रविवार, 11 मई 2014

फुगड़ी

छत्तीसगढ़ के सोंधी माटी जतके उपजऊ अउ अर्थ-संपदा ले लबलबाय हे, वतके सांस्किरितिक संपन्नता के दरसन घलो होथे। जब भी सांस्किरितिक धरातल ला कुरेदे के उदीम करथन तब आनीबानी के रतन मिलथे। वो अनमोल रतन मा एक नाँव `फुगड़ी’ घलो हाबे।

फुगड़ी छत्तीसगढ़ के पारंपरिक खेल आय। वइसे तो पारंपरिक खेल के छत्तीसगढ़ मा भरमार हे, फेर जउन खेल बर साज-समान, उँकर रख-रखाव बर धन, बिसेस किसम के मैदान, खेलाड़ी मन के भारी भरकम दल के जरूरत नइ राहय तभो ले कम समय मा भरपूर मनोरंजन अउ पूरा सरीर के बियाम हो जाय, लेकिन कोनो ला कोनो किसम के गंभीर चोट लगे के संभावना घलो झन राहय, तउने ला सबले बढ़िया खेल केहे जा सकथे। केहे के मतलब आर्थिक अउ सारिरिक नकसानी ले मुक्त, स्वस्थ मनोरंजन अउ पूरा सरीर के बियाम करे के छमता रखइया खेल ला बढ़िया खेल केहे जा सकथे। बढ़िया होय के जम्मो गुन छत्तीसगढ़ के जउन जन-परजलित खेल मा मिलथे उही खेल के नाँव `फुगड़ी’ आय।


फुगड़ी, छत्तीसगढ़ी के फुदकना ले बने हे। फुदकना के अर्थ होथे- उछलना या कूदना। खाली पाँव जमीन मा उखरू बइठ के तेजी ले उछल-उछल के हाँत-पाँव ला घेरी-बेरी आघू-पाछू चलाए के ढंग ला फुगड़ी केहे जाथे। फुगड़ी ला सरीर के थकत ले लगातार खेले जाथे।


गाँव मा नोनी मन के मनपसंद खेल फुगड़ी आय। एला घर मा, घर के बाहिर-गली, चउँरा, बियारा, बगिच्चा, तरिया, नदिया, भाँठा, टिकरा जहू-तहू कना खेलत रथें। वइसे तो एकर खेले बर निस्चित मौसम नइ राहय। एला बारों महिना खेलत रथें, फेर तीज-तिहार बेखन नवाँ बिहातिन नोनी मन अपन-अपन ससुरार ले जब मइके आथें तब गजब दिन ले बिछड़े घर परिवार, नता-गोत्ता अउ सखी-सहेली मन ले भेंट-मुलाकात करे खातिर सागर के लहरा कस उछलत खुसी अउ भादो के झुमरत हरियाली उँकर मन-मयूरी ला थिरके बर बिबस कर देथे। एकरे सेती रंग-बिरंगा नवा-नवाँ ओनहाँ मा सज-सँवर के चिरई चिरगुन कस चहक भरे सुग्घर अवाज मा बतियात हमजोली मन के टोली गाँव ले बाहिर पटपर भाँठा मा निकल जथे। इँकर संग घर-परोस के नान्हें नोनी मन घलो आ जथें। छोटे-बड़े जम्मों झन जुरमिल के नंदावल याद अउ वर्तमान खुसी ला खेल-खेल मा व्यक्त करे के अइसन मउका बछर मा दू बार- (अ) हरेली अउ (ब) पोरा तिहार मा मिलथे। महतारी के जु़ड़लंग अँचरा तरी अइसन सुखदई बेरा नोनी मन के जीवन के सुवर्निम काल होथे। नान्हें अउ कुँवारी नोनी मन बर ये समे ला परसिच्छन काल केहे जा सकथे।

आज समे के संग सोंच मा आए फरक के सेती फुगड़ी के बारे मा हमर गियान निच्चट खोंझरा गेहे। महूँ ला अजगुत लागिस जब एकर कई भेद के जानकारी मिलिस। कु. मनीषा ठाकुर हमर घर मा लइका मन ला समझा-समझा के फुगड़ी सिखावत रिहिसे। हुरहा मोर चेत ओकरे कोति होगे। ओकर ले मोला जउन जानकारी मिलिस ओहा अइसन ढंग ले हे–

खेलइया मन के संखिया के अधार मा फुगड़ी ला- १. एकला २. गड़ी अउ ३. दलीय खेल के रूप मा खेले जाथे। खेले के ढंग के अधार मा एकर सात परकार हे-

एला खेले बर जमीन मा उखरू बइठके उछलत-उछलत दूनों पाँव ला एकक करके आघू-पाछू फेंके जाथे। ये काम मा सरीर के संतुलन बनाए खातिर हाँत मन ला घलो आघू-पाछू चलाथें। ये हा सरल अउ परचलित बिधि आय।

एमा समान्य फुगड़ी के जम्मों तौर-तरीका ला अपनाए के संगे-संग एक हाँत मा सिंदुर धरे के अउ दूसर हाँत ले अपन माँग मा सिंदुर भरे के नकल करे जाथे। संगे-संग ऊँच स्वर मा `माँग मा सिंदुर, माँग मा सिंदुर’ घलो बोले जाथे।

ये बिधि मा पहिरे ओनहाँ के एक छोर ला ओली बना के फुगड़ी खेलत-खेलत चुनचुनियाँ भाजी चुन-चुन के ओली मा भरे के नकल करे जाथे। संगे-संग `चुनचुनियाँ भाजी, चुनचुनियाँ भाजी’ के ऊँच स्वर मा उच्‍चारन घलो करथें।

फुगड़ी के ये बिधि मा दूनों हाँत ला एकक करके अपन नाक तक लाथें अउ वापिस लेगतखानी हाँत ला सोज के होवत ले फैलाथें। यानी के मेंछा बताए के नकल करे जाथे। संगे-संग `मेंछा फुगड़ी, मेंछा फुगड़ी’ घलो बोलथें।

ये बिधि मा समान्य फुगड़ी के तौर-तरीका अपनाए के संगे-संग उठक-बइठक घलो करे जाथे यानी के फुगड़ी खेलते-खेलत उठक-बइठक करे के बिधि ला उठुल-बइठुल फुगड़ी केहे जाथे।

ये फुगड़ी हा ऊपर बताए जम्मो बिधि ले गजब कठिन हे। ये ला गड़ी बनाके खेले जाथे। ये बिधि मा दू खेलाड़ी एक दूसर के मँझोत मा बइठ के अपन डेरी हाँत ले गड़ी के डेरी हाँत ला अउ अपन जेवनी हाँत ले ओकर जेवनी हाँत ला धर के फुगड़ी खेलथे। ये बिधि मा सरीर के संतुलन बनाए बर हाँत के सहारा नइ मिले। दूनों के हाँत एक दुसर ले बँधाए के सेती जब गति मा संतुलन नइ बइठा पाएँ तब उन ला अयोग्य मान लेय जाथे।

ये फुगड़ी के सब ले कठिन बिधिआय। ये बिधि मा दू झन गड़ी मन एक ठन लंभा डोरी के एकक छोर ला धर के जमीन ला हलूकुन छुवावत डोरी ला घुमाके गोला बनाथे। उही गोला के भीतरी मा मांई गड़ी हा फुगड़ी खेलत अपन हाँत ले जमीन अउ डोरी ला बिना छुए पार करथे। ये बिधि मा डोरी घुमाए अउ फुगड़ी खेले के गति मा संतुलन होना बहुँतजरूरी हे। येला समूह फुगड़ी माने जाथे।

फुगड़ी के खेल म संगीत के घलो बड़ महत्तम हाबे। चुपचाप तो फुगड़ी तो खेलबेच करथे जरूरत पड़े म वाद्य-संगीत के संग रंगमंच म घलो एकर परदसरन देखे बर मिलथे। ए परस्तुति ह बड़ मनभावन लागथे। एमा गाये जथे तउन गीत अइसन ढंग ले हाबे-

गोबर दे बछरू गोबर दे, 
चारो खुँट ला लिपन दे, 
चारो देरानी ला बइठन दे, 
अपन खाथे गूदा-गूदा, 
मोला देथे बीजा, 
ये बीजा ला का करहूँ
रहि जहूँ तीजा, 
तीजा के बिहान दिन, 
सरि-सरि लुगरा, 
हेर दे भउजी कपाट के खीला, 
काँव-काँव करे मंजूर के पीला , 
एक गोड़ मा लाल भाजी, एक मा कपूर, 
कतिक ल मानों मँय देवर ससुर ...
मातगे......., मातगे......., मातगे..........।
फुगड़ी फू-फू जी, फुगड़ी फू......., 
फुगड़ी फू-फू जी, फुगड़ी फू......., , 

फुगड़ी के खेल देखे मा जतना सहज अउ सरल हे, खेले मा ओतके कठिन हे। खेल मा सरीर ला अतका हलका बनाना परथे के बिना कोनो सहारा के असानीपूर्वक उछले जा सके, वहु मा बइठ के, हुतुतुरू, बिना रूके। सरीर के संतुलन बनाए खातिर हाँत ला आघू-पाछू जरूर चलाए जाथे, फेर वो बिधि हा फुगड़ी के पहिली सीढ़ी आय। एमा निपुन होय के बाद आने भेद मा नकल बताए खातिर हाँत मन के सहारा घलो नइ राहय। ये स्थिति मा रोज-रोज अभियास करे ले ही पहुँचे जा सकथे। 

सुवास्थ के विचार ले फुगड़ी के अब्बड़ महत्व हे। एकर ले पाँव के अँगरी ले लेके मुड़ी तक के जम्मों अंग के एक संग बियाम हो जथे। हाँत-पाँव के अँगरी, पंजा, पिंड़री, माड़ी, कनिहाँ, पेट, पीठ के हा़ड़ा, खाँद, बहाँ, कोहनी अउ आँखी के बियाम तो होबे करथे, तेज साँस चले के सेती फेफड़ा, मुहूँ अउ गला के घलो बियाम हो जथे। एकर रोज अभियास करे ले खून संबंधी दोस, पेट-दोस, आँखी-दोस, दमा, जोड़ के दरद, कमर दरद, जइसे अउ कतकोन बिमारी ले बचे जा सकथे।

अच्छा सुवास्थ ले अच्छा मन अउ अच्छा मन ले ही अच्छा बुता संभव हे। तभे तो हिन्दी मा केहे गेहे- `स्वास्थ्य ही धन है। ’अइसन ढंग ले फुगड़ी सुवास्थ, ममता अउ मनोरंजन के तिरबेनी आय।

चंद्र कुमार चन्द्राकर

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