आजकाल जेला देखबे तेला मुँह-कान ल बाँधे के फैसन होगे हे। चिन्हारी घलो नई आय। चिन्हारी घलो कहाँ ले आही सबो मुँह-कान ह तो तोपा गेहे। आँखी भर ह जुगुर-जुगुर दिखत रहिथे। अइसने मुँह-कान ल बाँधे कोनो स्कूटी में जावथे त जरूर जान ले कि येहा कोनों मेडम आय। मेडम मन के आय ले अइसने बाँधे के चलन जादा बाढग़े हे।
बस स्टेशन या कोनो चौक में जाबे त दू-चार झन अइसने मुँह बाँधे मेडम मन जरूर खड़े रहिथे। कतको मेडम मन खाँध में बेग लटकाए रहिथे अऊ चसमा घलो पहिने रहिथे। कतको झन ल रोज-रोज देखत रहिथे तभो चिन्हारी नइ आये। काबर कि ओकर मुँह बाँधे के साफी अऊ बेग ह बदल जाथे। कतको झन ह उहीच-उहीच साफी ल बाँधे रहिथें त साफी ल देख के चिन्हारी आ जाथे। नौ बजे के बेरा में बस में चढ़बे त अइसने चार-छ: मेडम जरूर बइठे राहे, अतका जोर-जोर से बात करत रहिथे कि जानो-मानो बस ल उही मन खरीद डारे हें। किसम-किसम के गोठ-बात ओकरे मन से सुन ले अलग-बगल बइठइया मनखे मन चुपचाप ओकर मन के बात ल सुनत रहिथे अऊ मने मन हाँसत रहिथे।
हमर छत्तीसगढ़ में माओवादी मन ह गाँव शहर सब जगा खुसर गेहे, अऊ अइसने मुँहू ल बाँधे रहिथे त चिन्हारी तक नइ आय। तेकरे पाय आसानी से अपन काम ल अंजाम दे देथें। कोनो जगा भी बड़े दुरघटना घट जाही त एमे आश्चर्य के कोनो बात न नइ रहे। कुछ दिन पहिली सरकार ह अइसने मुँह बाँधे बर मना करे रिहिसे। दू-चार दिन जुरमाना घलो लगाइस। वोकर बाद टाँय-टाँय फिस्स होगे। परसासन ल चाही कि येकर उपर सखती से कार्रवाई करे ताकि एकर आड़ में कोनो गलत धंधा या दुरघटना मत होय।
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-महेन्द्र देवांगन 'माटी'
गोपीबंद पारा पंडरिया
कबीरधाम
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