हिन्दी साहित्य का यदि हम अध्ययन करें तो यह कहावत उसके बारे में कहा गया है जो कि अपने अतीत में बुरे काम किये होते हैं, वर्तमान में उपदेशक की भाँति किसी को भी सलाह देता फिरता है। समाज उसे हेय की दृष्टि से देखता है तथा उसके कारनामें पर हँसते हैं, खिल्ली उड़ाते हैं क्योंकि वह पहले कुछ और था आज रामनाम का चादर ओढ़ा हुआ है। शाब्दिक अर्थों पर जायें तो बिल्ली समाज की अज्ञानता पर हँस रही है। समाज बिल्ली के हज जाने पर हँस रहे हैं। समाज और बिल्ली दोनों एक दूसरे को देखकर हँस रहे हैं। हँस तो दोनों रहे हैं लेकिन हँस ने में सार्थकता किसकी है ये देखने वाली बात है।
पहले बिल्ली के बारे में अध्ययन करें कि समाज पर वे हँस क्यों रही है? बिल्ली कहती है कि मुझे बचपन से परंपरागत संस्कार दी गई थी कि चूहे हमारी भोजन है। आज मुझे बोध हो गई है कि ये गलत है। किसी की हिंसा कर पेट की आग बुझाना अधर्म है। आज मुझे बोध ही नहीं बल्कि गहरी बोध हो गई है कि चुहे खाना अधार्मिक कार्य है और मैं हज को चली गई। मैं हँस इसलिए रही हूँ कि समाज के पास रूपांतरित होने का कोई उपाय नहीं। समाज को अपनी गहराई का पता नहीं है। समाज मुझ पर भले ही हँसे लेकिन उसका हँसना केवल अज्ञानता है। बुद्ध के पास जाओगे तो रूपांतरित होने का एकमात्र उपाय गहरी बोध ही बतायेंगे। पाप का कारण अचेतन एवं अज्ञानता है। जिन्होंने जीवन को पूरे होश से जिया है वही समस्त विकारों से छुटकारा पाकर समग्र जीवन को उपलब्ध हुए हैं। परम् शान्ति एवं आनंद उसी की झोली में गया है। इसीलिए आज हज करके अपने आप को धन्य मानती हूँ। लेकिन समाज उसके रूपांतरित होने के न ही कारण समझ पाती है और न ही उसके अनुभव से कुछ सीख पाती है। उसके लिए सिर्फ एक लोकोक्ति रह जाती है कि सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली... कहने का आशय यह है कि आनंदित एवं हँसने का अधिकार सबको है, लेकिन हँसना एवं आनंदित होना किसका जायज है यह तो परमात्मा ही जानता है।
आज के महत्वाकांक्षा की दौड़ में यह घटना सामान्य सा हो गया है। किसी की दुर्दशा पर हँसने वाला बहुत मिलेंगे। समाज किसी की असफलता पर हँसती है या फिर व्यंग्य कसती है। सफल लोगों को पुरस्कृत करती है। क्या ऐसा समाज जीवन के अस्तित्व बचाने में सफल हो पायेगा? वास्तविक समाज का निर्माण तब हो पायेगा जब असफल लोगों को समाज अपने शरण में लेकर सही दिशा देने में समर्थ हो सके। असफल लोगों के अनुभव को जानने का प्रयास करें। इस संसार के अस्तित्व को वही बचा सकता है जो अपने आप से प्रेम करे, जीवन से प्रेम करे साथ ही साथ दूसरों से भी प्रेम करना सीखे। वर्तमान विद्यालय में ऐसा आदमी प्रशिक्षित होकर निकलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं, क्योंकि सफलता और सबसे आगे निकल जाने की परंपरा जो निकल पड़ी है। इस दौर में दो आदमी पैदा हो सकते हैं, पहला आत्महीन, दूसरा अहंकारी।
असफल आदमी प्रायः आत्महीन के शिकार होते हैं। सफल व्यक्तियों में कुछ को छोड़कर सभी अहंकारी होते हैं। अपने से बड़े सफल आदमी को देखकर अपने आप को आत्महीनता महसूस करते हैं। प्रतियोगिता की भावना सभी में हैं। एक दूसरे की सफलता को बर्दास्त करने की क्षमता नहीं है। पूरे समाज इस बीमारी से लत है। ईर्ष्या की केन्द्र बिन्दु भी यहीं से है। वास्तव में ईर्ष्या पूरे समाज को खा रही है। उसका एकमात्र कारण दूसरों से महत्वाकांक्षा है। दूसरों के प्रति महत्वाकांक्षा रखने वाले व्यक्ति कभी किसी से प्रेम नहीं कर सकता। वर्तमान विद्यालय आत्मप्रेमी, प्रकृति प्रेमी बनाने में असफल है, जो व्यक्ति दूसरों से महत्वाकांक्षा न रखते हुए सिर्फ अपने आप से आगे बढ़ने की चेष्टा की है वही व्यक्ति प्रकृति एवं परमात्मा से प्रेम करने में सफल हुए हैं। पूरा समाज आत्महीनता से ग्रसित है। एक देश, दूसरे देश के विकास को देखने में समर्थ नहीं है। एक देश, दूसरे देश से आगे बढ़ने की चेष्टा कर रहा है। इसी प्रकार हर व्यक्ति अपने पड़ोसी, अपने साथी, अपने गुरू या और व्यक्ति से महत्वाकांक्षा करने से नहीं चूकते। ईर्ष्या से कोई व्यक्ति अछूता नहीं है। यह अवगुण महिलाओं में ज्यादा पायी जाती है। छोटी-छोटी बातों पर ईर्ष्या देखने को मिलती है।
जिस समाज में ईर्ष्या के सिवाय कुछ है ही नहीं वहाँ आगे जीवन की अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। हिंसा, प्रतिहिंसा, चोरी, डकैती, मुनाफाखोरी, भ्रष्टाचार, वेश्यावृत्ति, बलात्कार, वार्गिक भेद एवं लूट-पाट आदि जैसी घटनाएँ महत्वाकांक्षा पर आधारित शिक्षा के ही कारण है। हर मानव का लक्ष्य सुख, समृद्धि और शांति है। आर्थिक रूप से समृद्धि हो चुके लेकिन हमारा साधन महत्वाकांक्षा का है इसलिए शाँत होने में असमर्थ हैं। शाँत आदमी ही जीवन में क्रांति ला सकते हैं। धार्मिकता एवं अधार्मिकता के तथ्य को भलीभाँति समझ सकता है। जीवन के वास्तविक उद्देश्य तक पहुँचा सकता है। समाज को इस उद्देश्य तक पहुँचना है तो साधन बदलना होगा। किसी विषय पर प्रेम केन्द्रित शिक्षा लागू करना होगा। किसी से महत्वाकांक्षा या प्रतिस्पर्धा की भावना खत्म करना होगा। किसी विषय से प्रेम हो जाये यही विकल्प काफी है। तथापि उपर्युक्त कहावत का अर्थ सही मायने में समझा जा सकता है।
डी. के. देशमुख
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें