गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

Basant

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गुड़िया

कचरी मायके गई है। आज एक माह बीत गया, फिर भी वह ससुराल आने का नाम ही नहीं ले रही है। छोटी गुड़िया की याद रह-रहकर दिल को कचोट रही है। घर में बाबा और बूढ़ी मॉं गुड़िया की ही चर्चा करते रहते हैं। दादी पोपले मुँह से दादाजी को सम्बोधित कर कहती है- ‘‘गुड़िया ला देखे बहुत दिन होगे हे, वोहा तोर संग गली घूमे बर कतिक जिद करे, रहि-रहि के गुड़िया हा नज़र मा झुलत रहिथे।’’ दादाजी आत्मविभोर होकर कहते हैं-

‘‘हॉं खोरी मोर बिना गुड़िया कइसे ऊँहा खेलत होही, बिसरू हा जाके बहू ला ले आतीस।’’ ‘‘बहू ला, घर दुआर के चिंता तक नइ हे, का करबोन भला...उँकर घर-उकर दुआर ओला चिंता नइ हे, काम करत-करत मोरो हॉंत-गोड़ मा पीरा भर जथे।’’ दादा अपने अतीत में खो जाते हैं। कुछ सोचते-सोचते मुस्कुराने लगते हैं। दादी उसको कुरेदने लगती है- ‘‘आज तो मेहा तोला अब्बड़ मुस्कुरात देखत हँव, का बात हे... मोला बता न..!’’ दादाजी को पुरानी बात याद आ गई थी, गॉंव से दस कोस उत्तर में उसका ससुराल था। उस समय दादी जी यही कोई सोलह साल की थी। दादाजी अपने ससुराल विक्रमपुर से गौना कराकर आये थे। शादी तो बचपन में ही हो गई थी, लेकिन गौना बहुत बाद में हुआ दादाजी उस समय नवयुवक थे। शरीर में ताकत और हृदय में उत्साह था। अपनी पत्नी का सुबह शाम घर आँगन में काम करना देखते रहते और अपने भाग्य को सँराहते रहते थे। पत्नी का मुख उसे गमकता हुआ, झूमती हुई, नई धान की बाली जैसे लगती और वर्षा ॠतु के फुहार जैसे आह्लादित करती रहती, नये कपड़े और सुगंधित तेल की सुगंध उनके नथुनों में अब भी समाये हुए लगते। ‘‘कस खोरी..! तोला मायके जाय के इच्छा नइ होय का..?’’ ‘‘काबर नइ होही, बबा..! फेर... घर गिरहस्ति के चिंता तो लगे रहिथे, फेर... तेहा जान देबे तब ना..! अऊ मेहा चल दुहूँ ते...तेहा मोर बिना रहि सकबे? चार दिन ले जादा होय ताहने पीछू-पीछू लाय बर चल देस।’’ दादाजी जोर से हँसते हैं। 

दादाजी के एक ही पुत्र है, जिसका नाम बिसरू है, बिसरू की शादी आज से चार साल पूर्व किसनपुर के संपन्न किसान ररूहा की इकलौती पुत्री से बड़े धूमधाम के साथ हुई थी। बड़े घर की बेटी कचरी, बहुत सुशील और धार्मिक विचारों की महिला है, उसे पति का पूर्ण विश्‍वास और प्रेम प्राप्त है, उसकी एकमात्र पुत्री सुषमा डेढ़ साल की है। उसका स्वास्थ्य अचानक खराब हो गया। कचरी अपने पिता से कहती- ‘‘उनका गुस्सा बड़ा तेज है, मुझको ससुराल पहुँचा दो!’’ ‘‘लेकिन बेटी! तुम देख ही रही हो, गुड़िया बीमार है और ऐसी हालत में तेज बुखार में हवा लग जाने का डर है, क्यों नहीं तुम्हारे ससुराल में संदेश भेज दिया जावे, दामाद आकर देख लेगा, यहॉं दवाई तो चल रही है।’’ कचरी मन में सोचने लगी- ‘‘हाय भगवान! ससुराल जाने के समय ही गुड़िया को बीमार पड़ना था, वे ऐसे ही नाराज हो रहे होंगे, फिर ऊपर से यह विपदा।’’ उसे बिसरू का पिटना याद आ गया। पिछले बरस किस बुरी तरह से पीटा था। सात दिन तक खाट में पड़ी थी, अब ये अलग बात है कि बाद में पछताते और क्षमा मॉंगते रहे, बिसरू सॉंवले रंग का आकर्षक युवक है, गोरी चिट्टी कचरी से उसे विशेष मोह है। गुड़िया अपने मॉं के रंग में गई है। घर में अकेली संतान होने के कारण गुड़िया सभी को प्यारी है, उसी गुड़िया की बीमारी सुनकर बिसरू परेशान हो गया और ससुराल जाने की तैयारी करने लगा। ‘‘बापू जी! आप भी चलिये! गुड़िया गंभीर रूप से बीमार है, हिचकी लेकर बेहोश हो जाती है| आँखें इधर-उधर घुमाती है तेज बुखार है उतरने का नाम ही नहीं लेता, पता नहीं क्या हालत है।’’ ‘‘बेटा ! तुम आज चले जाओ, मैं कल सुबह जाऊँगा।’’ क्वॉंर का कृष्ण पक्ष है, रात अंधेरी है, किसनपुर जाने के लिए कोई गाड़ी नहीं है। अंतिम गाड़ी पॉंच बजे पूर्व चली गई है। अंत में लाचार बिसरू रेतवाली ट्रक में बैठ जाता है। उसे रह-रहकर कचरी पर क्रोध आ रहा है- ‘‘इतने दिनों तक मायके में रहने का क्या तुक है? मैंने जल्दी आने को कहा था, है ही जिद्दी, आखिर अपनी इच्छानुसार रही। मौसम बदल रहा है, यहॉं-वहॉं का पानी, नन्ही जान में इतनी ताकत ही कहॉं है, कि सहन कर सके।’’ आखिर परिणाम स्वरूप गुड़िया बीमार पड़ गई। ‘‘बाबू जी! आप की मंजिल आ गई, उतरिये।’’ ‘‘धन्यवाद ड्रायवर साहब! आपने ऐन वक्त में सहायता की, यदि आप मुझे नहीं मिलते तो मैं यहॉं तक कैसे आता’’ बिसरू ने कहा। ‘‘कोई बात नहीं भाई! हम तो इधर ही आ रहे थे’’ ड्रायवर ने कहा। गाड़ी स्टार्ट की- ‘‘अच्छा नमस्ते जी!’’ रात के दस बज गये हैं, गॉंव के कुत्ते अजनबी को देखकर भौंकने लगते और चुप हो जाते। ससुराल का एक परिचित ब्यक्ति मिला- ‘‘अरे भाई बिसरू! इतनी रात को आ रहे हो’’ आश्‍चर्यपूर्वक उस ब्यक्ति ने कहा। ‘‘हॉं भाई रामू! अचानक खबर मिली कि गुड़िया की तबियत खराब है, तो दौड़ा चला आ रहा हूँ।’’ ‘‘चलिये! आपके ससुराल तक छोड़ देता हूँ, दाऊ जी, ओ दाऊ जी! देखिये आपके घर मेहमान आये हैं|’’ ‘‘आता हूँ भाई! आता हूँ।’’ दरवाजे पर खड़े रामू और अपने दामाद को साहू जी अंदर ले आये उसी समय गुड़िया के कराहने की आवाज आयी बिसरू ने कहा-‘‘बाबू जी! अब गुड़िया की तबियत कैसी है।’’ ‘‘तेेज बुखार है बेटा! अभी तक उतरा नहीं है, आओ अंदर आ जाओ।’’ राम्हू और बिसरू गुड़िया को देखते हैं। ‘‘बुखार तेज है, वह रह-रहकर कराहती है’’ साहू जी कहते हैं। ‘‘अभी चार बजे हम लोग दुर्ग से आये हैं। डॉक्टर के पास ले गये थे। इंजेक्शन और दवाई दिये हैं, लेकिन अभी तक फायदा नहीं हुआ है, झाड़फूँक भी चल रहा है। अच्छा भैया! मैं चलता हूँ, रात्रि भी ज्यादा हो रही है।’’ बिसरू कुछ दूर तक राम्हू को पहुँचाने आया घर के सभी लोग गुड़िया के खाट के चारों ओर बैठ गये। ‘‘कैसे कचरी! मैं तुम्हें जल्दी घर आने को कहा था ना? उधर मॉं को भोजन पकाने में बहुत कष्ट हो रहा है।’’ डरते हुए कचरी कहती है-‘‘मैं मामा के यहॉं चली गयी थी, इसलिए इतनी जल्दी घर न आ सकी और जब वापस जाने की सोची तब गुड़िया बीमार पड़ गई।’’ ‘‘गुड़िया कब से बीमार है?’’ ‘‘अभी तीन दिन हुआ है, शुरू में वैद्य जी से इलाज चल रहा था। फायदा नहीं होने पर दुर्ग ले गये थे। आज ही चार बजे वापस आये हैं’’, कचरी ने कहा।

बीच-बीच में गुड़िया कराहने लगी और बेहोशी में छटपटाती| कुछ समय बाद बुखार कम हुआ और गुड़िया सोने लगी, फिर भी हाथ पैर अभी भी गर्म था। ‘‘अच्छा बेटा! तुम आराम करो, थके हुए हो,’’ यह कहकर साहू जी अपने कमरे में चले गये बिसरू की सास कचरी को बचपन में ही छोड़कर भगवान को प्यारी हो गई थी। कचरी को अपनी मॉं का थोड़ा-थोड़ा ख्याल है, कितनी प्यार से गीत गाकर रात में कचरी को थपकी देकर सुलाती थी।‘‘अजी! सो गये क्या?’’ ‘‘नहीं जाग रहा हूँ, आज नींद ही नहीं आ रही है’’ ‘‘और मुझे भी’’ कचरी ने कहा। कंडील के धुंधले प्रकाश में बिसरू ने देखा, गुड़िया अपनी मॉं के सीने से चिपककर सो रही थी धीरे-धीरे बिसरू नींद की आगोश में समाता चला गया। रात का तीसरा पहर बीत चला था। आकाश चारों तरफ से अंधकार से ढँका था। घर के सभी प्राणी गहरी नींद में सो रहे थे। सुबह जब बिसरू की नींद खुली तो सूर्योदय हो चुका था।आँगन में कचरी बर्तन मॉंज रही थी और गुड़िया खाट में बैठी रो रही थी आज का सुबह बहुत अच्छा लगा| आँगन में मुनगे के डाली पर तरोई के पीले फूल सुंदर लग रहे थे। बिसरू ने गुड़िया के माथे पर हाथ रखा बुखार उतर चुका था। उसने गुड़िया को चिपका लिया गुड़िया चुप हो गई। उसी समय कचरी अपने पति को जगे देखकर एक लोटा पानी लाई और चाय की पानी रखने रसोई में चली गई बिसरू चाय पीकर आवश्यक कार्यों से निवृत्त होने चला गया। दाऊ जी बैठक में अपने नौकरों को आवश्यक हिदायतें दे रहे थे। ‘‘नाश्ता कर लिया बेटा।’’ ‘‘हॉं बाबू जी!’’ ‘‘तुम्हारे यहॉं फसल कैसी है?’’ ‘‘क्या बतायें बाबू जी! बोनी के समय ही धान नहीं जगा, बाद में दँतारी में एवं लाई चोपी बोये, जिसके फलस्वरूप आठ आना एवं दस आना बीज मात्र ही जगा, बोआई पीछे होने के कारण फसल कमजोर है। धान में चितरी बीमारी लग गई है, नहर में पानी भी कम छोड़ा है, पानी के लिए लोगों में लड़ाई हो रही है। कचरी! तैयार हो जाओ, आज घर जाना है’’, बिसरू ने कहा- ‘‘बाबू से पूछ लिए होते।’’ ‘‘मैंने उनसे आज्ञा ले ली है, गुड़िया को आज बुखार नहीं है, लेकिन चिड़चिड़ी हो गई है। खेलने के वस्तु को भी फेंकती है।’’

घर के आँगन में दादी जी और दादाजी बैठे हैं। ‘‘कस बबा तेहा गुड़िया ला देखेबर जाहूँ केहे रेहेस, तोला देखत होही।’’ ‘‘का बतॉंवव खोरी! पानी के झगड़ा ल निपटाय बर, पँचइत बइठे रिहिसे, ओमा नइ जातेव, ते गॉंव के मन चिथों-चिथों करतिस। मोर कुरता ला लातो मेहा अभीच जाहूँ। मोर दिल हा घबरावत है, गुड़िया कइसे हे, हे भगवान! बनेच-बने राखबे।’’ उसी समय बिसरू-कचरी-गुड़िया के साथ आते हैं। गुड़िया दादाजी को देखकर अपनी मॉं की गोद से उतरने के लिए मचलने लगती है ‘‘बा...बा...!’’ गुड़िया मॉं की गोद से उतरकर दादाजी के गोद में बैठ जाती है। ‘‘कस बहू! नानुक लइका के तोला कुछु फिकर नइ लागे। घर दुआर के फिकर नइ हे, ते नइ हे, महीना भर बीते के बाद, घर के खियाल आवत हे’’ दादाजी कहता। कचरी चुप रह जाती गुड़िया कमजोर और दुबली हो गई है। उसे देखकर दादी की आँखें गीली हो जाती है और दादाजी के हाथों से गुड़िया को लेकर अपनी छाती से लगा लेती है, मानों उसे अब अपने से अलग ही नहीं करेगी।

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

वेदना

चोरी करते शर्म नहीं आती, इतने कम उम्र में गलत काम करने लग गये, भीड़ में खड़े एक बुजुर्ग आदमी ने कहा। वह कोई पंद्रह वर्षीय नवयुवक था, जो गर्दन नीचे किये चुपचाप मार खाये जा रहा था। उसे दुख मार खाने का नहीं था, जिसकी मॉं मृत्युशैया पर पड़ी दवाई के अभाव में दम तोड़ रही हो उसे मारखाने की चिंता ही कहॉं हो सकती है। उसे केमिस्ट की दुकान से दवाई चुराते दुकानदार ने पकड़ लिया, बात ही बात में भीड़ इकट्ठी हो गई| मार से कपड़े जगह-जगह से फट गया था। कॉलर फटकर झूलने लगा था। इसी समय पुलिस इंस्पेक्टर अजीत सिंह ने एक भद्दी सी गाली देते हुए उस लाचार युवक को एक डंडा जमाया और दुकानदार से बोला-

‘‘आप रिपोर्ट लिखाने थाने चलिये! इस बदमाश को मैं वहीं ले जा रहा हूँ।’’ दो दिन का भूखा वह युवक लड़खड़ाता हुआ चल रहा था, रह-रहकर आँखों के सामने मॉं का मुर्झाया चेहरा घूम रहा था। असमय बुढ़ी हो चली मॉं पड़ोस में झाड़ू-पोछा करके अपनी और बेटे सरजू का पेट किसी तरह पालती थी। सरजू के पिता अपनी पत्नी को छोड़कर किसी अन्य औरत को घर में रख लिया और उसकी मॉं और सरजू को ठोकरे खाने के लिए घर से बेइज्जत करके निकाल दिया। सरजू अपने पिताजी को जानता तक नहीं था। स्नेहमयी मॉं अपने बच्चे को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देती। सरजू किसी तरह आठवीं कक्षा उत्तीर्ण हो गया। प्रकृति भी गरीबों पर वज्र के समान टूटती है। काम करते-करते मॉं बेदम हो जाती है। ऊपर से खॉंसी का जोर मुँह से बलगम के साथ खून जाने लगा। मालिकों ने उसे काम से छुट्टीकर दी, स्कूल से आने पर सरजू मॉं की हालत देख रो पड़ा, घर में राशन खत्म हो गया था। पास में एक भी पैसा नहीं था। मॉं को पड़ोसवालों ने सरकारी अस्पताल में भर्ती कर दिया, लेकिन दवाई के आभाव में दिनों दिन उसकी हालत खराब होती गई।

सरजू की पढ़ाई छुट गई, वह सड़कों पर घूम-घूमकर अखबार बेचा करता। कुछ पैसे मिल जाते, जिसमें कुछ पैसों की दवाई और कुछ पैसे अपने भोजन पर खर्च करता। रात के समय हॉटल में काम करता, सुबह शाम अपनी मॉं से मिल आता। एकदिन डॉक्टर ने कहा- ‘‘तुम अपने घर के किसी जिम्मेदार सदस्य को भेेजना| तुम ! मत आया करो? तुम्हारी मॉं को टी.बी हो गई है।’’
‘‘मेरा इस दुनियॉं में मॉं के सिवाय कोई नहीं, मैं किसे लाऊँ डॉक्टर साहब!’’ सरजू ने करूण स्वर में रोते हुए कहा। डॉ. दवाई की पर्ची थमा गया- ‘‘देखो! यह दवाई और इंन्जेक्शन बहुत जरूरी है, देरी होने से मरीज को खतरा है।’’ सरजू सुनकर हक्का-बक्का रह गया। इतने बड़े शहर में पहचानवाला कोई न था। होटलवाला भी बगैर माह बीते पैसे देनेवाला नहीं था। केमिस्ट की दुकान पर सरजू ने दवाई का पर्ची दिया दुकानदार ने दवाई पैकेट में बॉंध दिया साथ ही बिल भी और दूसरे ग्राहक को निपटाने लगा। बिल देखकर सरजू को दिन में तारे नज़र आने लगा, बिल पूरे पॉंच सौ रूपये का था। कुछ सोचकर सरजू दवाई की पैकेट लेकर भागने लगा।अचानक दुकानदार की नज़र उधर चली गयी और चोर-चोर चिल्लाना शुरू कर दिया। सरजू के पीछे लोग दौड़ने लगे, भीड़ में घुसने से पहले एक आदमी ने उसे पकड़ लिया। भीड़ इकट्ठी हो गई। लोगों ने मार-मारकर उसकी हालत खराब कर दी। कमीज खींचतान में जगह-जगह से फट गया। मोटे ताजे थानेदार को अपने तरफ आते देख सरजू थर-थर कॉंपने लगा, कातर स्वर में बोला- ‘‘मेरी मॉं को बचा लो साहब! आपके बाल बच्चे सलामत रहे|’’ थानेदार ने डॉंटते हुए कहा-‘‘तुम चुपचाप रहो| नहीं तो काल कोठरी में बंदकर दूँगा|’’ और दुकानदार का रिपोर्ट लिखने लगा| ‘‘हॉं तो मिस्टर मेहता! जो दवाई पैकेट में हैं, किस बीमारी की दवा है।’’ ‘‘इसे डॉक्टर ने टी.बी. के लिए लिखा है’’ मेहता ने कहा। ‘‘आप रिपोर्ट में हस्ताक्षर कर दीजिये, जरूरत पड़ने पर आपको तकलीफ करना होगा।’’ ‘इसमें तकलीफ की क्या बात है इंस्पेक्टर साहब! मैं हाजिर हो जाऊँगा’’ चलते हुए मेहता ने कहा। सरजू के शरीर से डर के कारण पसीना छुटने लगा। मार के कारण दोनों गाल-लाल हो गये थे।सरजू ने रोते हुए इंस्पेक्टर के पैर पकड़ लिये- ‘‘मुझे छोड़ दीजिये साहब! मेरी मॉं दवाई के अभाव में मर जाएगी|’’ ऐसा लगा जैसे सारे शरीर में वेदना का साम्राज्य हो अपमान और कष्ट से शरीर निर्जीव सा हो रहा था। इंस्पेक्टर के पूछने पर सरजू ने बताया कि-‘‘मेरी मॉं बीमार है और अस्पताल में भर्ती है, यदि उन्हें दवाई और इंजेक्शन समय पर नहीं मिला तो वह मर जाएगी और मैं अनाथ हो जाऊँगा, मेरे पास दवाई के पैसे नहीं थे, इसलिए दवाई का पैकेट लेकर भाग रहा था और पकड़ा गया।’’ ‘‘तुम्हारी मॉं का नाम क्या है और किस अस्पताल में भर्ती है? अगर तुमने झूठ बोलने की कोशिश की तो छ: माह के लिए अंदर कर दूँगा।’’ ‘‘मैं झूठ नहीं बोलूँगा साहब! मेरी मॉं का नाम पार्वती है और जिला चिकित्सालय में भर्ती है। 

इंस्पेक्टर साहब सोचने लगे- ‘‘यह लड़का चोर होता तो गल्ला का पैसा लेकर भागता या पाकेट मारता, जरूर कोई मजबूरी है।’’ इतना सोचते ही सरजू पर दया आ गई, उसे अपना बचपन याद आ गया। कितने कष्ट सहे थे उसने, यदि स्वामी विवेकानंद आश्रम का सहारा नहीं मिलता तो आज वह भी चोर उच्चका होता, बचपन से ही वह अनाथ था। उसकी पढ़ाई-लिखाई आश्रम में शुरू हुआ था और वह आज सम्मानजनक पद पर है। सरजू का चेहरा देखकर ही समझ गया था कि वह भूखा है। सिपाही को पास के हॉटल से भोजन लाने के लिए कहता है और बड़े प्रेम से सरजू को भोजन खिलाया, जिस प्रकार से चट्टान को भेदकर पानी का स्त्रोत निकलता है, उसी प्रकार अजीत सिंह के हृदय से दया उमड़ पड़ी। सरजू को अपने साथ मोटरसायकल में बिठाकर अस्पताल लाया। टी.बी.वार्ड में अपनीं मॉं को देखकर सरजू सन्न रह गया। उसकी मॉं भगवान को प्यारी हो गई थी। एक मॉं ही थी, लेकिन वह भी सरजू को अकेला छोड़कर चली गई, वह अपनी मॉं के चरणों में माथा टेककर रोने लगा- ‘‘मॉं..! मैं, किसके सहारे इस निर्दयी दुनियॉं में रहूँगा। मैं, क्यों जिंदा हूँ? मॉं..! मुझे अपने पास बुला लो, इस संसार में मेरा कोई नहीं है’’ कहकर सरजू विलाप करने लगा इंस्पेक्टर ने उसे सॉंत्वना दी-‘‘जिसका कोई नहीं होता, उसका ईश्‍वर ही रखवाला होता है’’ कहते हुए उनका स्वर पीड़ा से भर गया। आज का दिन सरजू के लिए अंधकार लेकर आया था। उसके चारों ओर निराशा का अंधेरा छाया हुआ था। श्मशानघाट से आते हुए सरजू बहुत उदास था। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। रात्रि का अंधकार धीरे-धीरे गहरा होने लगा, बाहर का सन्नाटा सरजू के दिल-दिमाग में समाता चला गया। एकांकी जीवन की वेदना सरजू के चेहरे से परिलक्षित होने लगा, वह पागलों की तरह चिल्लाता, कभी अपने आप से बातें करने लगता। 

सरजू की हालत देख इंस्पेक्टर अजीत सिंह उसे अपने साथ घर ले आया। इंस्पेक्टर साहब अपने क्वॉटर में अकेला रहता था। उनकी शादी अभी नहीं हुई थी, थाने का चौकीदार इसके लिए खाना बना देता था। ‘‘देखो तुम अभी मेरे साथ ही रहोगे, फिर आगे देखेंगे कि क्या करना है’’ कहकर इंस्पेक्टर साहब थाना चले गये। शाम को इंस्पेक्टर साहब घर आये, तब देखा कि सरजू शून्य में एकटक न जाने क्या देख रहा था और अपने आप बुदबुदा रहा था। इंस्पेक्टर साहब उसे अपने साथ बरामदे में ले गया। लोटा थमाते बोला जाओ- ‘‘मुँह-हाथ धो लो! भोजन करेंगे।’’ चौकीदार ने दोनों को भोजन परोस दिया, सरजू से कुछ न खाया गया। उसे मॉं की याद आने लगी, किसी तरह दो-चार कौर खाकर मुँह-हाथ धोने उठ गया। दूसरे दिन इंस्पेक्टर साहब ने स्वामी विवेकानंद आश्रम में फोन किया बोला- ‘‘मैं एक लड़के को लेकर आ रहा हूँ, उसे वहीं आश्रम के विद्यालय में पढ़ाना है, वहीं आश्रम में रहेगा।’’ सरजू को इंस्पेक्टर साहब ने आश्रम में भर्ती करा दिया। सप्ताह में बीच-बीच में देखने आ जाता। सरजू अपने मॉं को नहीं भूल सका था, वह अब भी उदास दिखाई देता था। इंस्पेक्टर साहब उसे बहुत समझाते उसकी आवश्यकताओं का ख्याल रखते। दिन बितने लगा, अप्रैल में सरजू का वार्षिक परीक्षा परिणाम घोषित हुआ, सरजू अपने कक्षा के सभी सेक्सन में टॉप किया था। इंस्पेक्टर साहब कुछ आश्‍वस्त हुये, सरजू का रहन-सहन पहनावा सब कुछ बदल गया था। अब उसे देखकर कोई भी नहीं कह सकता था, कि वह अनाथ बालक है, इंस्पेक्टर साहब सरजू के लिए सब कुछ था। उसे वह भगवान से भी बढ़कर मानता था। उसके एक इशारे में सब कुछ करने को तैयार रहता। आई.पी.एस. का आज परिणाम आया। सरजू प्रसाद का फोटो पेपर में छपा है, टॉपटेन में सरजू प्रसाद का नाम मोटे-मोटे अक्षरों में छपा है।इंस्पेक्टर अजीत सिंह आज बहुत खुश है, अपना कर्तव्य उसने बखूबी निभाया है। उसने एक अनाथ बालक को पुलिस कप्तान बना दिया। उसके दिल पर रखा बोझ आज उतर गया। उसने अपना कर्ज आज चुकता कर दिया था। सरजू प्रसाद की उपलब्धि पर आज कई लोग इंस्पेक्टर के घर बधाई देने आये। ‘‘दादा! आज मॉं की समाधि पर माथा टेकने जायेंगे’’ सरजू प्रसाद ने इंस्पेक्टर अजीत सिंह से कहा। आज नदी किनारे सरजू प्रसाद के साथ अजीत सिंह उसकी मॉं की समाधि पर फूल चक्र अर्पित कर रहे थे। वे बहुत खुश थे| सरजू अपनी मॉं की समाधि पर आँसू बहा रहा था। मॉं की यादें उसकी धरोहर थी, उनके चेहरे में वेदना की घनी छाया नज़र आ रही थी। मॉं..! आज तुम नहीं हो, लेकिन तुम्हारा आशीर्वाद मेरे साथ है मुझे आशीर्वाद नहीं दोगी ? मॉं।’’ 

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

कुलक्षणी


राधा को खाना-पीना अच्छा नहीं लगता। सिर में दर्द की शिकायत रहती, दिन में एकाध बार उल्टी हो जाती राधा परेशान थी। सास कहती- ‘‘क्यों बेटी! तुम्हारी तबियत कैसी है? ठीक तो हूँ मॉं जी! आज कल मैं देख रही हूँ, तू ठीक से खाती-पीती नहीं, कितनी दुबली हो गई है।’’ सास दुलार से बहू की ओर देखकर कहती। रसोई घर में इमली खाती पकड़ी गई, सास को देखकर हाथ पीछे करती हुई राधा झेंप गयी। ‘‘क्यों बहू! तू इमली खा रही है! देख तेरा आज से काम करना बंद रौताईन सारा काम करेगी, तू चुपचाप बैठी रहना’’ सास हँसते हुए कहती। नहीं मॉं जी! मैं इतनी कमजोर तो नहीं हूँ। क्यों रे रामू! तू बहू को दिन भर इधर-उधर दौड़ाता है। कभी पानी दे, कभी दतौन ला, कभी कमीज के बटन टॉंक आज से बहू काम नहीं करेगी, अपना काम तू खुद करना। छोटे-मोटे काम करने से इसके हाथ थोड़े ही घिस जाऐंगे मॉं! रामू कहता। तू नहीं जानता रे! जा अपना कामकर, रामू बड़बड़ करते खेत चला गया।

राधा दर्द से चीख पड़ती रह-रहकर टीस उठती घर भर परेशान। मॉं...! राधा का खयाल रखना कहते हुए रामू डॉक्टर बुलाने पास के कस्बे में दौड़ा। वहॉं प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। डॉक्टर की मोटर सायकल गली में आकर रूक गई। रामू डॉक्टर का बैग पकड़े आगे-आगे घर में प्रवेश किया, रामू के पिताजी बैठक के चक्कर काट रहे थे। उन्हें कुछ आशा बंधी। इंजेक्शन लगाते हुए डॉक्टर बोले- ‘‘डरने की कोई बात नहीं है, दस-पंद्रह मिनट में डिलिवरी हो जाएगी।’’ राधा को होश आने लगा अपने बगल में उसे नरम-गरम वस्तु का आभास हुआ। धीरे-धीरे आँखें खोलती हुई उसे शांति महसूस हुई। मॉं की ममता छलकने लगी, किन्तु सारी खुशी क्षण भर में जाती रही जब उसे यह पता चला कि इस बार भी लड़की हुई है। उसे पति के शब्द बार-बार याद आने लगी। ‘‘तुम फिकर मत करो राधा..! इस बार जरूर लड़का होगा|’’ रामू को बेटा खेलाने का शौक था, लेकिन भगवान की मर्जी के सामने इंसान क्या कर सकता है। राधा प्रार्थना करती ‘‘कम से कम एक पुत्र मुझे दे देते भगवान तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता, तुम्हारे यहॉं कुछ कमी तो नहीं हो जाती।’’ लगातार तीन लड़कियों को जन्म देते-देते राधा आधा हो गई। शरीर में थोड़ी भी जान नहीं बची।

आज से छह वर्ष पूर्व रामू की शादी हुई थी। राधा छम-छम करते ससुराल आयी, तो पास-पड़ोस में उसके सुंदरता की चर्चा होने लगी। रूपवती, गुणवती बहू पाकर सास अपने भाग्य को सराहने लगी। गृहकार्य में निपुण राधा मधुर स्वभाव की थी। सास कहती- ‘‘राधा बेटी! जरा गरम पानी तो देना। ससुर कहते- ‘‘बहू! जरा चाय तो बनाना मेहमान आये हैं। सभी बहू की प्रशंसा करते, रामू फूला नहीं समाता।समय पंख लगाकर उड़ने लगा। दिन भर काम करते राधा को पता ही नहीं चलता कि कब सुबह से शाम हो जाती। निम्न मध्यम वर्ग परिवार के नाम से सास-ससुर, पति और स्वयं राधा। घर में दस एकड़ जमीन गुजारा आराम से चल जाता। गॉंव से दो मील की दूरी पर बाजार लगता गॉंव के लोग बुधवार को सप्ताह भर का सामान खरीद लाते। रामू कहता- ‘‘तुम्हारे लिए रसगुल्ला लाऊँगा।’’ राधा के गाल शर्म से लाल हो जाते होंठ फड़कने लगते वह आँचल में मुँह छुपाकर भाग जाती। रामू सायकल लेकर बाजार जाता गली की मोड़ पर घंटी बजाता, राधा दरवाजे से अपने पति को देखती रहती जब तक रामू निगाह से ओझल नहीं हो जाता। बीते दिनोंकी याद आते ही राधा कहीं खो जाती।

गॉंव का चैतू रामू का दोस्त बधाई देते हुए कहता- ‘‘अब तो मुँह मीठा करा यार कितनी सुंदर बच्ची है। तू तो बड़ा भाग्यशाली है यार! साक्षात लक्ष्मी ने तेरे घर जन्म लिया है। अरे! क्या बात है तू बोलता क्यों नहीं यार! क्या तुझे कोई खुशी नहीं है? अरे! दिल क्यों छोटा करता है। मुझे देख शादी हुए दस वर्ष बीत गये, लेकिन तुम्हारी भाभी ने आज तक एक चुहिया तक नहीं जनी। गॉंव के प्रमुख ब्यक्ति चाय-नाश्ता करते रामू को बधाई देते और चले जाते, घर में कोई खुश नहीं रामू अपने सीने पर बोझ महसूस करता मॉं-बाप बूढ़े हैं। पके आम के सामान न जाने कब चू पड़े? पोता देखने के लिए आँखें तरसती रही, सास बात-बात पर ताना देती बहू तो करमजली है। क्या करूँ मॉं जी! मेरे हाथ की बात तो नहीं है राधा रूआँसी हो कहती। घर में नित्य कलह होने लगा। ससुर बहू का पक्ष लेकर पत्नी को डॉंटते- ‘‘इस में इस बेचारी का क्या कसूर है?’’ समय कभी रूकता नहीं दुख बिन बुलाये मेहमान की तरह आता है। बहू को पुत्रीव्रत प्रेम करनेवाला ससुर बेटे-बहू और पत्नी को बिलखते छोड़कर इस संसार से विदा हो गये| पति वियोग में रामू की मॉं दिल की मरीज हो गई। राधा सुबह रामू को चाय देते हुए बोली-‘‘मॉं जी..! अभी तक सो रही है, मैं दो बार दरवाजे से वापस आई हूँ।’’ रामू मॉं को जगाते हुए उठने को कहता है इसके पूर्व मॉं को देख अचानक रामू का दिल बैठता हुआ महसूस हुआ, नाड़ी गायब थी, मुँह खुला का खुला रह गया था। एक सप्ताह के अंदर रामू के माता-पिता उसे छोड़कर स्वर्ग चले गये। रामू के ऊपर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। वह संसार में अपने को अकेला महसूस करने लगा। 

समय का चक्र घूमता रहा आषाढ़ का महीना आया आकाश में काले-काले मेघ छाते, लेकिन पता नहीं पानी कहॉं चला जाता, बरसने का नाम ही नहीं लेता किसानोंको निराशा होने लगी, आँखें आकाश की ओर उठाये राधा कहती- ‘‘सुनते हो जी! आज चॉंवल खत्म हो गया है। दुकानदार आगे देने से इनकार करते हैं। पहले का कर्ज चुकाओ तब देंगे।’’ बच्चे रोटी के लिए रोते घर में तीन दिन से चूल्हा नहीं जला, छोटी बच्ची दूध के लिए मचलती, भूखे मॉं के तन में दूध कहॉं से आता। राधा रामू को अपने जेवर उतारकर कहती- ‘‘इसे बेचकर आओ! कम से कम कुछ दिन के लिए भोजन का प्रबंध हो जाएगा।’’ रामू दुखी स्वर में लेने से इनकार करते हुए कहता है- ‘‘नहीं राधा! नहीं, मुझसे यह नहीं होगा, मैं बैलों की जोड़ी बेचकर चॉंवल सब्जी आटा लाऊँगा।’’ इस वर्ष इन्द्र महाराज हम पर कुपित हैं इसलिए एक बूंद पानी नहीं बरसा, फिर आगे सोचेंगे बाजार में पॉंच हजार जोड़ी की बैल को पॉंच सौ में भी लेने को कोई तैयार नहीं हुआ, लाचार रामू गहना गिरवी रखकर खाने पीने का सामान लाया।

चलो राधा! अब शहर चलें... इस गॉंव में क्या रखा है? लोग गॉंव छोड़कर शहर की ओर भाग रहे हैं| गॉंव श्मशान हो रहा है इस अकाल ने अच्छे-अच्छे की कमर तोड़कर रख दी है, राधा दुखी मन से घर में ताला लगाकर चाबी रामू को थमा दी और गाड़ी में बैठ गयी। तीनों बच्चियॉं सहमी मॉं के पास बैठ गयी। स्वामी भक्त कुत्ता मोती गाड़ी के आगे कभी पीछे दौड़ लगाता। राधा को खयाल आया जब डोली से इस घर में पैर रखी थी तब सभी लोग कितने खुश थे। उसने लंबी सॉंस खिंची और आँखें गीली हो गई। चलते-चलते दोपहर हो गई। पास में कुआँ देख रामू ने गाड़ी रोक दी बच्चियॉं प्यासी थी। घर से लाये रोटी सबने गुड़ के साथ खाये और पानी पीये।मोती अपने मालिक के पास पुंछ हिलाते हुए बैठा था। रामू ने स्नेह से थपथपाया चलो मोती अब चलो, राधा मन में विचार कर रही थी दुर्दिन में कोई साथ नहीं देता। अपने सभी पराये हो जाते हैं। गाड़ी शहर के बाहर नदी किनारे रूक गई| रामू गाड़ी से उतरकर झोपड़ी के पास बैठे एक वृद्ध ब्यक्ति से बोला- ‘‘बाबा आप लोग कहॉं से आये हैं? उस ब्यक्ति का नाम मुरली था। उम्र पचास वर्ष के लगभग रही होगी।उदास स्वर में उत्तर दिया यहॉं से २०मील की दूरी पर बिसनपुर नाम का गॉंव है वहीं का रहनेवाला हूँ। इस अकाल में यहॉं चले आये हैं। घर में अच्छी खेती है, लेकिन आज यहॉं हम मजदूरी कर जीवन व्यतीतकर रहें हैं। करीब बीस झोपड़ी थे। रामू शहर से बांस बल्ली लाकर झोपड़ी तैयार कर लिया वह मेहनती किसान था। एक सेठ के यहॉं बोझा ढोने का कार्य मिल गया। इस तरह अपने परिवार का भरण पोषण करने लगा। 

मुरली की पत्नी लक्ष्मी और राधा में बहनापा हो गया। लक्ष्मी राधा से अपने बच्चों का रोना रोते हुई कहती-‘‘क्या बताऊँ बहन मेरे पॉंच बच्चे हैं, दो अभी छोटे हैं, बाकी तीनों निकम्मे हैं। हमारा हाथ बँटाना तो दूर हम पर बोझ बने हैं। बड़ा लड़का गोपाल हमेशा बीमार रहता है। आधी कमाई उसकी दवाई में खर्च हो जाती है| उससे छोटा कमल अवारा है, हमारी सुनता ही नहीं बल्कि उल्टे धौंस देता है, उससे छोटी मुनिया ब्याह लायक हो गई है। हमारे बिरादरी का कोई लड़का हो तो बताना, राधा को लक्ष्मी का दुख अपने दुख से ज्यादा लगा उसे लक्ष्मी से सहानुभूति हो गई। रात रोने-धोने की आवाज से रामू और राधा की नींद खुल गई आँख मलते हुए रामू मुरली के झोपड़ी के पास गया। लक्ष्मी रोते हुए अपनी छाती पीट रही थी। ‘‘हाय इसी दिन के कुलक्षणी को बड़ा किया था। पता होता तो गला घोंटकर मार डालती।’’ पता चला मुनिया किसी के साथ भाग गई है। आये दिन शहरी छोकरे चक्कर काटते थे। कल ३:३० वाली सिनेमा देखने गई थी, तो अभी तक घर नहीं पहुँची|।अंतिम बार उसे किसी लड़के साथ देखा गया था। कमल पिछले सप्ताह झगड़े में एक आदमी को चाकू मार दिया था, उसे पुलिस पकड़कर ले गई कोई जमानत लेने वाला नहीं मिला। दुख की अधिकता के कारण मुरली को दिल का दौरा पड़ा, लक्ष्मी अकेली बेचारी बच्चों को संभालती कि मुरली को। रामू राधा को लक्ष्मी की देखभाल के लिए छोड़कर मुरली को जिला अस्पताल में भरती करा दिया। धीरे-धीरे मुरली की हालत सुधरती गई मुरली ठीक होकर घर आ गया। 

एक दिन बस्ती में मुनिया अपने मॉं-बाप के झोपड़ी के बाहर रो रही थी, उसके कपड़े मैले-कुचैले और फटे हुए थे, जिस लड़के के साथ भागी थी उसने उसको मारपीटकर घर से निकाल दिया है, अत: वह वापस अपने बाप के घर आ गई है और अपने किये पर पछता रही है। अकाल के कारण न जाने कितने लड़कियॉं घर से भाग गई और अपने भाग्य पर रो रही है, कितने घर बर्बाद हो गये हैं। रामू सोचने लगा लोग पेट भरने के लिए अपनी इज्जत बेच रहे हैं। जमीन जायजाद बेच रहे हैं, ताकि पापी पेट को दो जून खाना मिल सके अकाल जो कराये थोड़ा है। बस्ती के लोग दिन भर काम करने शहर चले जाते, बस्ती में छोटे बच्चे और बूढ़े ब्यक्ति दिन को दिखाई पड़ते। पूरा बस्ती सूना है। मुनिया का पति शराब के नशे में मुनिया को अपने साथ चलने को कहता है| ‘‘घर में कोई नहीं है, मैं ऐसे कैसी जा सकती हूँ? बापू के आते तक रूक जाओ फिर तुमने तो मुझे घर से निकाल दिया है मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती।’’ ‘‘साली नखरे करती है मेरे साथ जाने से मना करती है, सतिसावित्री बनती है यहॉं धंधा करती है। बुला अपने यार को’’ कहकर मुनिया की चोटी पकड़कर मारने लगा, मुनिया प्राण बचाने इधर-उधर भागने लगी रास्ते में पड़े पत्थर को देख मुनिया रूक गयी। रूक जाओ नहीं तो मार डालूँगी कहकर अपने पति को डराने लगी। तब तक उसका पति नजदीक आ गया| उसने मुनिया का गला पकड़ लिया, खींचतान में उसका हाथ गले पर कसता चला गया। मुनिया की आँखें फटी की फटी रह गयी। जीभ बाहर निकल आया, मुनिया का प्राणान्त हो गया। मुनिया की मॉं अपनी बेटी को कुलक्षणी कहती थी, वही उसके शरीर से लिपटकर रोने लगी। आज मुनिया सदा के लिए संसार से विदा हो गई थी।


विश्राम सिंह चंद्राकर
अध्यक्ष, सरस साहित्य समिति गुण्डरदेही

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आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!