मी के घर आ गयी, तब विश्राम सिंह बोला- बेटा..! अब अपनी माँ और बहू को लेकर अपने घर चलो। दाऊ विश्राम सिंह अपने परिवार को लेकर जैसे ही हवेली पहुँचा, चम्पा रुपये पैसे को लेकर फरार हो गई थी। विश्राम सिंह पश्चाताप करते रहा, तमाम बुरी आदत को छोड़ अभिमान चकनाचूर हो गया। हवेली के शानो-शौकत फिर लौट आयी और स्वर्ग सा लगने लगा। सभी आनंदित होकर जीवन व्यतीत करने लगे।
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