धार्मिक आस्था का पर्व माघ पूर्णिमा के पावन अवसर पर टीपागढ़ पहाड़ पर वृहद मेले का आयोजन लंबे अरसे से होता आ रहा है। छत्तीसगढ़ प्रदेश के राजनादगाँव जिले के अंतिम छोर पर महाराष्ट्र सीमा पर स्थित धूर नक्सल प्रभावित मानपूर वनांचल ब्लाक के बार्डर के उस पार महाराष्ट्र के ग्यारहपत्ती थानांतर्गत घनघोर कानन के मध्य मेले का आयोजन होता है। जहाँ महाराष्ट्र के ही नहीं अपितु छत्तीसगढ़ के हजारों श्रद्धालु अति प्राचीन तालाब में डुबकी लगाने और मेले का लुत्फ उठाने उमड़ते हैं। तीन दिनों तक चलने पाले इस मेले में लोग परिवार सहित व इष्ट मित्रों के साथ समूहों में पहुँचते हैं। पूर्णिमा की भोर सूर्योदय के पूर्व तालाब के लिर्मल जल में शाही स्नान कर यहाँ पर स्थित विभिन्न मंदिरों में टीपागढ़ वाली माता व विराजमान देवी-देवताओं के आगे माथा टेक अपनी खुशहाली व समृद्धि की दुआ माँगते हैं।
पर्वत श्रृँखलाओं के मध्य सूर्योदय का विहंगम नजारा
घनघोर जंगल में आकाश चूमते पर्वत श्रृँखलाओं के मध्य अति प्राचीन विशाल सरोवर है। लंबे वर्षों से धार्मिक आस्था का केन्द्र बना हुआ है। यहाँ पहुँचकर लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण होती है। सुबह की पहली किरण के साथ सूर्योदय का विहंगम नजारा आकर्षण का केन्द्र बन जाता है, ऐसा लगता है कि मानो जंगल की गोद से निकलकर सूर्य पर्वतों का आश्रय ले आसमान की ओर कूच कर रहा है। इतना ही नहीं यहाँ पर विशालकाय चट्टानों के बीच कई सुरंग, गुफाएँ और वनाच्छादित नयनाभिराम दृश्य यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य का अमूर्तपूर्ण अहसास दिलाती है। चट्टानों से होकर जान जोखिम में डालकर भी लोग प्रकृति के इस मनोरम मंजर को देखने पर्वतों के शीर्ष चोटियों पर चढ़ते हैं।
राजाओं के जमाने से स्थापित है मूर्तियाँ
अति प्राचीन तालाब के किनारे दो मंदिरें हैं, जहाँ राजाओं के जमाने से स्थापित टीपागढ़ माता व विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियाँ है, वहीं पहाड़ों के ऊपर एवं सुरंग के भीतर व वाह्य विशाल चट्टानों में भी भिन्न-भिन्न आकृतियाँ उभरी हुई है। स्थापित मूर्तियाँ किस शताब्दी की है स्पष्ट नहीं है। यह पुरातात्विक दृष्टिकोण से भी काफी महत्वपूर्ण हो सकता है। जहाँ लंबे अरसे से क्षेत्र के जनमानस में इसे लेकर धार्मिक आस्था बनी हुई है। लिहाजा बड़ी संख्या में क्षेत्रवासी सहित दोनों राज्य के दूर-दराज के लोग पैदल यात्रा से लेकर साइकिल, दोपहिया एवं चारपहिया वाहनों से यहाँ पहुचते हैं।
तीन दिवसीय माघी पूर्णिमा मेले का आयोजन
वर्ष में एक बार तीन दिवसीय मेला माघी पूर्णिमा के अवसर पर लगता है, बाकी दिनों में सौन्दर्य से आपूरित स्थल वीरान सा रहता है किन्तु सैलानी व घुम्मकड़ प्रकृति के लोग यहाँ जरूर पहुँचते रहते हैं। खास बात है कि नक्सलियों का गढ़ होने के बाद भी लोग बेखौफ मेले में बड़ी संख्या भाग लेते हैं, जो कि धार्मिक आस्था के अतिरिक्त प्राकृतिक सुन्दरता का एवं सौहार्द्रता का जीवंत उदाहरण है। मेले में लोगों की बड़ी संख्या में आगमन को देखते हुए वर्तमान में आसपास के गाँवों की समिति मेले के आयोजन में रूचि लेने लगे हैं। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा के अवसर पर मेला भरता है, जहाँ पूर्णिमा की रात्रि चौथे पहर सूर्योदय के पहले विशाल तालाब में डुबकी लगाकर देवी-देवताओं के दर्शन व पूजा-अर्चना कर सुख-शांति व समृद्धि की कामना करते हैं। यहाँ यह बताना मैं लाजिमी समझता हूँ , मेले को छोडक़र आसपास के लोग अन्य अवसरों पर यहाँ उत्सव मनाने भी आते रहते हैं, खास तौर पर होली के एक-दो दिन पहले एक जनजाति समुदाय के लोग इकट्ठे होकर एक विशेष पर्व मनाते हैं ये होली का त्योहार नहीं मनाते हैं। जिसमें शराब प्रतिबंधित होता है, लेकिन विभिन्न प्रकार के मांसाहारी भोजन प्रसाद के रूप में पकाते हैं अपने इष्टों को होम देकर गाँव की खुशहाली के लिए टीपागढ़वाली माता से दुआ माँगते हैं।
घोर नक्सल क्षेत्र होने के बाद भी उमड़ता है जनसैलाब
अटपटे, बेहिसाब घने जंगल और छोटे-बड़े, ऊंचे-नीचे दर्जनों पर्वत श्रृँखलाएँ हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि नक्सलियों का गढ़ माने-जाने वाले मानपूर वनांचल ब्लाक और महाराष्ट्र का सीमावर्ती यह इलाका माओवादियों के लिए निश्चित तौर पर महफूस शरणस्थली हो सकता है, यही वजह है कि माओवादियों के महाराष्ट्र इकाई का एक बड़ा दल टीपागढ़ दलम के नाम से सक्रिय है।
कैसे किस साधन से पहुँचे
जिला मुख्यालय राजनांदगाँव से मानपूर तक बस से सफर कर जाना पड़ता है दूरी है 100 किलोमीटर। यहाँ से टीपागढ़ लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थ्ति है। राजनांदगाँव जिला व प्रदेश के वनांचल विकास खण्ड के अंतिम छोर में महाराष्ट्र सीमा पर है। राजनांदगाँव से मानपुर के लिए हर घंटे बस की सुविधा है। इसी प्रकार बालोद जिला के दल्लीराजहरा एवं कांकेर जिला के भानुप्रतापपुर से भी बस समय-समय पर है। मानपूर पहुँचने के बाद मानपूर से गढ़चिरौली मार्ग पर बस चलती है, लेकिन काफी अंतराल के बाद। उक्त मार्ग पर छत्तीसगढ़ सीमा समाप्त होने के बाद पहला स्टापेज सावरगाँव पड़ता है। यहाँ से कोटगुल मार्ग पर मुख्य मार्ग से 10-12 किलोमीटर दूर स्थित है टीपागढ़। इस मार्ग पर एक-दो बस दिन भर में चलती है। अत: निजी साधन से जाना प्रत्येक दृष्टि से बेहतर है। टीपागढ़ वाली माता का मंदिर मार्ग से पर्वत मालाओं से पैदल चलकर जाना पड़ता है, जिसकी लंबाई 3 किलोमीटर है। उबड़-खाबड़ पथरीला रास्ते का सफर बड़ा ही रोमांचक अनुभव प्रदान करता है। कभी ऊंचाई चढऩा पड़ता है तो कहीं लंबे ढलान उतरना होता है। बांस के ऊंचे घने बियाबान अपने ओर बेहद आकर्षिक करता है, साथ ही अन्य कई प्रजातियों के विशाल वृक्ष सागोन, कलमी, तेंदू, कर्रा, आम एवं अनाम झाड़ियाँ दृश्य को और भी नयनाभिराम बनाते हैं।
पर्वतमालाओं के मध्य राह चलते हुए डोंगरी के नीचे दूर बसे छोटी बस्तियाँ एवं कहीं-कहीं का हरा मैदानी भाग आखों को सुकूंन देता है। रास्ते में सफर के दौरान छोटे कद की लाल मुँह वाले बंदर भी समूह में उछल-कूद करते दिख पड़ते हैं। पहाड़ी राह कई स्थानों पर बेहद संकरे हो जाते हैं। मंदिर व मेला स्थल पहुँचने में लगभग 2 घंटे का वक्त लग जाता है छोटे बड़े पर्वत श्रृँखलाओं से घिरा हुआ है। जिसके मध्य में एक विशाल अति प्राचीन सरोवर है, जिसका पानी इतना स्वच्छ-साफ है, यदि कोई पानी में सिक्का फेंक दे तो पाँच-सात फीट गहराई तक पहुँचते सिक्का चमकता हुआ नजर आता है। तालाब का पानी ही एकमात्र पीने के लिए है वहाँ पर। गर्मी के दिनों में तालाब का निर्मल पानी देखकर प्यास पर काबू रख पाना कठिन है, बरबस ही आदमी तालाब का पानी पी ही लेता है।
पर्यटन के रूप में हो सकता है विकसित यदि छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र सरकार संयुक्त रूप से प्रयास कर, उक्त क्षेत्र को संरक्षित करते हुए एसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। पर्यटन की सभी खूबियाँ यहाँ पर मौजूद है। सैलानियों के लिए यह क्षेत्र बेहद रोमांचक और महफूज़ है। टीपागढ़ के लिए सावरगाँव से पक्की सडक़ है जो कि, ऊंचे-नीचे व घुमावदार अदने पठारनुमा घने जंगलों से होकर जाती है। इन राहों से गुजरना दिलो-दिमाग को बड़ा सुकूंन देता है। एक बार यदि आप टीपागढ़ का भ्रमण कर लिए तो निश्चित है वहाँ की हसीन व मनमोहक वादियों में जाने का मन यकीनन बार-बार करेगा। जरूरत है, शासन को इस ओर गंभीरता से ध्यान देने की। इससे टीपागढ़ एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो सकता है एवं विशाल चट्टानों में उभरी आकृतियों का संरक्षण व संवर्धन हो सकेगा।
घनघोर जंगल में आकाश चूमते पर्वत श्रृँखलाओं के मध्य अति प्राचीन विशाल सरोवर है। लंबे वर्षों से धार्मिक आस्था का केन्द्र बना हुआ है। यहाँ पहुँचकर लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण होती है। सुबह की पहली किरण के साथ सूर्योदय का विहंगम नजारा आकर्षण का केन्द्र बन जाता है, ऐसा लगता है कि मानो जंगल की गोद से निकलकर सूर्य पर्वतों का आश्रय ले आसमान की ओर कूच कर रहा है। इतना ही नहीं यहाँ पर विशालकाय चट्टानों के बीच कई सुरंग, गुफाएँ और वनाच्छादित नयनाभिराम दृश्य यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य का अमूर्तपूर्ण अहसास दिलाती है। चट्टानों से होकर जान जोखिम में डालकर भी लोग प्रकृति के इस मनोरम मंजर को देखने पर्वतों के शीर्ष चोटियों पर चढ़ते हैं।
राजाओं के जमाने से स्थापित है मूर्तियाँ
अति प्राचीन तालाब के किनारे दो मंदिरें हैं, जहाँ राजाओं के जमाने से स्थापित टीपागढ़ माता व विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियाँ है, वहीं पहाड़ों के ऊपर एवं सुरंग के भीतर व वाह्य विशाल चट्टानों में भी भिन्न-भिन्न आकृतियाँ उभरी हुई है। स्थापित मूर्तियाँ किस शताब्दी की है स्पष्ट नहीं है। यह पुरातात्विक दृष्टिकोण से भी काफी महत्वपूर्ण हो सकता है। जहाँ लंबे अरसे से क्षेत्र के जनमानस में इसे लेकर धार्मिक आस्था बनी हुई है। लिहाजा बड़ी संख्या में क्षेत्रवासी सहित दोनों राज्य के दूर-दराज के लोग पैदल यात्रा से लेकर साइकिल, दोपहिया एवं चारपहिया वाहनों से यहाँ पहुचते हैं।
तीन दिवसीय माघी पूर्णिमा मेले का आयोजन
वर्ष में एक बार तीन दिवसीय मेला माघी पूर्णिमा के अवसर पर लगता है, बाकी दिनों में सौन्दर्य से आपूरित स्थल वीरान सा रहता है किन्तु सैलानी व घुम्मकड़ प्रकृति के लोग यहाँ जरूर पहुँचते रहते हैं। खास बात है कि नक्सलियों का गढ़ होने के बाद भी लोग बेखौफ मेले में बड़ी संख्या भाग लेते हैं, जो कि धार्मिक आस्था के अतिरिक्त प्राकृतिक सुन्दरता का एवं सौहार्द्रता का जीवंत उदाहरण है। मेले में लोगों की बड़ी संख्या में आगमन को देखते हुए वर्तमान में आसपास के गाँवों की समिति मेले के आयोजन में रूचि लेने लगे हैं। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा के अवसर पर मेला भरता है, जहाँ पूर्णिमा की रात्रि चौथे पहर सूर्योदय के पहले विशाल तालाब में डुबकी लगाकर देवी-देवताओं के दर्शन व पूजा-अर्चना कर सुख-शांति व समृद्धि की कामना करते हैं। यहाँ यह बताना मैं लाजिमी समझता हूँ , मेले को छोडक़र आसपास के लोग अन्य अवसरों पर यहाँ उत्सव मनाने भी आते रहते हैं, खास तौर पर होली के एक-दो दिन पहले एक जनजाति समुदाय के लोग इकट्ठे होकर एक विशेष पर्व मनाते हैं ये होली का त्योहार नहीं मनाते हैं। जिसमें शराब प्रतिबंधित होता है, लेकिन विभिन्न प्रकार के मांसाहारी भोजन प्रसाद के रूप में पकाते हैं अपने इष्टों को होम देकर गाँव की खुशहाली के लिए टीपागढ़वाली माता से दुआ माँगते हैं।
घोर नक्सल क्षेत्र होने के बाद भी उमड़ता है जनसैलाब
अटपटे, बेहिसाब घने जंगल और छोटे-बड़े, ऊंचे-नीचे दर्जनों पर्वत श्रृँखलाएँ हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि नक्सलियों का गढ़ माने-जाने वाले मानपूर वनांचल ब्लाक और महाराष्ट्र का सीमावर्ती यह इलाका माओवादियों के लिए निश्चित तौर पर महफूस शरणस्थली हो सकता है, यही वजह है कि माओवादियों के महाराष्ट्र इकाई का एक बड़ा दल टीपागढ़ दलम के नाम से सक्रिय है।
कैसे किस साधन से पहुँचे
जिला मुख्यालय राजनांदगाँव से मानपूर तक बस से सफर कर जाना पड़ता है दूरी है 100 किलोमीटर। यहाँ से टीपागढ़ लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थ्ति है। राजनांदगाँव जिला व प्रदेश के वनांचल विकास खण्ड के अंतिम छोर में महाराष्ट्र सीमा पर है। राजनांदगाँव से मानपुर के लिए हर घंटे बस की सुविधा है। इसी प्रकार बालोद जिला के दल्लीराजहरा एवं कांकेर जिला के भानुप्रतापपुर से भी बस समय-समय पर है। मानपूर पहुँचने के बाद मानपूर से गढ़चिरौली मार्ग पर बस चलती है, लेकिन काफी अंतराल के बाद। उक्त मार्ग पर छत्तीसगढ़ सीमा समाप्त होने के बाद पहला स्टापेज सावरगाँव पड़ता है। यहाँ से कोटगुल मार्ग पर मुख्य मार्ग से 10-12 किलोमीटर दूर स्थित है टीपागढ़। इस मार्ग पर एक-दो बस दिन भर में चलती है। अत: निजी साधन से जाना प्रत्येक दृष्टि से बेहतर है। टीपागढ़ वाली माता का मंदिर मार्ग से पर्वत मालाओं से पैदल चलकर जाना पड़ता है, जिसकी लंबाई 3 किलोमीटर है। उबड़-खाबड़ पथरीला रास्ते का सफर बड़ा ही रोमांचक अनुभव प्रदान करता है। कभी ऊंचाई चढऩा पड़ता है तो कहीं लंबे ढलान उतरना होता है। बांस के ऊंचे घने बियाबान अपने ओर बेहद आकर्षिक करता है, साथ ही अन्य कई प्रजातियों के विशाल वृक्ष सागोन, कलमी, तेंदू, कर्रा, आम एवं अनाम झाड़ियाँ दृश्य को और भी नयनाभिराम बनाते हैं।
पर्वतमालाओं के मध्य राह चलते हुए डोंगरी के नीचे दूर बसे छोटी बस्तियाँ एवं कहीं-कहीं का हरा मैदानी भाग आखों को सुकूंन देता है। रास्ते में सफर के दौरान छोटे कद की लाल मुँह वाले बंदर भी समूह में उछल-कूद करते दिख पड़ते हैं। पहाड़ी राह कई स्थानों पर बेहद संकरे हो जाते हैं। मंदिर व मेला स्थल पहुँचने में लगभग 2 घंटे का वक्त लग जाता है छोटे बड़े पर्वत श्रृँखलाओं से घिरा हुआ है। जिसके मध्य में एक विशाल अति प्राचीन सरोवर है, जिसका पानी इतना स्वच्छ-साफ है, यदि कोई पानी में सिक्का फेंक दे तो पाँच-सात फीट गहराई तक पहुँचते सिक्का चमकता हुआ नजर आता है। तालाब का पानी ही एकमात्र पीने के लिए है वहाँ पर। गर्मी के दिनों में तालाब का निर्मल पानी देखकर प्यास पर काबू रख पाना कठिन है, बरबस ही आदमी तालाब का पानी पी ही लेता है।
पर्यटन के रूप में हो सकता है विकसित यदि छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र सरकार संयुक्त रूप से प्रयास कर, उक्त क्षेत्र को संरक्षित करते हुए एसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। पर्यटन की सभी खूबियाँ यहाँ पर मौजूद है। सैलानियों के लिए यह क्षेत्र बेहद रोमांचक और महफूज़ है। टीपागढ़ के लिए सावरगाँव से पक्की सडक़ है जो कि, ऊंचे-नीचे व घुमावदार अदने पठारनुमा घने जंगलों से होकर जाती है। इन राहों से गुजरना दिलो-दिमाग को बड़ा सुकूंन देता है। एक बार यदि आप टीपागढ़ का भ्रमण कर लिए तो निश्चित है वहाँ की हसीन व मनमोहक वादियों में जाने का मन यकीनन बार-बार करेगा। जरूरत है, शासन को इस ओर गंभीरता से ध्यान देने की। इससे टीपागढ़ एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो सकता है एवं विशाल चट्टानों में उभरी आकृतियों का संरक्षण व संवर्धन हो सकेगा।
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