मंगलवार, 23 जुलाई 2013

गरीब की कुटिया

श्यामा घास-फूस से बनी झोपड़ी में रहती थी। वह भूल नहीं सकती वह दिन जब मोहन के पिताजी जीवित थे, अब वैधव्य ने उसे बड़ी तंगी के दिन दिये थे। मोहन छोटा था तभी उसके पिताजी चल बसे, उनके जाने के बाद तो मेहनत मजदूरी ही उसका सहारा था। कभी वह किसी के घर बर्तन माँजती, तो कभी खेतों में काम करने जाती। 

मोहन ५ साल का हुआ तो उसे उसकी पढ़ाई और स्कूल जाने की चिंता सताने लगी। कभी वह अन्य बच्चों को यूनिफार्म में स्कूल जाते देखती तो उसकी उत्कृष्ट अभिलाषा और बढ़ जाती। आर्थिक तंगी को बर्दाश्त करनेवाली श्यामा सोचती- वह कहाँ से लाये बेटे के लिए यूनिफार्म, पुस्तकें कापियाँ। क्या अपने बेटे को वह निरक्षर रख देगी? सवाल उसके जेहन में कौंध-कौंध उठता। 

ऐसा कभी नहीं होगा, वह स्वयं समाधान कर लेती। चाहे कर्ज करना पड़े पर बेटे को पढ़ायेगी जरुर। वह दृढ़ संकल्पित थी। क्यों न हो, जो अतीत में उसने भोगा पर्याप्त न था ? 

सहसा श्यामा उठी और दौड़ी-दौड़ी पहुँच गई गाँव के साहूकार रामलाल के पास जाकर बोली- सेठ जी..! बच्चे को पढ़ाना है, स्कूल में दाखिल करना है कृपया १०० रुपये की मदद कर देंगे..! याचना भरे शब्दों में वह बोली। रामलाल के चेहरे पर कुटिल मुस्कान उभर आई, बोला- पैसे तो दूँगा पर सूद लगेगा और समय पर चुका देना। श्यामा तो पाई-पाई चुकाने को तैयार थी। रामलाल ने पैसे दिये। पैसे पाकर उसमें गजब की शक्ति आ गई। बाजार पहुँची, मोहन के लिए स्कूल के कपड़े, प्रारंभिक कक्षा की पुस्तकें एवं कापियाँ खरीदी। मोहन को स्कूल ले गई और नाम लिखवा दिये। 

मोहन नित्य स्कूल जाने के लिए निकलता तो श्यामा मन ही मन बड़ी प्रसन्न होती। मोहन स्कूल से लौटता, सबक बनाता गुरुजनों को दिखाकर वाहवाही लूटता। कक्षा शिक्षक व प्रधानाध्यापक उसकी होशियारी पर गर्व करते। दिन बीतते जा रहे थे। प्रत्येक वर्ष मोहन सर्वश्रेष्ठ अंक पाकर उत्तीर्ण होता। स्कूल मित्र, पड़ोसी व ग्राम्यजन उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। उधर मेहनत-मजदूरी करके श्यामा ने रामलाल का हर कर्जा अदा कर दिये और जब कक्षा १२वीं का परीक्षा परिणाम निकला, मोहन दौड़ता हुआ घर आया, माँ के चरण छुआ, परिणाम सुनकर श्यामा के खुशी के आँसू टपक पड़े। मोहन प्रावीण्य सूची में प्रथम स्थान पर था। 

प्रथम सोपान पूरा हुआ था। अब दूसरा सोपान कैसे पूरा हो- श्यामा सोचती। उच्च शिक्षा के लिए पैसों की जरुरत थी। अकस्मात प्रबंध संभव ना था। श्यामा ने एक कठोर निर्णय लिया, अपनी कुटिया को गिरवी रखने का। येन-केन-प्रकारेण वह अपने बच्चे को उच्च शिक्षा प्रदान कराना चाहती थी। श्यामा पुनः गई रामलाल से अनुरोध करने। रामलाल चबुतरे पर बैठकर उँगलियों से कुछ गिन रहा था, तभी श्यामा वहाँ पहुँची। रामलाल की आँखों में चमक आ गई। श्यामा ने आने का आशय बताया और कहा- मैं अपनी कुटिया गिरवी रखती हूँ पर आप बच्चे के पढ़ाई होते तक पैसा पूर्ति करेंगे। रामलाल की बाँछे खिल गई, अगर ये बुढ़िया कुटिया ना छुड़ा सकी तब उसकी संपत्ति मेरी हो जायेगी। बिना ना नुकुर के उसने पैसे देना प्रारंभ कर दिये। 

वक्त बीतते देर कहाँ लगती है, वह दिन भी आ गया जब मोहन की पढ़ाई पूरी हो गई। स्नातकोत्तर परीक्षा में भी उसने प्रावीण्य स्थान प्राप्त किया। अखबार के मुखपृष्ठ पर नाम प्रकाशित हुआ। श्यामा की खुशी का पारावार ना रहा। उसका सपना जो साकार हो रहा था। एकदिन मोहन के एक मित्र ने आकर सूचना दी- मौसीजी..! प्रावीण्य सूची होने के कारण मोहन तुरन्त एक बैंक का अधिकारी बन गया है। श्यामा इसी दिन का बाट जोह रही थी। मोहन के मित्र ने जैसे ही यह खुशी की बात बताई, उसने मिठाई का एक टुकड़ा उसके मुँह में ठूस दिया । काम से निवृत्त होकर वह मिठाई का पैकेट लेकर रामलाल के घर की ओर चल पड़ी। पहुँचते ही बेटे के कॉलेज में उत्तीर्ण होने व बैंक अधिकारी बन जाने का समाचार सेठ को सुनाई। रामलाल पर मानों गाज गिर गया... कहाँ उसने सोचा था गरीबों की कुटिया हथियाने की बात, उल्टा हो गया... यह सोच वह फुसफुसाने लगा- राम-राम, राम-राम। श्यामा उलझन में फँस गई, उसकी खुशी में खुशी व्यक्त करने के बजाय सेठ जी क्या सोच रहे हैं। उसने टोका- ये आप राम-राम कैसे कह रहे हैं, मेरा बेटा पास हो गया और अधिकारी बन गया, मैं यही बताने आई हूँ, यह लो मिठाई। बरबस रामलाल को मिठाई खानी पड़ी तभी एक कार आकर रूकी। उसमें से मोहन निकला और माँ की ओर लपका, श्यामा भी पुत्र को देखकर आँचल फैला दिये। प्रेम व ममता से वातावरण उल्लासित हो रहा था। अचानक मोहन ने रुपयों की गड्डी रामलाल की ओर बढ़ा दी, कहा- लीजिए कुटिया को गिरवी रखने की पूरी राशि सूद सहित, पैसे गिन लीजिए।  इस प्रकार गरीब की कुटिया तबाह होने से बच गई और ममता का स्वप्न पूरा हो गया।

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आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!