सोमवार, 13 जून 2011

वर्तमान बाजार व्यवस्था एक अभिशाप

वर्तमान युग को आधुनिक युग कहा जाता है। जीवन के उत्पत्ति से लेकर आज तक उत्पादन के अनुसार विनिमय व्यवस्था को सुगम बनाने हेतु अर्थशास्त्रियों द्वारा नये-नये सिस्टम का निर्माण किये गये। आज के तारीख में सारे सिस्टम असफल दिखाई पड़ते हैं। हर देश में अलग-अलग सिस्टम है जैसे- पूँजीवादी, साम्यवादी, साम्राज्यवादी, लोकताँत्रिक जो निजी एवं साम्यवादी का संयुक्त पद्धति है। ये सारे सिस्टम मनुष्य को संतुष्ट नहीं कर सका है। इन सिस्टमों में विशिष्टताओं के साथ खामियाँ भी हैं। सभी सिस्टमों को अध्ययन करने पर पता चलता है कि ऐसी पद्धति का निर्माण नहीं हुआ है जो कि आर्थिक समानता हेतु पूरा-पूरा आदर्श हो।

मानव अपने श्रम द्वारा वस्तुओं का उत्पादन या जीविकोपार्जन के लिए दी जानेवाली श्रम के बदले में जो श्रमिक राशि मिलती है। क्या वास्तविक रूप में वितरण प्रणाली के अनुसार सही है? इस बात को सबको समझना है, क्योंकि यहीं से उसका एवं उसके परिवार के भाग्य का निर्माण होता है। आर्थिक रूप से विषमता का कारण भी यहीं से स्पष्ट हो सकता है। सबसे पहले बाजार व्यवस्था को समझें। इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई? इस तथ्य को भी जानना आवश्यक है कि समाज के विभिन्न प्रयासों के बाद भी कहाँ चूक हो गई है।

बाजार व्यवस्था की उत्पत्ति-
इतिहास में जीवन के स्तर का विकास धीरे-धीरे हुआ। आदिमानव खानाबदोश की तरह भटकते थे। कंदमूल, फल, पत्तियाँ या कच्चा माँस खाकर जीवन निर्वाह करते थे। सबसे पहले उसे अग्नि का ज्ञान वन में आग लगने से हुई। आग से भुने हुए कुछ खाद्य पदार्थों के अवशेष मिले तब मानव पकाकर खाना सीखा। धीरे-धीरे खेती करना सीखा, औजारों के निर्माण किये। कालांतर में वस्तुओं के निर्माण के साथ विनिमय प्रणाली का भी शोध कर डाले। इस प्रणाली के आधार पर 20% लोग पूँजीगत बाजार के मालिक बने।

इस पूँजीगत बाजार के विनिमय प्रणाली के कारण समाज में चार वर्ग के लोगों का उद्भव हुआ। 1) व्यावसायिक वर्ग 2) कर्मचारी वर्ग 3) किसान वर्ग 4) मजदूर वर्ग। बाजार व्यवस्था के विस्तार होने से साम्राज्यवादी परंपरा का उद्भव हुआ, जो धीरे-धीरे राजनीति का रूप लिया। प्रगति के सोपान के अन्तर्गत विभिन्न शास्त्रों जैसे- राजनीति शास्त्र, गणित विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र आदि का उद्भव एवं विकास हुआ। साम्राज्यीकरण के परिणाम स्वरूप ये धरती देश-विदेशों के खंडों में बंट गया। प्रत्येक देश प्रशासनिक व्यवस्था के साथ-साथ विनिमय प्रणाली लागू किया। जो पूँजीवादी, साम्यवादी, साम्राज्यवादी, लोकताँत्रिक एवं फाँसीवाद के नाम से जाना जाता है। ये सभी पद्धतियाँ आर्थिक समानता लाने में असमर्थ हैं।

आर्थिक विषमता के कारण -
1)      पूँजीवादी - इस पद्धति में पूरे बाजार में निजी आदमी का सत्ता रहता है। बाजार में प्रतियोगिता करने के लिए समान अवसर प्रदान किये जाते हैं। आर्थिक विकास हेतु सिर्फ अपने स्वार्थ के बारे में सोंचा जाता है। निम्न वर्ग सिर्फ कर्मचारी बनकर काम कर सकते हैं। वर्गिक असमानताएँ हैं।

2)      साम्यवादी- पूरे बाजार में नियंत्रण शासन के पास रहता है, जो रोजगार के समान अवसर तो प्रदान करते हैं, लेकिन राज अधिकारियों का सत्ता रहता है। भ्रष्टाचार का बोलबाला रहता है। इसमें भी चारों वर्गों की असमानता दिखाई देती है।

3)      साम्राज्यवादी- बाजार का सत्ता एक राजा के हाथ में होता है। जो चारों वर्गों को संतुष्ट करने में असमर्थ रहता है।

4)      फाँसीवादी - इस पद्धति में साम्राज्यवादी की तरह बाजार पर नियंत्रण होता है। इनके कानून साम्राज्यवाद से ज्यादा कठोर होता है। इसमें भी असमानताएँ हैं।

5)      लोकताँत्रिक विनिमय प्रणाली-
यह पूँजीवाद एवं साम्यवाद का संयुक्त प्रणाली है। इसमें बाजार पर नियंत्रण निजी एवं शासन के हाथों समान नियंत्रण होता है। इसमें भी आर्थिक असमानताएँ हैं उपर्युक्त सभी प्रणालियों में रोजगार के समान अवसर प्रदान तो किया जाता है लेकिन आर्थिक विषमता दूर करने में सक्षम नहीं है।

बाजार के पूँजी का 80% भाग व्यावसायिक वर्ग एवं 20% भाग अन्य वर्ग में वितरित होता है। इससे यही सिद्ध होता है कि जब से बाजार का निर्माण हुआ है तब से लेकर आज तक 80% लोग अपना पूरा श्रम लगाकर 20% लोगों अर्थात् व्यावसायिक वर्ग को सहयोग करते आया है। कर्मचारी वर्ग, किसान वर्ग एवं मजदूर वर्ग यही 20% लोग अपना पूरा श्रम तो लगाते हैं, जिसके पास अन्य घरेलू कामों के लिए वक्त नहीं है। जीवन भर पूँजीपतियों एवं शासन के पूँजी बढ़ाने में मदद करते आये हैं, यही आर्थिक सिस्टम सदियों से चलता आया है। कहने का तात्पर्य यह है कि ऊर्जा तो सभी लगा रहे हैं लेकिन मेहनताना एक निश्‍चित वर्ग को जाता है। अशिक्षा एवं अज्ञानता ही इसका मूल कारण है। इसीलिए आर्थिक विषमता की दूरी आज तक खत्म नहीं हुई है। आर्थिक समानता लाना है तो प्रणाली बदलने होंगे। साधन और साध्य दोनों एक ही होते हैं। हमारा साधन है 20% लोगों को श्रम और पूँजी देने का, इस नियति को परमात्मा भी नहीं बदल सकता।

इस सिस्टम को बदला जा सकता है दरअसल ये पूँजीपति एवं राजनीतिज्ञ लोग बदलना ही नहीं चाहते। क्या? अर्थशास्त्रियों को इस बात का ज्ञान नहीं होगा, कि विश्‍व के कुल आय का 80% पूँजी मात्र 20% लोगों में और 20% पूँजी 80% लोगों में वितरण होता है। सब पता है लेकिन 80% लोग जो अज्ञानता के शिकार हैं उसे बेवकूफ बनाने का प्रयास किया गया है। इस प्रणाली में 20% लोग सदियों से राज करते आये हैं और राज करते रहेंगे।

इसे एक कहानी के माध्यम से समझा जा सकता है दो भाई होते हैं, दोनों भाईयों में से एक चतुर एवं अवसरवादी होता है। एक सीधा-साधा अज्ञानी होता है। एक दिन दोनों में किसी बात पर झगड़ा होता है बात यहाँ तक पहुँच जाती है कि घर में बँटवारा हो जाते हैं। बँटवारे में एक गाय का भी विभाजन होता है, जो चतुर है पीछे की ओर का हिस्सा लेता है नादान, नासमझ भाई आगे की ओर। नादान भाई रोज गाय को चारा खिलाता है, उसका प्रतिफल उस चतुर भाई को मिलता है अर्थात् दूध और गोबर का फायदा इस चतुर इंसान को मिलता है। यही संस्कृति हम पर भी लागू होता है। श्रम करने में कोई कमी नहीं है लेकिन हमारी र्जा का प्रतिफल 20% लोगों को मिलता है। प्रश्‍न ये उठता है कि इस प्रणाली को जन्म किसने दिया? वास्तव में इस सिस्टम को बनाने में किसी ने कोई ऊर्जा नहीं लगाया। यह अपने आप बन गया।

मानव जब बौद्धिक विकास किया तब उत्पाद बनाकर विनिमय के सरल रूप वस्तु से वस्तु प्राप्त करने के लिए किया। साम्राज्यवादी परंपरा ने इसे सींचने का काम किया। राजा लोग विनिमय को दिशा प्रदान करने के लिए मोहर या सिक्के का प्रथा चलाया। परंपरागत यह सिस्टम चिरस्थाई हो गया। इतिहास को देखा जाय तो 80% लोग हमेशा 20%के हाथों शोषण के शिकार हुए। इसका कारण सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा देने के नाम से राजनेता, राज-कर्मचारी सिर्फ अपने घर को आबाद किया। पूँजीपतियों को सहारा दिया। उत्पाद का निर्माण भी आज 2% लोग करते हैं। 80% लोग सिर्फ ग्राहक बनकर रह गये हैं। बाजार पर एकाधिकार है। जैसे ही हम उत्पाद या प्रोडक्ट खरीदते हैं समस्त भौतिक सुख सुविधाओं का ताँता पूँजीपतियों के घर जाना प्रारंभ हो जाता है। जब से विनिमय प्रणाली की उत्पत्ति हुई तब से यही होता आया है। बाजार का पूरा पूँजी इस सिस्टम के माध्यम से इनके घरों में जाने का एक माध्यम बन गया है।

विवेचना के आधार पर वार्गिक स्थिति-
(1) मजदूर वर्ग-
एक मजदूर का एक ही कार्य है मजदूरी करना। एक मजदूर के मासिक आय के आधार पर इनके दुर्भाग्य की गणना की जा सकती है। मजदूर के साथ विडम्बना यह है कि स्वास्थ्य खराब होने पर घर में पैसा नहीं आता। किसी उत्सव या अन्य कार्य में जाता है तब भी पैसा नहीं आता। मासिक आय में औसतन कमी एवं गरीब होने की परिस्थति निर्मित होने के कारण स्पष्ट है। किसी भी क्षेत्र में विकास में पतन के कारण उनकी गरीबी है। यदि समस्त सुख-सुविधाओं का उपभोग करना हो तो निम्नांकित कार्य करने होंगे -
1)   उच्च शिक्षा प्राप्तकर शासकीय या निजी क्षेत्रों के उच्चतम पद प्राप्त करना।
2)   व्यवसाय।
3)   जिस श्रम को वह करता है उसकी मजदूरी उस सीमा में चला जाय जिससे समस्त भौतिक सुख-सुविधा उपलब्ध हो सके।

उपर्युक्त तीनों उपायों में से विकल्प निकालने में बहुत ही कम लोग सफल होते हैं और समस्त भौतिक सुख-सुविधा का लाभ लेते हैं। जो इस विकल्प से वंचित रह जाते हैं, सदा के लिए गरीबी के जीवन जीते हैं। इस वर्ग के असफल एवं महत्वाकांक्षी लोग जो समस्त भौतिक सुख-सुविधाओं का उपभोग करना चाहते हैं उसके पास कोर्इ विकल्प नहीं रह जाता।

(2) किसान वर्ग
इस वर्ग में जिसके पास पारिवारिक सदस्यों के आधार पर पर्याप्त जमीन हो वही समस्त भौतिक सुख-सुविधाओं का लाभ ले सकता है अन्यथा मजदूर वर्ग के ही श्रेणी में ही आते हैं, यदि समस्त सुख-सुविधाओं का उपभोग करना हो तो निम्नांकित कार्य करने होंगे -
1)   उच्च शिक्षा प्राप्तकर शासकीय या निजी क्षेत्रों के उच्चतम पद प्राप्त करना।
2)   व्यवसाय।
3)   जिस श्रम को वह करता है उसमें आधुनिक पद्धति का समावेश करे।
4)   बचत।

उपर्युक्त चारों उपायों में से विकल्प निकालने में बहुत ही कम लोग सफल होते हैं और जो सफल हुए हैं समस्त भौतिक सुख-सुविधा का लाभ ले रहे हैं, जो इस विकल्प से वंचित रह जाते हैं, सदा के लिए मध्यमवर्गीय परिवार के रूप में जीवन जीते हैं। महंगाई का असर भी इसी वर्ग पर ज्यादा पड़ता है। इस वर्ग के असफल एवं महत्वाकांक्षी लोग जो समस्त भौतिक सुख-सुविधाओं का उपभोग करना चाहते हैं उसके पास कोर्इ विकल्प नहीं रह जाता।

(3) कर्मचारी वर्ग-
इस वर्ग में भी जो उच्चतम पद पर आसीन है वही समस्त भौतिक सुख सुविधाओं का आनंद ले रहे हैं। बाकी सिर्फ सामान्य पारिवारिक जीवन जीने में समर्थ होते हैं। यदि समस्त सुख-सुविधाओं का उपभोग करना हो तो निम्नांकित कार्य करने होंगे -
1)   अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाकर शासकीय या निजी क्षेत्रों के उच्चतम पद प्राप्त करना।
2)   व्यवसाय।
3)   जिस श्रम को वह करता है उसका वेतन उस सीमा में चला जाय जिससे समस्त भौतिक सुख-सुविधा उपलब्ध हो सके।
4)   बचत।
5)   जमीन खरीदकर कृषि क्षेत्र में श्रम एवं आधुनिक तकनिकी का प्रयोग करने से। उपर्युक्त पाँच उपायों में से विकल्प निकालने में बहुत ही कम लोग सफल होते हैं और जो सफल हुए हैं समस्त भौतिक सुख-सुविधा का लाभ ले रहे हैं। जो इस विकल्प से वंचित रह जाते हैं, सदा के लिए मध्यमवर्गीय परिवार के रूप में जीवन जीते हैं। महंगाई का असर भी इस वर्ग पर पड़ता है। इस वर्ग के असफल एवं महत्वाकांक्षी लोग जो समस्त भौतिक सुख-सुविधाओं का उपभोग करना चाहते हैं उसके पास भी एक ही विकल्प रह जाता है और वह है भ्रष्टाचार।

(4) व्यवसायिक वर्ग-
इस वर्ग में चिल्हर विक्रेता को छो़ड़कर इससे जुड़े सभी लोगों को समस्त भौतिक सुख-सुविधा का लाभ मिलता है। इस वर्ग में भी असफल एवं महत्वाकांक्षी लोग होते हैं जो गैर कानूनी ढंग से पैसा कमाने के चक्कर में डूबे होते हैं। उत्पाद में मिलावट, मुनाफाखोरी, टैक्स चोरी एवं तस्करी जैसे कार्यों को अंजाम देते हैं। उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि समाज को 100% समाजवादी या साम्यवादी बनान मुश्किल है। चारों वर्गों के अलावा एक वर्ग और बचता है जो समस्त भौतिक विलासताओं का उपभोग करते हैं। इन चारों वर्गों के पास ये विकल्प भी शामिल है। नेता या अभिनेता बनना। समस्त अवसर चारों वर्गों के पास है लेकिन 80% लोग इस उपभोग की लाभ से वंचित रह जाते हैं। मात्र 20% लोग सफल हैं। इस 20% लोगों में 1) व्यवसायिक वर्ग 2) उच्च श्रेणी के अधिकारी गण (सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र) 3) नेता एवं अभिनेता वर्ग, समस्त सुख-सुविधा इसी के पास है।

आर्थिक असमानता के मुख्य कारण
विश्‍व के समस्त वितरण प्रणाली को अध्ययन करके देखा जाय तो यही सार निकलता है कि समान अवसर तो सभी को प्राप्त है लेकिन सफल 20% लोग हैं। इनका वास्तविक कारण वार्गिक भेद है, जो पर्याप्त साधन जुटाने में असमर्थ रहते हैं। इसके विपरीत परिणाम चोरी, डकैती, भ्रष्टाचारी, विभिन्न हानिकारक वस्तुओं एवं हीरे जेवरात के तस्करी, मुनाफाखोरी, हिंसा, प्रतिहिंसा जैसे बुराई समाज में जन्म लिया।

समाज में वार्गिक भेद होने के कारण -
भारतीय इतिहास के अनुसार समाज को कर्म के आधार पर चार वर्ग में विभाजित किया था (1) ब्राम्हण (2) क्षत्रिय (3) वैश्य (4) शूद्र, कालान्तर में धीरे-धीरे जाति का रूप धारण किया। विभिन्न संतों, महापुरूषों एवं अर्थशास्त्रियों द्वारा इस वार्गिक भेद को मिटाने का प्रयास किया गया, लेकिन ये भेद मिटता नहीं क्यों? यह प्रश्‍न विश्‍व समाज के लिए एक चुनौती है। साधन एवं साध्य एक ही होता है। हमारा साधन खराब है या तो हमें साधन का उपयोग करने नहीं आता। इससे यही स्पष्ट होता है। किसी भी विकार को समाप्त करना है तो जड़ को समाप्त करना चाहिए। अभी तक हमनें पत्तियाँ ही काँटे हैं। इसीलिए फिर से पनप जाते हैं। मानव सारे क्षेत्रों में विकास की कोई कसर नहीं छो़ड़ी है, लेकिन पूर्व में जो प्रश्‍न था आज भी ज्यों का त्यों खड़ा है। मेरे विचार से हमारा साधन खराब नहीं है बल्कि साधन का वास्तविक उपयोग करने हमने भूल की है। वह भूल वितरण प्रणाली से संबंधित है। आधुनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत इससे जु़ड़े समस्त वर्गों के लोग ही जिम्मेदार है।
 
इस प्रणाली के अंतर्गत सर्वप्रथम कंपनी आता है, चाहे वह सार्वजनिक हो या निजी, इसके बाद क्रमशः विज्ञापनकर्ता, एजेन्ट, थोक विक्रेता, उपथोक विक्रेता, चिल्हर विक्रेता एवं अंत में ग्राहक आता है। इस प्रणाली में ग्राहक को छो़ड़कर सबको कंपनी का लाभांश मिलता है, जबकि एक ग्राहक ही ऐसा आदमी है जो सबका लाभांश पेमेंट करता है, जिसको कुछ नहीं मिलता है। विक्रेता नाममात्र छूट की लालच देता है और अगले डिलेवरी में उस छूट को भी वसूल लेता है।

ग्राहक जब कोई उत्पाद खरीदता है तो क्या उस उत्पाद मूल्य में कंपनी से लेकर चिल्हर विक्रेता तक सबका कमीशन शामिल नहीं होता? एक ही ग्राहक को अपना लाभांश देने के लिए क्यों छो़ड़े? हर कंपनी ग्राहक को शोषण का एक माध्यम क्यों बनाया? इस तरफ ध्यान किसी का क्यों नहीं गया? बड़े-बड़े अभिनेता, मॉडल एवं अन्य लोग झूठ-मूठ के विज्ञापन देने तैयार हो गये लेकिन इतनी सी बात जिससे ग्राहक को लाभांश मिले कहने को क्यों चूके? दरअसल कोई समाजवादी या साम्यवादी लाना नहीं चाहते।

साम्यवाद लाना है तो आज से कोई भी कंपनी, अपना लाभांश का कुछ हिस्सा ग्राहक को देना प्रारंभ कर दे। समाज में वार्गिक भेद समाप्त हो जायेगी। कुछ नेटमार्केटिंग कंपनी इस उद्देश्य का उल्लेख करते हैं, लेकिन ग्राहक पर इतने सारे नियम एवं शर्त लाद दिये कि बोझ तले लाभांश के बारे में सोंचता नहीं है। ग्राहक तो ग्राहक है ये कैसी नियम शर्त, ग्राहक उसी को कहते हैं जो उत्पाद खरीदता है। दूसरा कोई परिभाषा नहीं है। ये प्रणाली भी 20% विवेकशील आदमी के लिए बना है। विकल्प है तो सिर्फ ग्राहक उत्पाद खरीदे और उसका अधिकार (लाभांश) मिल जाये। तभी समाज में साम्यवादी परंपरा लागू किया जा सकता है।

मानव की प्रकृति है एवं एक ऐसा महत्वाकांक्षी अवगुण भी है कि किसी को अपने से बराबर में देख बर्दास्त नहीं कर सकता। हमेशा आगे-पीछे की भाषा सोंचता है। यह कोई नई बात नहीं है। सदियों से चली आ रही है। सिस्टम बदलना है तो क्रांति करने होंगे। ग्राहकों को जागना पड़ेगा, संगठित होना पड़ेगा। अपने अधिकार के लिए लड़ना होगा। एक ऐसा कानून लाना होगा जिसमें एक ग्राहक को उनका अपना लाभांश मिले।

सरकार के पास भी बड़ी-बड़ी कंपनियाँ है। समता के नाम पर बड़ी-बड़ी चिकनी-चुपड़ी बातें करने वाले नेता लोग ऐसा कर सकते हैं। बात है तो सिर्फ गहराई से समझने की। समाजवादी परंपरा ला सकते हैं क्योंकि जनता के बागडोर उसी के हाथ में है, ताकि विश्‍व की 100% पूँजी का हिस्सा सबको बराबर मिले। इस प्रणाली से समाज में व्याप्त समस्त विकार एक-एक करके समाप्त हो जावेगी।

डी. के. देशमुख

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