बुधियारिन कटोरा लिए मंदिर प्रांगण में बैठकर आने-जाने वाले भक्तों की ओर निहारा करती थी। जगन्नाथ मंदिर में सुबह जाने का नियम बना रखी थी। जो कुछ दर्शनार्थियों से मिल जाता उससे वह अपना निर्वाह करती थी। जगत भी प्रतिदिन जगन्नाथ भगवान का दर्शन करने सुबह जाता था, जैसे ही मंदिर से दर्शन करके आता बुधियारिन की आँखें चमक जाती, वह बहुत प्रसन्नता के साथ कहती- बाबू जी..! भगवान का दर्शन कर आये।
जगत उसके भिक्षापात्र में सिक्का डालकर आगे बढ़ जाता था, जैसे ही कटोरे में रुपये डालता वह आशीर्वाद की झड़ी लगा देती थी- लाख बरस जीवो बाबू..! आपके बाल-बच्चे आबाद हों, दूधे भात खाव। जगत सिर झुकाये मुस्कुराता आगे बढ़ जाता। जगत के बच्चे पापा कहकर दौड़ पड़ते और प्रसाद के लिए हाथ फैलाते। अपने बच्चों को प्रतिदिन प्रसाद देकर बहुत आनंदित जगत होता था। प्रसाद में पुजारी शिवप्रसाद किसी दिन मिश्री, पेड़ा, इलायची दाना, फल्लीदाना, नारियल आदि कुछ न कुछ दिया करता था और बुधियारिन को कुछ रुपये प्रतिदिन अवश्य दिया करता था, रोज आशा भरी निगाहें जगत के लिए बुधियारिन की टिकी रहती थी। इस प्रकार जगत के जीवन का क्रम बना हुआ था।
एकदिन भिखारिन बुधियारिन पूछ बैठी- बाबू जी..! आप कहाँ रहते हैं, आपके कितने बालगोपाल हैं? इस प्रकार प्रश्नों से जगत आश्चर्यचकित हो गया और बोला- तुम अपने बारे में बताओ। वह बोली- मैं, चंद्रपुर की रहनेवाली हूँ, घर में सब कुछ है बाबू..! भरापूरा परिवार है, लेकिन जब मैं शरीर से स्वस्थ थी, तब सब लोग खुश थे, आज जब मैं असमर्थ हो गई तो, बहू-बेटे मुझे अपमानित करने लगे। दो रोटी के लिए तरसती थी, टूटी खाट, जूठन भोजन, फटी पुरानी गुदड़ी से दिन कटने लगा, रात बेचैनी से बीतती। कोई झाँकता भी न था। बेटा किशन जोरू का गुलाम जो ठहरा और लापरवाह था, खाना और घूमना इसके छोड़ कुछ नहीं करता था। उसकी बीबी आँखें तरेरती रहती थी। वह बोली- बाबू जी..! मेरे पास कुछ रुपये जमा हैं, मैं चल फिर नहीं सकती। आपके प्यार से मुझे कुछ सहारा मिल गया। आपने माँ कहकर पुकारा, ये रुपये आप रख लेते, मेरे पास रखने के लिए जगह नहीं है। जगत बोला- अरी माँ..! अपने रुपये पैसों को तू सम्हालकर रख। वह बोल उठी- नहीं बाबू जी..! आप मेरे बेटे हैं, मुझे पूरा भरोसा है। रुपये को जगत देखा तो ५०० रुपये थे- इतनी राशि तुम्हारे पास है। बोल इसका क्या करूँ। वह बोली- बाबू साहब..! जैसी आपकी इच्छा, तब तो जगत का हृदय द्रवित हो गया और बुधियारिन को वह घर ले आया। अपनी पत्नी श्यामा को बोला- देख श्यामा..! घर में माँ आई है। श्यामा आश्चर्य में पड़ गई- सचमुच हमारी माँ है। जगत बोला- ये देख पाँच सौ रुपये हैं। श्यामा पानी और चाय देकर प्रेम के साथ खाट में बिठाई और उसके दोनों बच्चे दादी कहकर पुकारने लगे।
घर के एक कमरे में उसकी व्यवस्था की गई और जगत उचित देखभाल करने लगा। माँ-बाप घर के द्वार पर बैठे ही क्यों न रहें, घर की एक मर्यादा रहती है। एकदिन बुधियारिन बोल उठी- मैं तो जीवनभर आपके इस उपकार को नहीं भूला पाऊँगी, लगता है पूर्व जन्म के आप मेरे बहू-बेटे हैं। वह बोला- नहीं माँ..! बस भगवान ने मुझे माँ के रूप में आपकी सेवा करने का अवसर दिया है। धूप-छॉंह, सुख-दुःख प्रकृति का नियम है। एकदिन जगत देखा आज बुधियारिन सोकर नहीं उठी है। वह कमरे के अंदर पहुँचा, देखा वह अचेत पड़ी है और राम...राम... कह रही है। जगत बोला- माँ..! कैसे लग रही है? बस बेटा..! अब जाने की बारी है। तुम्हारी सेवा से इतने बरस जी गई एक काम करना बेटा..! मेरा अंतिम संस्कार तुम ही करना, ऐसा कहते प्राण-पखेरू उड़ गये।
गाँव के लोग एकत्रित हुए, पंचों ने कहा- आपका कर्तव्य होता है कि इनके परिवार को भी खबर कर दें। सयानों की बात मानकर चंद्रपुर संदेश भेजा। किशन जाना कि माँ की मृत्यु हो गई, चलो झंझट कटा जाकर बुधियारिन के शव को देखा। जगत का परिवार रो रहे थे। किशन देखकर भौंचक हो गया। मैं शव को चन्द्रपुर ले जाऊँगा। तब जगत बोला- चार लोग जैसा कह दें। गाँव के लोगों ने कहा- ‘जीयत मा दंगा के दंगा, मरे मा गंगा’ सेवा तो जगत ने किया है माँ की तरह देखभाल किया है, अतः अंतिम क्रिया जगत ही करेगा। जगत बुधियारिन की सब मृतक कार्य किया। किशन के परिवार को भी मृतक भोज में बुलाया अंत में बुधियारिन की कथा कहते जगत का कंठ भर आया, आँखें सजल हो गई और बुधियारिन ने जो पाँच सौ रुपये दी थी, उस रुपये को किशन को लौटाया। वहाँ पर एकत्रित सभी लोगों ने कहा- धन्य हैं, बाबू साहब..! आज के इस युग में आप जैसे इंसान बिरले ही मिलते हैं।
किशन की आँखें खुली और जगत के पैरों पर गिर पड़ा और फफक-फफक कर रोने लगा। किशन रुपये को नहीं रखा। तब जगत चंद्रपुर विद्यालय में जाकर पाँच सौ रुपये को वहाँ के प्रधानाध्यापक को देकर कहा- यदि कोई अनाथ बालक आपके विद्यालय में हैं तो इस राशि से उसकी पुस्तक, कापी, ड्रेस की व्यवस्था कर मदद कर दीजिए। प्रधानाध्यापक हीरालाल जी अवाक रह गये और उस रुपये को मोहित कुमार जो अनुसूचित जाति का बालक पितृविहीन था उसे देकर उसकी जरुरत की चीजों के लिए व्यवस्था किया। मोहित कुमार आगे शिक्षा ग्रहण कर शिक्षा विभाग में शिक्षक के पद पर नियुक्त हुआ और अनाथ बच्चों की सेवा कर, इस कहानी को बालसभा में सुनाकर जगत बाबू की भूरी-भूरी प्रशंसा करता था।
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