पाहुन ! कब आआगे ?
तकती प्रतिपल पंथ
सुधि के बीज बोती
मिलन की
स्वपनिल पवन
से उसे सहलाती
कीट विरह के
कुतरते दिन-दिन
उसे कब सरसाओगे ।
पाहुन ! कब आआगे ?
वो बहार वो समाँ
मरूस्थल की आँधी हुई ।
यादें सुखद क्षणों की
उजाड़ अमराई हुई
प्यार की छाँह
सिमटते छिन-छिन
उसे कब बरसाओगे ।
पाहुन ! कब आआगे ?
ये बिछुआ ऊँगली पर,
बोझ हुआ जाता है ।
ये बिंदिया माथे पर
दोष लगा जाता है ।
हृदय-घट (दरकता)
चटकता तुम बिन
उसे कब बनाओगे ।
पाहुन ! कब आआगे ?
रमेश यादव
ग्राम-पेण्ड्री, पोष्ट-कलंगपुर
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