शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

छत्तिसगढ़ी जनभाखा के बर्तमान सरूप

छत्तिसगढ़ के छत्तिसों गढ़ ले निकले सुर के गुन-भॉंज ले बने भाखा के नाँव छत्तिसगढ़ी आय। छत्तिस सुर के गुन-भॉंज के सेती कोस-कोस म पानी बदले, चार कोस म बानीवाले हाना पूरा छत्तिसगढ़ म छाहित हाबे। येकर ले जादा छाहित बाहे छत्तिसगढ़ी के गुरतुरपन। संस्किरित के ‘गुड़’ अउ ‘तुल्य’ ले बने गुरतुर सब्द के अर्थ होथे- गुर असन मींठ। गुर असन मींठ काबर हाबे छत्तिसगढ़ी भाखा ह? छत्तिसगढ़ी पूर्वी हिंदी के भाखा आय। पूर्वी हिंदी म अउ कई भाखा हाबें, फेर कोनों ल अइसन बिसेसन काबर नइ मिलिस? ये बात ल धोखे ले छत्तिसगढ़ी के सरूप जइसन ढंग ले मिलिस वोहा बिंदुवार अइसन ढंग ले हाबे-




ये जम्मो आखर के उचार सब्बो वर्ग के मनसे बर निच्चट सरल हाबे। देवनागरी लिपि के ‘ण, श, ष, क्ष, त्र, ज्ञ, श्र’ आदि आखर मन के उपयोग छत्तिसगढ़ी म होबे नइ करें। येकर दू कारन बताये जा सकथे- 1. इन ल भाखे ले उचार-अवयव म थोकिन बल नइते तनाव जादा परथे । अर्थात्‌ उचार कठिन होथे । 2. ऊपर बताय 40 आखर ले पूरा भाव ब्यक्त तो होबेच करथे, येकर ले भाखा परकिरिति अउ वोकर गुन-धरम के घलो पूरा-पूरा हियाव होथे । आखर-ओरी तो भाखा के नेंव आय। जइसे नेंव के खोदा-खादी ले मकान के मजबूती खतम हो जथे, वइसने आखर-ओरी म आखर के घटा-बढ़ी ले भाखा के मौलिकता सिरा जथे । बिन मौलिक गुन-धरम के बिकास ल सिरिफ भाखा के बिनास केहे जा सकथे । भाखा के सहीं बिकास तो तभे माने जही जब आखर-ओरी के सीमा म रहिके भाव ब्यक्त करे खातिर सब्द गढ़े जाही, नइते हिंदी जइसे संस्किरित के जम्मो आखर ल अपनाय के बाद काँट-छाँट के बुता आज ले चलत हे, वइसने छत्तिसगढ़ी म घलो बइगुन बाढ़ जही। बइगुन ल जानबूझ के दुहराना बुधमानी नइ हो सके।


ब) सब्द उचार म सरलीकरन- छत्तिसगढ़ी के सबले बड़े गुन सब्द ल निच्चट सहज अउ सरल ढंग ले उचारे के आय। इही बिसेसता के सेती छत्तिसगढ़ी के अलगे चिन्हारी होथे । आने भाखा ले आय हर सब्द ल वोकर मूल रूप म नइ सिवकार के अपन आखर-ओरी के अनुसार सहज-सरल रूप म सिवकारे जाथे । एकर ले एक फायदा यहू हाबे, उचार-अवयव म जादा ताकत नइ लगे ले चेहरा-मोहरा के सुंदरता बरोबर बने रथे । ये सहज-सरल तरीका ह छत्तिसगढ़ी भाखा-भखइया मन के उचार-दोस, अगियानता नइते गँवइहापन नोहे, भलुक छत्तिसगढ़ी भाखा के परकिरिति आय। इही परकिरिति के सेती छत्तिसगढ़ी गुरतुर भाखा कहाथे । जन-जन के अंतस म समा जथे अउ पूर्वी हिंदी के जम्मो भाखा ले अलगे चिन्हारी बनाथे, जइसे-




2. जम्मो मनसे बर बरोबर भाव- संस्किरिति के अनसार सब्द अउ भाखा के सरूप निरधारित होथे । छत्तिसगढ़ के संस्किरिति म जम्मो मनसे बर एक बरोबर भाव देखे बर मिलथे । लोक-बेवहार खातिर जउन नाँव छुटपन म धरा देय जाथे उही नाँव ले अपन करम के मुताबिक जगजहिर होथे । कोनो मनसे कतको गुनवान हो जाय, कोनो कतको बिदवान हो जाय, कोनो कतको धनमान हो जाय, चाहे कोनो कतको महान हो जाय फेर वोकर नाँव के आघू ‘श्री, श्रीमान, सुश्री, श्रीमती’ आदि सनमान के सब्द उपयोग नइ होय। एकर पाछू सोंच सायेद अतके रथे के जम्मो परानी परमात्मा के अंस आँय। जम्मो म बरोबर गुन-धरम होथे । अपन-अपन बुता म सब्बो महान होथें। एकर पाय के सब्बो के सनमान घलो बरोबर होना चाही। कोनो ल उपरहा सनमान दे के एक बर मॉंय एक बर मोसी करे के बेवहार छत्तिसगढ़ के संस्कार नोहे।

कोनो पहुना के आय ले आदर-सत्कार भले जी-जान लगा के करथन, फेर वोकरो नाँव के आघू सनमान खातिर कोनो सब्द नइ जोंड़न। सीधा-सीधा नाँव लेय ले अपनत्व के भाव जागथे । हिरदे म परेम-गंगा के भाव दुन्ना हो जथे । इही परेम गंगा म सरोबर होय ले पहुना हम छत्तिसगढ़िया मन बर भगवान बन जथे । अत्तेक मयाँ पलपलावय के बाद घलो कोनो बर मनगढ़न उपरहा सब्द-बेवहार करे के संस्कार छत्तिसगढ़ म नइ हे। हमर संस्कार तो सब बर दया-मयाँ के भाव-डोर ले कस के कसाय हाबे।

छत्तिसगढ़ म ये बात जरूर देखे बर मिलथे के कोनो ल सनमान देनच हे त नाँव के पाछू कोती ‘दाऊ’ सब्द जोंड़ देय जाथे । जइसे- रामसिंग दाऊ घर जाबे। कोनो-कोनो मन ‘दाऊ’ सब्द ल नाँव के आघू म जोंड़थें जइसे- दाऊ रामसिंग...... आदि। ‘दाऊ’ सब्द के अइसन उपयोग सनमान खातिर होथे, अइसे केहे तो जा सकथे, फेर एकर अर्थ अतकिच नइ हे। कारन के- (1) ‘दाऊ’ सब्द के उपयोग कोनो महानेच मनसे बर नइ करे जाय। एकर उपयोग छोटे-बड़े सबो बर होथे । दाई-ददा मन घलो अपन लइका बर ‘दाऊ’ सब्द के उपयोग करथें, जइसे- आ रे मोर दाऊ.......। (2) ‘दाऊ’ सब्द के उपयोग सर्वनाम के पाछू म घलो करे जाथे जइसे- मोर दाऊ। (3) धनमान ल ‘दाऊ’ केहे म भले अपन ल सनमानित समझे, फेर दीगर के मन म सनमान के भाव नइ जागे। कारन के ‘दाऊ’ के मूल म दया के भाव होथे । येकर उत्पत्ति कहूँ संस्किरित के ‘देवः’ ले मानन त समास के आखरी म परयोग होय ले अर्थ होथे- अपन देंवता के रूप म। नाँव अउ सर्वनाम के पाछू म ‘दाऊ’ के उपयोग इही अधार म करे जाथे । तभे तो छत्त्सिगढ़ म हर पहुना अउ भला मानुस ल देंवता के रूप म देखे जाथे अउ वोकर नाँव के पाछू म ‘दाऊ’ सब्द जोंड़ दे जाथे । जेकर बर मन म देवत्व भाव जागथे, वोहर सब बर दयच तो करथे । बिन दया भाव के कोनो ह कोनो के हितवा नइ बन सके। एकर सेती जम्मो परानी बर ‘दाऊ’ सब्द के उपयोग करे जाये। लइका मन देंवता सरूप होथें, एकर सेती उन ल ‘दाऊ’ केहे जाथे । संस्किरित के ‘दय्+अलुच=दयालु’ ले ‘दाऊ’ के उत्पत्ति घलो माने जा सकथे । एकर अर्थ दया करइया होथे । हर हितवारथी, पहुना अउ लइका मन ल दया-भाव ले देखे जाथे तेकर सेती लइका-सियान जम्मो बर ‘दाऊ’ सब्द उपयोग म आथे ।

कुछ बिदवान मन के मानना हे- संस्किरित के ‘दा’=देना+‘ऊ’=दया अउ सुरच्छाबोधक प्रत्यय ले ‘दाऊ’ सब्द बने हे। येकर अर्थ होथे- दया अउ सुरच्छा देवइया। लेनदेन के बात तो बड़े मन बर ठीक हे, फेर लइका मन घलो दया-मयाँ देके मानसिक तरास ले सुरच्छा तो करथे । ‘दाऊ’ के चाहे कोनो अर्थ निकालन मूल मा दया-मयाँ के भाव मिलथे । अइसन ढंग ले छत्तिसगढ़ी भाखा म सनमान खातिर घलो सिरिफ चमत्कारिक सब्द योजना नइ मिले भलुक भाव गंभीरता अत्तेक हे के डुबकी लगइया के मन गदगद हो जथे ।


3. सब्द के भाव अउ बेवहार म अटूट संबंध : छत्तिसगढ़ी म आदर सूचक सर्वनाम के रूप म ‘तुमन, तहूँमन’ अउ ‘तुँहर’ के उपयोग करे जाथे । हिंदी म ‘तू’ समान्य एक बचन सर्वनाम आय। एकर आदरार्थक रूप ‘आप’ होथे । ‘आप’ के उपयोग छत्तिसगढ़ी म पढ़े-लिखे वर्ग मन अब करत हें। गॉंव-गँवई म एकर उपयोग आजो नइ होय। हिंदी के ‘तू’ म ‘मन’ परत्यय जोंड़े ले ‘त’ के बड़े ‘ऊ’ ह छोटे ‘उ’ म बदल जथे अउ सब्द-रूप ‘तुमन’ बहुबचन बन जथे । कारन के ‘मन’ बहुबचन परत्यय आय, जइसे- तुमन गे रेहेव। जब जवइया के संखिया दू नइते दू ले जादा होथे तभे ‘तुमन’ बहुबचन सर्वनाम के रूप म उपयोग होथे । कहूँ जवइया एके झन हे अउ कोनो किसम ले आदर पाय के लइक हे तब ‘तुमन’ के ‘मन’ परत्यय आदर सूचक बन जथे, जइसे- तुमन गे रेहेव (आप गये थे ।) अइसने किसम ले ‘तहूँमन’ के उपयोग बहुबचन अउ आदरार्थक दुनों रूप म होथे, जइसे- तहूँमन गे रेहेव। ‘तुँहर’ सब्द घलो दुनों अर्थ म परयोग होथे, जइसे- तुँहर गत ल तो देखो। हिंदी के ‘तुम्ह’ म ‘र’ परत्यय जुड़े ले ‘तुम्हर’ अउ बाद म ‘तुँहर’ के रूप धारन करिस। एमा ‘मन’ परत्यय लगाय के जरूरत नइ हे। ‘र’ ले ‘मन’ परत्यय के अर्थ पूरा हो जथे । आदरार्थक सर्वनाम ल बहुबचन बनाय बर ‘सब’ परत्यय जो़ंडे जाथे, जइसे- तुमन सब, तुहँर सब आदि।


परस्न उठथे ‘तू’ सर्वनाम ल काबर सिवकारे गिस? हिंदी म येकर आदरार्थक रूप ‘आप’ आय। वोला काबर नइ लेय गिस? हिंदी के बिदवान मन घलो ये बात ल मानथें के आप केहे ले वोकर बड़प्पन के भाव मन म आथे । बड़े ले भय, संकोच, लिहाज आदि के सेती दूरी बाढ़ जथे । ‘तू’ सब्द ले बरोबरी के बोध होथे । बरोबरी म भाईचारा, मयॉं, अपनत्व के भाव पनपथे । दिल के निच्चट नजीक होय के अनभो होथे । इही अनभो के सेती भगवान बर घलो ‘तू’ सर्वनाम उपयोग कर दे जाथे । संस्किरित म घलो ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’ केहे जाथे । संस्किरित के ‘त्वम्’ ले हिंदी म ‘तू’ अउ हिंदी के ‘तू’ ले छत्तिसगढ़ी म ‘तुमन’ सिरजे हे। भगवान बर ‘तू’ के उपयोग अर्थ्लृात अनन्य परेम, अंतस चीर के मयाँ कुढ़ोय के भाव ले सराबोर ‘तू’ सब्द ल मूल बना के परेम रस ल छत्तिसगढ़ी म लाय गेहे अउ संस्किरित के ‘मन’= बड़े नइते महान मानना ल परत्यय रूप म सिवकारे ले ‘तुमन’ सब्द बने हे। अइसन ढंग ले जउन ल बड़े, महान अउ पूजनीय मानथन ऊँकर सनमान खातिर अंतस के मयाँ ले सराबोर ‘तुमन, तहूँमन’ नइते ‘तुँहर’ जइसे सब्द के उपयोग छत्तिसगढ़ी म करे जाथे। डर-तरास उपजाके दूरी बढ़इया ‘आप’ सब्द के उपयोग नइ करे जाय।



छत्तिसगढ़ी म असनो सब्द हाबे जेकर उपयोग जरूरत के मुताबिक संगिया, बिसेसन, किरिया आदि म बिना सोंचे-बिचारे कभू भी करे जा सकथे । एकर ले गोठियात खानी कोनो बात जबान म नइ आ पाय तभो बोले म बाधा नइ परे अउ सुनइया ह बहुत कुछ समझ घलो जथे । अइसन सब्द ल स्थ्लृानापन्न (ऑफिसिएटिंग) केहे जा सकथे । वो सब्द आय- ‘अइहे’। येला ‘एहे’ घलो कहे जाथे, जइसे-

















भाखा के नियम बद्धता ले छत्तिसगढ़ी म सहजता अउ सरलता के गुन तो कूट-कूट के भरायेच हाबे, बर्तनी दोस के संभावना घलो निच्चट कम होगे हे। सब्द मन के भाव अउ बेवहार म अइसे अटूट संबंध मिलथे के भाखा के मिठास गुड़ जइसे मुह म आते साठ हिरदे तक उतर जथे । कम सब्द अउ नान-नान बाक्य ले पूरा-पूरा भाव ब्यक्त करे के अजगुत छमता गागर म सागर भराय के गुन ल सूचित तो करबे करथे, छत्तिसगढ़ी भाखा के बिकसित सरूप के परचय घलो देथे । सब्द सरलीकरन के सेती छत्तिसगढ़ी भाखा भाखे म सरल अउ सूने म बड़ सुग्घर लागथे । अत्तेक मनभावन छत्तिसगढ़ी भाखा आज छत्तिसगढ़ियच मन ल लिखे-पढ़े बर मुसकिल होथे । एकर एके कारन हाबे- अभियास के अभाव। थोरिक दिन के अभियास ले ये जम्मो गुन सब के समझ म आ जही। एमा कोनो दिक्कत के बात नइ हे। जरूरत भलुक ये बात के हाबे- छत्तिसगढ़ी के मूलभूत बिसेसता ल समझे खातिर अपन आँखी ले हिंदी के चसमा उतारे ल परही। जब तक ये चसमा नइ उतरही तब तक छत्तिसगढ़ी ल पूरा-पूरा समझे के आत्मबिसवाँस जागे ले घलो धोखच मिलही। ये ह चेत करे के लइक बात आय।


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