‘लोकतंत्र उत्थान पर्व’ प्रतियोगिता / कैसी हो आगामी सरकार?क्या ‘आगामी सरकार’इन दस सवालों के जवाब ‘हाँ’ में देने का दम भर सकती है?
सोलहवीं लोकसभा के परिणाम 16 मई को घोषित हो जाएंगे और जून में नई सरकार सत्तारूढ़ हो जायेगी। हर बार की तरह इस बार भी प्रत्येक मतदाता नई उम्मीदों और नए उत्साह के साथ मतदान करेगा। लेकिन, यह दूसरी बात है कि हर बार की तरह उसके मन में कहीं न कहीं इस बार भी नई सरकार के प्रति आशंकाएं जोर मार रही हैं। उसे सहज यकीन नहीं है कि आगामी सरकार भी उनकीं उम्मीदों और अपेक्षाओं पर शत-प्रतिशत खरी उतरेगी। एक आम मतदाता के सपनों की सरकार बनना लगभग असंभव ही है। क्यों? क्योंकि यदि इन दस सवालों के जवाब ‘हाँ’ में होंगे तो ही ‘आगामी सरकार’ जनता की आकांक्षाओं और उम्मीदों के अनुरूप होगी।
पहला सवाल : क्या गरीबी के अभिशाप से मिलेगी मुक्ति?
देश में गरीबी चरम को पार कर चुकी है। हर बार जनता यह सोचकर वोट देती है कि कम से कम इस बार की सरकार तो गरीबी से मुक्ति दिलाएगी। लेकिन, आजादी के बाद से ‘गरीबी हटाने’ के चुनावी नारों पर विश्वास करने वाली जनता को छलावे के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ है।
सरकार द्वारा एन.सी.सक्सेना की अध्यक्षता में गठित एक विशेषज्ञ समूह ने 2400 कैलोरी के पुराने मापदण्ड के आधार पर बताया था कि देश में बीपीएल की आबादी 80 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। विश्व बैंक के अनुसार भारत में वर्ष 2005 में 41.6 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे। एशियाई विकास बैंक के अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। वैश्विक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार भारत में अतिरिक्त अनाज होने के बावजूद 25 प्रतिशत लोग अब भी भूखे हैं। अंतर्राष्ट्रीय अन्न नीति अनुसंधान संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार भारत 79 देशों में भूख और कुपोषण के मामले में 65वें स्थान पर है। इसके साथ ही भारत में 43 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जिसे देखते हुए भारत का रैंक नाईजर, नेपाल, इथोपिया और बांग्लादेश से भी नीचे है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 70 प्रतिशत भारतीय महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं और देशभर के पिछड़े इलाकों व झुग्गी-झांेपड़ियों में रहने वाली लगभग 60 प्रतिशत महिलाएं तथा लड़कियां गंभीर रूप से खून की कमी का शिकार हैं। युनीसेफ द्वारा तैयार रिपोर्ट के अनुसार कुपोषण की वजह से वैश्विक स्तर पर 5 वर्ष तक के 48 प्रतिशत भारतीय बच्चे बड़े पैमाने पर ठिगनेपन का शिकार हुए हैं। इसका मतलब दुनिया में कुपोषण की वजह से ठिगना रहने वाला हर दूसरा बच्चा भारतीय है। वैश्विक खाद्य सुरक्षा सूचकांक (जीएफएसटी) के मुताबिक भारत में 22 करोड़ 46 लाख लोग कुपोषण का शिकार हैं। भारत की 68.5 प्रतिशत आबादी वैश्विक गरीबी रेखा के नीचे रहती है। भारत में करीब 20 प्रतिशत लोगों को अपने भोजन से रोजाना औसत न्यूनतम आवश्यकता से कम कैलोरी मिलती है। इस रिपोर्ट में भारतको 105 देशों की सूची में 66वें पायदान पर रखा गया है। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक आयोग की रिपोर्ट कहती है कि खाद्यान्न की मंहगाई की वजह से भारत में वर्ष 2010-11 के दौरान 80 लाख लोग गरीबी की रेखा से बाहर नहीं निकल पाये। ऐसे में आम जनता एक ऐसी नई सरकार की आशा रखती है, जो इन गरीबी के आंकड़ों को वास्तव में अर्श से फर्श पर ले आए और गरीबी के अभिशाप से मुक्ति दिलाए। क्या आगामी सरकार इस अपेक्षा पर खरा उतर पायेगी?
दूसरा सवाल : क्या बेकाबू मंहगाई पर होगा काबू?
देश में मंहगाई का ग्राफ आसमान को छू रहा है। पेट्रोल, डीजल, गैस आदि से लेकर सब्जी, दाल, खाद्यान्न तक की कीमतें बेलगाम तरीके से दिनोंदिन बढ़ती ही चली जा रही हैं। सरकार मंहगाई को काबू करने की बजाय उल-जुलूल बयानबाजी करने से बाज नहीं आई। मंहगाई के कारण आम आदमी का जीना ही दुर्भर हो गया है। आंकड़ों के हिसाब से भी मंहगाई का ग्राफ नीचे नहीं आ पा रहा है। देश में गरीबी और भूखमरी का साम्राज्य निरन्तर बढ़ता चला जा रहा है। अक्तूबर, 2012 में अमरीका स्थित अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति और शोध संस्थान एवं कन्सर्न वर्ल्डवाइड ने 79 देशों को लेकर विश्व भूखमरी सूचकांक तैयार किया, जिसमें भारत को 65वें स्थान पर रखा गया। विडम्बना का विषय रहा कि इस सूची में भारत का स्थान उसके पड़ौसी देशों चीन, श्रीलंका और पाकिस्तान आदि से भी पीछे रहा। इसके अलावा, पटनायक उत्सा (2003) एगरेरियन क्राइसिस एण्ड डस्ट्रेस इन रूरल इंडिया माइक्रोस्कैन के मुताबिक भारत में वर्ष 1983 में देश के ग्रामीण अंचलों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसत कैलोरी उपभोग 2309 किलो कैलोरी था, जोकि साल 1998 में घटकर 2010 किलो कैलोरी हो गया। इतना ही नहीं, सालाना प्रति व्यक्ति खाद्यान्न वर्ष 1887-1902 में 199 किलोग्राम उपलब्ध था, जोकि साल 2002-03 में घटकर 141.50 किलोग्राम रह गया।
देश में भ्रष्टाचार, मंहगाई, बेरोजगारी, भूखमरी आदि के कारण कुपोषण की समस्या भी बेहद विकट बन चुकी है। भूख और कुपोषण सर्वेक्षण रिपोर्ट (हंगामा-2011) को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जारी करते हुए स्पष्टतः स्वीकार किया कि देश में कुपोषण और भूखमरी की स्थिति ‘राष्ट्रीय शर्म’ का विषय है। ‘सिटीजन्स अलायंस अंगेस्ट मालन्यूट्रीशन’ के अनुरोध पर ‘नंदी फांऊडेशन’ द्वारा करवाए गए सर्वेक्षण के अनुसार देश के 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और उनका वजन सामान्य से भी कम है। विश्व स्तरीय रिपोर्टों के अनुसार विश्व में कुल 14 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जिनमें 5 करोड़ 70 लाख बच्चे भारत के हैं। ऐसे में विश्व का हर तीसरा कुपोषित बच्चा भारत का है। देश में मातृ-मृत्यु दर के आंकड़े भी बड़े चौंकाने वाले हैं। यूनिसेफ के अनुसार लगभग एक लाख महिलाएं प्रतिवर्ष प्रसव के दौरान दम तोड़ जाती हैं और लगभग 90 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी का शिकार होती हैं।
तीसरा सवाल : क्या भ्रष्टाचार के ‘नासूर’ का होगा नाश?
भ्रष्टाचार देश के लिए ‘नासूर’ बन चुका है। कदम-कदम पर भ्रष्टाचार, बेईमानी और लूट बड़ी सहजता के साथ देखी जा सकती है। राजनीतिक भ्रष्टाचार ने तो देश को खोखला करके रख दिया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत भ्रष्टाचार और काले धन के मामले में काफी बदनाम हो चुका है। दुनिया भर में भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाली संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटर नैशनल द्वारा दिसम्बर, 2012 मंे जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत भ्रष्टाचार के मामले में दुनिया के 183 देशों की सूची में 94वें स्थान पर है और अपने पड़ौसी देशों श्रीलंका, चीन, भूटान आदि से भी भ्रष्ट है। वांशिगटन स्थित शोध और एडवोकेसी संगठन ‘ग्लोबल फाईनेंशियल इंटेग्रिटी’ (जीएफआई) द्वारा जारी ‘विकासशील देशों का अवैध वित्तीय प्रवाह रिपोर्ट 2001-2010’ के अनुसार भारत से एक दशक के दौरान कुल 123 बिलियन डॉलर पैसा काले धन के रूप में बाहर निकला। एक दशक में सबसे ज्यादा कालाधन बाहर जाने वाले देशों की सूची में भारत का आठवां स्थान बनता है। गतवर्ष जुलाई, 2012 में पीटीआई ने भारतीय वाणिज्य उद्योग परिसंघ (फिक्की) के हवाले से यह समाचार देकर काले धन की असली तस्वीर दिखा दी थी कि भारत का 45 लाख करोड़ रूपये कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है, जोकि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का करीब 50 फीसदी हिस्सा है और भारतीय वित्तीय घाटे का लगभग नौ गुना है। केवल इतना ही नहीं, नैशनल इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक फाईनेंस एण्ड पॉलिसी (एनआईपीएफपी), नैशनल इंस्टीच्यूट ऑफ फाईनेंशियल मैनेजमैंट (एनआईएफएम) और नैशनल काऊंसिल ऑफ अप्लायड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) जैसी तीन बड़े शोध समूहों ने भी यह निष्कर्ष निकाला कि काले धन की मात्रा देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के करीब 30 प्रतिशत से अधिक यानी 28 लाख करोड़ रूपये के आसपास हो सकती है। क्या नई सरकार देश से भ्रष्टाचार के ‘नासूर’ का नाश कर पायेगी?
चौथा सवाल : क्या बेरोजगारी-बेकारी का होगा सफाया?
गरीबी के दंश की मार को महसूस करने के लिए बेरोजगारी और बेकारी के आंकड़ों को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। कहना न होगा कि बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार के कारण देश में बेरोजगारी व बेकारी का ग्राफ बड़ी तेजी से बढ़ा है। आवश्यकतानुसार न तो रोजगारों का सृजन हुआ और न ही रोजगार के स्तर को स्थिर बनाये रखने में कामयाब रह सके। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के ताजा आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2009-10 में सामान्य स्थिति आधार पर बेरोजगार एवं अर्द्धबेरोजगार लोगों की संख्या क्रमशः 95 लाख और लगभग 6 करोड़ थी। इस कार्यालय के अनुसार जून, 2010 से जून, 2012 के बीच बेरोजगारी में बेहद वृद्धि हुई है। इन दो सालों में देश में पूर्ण बेरोजगारों की संख्या 1.08 करोड़ थी, जबकि दो साल पहले यह आंकड़ा 98 लाख था। दूसरी तरफ, योजना आयोग के आंकड़े बताते हैं कि देश में कुल 3.60 करोड़ पूर्ण बेरोजगार हैं। इसके अलावा, यदि अन्य संस्थाओं और संगठनों के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह पूर्ण बेरोजगारों की संख्या 5 करोड़ के पार पहुंच जाती है। एसोचैम सर्वेक्षण कहता है कि देशभर में पिछले साल की तुलना में 14.1 प्रतिशत नौकरियां कम हो गई हैं। क्या नई सरकार बेरोजगारी और बेकारी का सफाया कर सकेगी?
पाँचवां सवाल : क्या मूलभूत सुविधाओं से युक्त होगा देश?
गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी और बेकारी के कारण स्वतंत्रता के साढ़े छह दशक बाद भी बड़ी संख्या में लोग रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों से वंचित हैं। आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय का अनुमान है कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार वर्ष 2012 में करीब 1.87 करोड़ घरों की कमी है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी एक संबोधन के दौरान गरीबों की दयनीय हालत को आंकड़ों की जुबानी बता चुके हैं कि देश की करीब 25 प्रतिशत शहरी आबादी मलिन और अवैध बस्तियों में रहती है। पेयजल एवं स्वच्छता राज्यमंत्री संसद में लिखित रूप मंे यह स्वीकार कर चुके हैं कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 16.78 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से 5.15 करोड़ परिवारों के पास ही शौचालय की सुविधा है और शेष 11.29 प्रतिशत परिवार आज भी शौचालय न होने की वजह से खुले में शौच जाने को विवश हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन कम से कम 120 लीटर पानी मिलना चाहिए। लेकिन, देश की राजधानी दिल्ली में ही 80 प्रतिशत लोगों को औसतन सिर्फ 20 लीटर पानी ही बड़ी मुश्किल से नसीब हो पाता है। क्या नई सरकार देश को मूलभूत सुविधाओं से पूर्णतः सुसज्जित कर पायेगी?
छठा सवाल : क्या अनाज की बर्बादी रूकेगी?
विगत तीन वर्षों 2009-12 के दौरान देश का 16 लाख 38 हजार 601 टन खाद्यान्न बर्बाद हुआ। वर्ष 2009-10 में 6, 702 टन, वर्ष 2010-11 में 6,346 टन और वर्ष 2011-12 में 3,338.01 टन अनाज खराब हुआ, जिसे जारी करने योग्य नहीं पाया गया। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई), नई दिल्ली द्वारा मुहैया कराई गई जानकारी के मुताबिक वर्ष 1997 से अक्तूबर, 2007 तक की दस वर्षीय अवधि के बीच एफसीआई के गोदामों में 10 लाख, 37 हजार 738 मीट्रिक टन अनाज सड़ा। इससे भी बड़ी अजीब बात यह रही कि इस दौरान अनाज के सुरक्षित भण्डारण के लिए 243 करोड़, 21 लाख 59 हजार, 726 रूपये भी खर्च किए गए। तब और भी कमाल हो गया जब यह तथ्य सामने आया कि इस दस वर्षीय अवधि में सड़े इस अनाज को ठिकाने लगाने के लिए 2 करोड़, 61 लाख, 40 हजार, 490 रूपये अलग से खर्च करने पड़े। क्या नई सरकार अनाज की इस बर्बादी को पूरी तरह रोकने में कामयाब होगी?
सातवां सवाल : क्या अन्नदाता को कर्ज से मुक्ति मिलेगी?
बेहद विडम्बना का विषय है कि अनाज की बर्बादी का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है नेशनल क्राइम रिकार्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रतिदिन 46 किसान आत्महत्या करते हैं। यदि पिछले कुछ सालों की रिपोर्टों के मूल नतीजों पर गौर फरमाएं तो आदमी सन्न रह जाता है। रिपोर्टों के अनुसार वर्ष 1997 में 13,622, वर्ष 1998 में 16,015, वर्ष 1999 में 16,082, वर्ष 2000 में 16,603, वर्ष 2001 में 16,415, वर्ष 2002 में 17,971, वर्ष 2003 में 17,164, वर्ष 2004 में 18241, वर्ष 2005 में 17,131, वर्ष 2006 में 17,060, वर्ष 2007 में 17,107 और वर्ष 2008 में 16,632 किसानों को कर्ज, मंहगाई, बेबशी और सरकार की घोर उपेक्षाओं के चलते आत्महत्या करने को विवश होना पड़ा। इस तरह से वर्ष 1997 से वर्ष 2006 के दस वर्षीय अवधि में कुल 1,66,304 किसानों ने अपने प्राणों की बलि दी और 1995 से वर्ष 2006 की बारह वर्षीय अवधि के दौरान कुल 1,90,753 किसानों ने अपनी समस्त समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या का सहारा लेना पड़ा। देश में महाराष्ट्र राज्य के किसानों ने सर्वाधिक आत्महत्याएं की, उसके बाद कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गुजरात, राजस्थान, उड़ीसा, पंजाब, आसाम, हरियाणा, पांडिचेरी, बिहार, झारखण्ड, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश, जम्मु-कश्मीर आदि का स्थान आता है।
‘हरित-क्रान्ति’ के मुख्य केन्द्र रहने वाले पंजाब व हरियाणा जैसे समृद्ध प्रदेषों के किसानों की आत्महत्याओं के तेजी से बढ़ते ग्राफ से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में किसानों की स्थिति कितनी गंभीर है। पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पिछले आठ सालों में साहूकारों, आढ़तियों एवं कमीशनखोरों के कर्ज की दलदल में फंसकर तीन हजार से अधिक किसानों को मौत को गले लगाने को विवश होना पड़ा। एक सामान्य अनुमान के अनुसार इस समय पंजाब के 90 फीसदी किसान कर्ज के नीचे सिसक रहे हैं और उन पर 35000 करोड़ रूपये से अधिक कर्ज का बोझ चढ़ा हुआ है। इसी तरह हरियाणा के किसानों का भी बुरा हाल है। इससे बढ़कर देश के लिए और शर्मनाक बात क्या होगी कि अगस्त, 2010 में झारखण्ड राज्य के पलामू जिले से जराड़ गाँव के निरन्तर जीवन की जंग हार रहे 2000 किसानों ने अंततः राष्ट्रपति को पत्र लिखकर ‘इच्छा-मृत्यु’ अर्थात् ‘आत्महत्या’ की आज्ञा मांगने को विवश होना पड़ा। क्या नई सरकार किसानों के कर्ज को मुक्त कर सकती है और क्या उन्हें आत्महत्या के अभिशाप से मुक्ति दिला सकती है?
आठवां सवाल : क्या नारी को मिलेगी पूर्ण सुरक्षा और सम्मान?
‘यत्र नार्यन्तु पूज्यते, तत्र रमन्ते देवता’ उक्ति का अनुसरण करने वाले देश में महिलाओं की भी स्थिति दिनोंदिन अत्यन्त नाजुक होती चली जा रही है। अनुमानतः हर तीन मिनट में एक महिला किसी भी तरह के अत्याचार का शिकार हो रही है। देश में हर 29वें मिनट में एक महिला की अस्मत को लूटा जा रहा है। हर 77 मिनट में एक लड़की दहेज की आग में झोंकी जा रही है। हर 9वें मिनट में एक महिला अपने पति या रिश्तेदार की क्रूरता का शिकार हो रही है। हर 24वें मिनट में किसी न किसी कारण से एक महिला आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो रही है। नैशनल क्राइम ब्यूरो के अनुमानों के अनुसार ही प्रतिदिन देश में 50 महिलाओं की इज्जत लूट ली जाती है, 480 महिलाओं को छेड़खानी का शिकार होना पड़ता है, 45 प्रतिशत महिलाएं पति की मार मजबूरी में सहती हैं, 19 महिलाएं दहेज की बलि चढ़ जाती हैं, 50 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं हिंसा का शिकार होती हैं और हिंसा का शिकार 74.8 प्रतिशत महिलाएं प्रतिदिन आत्महत्या का प्रयास करती हैं। आजकल महिलाओं व नाबालिग लड़कियांे के साथ होने वाले गैंगरेपों के समाचार, निरन्तर हो रही कन्या भू्रण हत्याएं और बढ़ते दहेजप्रथा के मामले आदि देश की दशा और दशा का सहज बोध करवा रहे हैं। क्या नई सरकार देश की नारी को पूर्ण सुरक्षा और सम्मान दिला सकेगी?
नौंवा सवाल : क्या राष्ट्रीय सुरक्षा को अभेद्य किया जाएगा?
8 जनवरी, 2013 को पाकिस्तान ने हमारे सीमा के अडिग प्रहरी लांस नायक हेमराज और सुधाकर के गश्त के दौरान धोखे से सिर काट डाले और एक सैनिक हेमराज का सिर अपने साथ ले भी गए। हम करारी कार्यवाही करने की बजाय, थोथी गीदड़ भभकियां देने और शहीद के परिवार को सांत्वना एवं आर्थिक सहायता देने की औपचारिकता पूरी करने के सिवाय कुछ भी नहीं कर सके। एक माह भर होने वाला है, हम अपने शहीद का सिर तक अपने वतन वापिस लाने में नाकाम हैं, क्या यह इतने बड़े गौरवमयी लोकतंत्र की गरिमा के लिए शोभनीय कहा जाएगा? सात समुन्द्र पार अमेरिका अपने दुश्मन ओसामा बिन लादेन को आतंकवाद की असीम माँद से बाज की भांति झपट ले गया और हम चन्द कदम दूर हाथ डालने का भी साहस नहीं कर पा रहे हैं तो फिर किस मुँह से हम वैश्विक महाशक्ति बनने की तरफ तेजी से अग्रसित होने का दम्भ भर रहे हैं? हम वर्ष 1971 की जंग में पाकिस्तान के 93000 युद्ध बन्दियों को तो देखते ही देखते छोड़ देते हैं और पाकिस्तानी जेलों में अमानवीय यातनाओं को झेलने वाले अपने 54 युद्ध बन्दियों को आज तक मुक्त करवाने का साहस नहीं जुटा सके! क्या इसे इस गौरवमयी गणतंत्र के गरिमा के अनुरूप कहा जाएगा? पड़ौसी देश चीन वर्ष 1962 में ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ के गगनभेदी नारों के बीच पीठ में विश्वासघात का गहरा खंजर घांेप चुका है और आज भी हमें अंतर्राष्ट्रीय सीमा, मालद्वीव, अरूणाचल एवं अक्साई मसले आदि अनेक मसलों पर सरेआम आँखें तरेर रहा है और हम स्थिति के अनुरूप जवाबी मुद्रा में बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। चीन व पाकिस्तान सीमा पर युद्ध संबंधी मोर्चेबन्दी को निरन्तर मजबूत करते जा रहे हैं और सरकार कुम्भकर्णी नींद का आनंद ले रहे हैं! क्या नई सरकार इस कुम्भकर्णी नींद से मुक्त होगी?
दसवां सवाल : क्या देश को आतंकवाद की समस्या से निजात मिलेगी?
हम आतंकवाद की समस्या से काफी लंबे समय से त्रस्त हैं। देश में एक से बढ़कर एक आतंकवादी वारदातें हो चुकी हैं। देश की बड़ी आर्थिक महानगरी मुम्बई पर जबरदस्त आतंकवादी हमला हो चुका है। देश का मुकुट कहलाने वाले जम्मु-कश्मीर की विधानसभा पर आतंक का साया मंडरा चुका है। यहाँ तक कि देश की आत्मा समझी जाने वाली संसद को भी आतंकवादी अपना निशाना बना चुके हैं। इसके अलावा जयपुर बम विस्फोट, मालेगाँव बम विस्फोट, अक्षरधाम आतंकवादी हमला आदि न जाने कितनी ऐसी आतंकवादी घटनाएं देश के कोने-कोने में घट रही हैं। इस आतंकवाद पर हम आज तक अंकुश लगाने में नाकायाब रहे हैं। संसद हमले के दोषी सिद्ध हो चुके अफजल गुरू तक को हम फांसी पर नहीं लटका पाये हैं और इस शर्मनाक मसले पर भी राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज नहीं आ रहे हैं। क्या यही गणतंत्र की गौरवमयी गरिमा का प्रतिसाद है? आजकल देश की दो शीर्ष पार्टियां ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे भोथरे मुद्दे पर आपस में सींग फंसाये हुए हैं और असल आतंकवाद सीमा पर खड़ा खुलकर हंस रहा है। क्या यही हमारी देशभक्ति की पराकाष्ठा है? जब भी कोई राष्ट्रीय जनआन्दोलन खड़ा होता है तो उसे आतंकवादी हमले का भयंकर डर दिखाकर बुरी तरह कुचल दिया जाता है। सार्वजनिक राष्ट्रीय समारोहों में सुरक्षा के नाम पर आम आदमी को नजदीक भी फटकने नहीं दिया जाता है। देश में आतंकवाद और माओवाद की समस्या सुलझने का नाम ही नहीं ले रही है। क्या नई सरकार देश को आतंकवाद की समस्या से निजात दिलाने में कामयाब होगी?
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