बिसनाथ गउँटिया किसनपुर के बड़जन किसान रिहिस। ओखर सोर चारों खूँट बगरे राहय। अन-धन भरपूर रिहिस, बिधाता के किरपा ले भरे-पुरे राहय। ओखर गउँटनिन कमला बड़ दयालु सुभाव के रिहिस। रोहित अउ मोहित दुनों ओखर लइका मन पढ़-लिख के खेतीबारी करे लागिन। ओखर घर कोनों जातिन, त बिन चहा-पानी के नइ लउटाय। गउँटिया घर सगा-सोदर के अवइ-जवइ लगेच राहय। दू-चार झन उँखर घर मा रेहे परे राहय। बने-बने दिन पहाय अउ आनंद उछाह मनाय।
बिसनाथ गउँटिया अउ गउँटनिन दुनों झन एकदिन बिचार करे लागिन, हमर दुनों लइका बने कमात-खात हे, त दुनों झन के बर-बिहाव करके उबर जतेन। बड़ परछिन के दु झन बहुरिया आगे, रेवती अउ सेवती। रोहित के घरवाली सेवती बड़े घर ले आय रिहिस अउ मोहित के घरवाली गरिबहा घर ले आय रिहिस। रेवती बड़ गरब करय अउ रोहित घलो मोर ससुरार बड़हर हे कहिके मेछराय। रेवती गर मा पुतरी, बाहाँ मा पहुँचा, कनिहा मा करधन, माथमा टिकली, नाक मा नथली, कान मा झुमका, पॉंव मा पइजन पहिरे सउहँत लछमी कस झलके अउ सेवती बाहाँ भर चुरी अउ मॉंग भर सेंदुर मा रेवती ले कम नइ दिखय। सास-ससुर के अड़बड़ सेवा करय, मोहित अपन घरवाली के सेवा मा गजबेच खुस राहय अउ रोहित के गरब ला का पुछबे, काहय- रेवती हा बड़े घर के बेटी आय, ओला जादा बुता काम झन तियारे करव। सेवती गाय-गरू के सकला करय, रँधई-परोसई अउ लइका मन के जोखा घला करय। बड़े घर के बड़े बात होथे अउ छोटे घर के बात बगर जाथे, ‘देख रे आँखी...सुन रे कान...झन दे धियान...’ कस ताय मोहित चुप राहय।
गउँटनिन कमला हा रेवती ला भाय, बातपुट काहय- रेवती हा बड़े घर के बेटी ये कुछु झन केहे करव, घर के गोठ घर मा राहय। सुलह अउ सुम्मत मा काम बनथे। बिसनाथ गउँटिया मने-मन मा गुनय अउ सेवती के काम-बुता के गुन ला गावय। मोहित अउ सेवती दुनों परानी अपन टहल मा लगे राहय। रोहित बने-बने कपड़ा पहिर के मेछरावत गली-खोर मा घूमय अउ सोंचय- बड़े घर के बेटा अउ बड़े घर के दमॉंद आँव फिकर का के, खा अउ घूम... मचा धूम...।
गउँटिया-गउँटनिन के अंदर घुना लागे ला लगिस, घर हा बिगड़त जात हे, अपने फदिता काकर कना कहिबे तेखर ले चुप्पे रही जाना ठीक हे। रोहित अउ रेवती उतलँग नापे ला धरिस ‘काम के न धाम के सौ मन अनाज के’ कस करे लागिस। बइठे-बइठे खवइ, लात तान के सुतइ ताय। गउँटिया-गउँटनिन रेवती अउ रोहित के चाल देख के अलग कर देंव का, लड़े ले टरे भला। पोथी-पुरान के बात झुठ नइ होवय... ‘बरु भल बाँस नरक कर तांता, दुष्ट संग झन देय बिधाता।’
गाँव के दु-चार झिन सियान मन ला बलाके रोहित ला समझाय बर किहिन, त रोहित हा किहिस इखर मन संग नइ रहि सकँव, मोला अलगेच कर देव। तब गउँटिया कहिथे- जउन तँय चाहत हस तेन ला माँग ले, त बड़े-बड़े कोठार ला मॉंगिस, ओहा दस खॉंड़ी के धनहा पागे। अब का पुछबे रेवती अउ रोहित अलगे रेहे लगिन अउ ददा के कमइ मा उतलंग नापे लगिन, सियान-सियनहिन के मन नइ मानय। रोहित के दु झन लइका राहय। बेरा-बेरा मा गउँटिया-गउँटनिन मन लइका ला चना-फुटेना देवय। बबा अउ डोकरी दाई के मयाँ ला उही जानहीं जेकर हाबय। दु दिन कोनों लइका मन ला नइ देखतिन, त गउँटिया-गउँटनिन के मन तरसे।
रोहित-रेवती लइका मन ला बरजै- तुमन कहुँ ओ घर मा जाहु, त देखहु बिन पीटे नइ राहँव, लइका मन बिलइ कस दुबक जाय। दु-चार महिना गिस, त देवारी आगे। देवारी तिहार हमर छत्तिसगढ़िया मन के बढ़िया तिहार आय। दुरिहा के मनखेे ये तिहार मनाय बर घर आथे। गउँटिया-गउँटनिन, रोहित के घर मा जाके किहिन जुर मिल के ये तिहार ला मनातेन, रोहित कहिथे- बने बात ए। सरी तिहार के जोखा गउँटिया-गउँटनिन मन करिन, सब झन बर लुगरा-कपड़ा, लइका मन बर घला कपड़ा-लत्ता के जोखा करिस। रोहित अपन घरवाली रेवती ला कहिथे- चल भई तिहार ला सबो झन जुरमलि के एके जगा मनाबो। रेवती कहिथे- मँय अपने डेरउठी छोड़के नइ जाववँ... तुमन जाहु...त जाव... काकरो दाई-ददा ला नइ छोड़ावँव... हम पर कोठा के तान... पर हा परे रबो। अड़बड़ मनइस तब ले रेवती नइ मानिस, रोहित मुड़धर के बइठगे। केहे गेहे- ‘घर के तिरिया हा कोनों केकई कस होगे, त मनखे के दसा दसरथसही हो जथे’।
लइका मन अपन दाई के चाल ला देख के अकबका गे राहय, चुप्पेचाप अपन बबा अउ डोकरी दाई संग मिलय। तिहार के दिन अइस, त घर बड़ परिछन दिखे लागिन, बरा-सोहाँरी, आनी-बानी के साग-पान जब सेवती हा अपन सास-ससुर, अपन घरवाला अउ लइका मन ला परोसे लागिस, त बिसनाथ गउँटिया के आँखी ले आँसू चुहत राहय, मुँह मा कॉंवरा नइ धँसत राहय, त मोहित कहिथे- ददा आज तोर आँखी ले आँसू काबर चुहत हे ? बिसनाथ गउँटिया कहिथे- बाबू रे..! मँय हा बनी-भूती करके तुमन ला पालेंव-पोंसेंव तब नइ सोचे रेहेंव कि रोहित बर मँय हा दुसमन हो जहूँ। मोहित कहिथे- ददा..! थोरिक धिरज धरे बर परही, भाई हा एको न एको दिन दाई-ददा के मयाँ ला जरुर जानहीं।
ठउँका देवारी तिहार उरकिस, त रोहित के घर गहना, गुरिया, धन-दोगानी ला चोर मन चोरालिस, त रोहित अउ सेवती मुँड़ धर के रोये लागिस। पास-परोस के मन बिसनाथ गउँटिया कना जाके ये बात ला बतइन, त माई-पिला रोहित घर गिन। बखत मा परवारे हा काम आथे। उँखर घर आगी घलो नइ बरे राहय अउ रोहित अउ रेवती दुनों मुँड़ धर के रोवत हे, त जम्मो कोनों चुप करइन अउ धिर धरा के रोहित-रेवती अउ लइका मन ला लानिन। रोहित घर जउन मन जावे चहा-पानी पीके आये तउन मन तारी पिट-पिट के हाँसय मने-मन काहय बने होइस अड़-बड़ मेछरावय। सही बात ये हावे...‘कोदई हावे, हावे सगा...नइहे कोदई... नइहे सगा’ तइसने ताय, कोनों तीर मा नइ ओधिन, दाई-ददच हा काम अइस।
रोहित के सरी गरब चुर-चुर होगे, अपने दाई-ददा घर गिन अउ रेहे लागिन, गहना-गिरिया बिन रेवती हा आरुग अनाथिन कस दिखे लागिस, त सेवती हा अपन बने लुगरा अउ गहना ला देके कहिस- देख बहिनी..! मँय हा अइसने रही जहुँ तउन बन जाही, फेर तँय हा बड़हर घर के बेटी आस, बिन गहना के तँय नइ फबत हस। रेवती हा सेवती के गोड़ ला धरके कहिथे- दीदी..! तँय सिरतोन महान हस, तोर महानता अउ बड़ई के बखान मँय नइ कर सकँव। सबोझन मिल-जुल के रहिके घर के काम-बुता ला करे लागिस। बिसनाथ गउँटिया अउ गउँटनिन के मन अब जुड़इन-सितइन अउ घर अब सरग कस लगे लगिस। गउँटिया कहिथे- ‘जहाँ सुमति तहाँ संपत नाना, जहाँ कुमति तहाँ बिपत निदाना।’ कभु तुँहर मयाँ झन छुटय अउ मोर नाँव ला झन बोरहू, हमर कुल के नाँव उजागर करहु।
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