‘सुलक्षणा’ वह आप बुदबुदाई।।! सोचने लगी, माँ-बाप तो नाम सोच-समझ कर ही रखते हैं, वे जो कुछ करते हैं, अच्छे के लिये ही करते हैं। पर किसी का भाग्य ही रुठ जाये तो।।।। स्कूल के सारे बच्चे आ चुके थे। चपरासी ने भी आते ही घण्टे पर हथौड़ा दे मारा।।।टन।।। टन।।! जोर की आवाज आई। उसकी तंद्रा भंग हो गई, पता नहीं स्कूल आते ही उसे क्या हो जाता है, रोज का क्रम है। अपने केबिन में जाकर ज्यों ही बैठती है, विचार प्रवाह उसका पीछा नहीं छोड़ती।
स्कूल प्रांगण में प्रार्थना हो रही थी। बच्चे देश भक्तिगीत गा रहे थे फिर सुनाई दिया बच्चों का शोर। बच्चे जय-जयकार कर रहे थे, पूरा वातावरण गूँज रहा था। उसने भी देखे हैं, ये सब दिन। बचपन में इसी तरह जय-जयकार किया करती थी। बड़ों का सम्मान करती थी, अब भी करती है। उनके चरण छूती है, उसे क्या मालूम कि बड़ों का साया अचानक छूट जाता है, अब तो बस, यह संस्था ही उसका सहारा है।
भाग्य विधाता क्या-क्या कर देता है। शायद विधाता को भी नहीं मालूम कि मनुष्य को कितने दुःख झेलने पड़ते हैं। किसी के भाग्य में दुःखों का अंधकार है, तो किसी को मिलता है, आँसूओं का सैलाब। वह जी रही है, वर्तमान में, परन्तु अतीत की स्मृतियाँ तरोताजा हैं। पिता की मृत्यु ने गहरा आघात पहुँचाया था। चार भाइयों का घर बस गया, वह रह गई थी बिन ब्याही। पिता जीवित थे, तब तक बोलते जरुर, मौका देखकर बेटी के हाथ पीले कर देंगे, परन्तु उन्हें मौका नहीं मिला। भैया-भाभी निचट स्वार्थी निकले। अपना-अपना ही देखने लगे, मन बड़ा उदास था। किसी तरह स्नातक उत्तीर्ण हो पाई थी।
एकदिन माँ ने पहल की और कही- बेटी।।! रायपुर का किशन अच्छा लड़का है, श्यामलाल जी का एकलौता पुत्र है। थोड़ी सी खेती है, जिसमें घर के लिये खाद्यान्न हो जाता है। एस।टी।डी।, पी।सी।ओ। की दुकान है, जिससे अच्छी आमदनी हो जाती है, वे लोग तैयार हैं, तो बात करुँ। सुखी रहेगी तू। उसने हाँ कर दी। निर्धारित तिथि पर धूमधाम से शादी भी सम्पन्न हो गई।
ससुराल में गिनती के लोग, पति किशन और उसके ससुर जी श्याम लाल। सास कुछ साल पहले ही चल बसी थी। उसने यहाँ आकर सारा काम-काज संभाल रखा था। नित्य का क्रम था।।। सुबह तड़के उठना, ईश्वर की पूजा करना, नाश्ता तैयार करना, फिर दो वक्त का भोजन बनाना। खाली समय पढ़ाई-लिखाई करती। सचमुच बहुत सुखी थी वह, परन्तु नियति ने पलटा खाया।
एकदिन खबर मिली, कि किशन सरकरी अस्पताल में दाखिल है। उसके ससुर ने सुना, तो कानों पर विश्वास न हुआ। उसने सोचा-अभी भला चंगा था। अचानक क्या हो गया होगा, जो अस्पताल में भर्ती होना पड़ गया। अप्रत्याशित भय से उनके हाथ-पैर काँप रहे थे। अपनी बहू को कैसे बतायें वो। सोचा पहले अस्पताल में जाकर पुत्र की हालत देख लें, फिर बहू को सूचना दे दी जाय। ससुर जाने को तैयार हुये ही थे कि पर्दे की ओट से सुलक्षणा बोली- बाबू जी।।! मैं भी चलूँगी अस्पताल। यानी बहू को पता चल ही गया। बोले- तुम्हें जब मालूम हो ही गया है तो चलो बेटा।।! और वह अस्पताल की ओर चल पड़ी थी, परन्तु वहाँ आई।सी।यू। खाली पड़ा था। कोई नहीं था किशन के पास।
वह सारी बात समझ गई। डॉक्टरों ने स्थिति संभालने की कोशिश की होगी, परन्तु सफल नहीं हुये। उसने काँच के बाहर से देखा किशन का निश्तेज शरीर। चेहरा रूआँसा हो गया,सब कुछ समाप्त। उसे लगा, दहाड़ मारकर रो पड़े परन्तु अस्पताल में यह सब कैसे।।।कैसे रोये। बाबू जी उदास से एक ओर खड़े थे, वह जानती थी कि जानेवाले के साथ दुनिया नहीं चली जाती, परन्तु रो भी नहीं सकती। सारा दुःख समेटकर वह चुपचाप अस्पताल से घर चली आई।
बाबू जी ने औपचारिकताएँ पूरी की। बॉडी घर लाई गई। डाक्टरों ने कहा- हृदयघात हो गया। कोहराम मच गया। पास-पड़ोस के लोग, नाते रिश्तेदार और न जाने कहाँ से लोग उसके पति की अंतिम क्रिया में भाग लेने पहुँचे थे सब साँत्वना देते और कहते- बेटा।।! रोओ मत। विधाता की करनी कौन जानता है जो होना था, हो गया। अजीब विधाता है, जो मरना चाहता है, उसे मरने नहीं देता। जिन्दा रहना है, बहुत कुछ करना है, उसे तुरंत उठा लेते हैं। उसकी आँखों से आँसूओं की झड़ी थमती न थी किसी तरह खुद को बहलाने की कोशिश करती। अब तो केवल बाबू जी ही उसके लिये सहारा थे। कभी किशन की याद आती। तो हाथ पर हाथ धरे चिंता किया करती। बाबू जी उसे बहुँत ढाढस बँधाते और कहते- ज्यादा मत सोचो बहू।।! अब तू मेरी बहू नहीं, बेटी है।।।बेटी।
समय बीतते कितनी देर लगती है। बाबू जी कमजोर हो गये थे। उन्हें चलना फिरना असहय हो गया था। एकदिन उसने बुलाकर कहा था- बेटा।।! ये कुछ रुपये इकट्ठे किये हैं मैंने, इनसे तू एक स्कूल खोल लेना, इससे तुझे कभी कोई परेशानी नहीं होगी, पता नहीं मुझे कब क्या हो जाये। उर्ध्वश्वॉंस लेकर वे चुप हो गये। तब सुलक्षणा ने उन्हें हिदायत दी थी- बाबू जी।।! आप ऐसा क्यों कहते हैं बार-बार, मुझे आपका मार्गदर्शन चाहिए। आप मेरे लिये जिन्दा रहेंगे, मेरे लिये। वह जानती है कि ससुर कमजोर हो गये है, फिर भी साँत्वना देना पड़ता है। एक दूसरे को साँत्वना देना ही जीवन का उद्देश्य रह गया है और एकदिन सचमुच बाबू जी ने प्राण त्याग दिये। वह बिलख-बिलखकर रो पड़ी थी। जितने मुँह उतनी बातें, कोई कहता कैसे करेगा यह जीवन भर अकेली असहाय। उधर दबी जुबान से लोग उसकी तारीफ करते भी न अघाते थे, कहते- बड़ी होशियार निकली श्यामलाल की बहू। परिवार में कोई न रहा। खैर जीवन की डगर अकेले ही तय करनी थी। उम्र भी तो अच्छी खासी हो गई थी। इस उम्र में व्यक्ति परिस्थितियों से समझौता करने लग जाता है। अब एकाकीपन का अभ्यास हो गया है, खाली समय काटने दौड़ता था, इसलिये समय का सदुपयोग कर उसने स्नातकोत्तर की डिग्री ले ली।
समय गुजरता गया। अपने ससुर, जिन्हें वह पूज्य बाबू जी कहा करती थी, का सपना पूरा करने की ठान ली। उसने बड़ा सा भू-भाग खरीदकर स्कूल निर्माण किया। उसने प्री-प्रायमरी व प्रायमरी स्कूल खोल दिया। अच्छे स्टॉफ नियुक्त किये गये और एकदिन क्षेत्र के विधायक जनक लाल के हाथों संस्था का उद्घाटन हो गया। संस्था का नाम बाबू जी के नाम पर श्यामलाल स्मृति पब्लिक स्कूल रखा गया। सारी जनता उसकी स्कूल को एस।पी।एल। के नाम से जानती है। अब तो यहाँ माध्यमिक तथा हॉयर सेकण्डरी भी खुल गया है। शिक्षा का स्तर अच्छा समझ कर उसे डोनेशन का ऑफर भी मिलता रहता है, परन्तु छि:।।! उसे नहीं चाहिये डोनेशन।
मैडम।।! केबिन में आकर चपरासी ने पुकारा तो वह वर्तमान में आई, पूछा- क्या है।।।बोलो।।! मैडम, पूर्व विधायक जनकलाल जी के साथ कुछ लोग आये हैं। आपसे मिलना चाहते हैं। भेज दूँ मैडम? अच्छा हाँ।।। भेज दो- कहकर वह कुर्सी पर अलर्ट हो गई। जाने क्यों एम।एल।ए। मिलना चाहते हैं? मन ही मन सोचा उसने। इतने में जनकलाल सहित कुछ जन-प्रतिनिधियों ने केबिन में प्रवेश किया। बोले- माफ कीजिये मैडम।।! आपको डिस्टर्ब किया। बात यह थी कि, मुख्यमंत्री जी ने हमें भेजा है, उनका आग्रह है कि राज्य विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व आपके द्वारा हो, तो बड़े सौभाग्य की बात होगी। उसे लगा कि प्रस्ताव ठुकरा दें और स्पष्ट कह दें कि उसे चुनाव-उनाव नहीं लड़ना। उसने अनवरत श्रम की प्रतीक उसकी संस्था का क्या होगा? जनकलाल ने उसके मन की बात भाँप ली और उदारता पूर्वक बोले- मैडम।।! आपकी संस्था पूर्ववत् सुचारू रूप से चलेगी, चिंतित न हो। दरअसल ऐसा व्यक्ति क्षेत्र में नहीं है, इसीलिये यहाँ से आपका प्रतिनिधित्व आवश्यक है, अत: आग्रह है। अच्छा भाई साहब।।! आप सब यही चाहते हैं, तो ठीक है कुछ सोच कर उसने स्वीकृति दे दी।
कुछ क्षण पश्चात् संस्था परिसर में नारा गूँजने लगा- सुलक्षणा जी की जय! मैडम की जय !! संस्था की जय !! केबिन के भीतर टंगे पति और बाबूजी के चित्रों को देखकर उसकी आँखों से खुशी के आँसू झर-झर बह निकले।
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