सँझा होवत गाँव के गुड़ी म लइका जवान अऊ सियान सबो जुरियाथँय। इही समे एक ले बढ़ के एक फागगीत सन रंग सिताथँय, गुलाल उड़ाथें। लइकामन के पिचकारी घलो उनिहाय रथँय। रंगे-रंग म चोरबोराय लइकामन नाचे-कूदे म बियस्त रथँय। इलका हो सियान, बेटा जात हो या माई लोगन हो, अमीर हो या गरीब। सब के सब रंग-गुलाल म बोथाय फागुन के छतरंगी तिहार होली ल सारथक करथँय। कोनों रंग या गुलाल कोनो ल रंगे बर नइ बिसरय। येकर ले इस्पस्ट हे के हम होली के यथारतता ल समझन अऊ सबर दिन कायम रखन, तभे हमर होली मनई सारथक होही।
हमर छत्तिसगढ़ी रीति-रिवाज, परम्परा अऊ संस्कृति के सबो सार बात ह तिहार-बार समाय रथँय। वइसने छत्तीसगढ़ ल तिहार-बार के गढ़ कहे जा सकथे। बारो महीना तिहार मनाय जाथें इहाँ। जनम के सिधवा महिनतकस छत्तीसगढ़िया भाईमन के परेम अऊ सादगी तिहार-बार म झलकथे। लोगन एक तिहार मनाय के बाद अवइया तिहार के अगोरा म हँसी-खुसी समे बिताथे। हमर गाँव-देहात म बइसाख के अक्ती ले तिहार-बार के मुंड़ा घेराथँय जेन हा फागुन के होली म सिराथँय। ये रंगरेला होली फागुन के अगोना पाख के पुन्नी म मनाय जाथँय। होली परब फूलमाला के एक निक-सुग्घर पिंयर गोंदा आय।
होली ले जुड़े किवदंती
हर तिहार धरम, दरसन अऊ अधियात्म म जुड़े होथे। कोनों न कोनों रीति अऊ नीति तिहार बार म बिलकुल समाय रथँय। मनुख जात ल प्रकृति ले भेंट संसकिरिति के झलक तिहार म देखे ल मिलथे। रंग-रंग के किवदंती हमर तिहार-बार के संबंध म सुने ल मिलथँय। जइसे एक पौरानिक कथा ले सुने ल मिलथे कि सतजुग म सिरीहरी बिसनु के नरसिंह अवतार के कथा परसंग ले होली मनाय के परम्परा जुड़े हावय। कहे जाथँय दानवराज हिरन्यकस्यप जेन ह खुद ल भगवान मानँय। अपन राज म अपने नाम जपे के प्रचार-प्रसार करे रिहिस। प्रजा राजा के डर म भगवान के नाम बिसरान लागिस। फेर उही राजा के बेटा प्रहलाद भगवान बिसनु के परमभक्त होइस। प्रहलाद के हरिनाम पिता हिरन्यकस्यप ल थोरिक नइ भाइस। राजा बेटा प्रहलाद के ऊपर अतियाचार करिस। आखिर म राजा अपन बहिनी होलिका मेर प्रहलाद के हरिभक्ति के बात रखिस। होलिका ल बरम्हा ले वरदान मिले रिहिस के आगी (अग्निदेव) वोला कभू नइ जला सके। बरदान पाये ले होलिका ल बड़ा गरब रिहिस। भाई के आगिया मुताबिक बालक प्रहलाद ल गोदी म ले के बरत आगी म बइठगें। भक्त प्रहलाद बंबर असन बरत आगी ले बाँचगे पर अहंकार अऊ अति-अनुचित बिसवाँस म माते होलिका जर के राख होगे। येकर ले इही पता चलथँय के ईस्वरनिस्ठा ल पाप अऊ अहंकार दुनों मिलके घलो नइ पछाड़ सकँय। इही समे ले समाज म फइले बुराई ल अच्छाई ले अऊ पाप ल पुन्य ले खतम करे के उद्देस्य ले होलिका दहन के परम्परा चल पड़ीस। आज गाँव-गाँव म फागुन लगते एक जगा छेना-लकड़ी सकेलथें। अंजोरी पाख के पुन्नी रात में लइका-सियान सकला के हुम-धूप देथे। गाँव-परमुख या बइगा हर सकेलाय लकड़ी म आगी ढिलथे। इही बेरा जम्मो झन मदमस्त हो हाँसी-खुसी ले झाँझ-मँजीरा अऊ
ढोल-नँगारा बजावत, अलाप मारत, सुमरनी फाग गीत गाथँय:-
सदा भवानी दाहिनी सन्मुख गवरी गनेस।
पांच देव मिल रक्छा करे, बरम्हा, बिसनु, महेस।
ये मनाबो रे ल, परथम चरन गनपति ल
काकर बेटा गनपति भव, काकर भगवान
काकर बेटी देवी कारका, काकर हनुमान
परथम चरन...
गवरी के बेटा गनपति भव, कौसिलिया के भगवान
भैरव की बेटी देवी कारका, अँजनी के हनुमान
प्रथम चरन गनपति ला...।
लोगन होलिका दहन के दूसर दिन ओ जगह म जाके जुड़ाय राख ल चिमटी म धर के एक-दूसर के माथा म लगा के होली के बधई देथँय। इही राख ल घाव-गोंदर, खस्सू-खजरी म चुपरे ले घाव माड़ जाथँय। ये ह एक गँवइहा बिस्वास आय।
रंग-रोगन के गरीब तिहार
होलिकादहन के दूसर दिन धुरेड़ी होथे। ये दिन रंग-गुलाल के दिन आय। ये दिन ल गाँव-गाँव म नोनी-बाबू, लइका-सियान मिलजुल के रंगहा-तिहार के रूप म मनाथें। सुने ल मिलथे के दुवापर जुग म भगवान सिरी किरिस्न बृन्दाबन म गोप-गुवालिन सन बन के सुन्दरता ल देख भाव-विभोर हो के नाचिन- गाइन अऊ एक परम्परा चल पड़िस। हमर गाँव देहात म ये दिन लोगन के मन बडा प्रफुल्लित रथँय। एक दूसर ऊपर रंग-गुलाल लगाथँय। नत्ता-गोत्ता मुताबिक एक-दूसर ल पयलगी करथँय। लइकामन के लइकापना धुर्रा अऊ चिखला म इही दिन घलो देखे ल मिलथे। ये तिहार के सबसे बड़े बिसेसता ये आय के ये गरीब के तिहार आय। कम खरचा-पानी म बने-बने निपट जथें। एक-दूसर याने अमीर-गरीब रंग-गुलाल लगइक-लगा होथँय। अमीरी-गरीबी के कोनो बिलग चिन्हारी नइ होय। जवनहा संगी मन बिहनिया नौ-दस बजे ढोल-नँगारा अऊ झाँझ-मँजीरा बजावत, रंग-गुलाल म गोड़-मुड़ बोथाय घर-घर म जा के फाग सन राग लमियाथँय-
'अरे हाँ हो .... हो
पातर पान बंभूर के, केरापान दलगीर
पातर मुहूँ के छोकरी, बात करे गंभीर।
राजा बिकरमादित महाराजा
केंवरा लगे तोर बागों में
के ओरी बोय राजा केकती अऊ केंवरा
के ओरी अनार महाराजा
ए कि एओरी बोये राजा केकती अऊ केंवरा
दुई ओर अनार महाराजा।
केंवरा लगे हे तोर बागो में ... राजा बिकरमा...।'
सँझा होवत गाँव के गुड़ी म लइका जवान अऊ सियान सबो जुरियाथँय। इही समे एक ले बढ़के एक फागगीत सन रंग सिताथँय, गुलाल उडाथँय। लइकामन के पिचकारी घलो उनिहाय रथँय। रंगे-रंग म चोरबोराय लइकामन नाचे कूदे म बियस्त रथँय। लइका हो सियान, बेटा जात हो या माई लोगन, अमीर हो या गरीब सब के सब रंग-गुलाल म बोथाय फागुन के छतरंगी तिहार होली ल सारथक करथँय। कोनों रंग या गुलाल कोनो ल रंगे बर नइ बिसरय। येकर ले इस्पस्ट हे के हम होली के यथारतता ल समझन अऊ सबर दिन कायम रखन, तभे हमर होली मनई सारथक होही। बबा उमर के मन हू...हू...हू... करत इही बेरा अपन सियनही जिनगी के अनुभव ल नवा पीढ़ी ल बाँटत, डंडा नाचत, संदेस पठोथँय-
'अरे हो, अरे हाँ हाँ हो
सरसती ने सर दिया, गुरू ने दिया गियान
माता पिता ने जनम दिया, रूप दिया भगवान
तरी नरी ना ना मोर न हा ना रे भाई
ये न हा ना ना मोर ना ना रे भाई
बड़ सतधारी लखनजाति राजा
तरी नरी हू... हू... हू..
फूटे बंधा के पानी नइ पिअँय
टूटे चाँवर के भानस नइ खावय
पर तिरिया के मुख नइ देखय
तरी नरी ना ना मोर न हा ना रे भाई
बस सतधारी लखनजाति...।'
रितुराज के पहुँना फागुन
फागुन महीना रितुराज के राज म पहुँना कस आथँय। राजसी पहुँनई होथँय फागुन के। सरद-गरम मिश्रित पुरवई के रंग म सवार फागुन चंदन सही फुदकी ल निहारत मधुमास के महल म अमरथँय। रंगरेला फागुन के सुन्दरई ल देख अमराई बउरा जाथँय। कोयली के कंठ ले सिंगारगीत निकलथँय। परसा अऊ सेमर के सजई-संवरई घात सुहाथँय फागुन ला। पंदरा दिन के साँवरी सलौनी अँधियारी पाख फागुन ल बिलमाथँय, ताहन पारी आथँय चिकनी गोरी अँजोरी पाख के भला कइसे बिसरा ज ही फागुन ल। पिंयर देही छात रूपसी चंदा ह अँजोरी पाख अऊ फागुन के मेल-मिलाप देख मुस्कुरावत रथँय।
गाँव-गँवई के दरसन
हमर गाँव-देहात म देवारी के बाद खेत-खार अऊ कोठार के बियस्तता ले घर-दुआर के बिगड़े स्थिति फागुन महीना म सुधरथँय। इही महीना ढोल-नँगारा के संग फाग गुंजन लागथँय। चौपाल के खनक बढ़ जाथे। काम-बुता ले फुरसत हो लोगन परछी अऊ चँवरा म बइठ तास म रमे रथे। पासा ढुलावत बीते खेती किसानी के दिन बादर के गोठ गोठियावत रथे। कोनों-कोनों छेत्र म गाँव भर के नवकर जइसे गहिरा, लोहार, नउ बरेठ मन के दिन-बादर (सेवा-अवधि) फागुन महीना म पूरा होथे। इही महीना म लोगन-लोगन ल मँगनी-बरनी अऊ बर बिहाव के सुरता आबे करथे, संगे-संग अवइया, चइत नवरात्रि के गोठ, खेती-किसानी के गोठ जइसे बीज-भात, नाँगर-बक्खर काँटा-खुटी, बन बुटा, मेंड़पार, माल-मत्ता (बइला-वइला) के गोठ फागुन के गोठ होथे। कमाय-खाय बर परदेस गेये लोगन फागुन के होली तिहार मनाय बर अपन जनम भुइँया जरूर लहुटथे। इही फागुन महिना म फेर एक घाँव गाँव-गँवई के दरसन होथे।
ठेठरी रोटी के मजा
लोगन माघ के महीना के निकलते अऊ फागुन के लगते ओन्हारी सियारी लुवत-टोरत अऊ मिंजत खानी ठुठुर-ठाठर करत लुथे-टोरथे अऊ घइरथे-सइतथे। माँघ के ओन्हारी ले ही फागुनहा होली के रोटी-पीठा के चुरई निरभर करिथे। बने-बने ओन्हारी-सियारी होथे त रोटी-पीठा घलो बने-बने चुरथे। तिली, अरसी, सरसो के तेलपइत, उरिद-मूँग दार ले बरा, लाख-लाखड़ी अऊ चना बेसन के भजिया अऊ ठेठरी जम्मो सकलाथे त होली के रोटी चुरथे। कोनों, कभू, कतको अऊ कुछु बना के खाय, चाहे झन खाय, पर तिहार बार के तेलहा रोटी राँध के खाय ल कोनों नइ छोड़ँय। अपन-अपन इच्छा अऊ हेसियत मुताबिक जरूर राँधहीं, खाहीं। बरा, सोंहारी, भजिया ह लगभग सबो तिहार म जनम लेवत रइथें पर ठेठरी ह फागुन के होली म ही अवरतथँय। दिगर तेलहा रोटी ह एक-दू दिन म लरजाये ल धरथे, फेर ठेठरी के बात अलग हे। बनाये म घला सहज। ये ल लाख-लाखड़ी या चना बेसन ल बने सान के नान-नान लोई धरके उबड़ी (उल्टी) थारी, कोपरी या चँवकी म हथेली ले, पतला-पतला डोरी असन बरे जाथे। बरे के बाद बीच ले मोड़ के एक घाँव अऊ मोड़े जाथे। ताहन फेर डबकत तेल म डार के बनाय जाथँय। येला तिहार के दिन खाले, आन दिन अऊ पंदरा-महिना दिन ले घला रख ले। कुछु नइ होवय, खावत रा ठुठुर-ठुठुर। येकर सेती सियान मन कहे हावय 'माँघ के ठुठुर-ठाठर अऊ फागुन के ठेठरी।'
माँस-मंदिरा के अवगुन
सुग्घर रूप से फागुन महीना के गुनगान होली म जबड़ अवगुन घला समाय रथे। जेमा माँस-मंदिरा के उपयोग परमुख हावय। कइसन तो अइसे समझे के होली ह पिये-खाय के तिहार आय। ये माँस-मंदिरा ले तिहार के अच्छा-मंगल सइतानास हो जथँय। पीअई-खवई ले लोगन के आरथिक स्थिति सिखाथँय, अऊ मारपीट ले समाज म हिंसा उपजथे। हिंसा के पिकी बैर के बिरिक्छ बन के समाज म सिरीफ काँटा बगराथे। समाज म मनुखपना ल बनाये राखे बर ये माँस मंदिरा ल बिसरान, ठेठरी खावन, रंग-गुलाल लगावत होली मनावन अऊ कहन - 'होली हे।'
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