छत्तिसगढ़ के छत्तिसों गढ़ ले निकले सुर के संगठित रूप ले बने भासा के नॉंव छत्तिसगढ़ी आय। छत्तिसगढ़ मा छत्तिसों परकार के भासा बोले जाथे। जम्मो भासा के उच्चारन मा थोर-बहुँत फरक जरूर मिलथे। इही फरक के सेती केहे जाथे- कोस-कोस मा पानी बदले, चार कोस मा बानी। अब जइसे-जइसे बानी के फरक छँटावत जात हे छत्तिसगढ़ी के सुग्घर रूप-निखार देख के भाखा-सुजानिक मन के मन बोधावत जात हे। तभे तो छत्तिसगढ़ी आज गुरतुर भासा के रूप मा जगजाहिर होगे। जगजाहिर ‘गुरतुर भाखा’ अउ ओकर ‘हाना के मारक छमता’ ये दोनों बात हा विरोधाभासी लागथे। विरोधाभासी एकर सेती के छत्तिसगढ़ी मा भाव बियक्त करे के तीन माध्यम हे- (i) मुहावरा(ii) भाँजरा अउ (iii) हाना। मुहावरा तो सबले अलग हे अउ एकर सुतंत ताना-बाना हे, लेकिन भाँजरा अउ हाना तो जुड़वा भाई आयँ। दुनों के रूप-रंग एके होय ले भोरहा होना कोनो अजगुत बात नोहे। इँकर दोनों के गुन-धरम ला बिना जाने एके मान लेना सायेद सहीं नइ हो पाही। एकर सेती दोनों ल जानना जरूरी हे।
श्री तेजकुमार बंब ‘निर्मोही’, डॉ. मन्नूलाल यदु, श्री मंगत रविन्द्र, श्री पुनुराम साहू, डॉ. रमेश चंद्र महारोत्रा, श्री हरि ठाकुर, डॉ. पालेश्वर शर्मा, डॉ. (श्रीमती) निराजना तिवारी अउ कतकोन बिदवान मन भाँजरा अउ हाना लिखे हें, फेर इनला बिना निरवारे कलेचुप एके मान ले हें। श्री हरि ठाकुर अउ डॉ. पालेश्वर शर्मा मन अपन छोटकुन संयुक्त लेख पुस्तिका मा ‘मुहावरे, हाना, लोकोक्तियाँ’ करके अलग-अलग बिंदु तो लिखे हें फेर भितरी मा हाना अउ लोकोक्ति ला एके मा मिझार दे हें। ये बात छत्तिसगढ़ी भासा के परती हमर मुरझुरहापन के भाव उजागर करथे। छत्तिसगढ़ी ला बरोबर जाने बिना अधरे-अधर ढिंढोरा पीटे ले कुछु नइ होवय। जब हमन एकर चिन्हऊ बिसेसता मन ला बने ढंग ले जान जबो तब अपने-अपन हमर मन के छाती गजभर फूल जही अउ गौरवशाली भासा के सोर सरी दुनियाँ मा बगर जही। एकर सेती भाँजरा अउ हाना के फरक ला जानना निहइत जरूरी हे-
१. भाँजरा अउ हाना मा फरक
(i) ए दुनों मा फरक तो गजब अकन हाबें। ये कना इँकर मारक छमता के परमुख फरक का हे तेला जाने के उदीम करत हन। ये दुनों मा फरक अइसन ढंग ले हे-
भाँजरा सब्द छत्तिसगढ़ी के भाँजना ले बने हे। भाँजना के अर्थ होथे- खूब सोंच-बिचार करना। खूब सोंच-बिचार करे के बाद कोनों चुनिंदा बात जन-जन के जबान मा छा जाथे तब ओहा भाँजरा कहलाथे। भाँजरा ला कहनात अउ कहनोत घलो केहे जाथे। इँकर उत्पत्ति हिंदी के कहना+आना या छत्तिसगढ़ी के कोती ले होय हे। इँकर अर्थ होथे- जन-सधारन कोती ले कहब मा आए रूढ़ बात। ये परिभासा के अनसार भाँजरा अर्थात कहनात या कहनोत गद्य-अंस मा होथे। काबर के एकर निर्माण जन-सधारन ले करे जाथे, अउ जन-सधारन मा जादा परजलित रथे। जइसे-
अक्कल बड़े के भइँस।
एक कोलिहा हुआँ त
जम्मो कोलिहा हुआँ-हुआँ।
गइन सरग अउ पइन नरक।
हाना सब्द संस्किरित के हा=झिड़की+नह्=बाँधना ले बने हे। एकर मतलब होथे झिड़की देय खातिर पद (पद्य) के रूप मा बाँधे गेय जन-परजलित कथन। ये परिभासा के अनसार हाना पद-अंस (पद्यांश) के रूप मा होथे। एकर रचना जन-सधारन ले नइ हो सके, पद बनइया मन करथें, जइसे-
आघू बदरी, पाछू घाम,
पानी-पानी रटे किसान।
अड़हा मारे लउठी ले
तब मुड़-कान फुट जाय।
गियानी मारे गियान ले
तब अंग-अंग भिंग जाय॥
घर मा बइठ बताए बात;
देहें मा ओनहाँ न पेट मा भात।
खुरूर-खारर करे किसान;
जिही अघवागे तिही सियान।
(ii) भाँजरा गद्य-अंस होय के सेती बहुधा एके पंक्ति के होथे, जइसे-
चोर ले मोटरा उतियइल।
खड़ा मंजूरी चोखा दाम।
छिन मा डोमी,
छिन मा करैत।
हाना दू या दू ले ज्यादा अउ अक्सर करके सम चरन मा होथे, जइसे-
खातू परे ले खेती,
नइते नदिया के रेती।
खेती ल थोरिक करे,
मिहिनत करे सवाय।
राम चाहे वो मनखे ला,
टोटा कभू न खाय॥
(iii) भाँजरा ‘गागर मा सागर’ कस होथे, जइसे-
कुधरी के पेरे ले
तेल नइ निकले।
कुल बिहाय कन्हार जोते।
कोंड़हा के रोटी
दुसरच के मुहूँ मा मिठाथे।
हाना लोक-जीवन के गरंथ आय, जइसे-
खीरा चोर, जोंधरा चोर;
धीरे-धीरे सेंध फोर।
गिदिर-गादर सोवे,
मरजाद वाले रोवे।
गोकुल के बेटी,
मथरा के गाय;
करम फाटे तब अंते जाय।
(iv) भाँजरा गद्य-अंस होय के सेती सूने मा मिठास कमती लागथे, जइसे-
आँखी मूँदिस सुख पइस।
काकरो घर मा आगी लगे,
तब कोनो हा भुर्री तापे।
हाना तुकांत पद मा बँधाए रथे, एकर पाय के सूने मा गुरतुर लागथे। एला घेरी-बेरी सूने के मन करथे, जइसे-
जइसे-जइसे घर दुवार,
तइसे-तइसे फरका।
जइसे-जइसे दाई-ददा,
तइसे-तइसे लइका॥
करे ल खेती, मरे ला भूख,
पान-लकड़ी के अब्बड़ सुख।
(v) भाँजरा ले इरसा, गुँस्सा, उठेवाँ आदि करुवाहट भरे भाव घलो ब्यक्त करे जाथे। अइसन भाव ले जोरदरहा चोंट पहुँचथे, जइसे-
आँखी कस आँखी
नीहीं काजर के खइत्ता।
आगी खाही तउन
अँगरा हागबे करही।
गर के गरहा फूटे
त दुख बिसरे।
हाना के मूल भाव झिड़की होथे। झिड़की मा मारक छमता निच्चट हुल्लुर होथे। फेर छत्तिसगढ़ी के हाना मा हुल्लुर मार के घलो अभाव मिलथे, जइसे-
जनम के मुरहा, करम के हिन;
जइसे-तइसे काँटे दिन।
घर गोसइयाँ बोकरा खाय;
अपजस लेके पहुना जाय।
(vi) भाँजरा भासा के सिंगार होथे। एकर ले भासा सुग्घर-के सज जथे। हाना के संबंध मा केहे जा सकथे- ये हमर भासा के ओरहन (गहना) आय। ओरहन जइसे आरत-काल के पूँजी होथे, वसने हाना मा उल्था के परभाव ले भासा के ताकत दुन्ना हो जथे।
अइसन ढंग ले भाँजरा अउ हाना के निरवार करे जा सकथे। हाना के नाड़ी टमरे ले गुन-धरम सतोगुन के मिलथे। सतोगुन परधान होए के कारन हाना के अलगे मिठास हे। एकर ले कोनो ला ठेस नइ लागे, सुनइया ला तो बिलकुल नीहीं।
२. मारना
कोनो भाखा कतकोन गुरतुर हो जाय, बइगुन ल सुधारे बर कुछु उदीम तो करेच ला परथे। ये उदीम मा बइगुन के गंभीरता अउ बइगुनी के सुभाव के अधार मा मार के तीन भेद करे जा सकथे- (i) संघातिक मार (ii) घातिक मार अउ (iii) झिड़की। ये तीनों मार ला छत्तिसगढ़ी के तीन आने-आने माधियम ले बियक्त करे जाथे, जइसे-
(i) संघातिक मार
एकर ले कोनो के परान हरे के भाव मिलथे। एकर झलक मुहावरा मा देखे जा सकथे, जइसे-
मुरदा रेंगाना।
खटिया रेंगाना।
खटिया लहुटाना।
खटिया मा दीया बारना।
चुलहा मा हुरेसना।
(ii) घातिक मार
अइसन मार मा कोनो के जान हरे के भाव नइ राहय। अतका जरूर हे के तन-मन मा घाव बन जथे। अइसन मार भाँजरा ले बियक्त होथे, जइसे-
बकरस के लात मुड़ मा।
अप्पत ला मारे तीन थप्पड़।
नकटा के नाक कटाय,
त सवा हाँत बाढ़े।
बाप देखा नइते पींडा परा।
बिया ते बिया नइते बाँझ पर।
(iii) झिड़की
झिड़की घलो मारेच आय, फेर एमा मंसा मारे के नइ राहय, दुलार के होथे। एकर ले कोनो के न तो परान गवाँय, न घाव बने, न लोर उपके। अइसन झिड़की हाना मा मिलथे।
३. हाना के मारक छमता
हाना मा झिड़की होथे। झिड़की के भाव मा करुवाहट रहिथे, लेकिन छत्तिसगढ़ी हाना के झिड़की मा करुवाहट के भाव घलो नइ मिले। ये पाय के (i)हाना पद-अंस (पद्यांश) होथे (ii) हाना तुकांत होथे (iii) हाना मा सुर होथे। इही तीनों गुन के सेती हाना गुरतुर लागथे। एकर सब्द मन ले सिख-सिखावन अउ दुलार के रस चुचवाथे। ए बात ल एदे उल्था मन ले अउ बने समझे जा सकथे। पाका फर फटिक के मारे ले जउन ला टप्पा परथे ओकरो मन मा थोरको नाराजगी के भाव नइ आय, भलुक हाँस के पुछथे ‘मोला दे हस का..... ?’ अउ ओ फर ला तुरतेताही बिन लेथे। अइसने ढंग ले कहूँ का़ँडी-मिठई ला दू-तीन इंच के बदला एक-डेढ़ फीट लंभा बनाके ओकर ले कोनो ला मारे जाय, तब मार परइया ला लागही का.....? मन मा नराजगी के भाव आही का.....? नहीं न ? बस,अइसने भाव छत्तिसगढ़ी मा हाबे। देखन थोकिन हाना के उल्था-
०१. जब कोनो पहुना के सनमान मा आखरी रसम निभ नइ पाय अउ उही रसम के चुलबुलाहट पहुना ला रथे तब ये हाना सुभाविक निकल जथे-
आव किये, हियाव किये,
दिए सुपारी पान।
जियत लुआठी मुहुँ मा डारे,
तब होय पूरा सनमान॥
०२. अयोग्य मनसे के जादा पुचपुचाए ले ये हाना बोलथें-
नाक ले नकटी, खोरी हे पाँव,
गँथा ले फुँदरी, किंजर ले गाँव।
०३. जादा चंचल मनखे बर झिड़की-
चुलबुलहा बर चिंगरी के झोर,
सिधवा बर पनही अउ डोर।
०४. काकरो बुध मा आके खुद के नकसानी होय मा ये हाना केहे जाथे-
चना अउ गेहूँ एके मा लेटे,
तहूँ गेय बनबइहा महूँ ला मेटे।
०५. जिंकर पेट हमेसा भरे रथे, खाए-पीए के कभू कमी नइ होय, तिंकर बर हाना हे-
तरिया तीर के खेती,
चुलहा तीर के बेटी।
०६. मौसम बिरुद्ध बेवहार करइया मन बर नसीहत-
सावन भाजी, भादो दही।
कुँआर करेला, कातिक महीं।
मरही नहीं त परही सहीं।
०७. कमचोर-खबड़ू मन बर हाना हे-
राँड़ी पूत, खदाही घोड़ा,
खाय बहुत, उपजाय थोड़ा।
०८. हदरही मा चीज तो सकेल डारथें फेर ओकर उपयोग करे ला नई जानें तिंकर बर हाना-
नानचुन टूरी के दू ठन लुगरा,
तभो ले ओकर पीठ उघरा।
०९. सुवारथी मन के सुभाव ऊपर एक हाना-
पुनि-पुनि चंदन, पुनि-पुनि पानी,
ठाकुर सरगे, हम का जानी।
१०. संतोसी सुभाववाले मन बर हाना हे-
जतके सकती वतके आस,
फूल नहीं ते फूल के बास।
११. लबरा मन के गोठियाए के सइली ऊपर हाना हे-
लबरा के साखी,
मुंड़ ले बड़े आँखी।
१२. अपन अच्छा चीज के खराब निकले ले कोनों ला दोस नइ देना चाही। इही नसीहत बर केहे जाथे-
सोन मा हे खोट,
त सोनार के का दोस।
१३. अपंगहा मन के जादा टिंगटिंगाए मा ये हाना बोले जाथे-
खोरवा-लंगड़ा सदा उपाई,
छान्हीं चढ़ के बंदुक चलाई।
१४. अपखया मन बर हाना हे-
खाए के बेर मोर-मोर,
अँचोय के बेर तोर-तोर।
१५. नहई-खोरई के नसीहत के रूप मा हाना हे-
नदिया नहाय ले सम्मक पाय,
तरिया नहाय ले आधा।
कुआँ नहाय ले कुछु नई पाय,
कुरिया नहाय ले ब्याधा॥
१६. संगत ऊपर हाना-
बड़े के संग मा खाय बीरोपान,
छोटे के संग मा कटाय दूनों कान।
१७. कंगाली के सेती साधू के सवाँग रचइया बर हाना-
पास मा नइ हे एक छदाम,
जय रघुनंदन जय घनसाम।
१८. बिपत के सिकार सज्जन अउ असहाय मन होथें-
आगी लगे पहाड़ मा,
जर गे चंदन रूख।
फाँफा-मिरगा उड़ चले,
चाँटी ला बजरा दुख॥
१९. कपट बेवहार बर हाना-
अंत कपट, मुँह चाकरी,
बातन के लवलीन।
खीरा सरीखा मीलना,
भीतर फाँकी तीन॥
२०. खटकरमी मन के गुन ऊपर टिप्पनी-
चोर-चोर के एके सइली,
भूती नापिन एके पइली।
२१. एक-दूसर ला दोस मढ़इया मन बर हाना-
जगत कहे भगत बइहा,
भगत कहे जगत बइहा।
२२. सब ला कुछु-न-कुछु लाभ मिले के बाद जब कोनो छुट जथे तेकर बर एक हाना-
दुलहिन ला दुलहा मिलगे,
समधी ला मिलगे गाय।
ढेरहिन ला लुगरा मिलगे,
लोकरहिन बपरी झर्राय॥
२३. करमछड़हा मन बर केहे जाथे-
पढ़े फारसी बेंचे तेल,
देखो भई कुदरत के खेल।
२४. लालच मा पर के झगरा मतइया मन बर कथें-
लोभिया गुरु, लालची चेला;
नरक मा जाय ठेलिक-ठेला।
२५. सुभाव के अनसार लूटपाट के सइली ऊपर टिप्पनी-
साव के दाँव हाट मा,
चोर के दाँव बाट मा।
२६. असलियत के जानबा होय मा ये हाना-
मछरी के एक फोर
गाँव भर होगे सोर।
परभाव
वइसे तो सइकड़ों हाना हे, फेर अतका उल्था मा कोनो हाना ले करुवाहट के भाव नइ झलके तब एमा मारक छमता कहाँ ले आही। छत्तिसगढ़ी हाना के परभाव थपथपी बरोबर होथे। जब कोनो ले अलहन हो जथे तब ओकर पीठ थपथपावत कथें- ‘कोई बात नीहीं, अब के बार धियान राखबे’।
अइसने दुलार के सेती हाना के सुने ले काकरो चेहरा-मोहरा तक नइ खोंझराय। एमा लोक जीवन के दिनचरिया, सूझबूझ अउ परकिरितिक सरसता के मनिकांचन संजोग होय के सेती मिठास हे, जेकर ले मन मा गुदगुदी भर जथे,अउ काम-बुता, आदत-बेवहार ला सुधारे बर मन रम जथे। छत्तिसगढ़ी ला गुरतुर बनाए बर एकर बहुँत बड़े हाँत हे। अइसन हाना मा मारक छमता नइ मिले, सुधारात्मक परभाव मिलथे। मार ले जादा महतबड़ दुलार के होथे। एकर सेती एक कवि हिंदी मा कहे हे-
तेरी शान चली जाती या रुतबा घट गया होता।
जो बात गुस्से से कही, ’गर प्यार से कहा होता॥
चंद्रकुमार चंद्राकर
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