पं. दीनददाल अपने इलाके के नामी-गिरामी सुविख्यात वेदपाठी ब्राम्हण थे। नगर से लेकर शहर तक के लोग पंडित जी के दर्शनार्थ आते, और हँसते हुए जाते थे। पंडित जी काफी सुलझे हुए भले मानुष थे। उनके स्वभाव में सहजता का भाव था। उनकी बात को हृदय से सब स्वीकार करते थे। उनकी पत्नी लक्ष्मी देवी भी सुशील थी और पंडित जी के पद चिन्हों पर चलती थी। आलीशान बंगला, नौकर-चाकर, पशुधन से रचा-पचा भवन देखते ही बनता था। पंडित जी ऊँचा-पूरा, उन्नत ललाट, घुँघराला केश, कमलनयन के साथ गौर बदन, दबंग व्यक्ति थे।
पंडित जी जब घोड़े पर सवार होकर निकलते तो कौन नहीं होगा जो उनकी ओर न देखते। पंडित जी की अगवानी के लिए लोगों में होड़ लगी रहती थी, लेकिन परमात्मा की लीला भी तो विचित्र है। करतार कहीं न कहीं कमी कर देते हैं। पंडित जी संतान विहीन थे। इसी वजह से चिंता की रेखाएँ चेहरे पर दिखाई देता था। पंडिताइन लक्ष्मी देवी भी एक संतान के लिए सैकड़ों वैद्य, ओझा, बैगा छान डाली, लेकिन किसी भी हुनर में सफलता नहीं मिली। अंत में हारकर पुत्र लालसा पंडित जी ने छोड़ दिये।
पड़ोसी के पुत्र सार्थक को पंडित-पंडिताइन खूब प्यार करते थे। सार्थक के मात-पिता शंकर और देवकी भी पंडित जी के प्यार देखकर निश्चिंत रहा करते थे। सार्थक भी पंडित जी के प्यार के लिए लालायित रहता था। धीरे-धीरे सार्थक पंडित जी के करीब आ गया और अपने माता-पिता के साथ ही साथ पंडित जी के साया में पलने-बढ़ने लगा।
जब सार्थक पाँच वर्ष का हुआ तब गाँव के ही स्कूल में प्रवेश लिया, देखते ही देखते सार्थक बारहवीं कक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। तब पंडित जी और उनके माता-पिता काफी खुश हुए, लेकिन आगे पढ़ाने के लिए शंकर असमर्थता ब्यक्त किया। तब पंडित जी ने कहा कालेज की पढ़ाई का दायित्व मैं लेता हूँ। ‘होनहार बिरवान के होत चिकनेपात’ वाली बात सार्थक पर सौ पैसे उतरी। जब स्नातक की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण, तब लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और सार्थक रेल्वे विभाग में टिकट निरीक्षक की नौकरी पा गया। नौकरी का आदेश जैसे ही मिला पंडित जी के पास जाकर खुशी का इजहार किया। पंडित जी से आशीर्वाद प्राप्त कर अपने ड्युटी पर गया। कुछ दिनों बाद पंडित जी अस्वस्थ हो गये और सार्थक-सार्थक नाम रट रहे थे। सार्थक के पिता शंकर दूरभाष से सार्थक को जानकारी दिया और आने के लिए कहा।
सार्थक जल्दी ही पंडित जी को देखने अस्पताल पहुँचा, सार्थक को पंडित जी एकटक निहार रहे थे। सार्थक पंडित जी के सिर को दबाया। तब पंडिताइन को बुलवाया और सार्थक को कहा- अब मेरी अंतिम घड़ी है। गिनती के दिन रह गये हैं। पंडिताइन बेसहारा हो जायेगी तुम्हीं एकमात्र सहारा हो। ऐसा कहकर पंडिताइन को बुलाकर सार्थक के हाथ को पंडिताइन के सिर पर रखकर नश्वर काया को त्याग दिया। पंडिताइन सिर पीट-पीटकर रोने लगी। सार्थक पंडिताइन को हृदय से लगाकर फफक-फफक कर रोने लगा।
संकट के समय धैर्यता से काम लेना पड़ता है, सम्हलकर सार्थक अस्पताल से पंडित जी के पार्थिव शरीर को लेकर अपने गृह ग्राम आया। अनेक लोग पंडित जी के मातम-पुरसी में शामिल हुए। सार्थक पंडित को मुखाग्नि दिया और माटी का तन माटी में मिल गया। सारी क्रियाकर्म वैदिक-विधान से करने के बाद पंडिताइन को लेकर सार्थक अपनी नौकरी में चला गया। वहीं सार्थक पंडिताइन की सेवा तन-मन-धन से करने लगा। सगी माँ की भाँति सेवा करते देख पंडिताइन कहने लगी, जन्मजन्मातंर तक मुझे सार्थक जैसे पुत्र मिले।
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