हमन न हिनदू हमन न मुसलिम
हमन न सिख-इसई अन
हमन तो भइया सबो परोसी
आपस में भाई-भाई अन ।
हिनदू, मुसलिम, सिख, इसई बन
इही मन हमला लड़ावत हे ।...
देस कब उबरही
नसा में कोन नइ हे
मोला ये तो बता
आज ले जे लेय नइ हे
वोखर चेहरा ला तो देखा
कोनो ला सोनिया दाई के नसा हे
कोनो ला जया बाई के नसा
कोनो ला ममता माईं के नसा हे
कोनो ल बाजपायी के नसा ।
अरे ! नसा मा तो पूरा जहान हे
बोहात गंगा मा हाथ धोय बर
का हिनदू का मुसलमान हे ।
बहुजन हो या बनियाजन
सबो एक्के टेबल मा पियत हे ।
कौमी एकता ह आज
भट्ठीच मा तो जियत हे ।
मोला कबे त पाँच परगट
आज तक पिये नइ हों
लुका चोरी घलो
एकात कप तिरे नइ हों ।
ये सब परोसी मन के
अनुभव बतात हों
दाहरा के मछरी के भोरहा मा
बाढ़ी खात हों ।
गरीब दास आधा पाव एती आव चिल्लात हे
धनीराम बोतल धरे अँटियात हे ।
अँटियाबे ते कतिक अँटियाबे
जमाय के बेर तो जोरियाबे ।
अऊ सोनइया करा
अलग बेवस्था कहाँ हे ?
एके प्लेट में खाबे ।
का केहे ? अभी तो मोर कर नइ हे
बता न यार तोला का चइए ।
अभी तोर करा नइ हे
त परोसी कब काम आही
तोला आधा चाही
त वो पूरा टेकाही
तेंहा चिंता काबर करथस यार
मोर भारत देस महान हे
दवई बर कही नी सकवँ
फेर दारू बर पूरा हिनदुस्तान हे ।
तोला जतका पीना हे
दिल खोल के पी
कभू मोरो नइ जमही
त तहूँ देख लेबे जी ।
हम सबला ल मिल-जुल के खाना हे
तुमन तो जानतेच हो यार
आज जोड़-तोड़ के जमाना हे ।
भट्ठी मा भाइचारा के
सुग्घर नजारा दिखत हे ।
का मंतरी, का संतरी
एके पलेट मा चिखत हे ।
भरे गिलास ल देखके
सबो के मुहूँ पनछावत हे
थोरको कम होत हे
त अपन-अपन ले टेकावत हे ।
नसा के ए दू बूंद हा
कतका आँखी ल मुंदही
परगती लहुलुहान होही
मानवता ला रऊँदही ।
पद, यउवन अऊ धन के नसा ले
देस कब उबरही
गाँधी बबा के सपना के भारत के
भेस कब सँवरही ।
पुष्कर सिंह ‘राज’
हमन न सिख-इसई अन
हमन तो भइया सबो परोसी
आपस में भाई-भाई अन ।
हिनदू, मुसलिम, सिख, इसई बन
इही मन हमला लड़ावत हे ।...
देस कब उबरही
नसा में कोन नइ हे
मोला ये तो बता
आज ले जे लेय नइ हे
वोखर चेहरा ला तो देखा
कोनो ला सोनिया दाई के नसा हे
कोनो ला जया बाई के नसा
कोनो ला ममता माईं के नसा हे
कोनो ल बाजपायी के नसा ।
अरे ! नसा मा तो पूरा जहान हे
बोहात गंगा मा हाथ धोय बर
का हिनदू का मुसलमान हे ।
बहुजन हो या बनियाजन
सबो एक्के टेबल मा पियत हे ।
कौमी एकता ह आज
भट्ठीच मा तो जियत हे ।
मोला कबे त पाँच परगट
आज तक पिये नइ हों
लुका चोरी घलो
एकात कप तिरे नइ हों ।
ये सब परोसी मन के
अनुभव बतात हों
दाहरा के मछरी के भोरहा मा
बाढ़ी खात हों ।
गरीब दास आधा पाव एती आव चिल्लात हे
धनीराम बोतल धरे अँटियात हे ।
अँटियाबे ते कतिक अँटियाबे
जमाय के बेर तो जोरियाबे ।
अऊ सोनइया करा
अलग बेवस्था कहाँ हे ?
एके प्लेट में खाबे ।
का केहे ? अभी तो मोर कर नइ हे
बता न यार तोला का चइए ।
अभी तोर करा नइ हे
त परोसी कब काम आही
तोला आधा चाही
त वो पूरा टेकाही
तेंहा चिंता काबर करथस यार
मोर भारत देस महान हे
दवई बर कही नी सकवँ
फेर दारू बर पूरा हिनदुस्तान हे ।
तोला जतका पीना हे
दिल खोल के पी
कभू मोरो नइ जमही
त तहूँ देख लेबे जी ।
हम सबला ल मिल-जुल के खाना हे
तुमन तो जानतेच हो यार
आज जोड़-तोड़ के जमाना हे ।
भट्ठी मा भाइचारा के
सुग्घर नजारा दिखत हे ।
का मंतरी, का संतरी
एके पलेट मा चिखत हे ।
भरे गिलास ल देखके
सबो के मुहूँ पनछावत हे
थोरको कम होत हे
त अपन-अपन ले टेकावत हे ।
नसा के ए दू बूंद हा
कतका आँखी ल मुंदही
परगती लहुलुहान होही
मानवता ला रऊँदही ।
पद, यउवन अऊ धन के नसा ले
देस कब उबरही
गाँधी बबा के सपना के भारत के
भेस कब सँवरही ।
पुष्कर सिंह ‘राज’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें