मंगलवार, 23 जुलाई 2013

बुढ़ापा

किशनलाल जैसे ही शिक्षकीय सेवा से ४२ साल बाद सेवानिवृत्त हुए विद्यालय रामपुर के शिक्षक एवं विद्यार्थियों ने खूब सम्मान किया, ग्राम-वासियों ने भी सम्मान करने में कोई कमी नहीं की । शाल, श्रीफल, पेन, गीता काफी एकत्रित हो गये। बाजे-गाजे के साथ अपने गुरुजी को छोड़ने उनके घर तक गये। 

काफी सम्मान पाकर किशन गुरुजी फूले न समाये, बयालिस साल की सेवा के लिए सरकार ने मोटी रकम जो दिया था, उससे किशन ने मिट्टी एवं खपरैल घर को इमारत का रूप दिया। दो एकड़ जमीन भी खरीदा। गुरुजी अपनी पत्नी राधा को भी गहने पहनाकर प्रसन्न किया। गुरुजी के दो बेटे थे धन्नु और मन्नू दोनों खेती-बाड़ी का काम देखते थे, दोनों बेटों की बहुएँ सरला और बिमला भी अपन-अपने काम में लगे रहते थे। पाँच एकड़ जमीन उसमें भी सिंचाई का साधन, यूँ कहिए अन्न-धन्न कि किसी प्रकार कमी नहीं थी। गुरुजी को पेंशन भी मासिक पाँच हजार रुपये मिलता था तो उसके लिए पर्याप्त था। 

गुरुजी धीरे-धीरे शरीर से कमजोर होने लगे, जो कुछ मिला था उस पैसे को परिवार में लगा दिया था। कमजोरी आने पर रोग का आना सरल हो जाता है। वह दमा का रोगी हो गया, जिस खाट पर सोता उसके करीब खाली डब्बा जिसमें राख भरा रहता था, उसके पास एक लाठी जो उसके बैठने-उठने का सहायक था। पाँच हजार रुपये उनके इलाज के लिए पर्याप्त नहीं था। परिवार के लोग उसके पास आने से कतराते थे, जब तक गुरुजी के पास पैसे थे, बेटे-बहू सब मंडराया करते थे, जैसे ही जेब रीता हुआ, मक्खियों के अलावा कोई पास आना नहीं चाहते थे। गुरुजी हैरत में पड़ गये, रामायण की चौपाई- ‘स्वारथ लाग करै सब प्रीति’ को स्मरण कर सजल हो जाता था। 

बुढ़ापा स्वयं में एक रोग है इस पर भी कोई बीमारी शरीर में अपना घर बना ले तो जीना दूभर हो जाता है। एकदिन गुरुजी असहनीय छाती दर्द से कराह रहे थे। दोनों बेटे खेत-खलिहान में काम करने गये थे। पत्नी राधा बाजार गई हुई थी। छोटी बहू बिमला घर पर थी, लेकिन वह गुरुजी के करुण-क्रंदन को अनुसुनी कर चौका कार्य में ब्यस्त थी, जैसे ही गुरुजी की पत्नी राधा बाजार से गृहस्थी का सामान लेकर लौटी गुरुजी की करुण पुकार सुनकर उसके पास गई और कहने लगी- नाहक आप शोर करते हैं..! कृषि कार्य में सब लोग गये हुए हैं, यदि आपको ही सब देखते रहें कारोबार चौपट हो जायेगा। गुरुजी विचार करने लगा, मैं इस घर में बोझ बन गया हूँ उससे तो अच्छा मर जाना ही ठीक होता, इस तरह सोचता दिन बिताने लगा। एकदिन उसके मन में बात घर आई कि आज के जमाने में कोई काम नहीं आता है, इसलिए सम्पत्ति का बटवारा कर देना चाहिए और अपने लिए कुछ जमीन अंतिम समय के लिए रख लेनी चाहिए, ऐसा विचार कर एक एकड़ जमीन और दो कमरा अपने हिस्से में रख लिया और बाकी दोनों बेटों को दे दिया। अब एक एकड़ जमीन गाँव के भोला को देकर राहत की साँस लिया। भोला से रुपया लेकर अपना इलाज करवाया। महीने भर बाद गुरुजी का स्वास्थ्य ठीक हो गया। तब वह अपने बेटों के बजाय भोला के सहारे रहने लगा। वक्त पर जो साथ दे वही तो सच्चा साथी होता है, बुरे वक्त में अपने और पराये पहचाने गये हैं। 

किशन गुरुजी अपनी पत्नी के साथ रहने लगा। पेंशन की राशि और एक एकड़ जमीन से प्राप्त आमदनी से घर-गृहस्थी खुशहाल नजर आने लगा। दोनों बेटे कभी भी बाप का सुध नहीं लेते थे, लेकिन माँ-बाप तो माँ- बाप होते हैं। बराबर बेटे और बहुओं की सुध लिया करते थे। गुरुजी अक्सर बिचार करता था, जिसके खातिर भगवान से वरदान माँगता है, वह बुढ़ापे में कोसों दूर हो जाते हैं। 

एकदिन गुरुजी के कुछ चहेते शिष्यों ने शिक्षक-दिवस पर गुरुजी को आमंत्रित किया। गुरुजी सिर पर टोपी, गले में सफेद पंछा डालकर, धोती कुरता से सुसज्जित होकर विद्यालय पहुँचा। उनके शिष्यों ने खूब आवभगत किया। वहाँ गुरुजी के दोनों बेटे विशेष अतिथि के आसंदी पर विराजित थे। गुरुजी के मान-सम्मान को देखकर पानी-पानी हो गये और सिर नीचा कर लिए। विद्यालयीन कार्यक्रम के पश्चात सब अपना रास्ता नाप लिए। गुरुजी के शिष्यों में से एक शिष्य शासकीय डॉक्टर हो गया था। गाँव में ही शासकीय औषधालय था। उसे लोग खूब आदर की दृष्टि से देखते थे। गाँव के लोग उन्हें बहुत चाहते थे। 

डॉ. रामसेवक शर्मा के नाम से पूरे इलाके में उनका पहचान बन गया था। डॉ. साहब का नाम जैसा था वैसा ही उनका आचरण भी था। वह किशन गुरुजी का बहुत प्यारा शिष्य था। एकदिन गुरुजी की तबियत अचानक बिगड़ गई। डॉ. साहब इलाज के लिए गुरुजी की कुटिया में पधारे, गुरुजी को अकेले देख डॉ. साहब ने पूछा- और परिवार कहाँ है। तब तो गुरुजी फफककर रो उठा। डॉ. साहब सजल हो गये और अपने विद्यार्थी जीवन में गुरुजी के प्यार का स्मरण करते-करते भीगी पलकों से गुरुजी से बोले- आप अपने आपको असहाय मत मानिए, मैं भी तो आपका बेटा हूँ और अपने साथ ले आये। गुरुजी और उसकी पत्नी डॉ. रामसेवक शर्मा के माता-पिता सदृश रहने लगे। 

मृत्यु की कोई तिथि नहीं होती, बिना निमंत्रण के आ धमकता है। गुरुजी एकाएक चल बसे। डॉ. ने सामाजिक नियमों की तरह सारी व्यवस्था किया। गुरुजी के दोनों बेटे मृत शरीर को माँगने के लिए आये तब डॉ. साहब ने कहा जीते जी आप लोगों ने गुरुजी का सहारा नहीं बन सके, अब मृत्यु के बाद सिर पीटने और आँसू बहाने से क्या होगा। मेरे धर्मपिता मेरे गुरुजी रहे हैं, इसलिए तो किसी संत ने कहा है- ‘पत्थर को देवता मान सब पूजा करते हैं अपने बच्चों से जो सुख की कामना रखता है लेकिन बूढ़ों को सम्मान नहीं देते।’ ऐसा कहकर गुरुजी के बेटों को वापिस किये, दोनों बेटे पश्चाताप करने लगे और समाज के लोग गुरुजी के बेटों को धिक्कारते हुए डॉ. शर्मा के इस तरह सुकर्म की प्रशंसा करने लगे।

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आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!