रामलाल की एकमात्र बेटी सुहागिन।।। सबकी लाडली थी। क्यों न हो अकेली जो ठहरी। रामलाल और देवकी की गृहस्थी और लोगों से अलग थी। मायके का जो संस्कार देवकी पर पड़ा था, उससे ससुराल की मर्यादा का भी ध्यान रखती थी। रामलाल जी के पिता श्यामलाल नामी-गिरामी ठाकुर थे। गाँव के लोग उन्हें दरोगा जी कहा करते थे। रामलाल भी अपने पिता के एकमात्र औलाद थे। पिता जब स्वर्गवासी हुये तब काफी सम्पत्ति रामलाल के लिये छोड़कर, विदा हुये थे।
रामलाल का ठाठ-बाट भी कुछ कम न था, चमचमाते स्कूटर पर सवार होकर निकलते तो लोगों की निगाहें सहज में रामलाल की ओर जा टिकती थी और कुछ लोग बतियाते बाप-दादा के कमाई को उड़ाने में क्या है, इसीलिये तो इसके सिर पर मोर पंख निकल आये हैं। रामलाल अपने धुन का पक्का था। खेतीबाड़ी, नौकर-चाकर पर चकाचौंध था। ठकुराइन देवी आदर्श महिला थी, सबका बराबर ख्याल रखती थी। घर में काम करने वाले बाई से लेकर जितने घर के काम में हाथ बँटाते सभी देवकी को अम्मा जी कहकर पुकारते, लेकिन किसी ने कहा है, भाग्य से ज्यादा और किस्मत से कम के अलावा कुछ होने वाला नहीं।
लाख उपाय करने के बावजुद अगले संतान की कल्पना करना रामलाल के लिये स्वप्न सा हो गया। सुहागिन बहुत सुंदर, मृगनयनी सी थी। काफी चंचला, इकहरा गेहुँआ सा बदन, जब चौखट से बाहर कदम रखती तो लोग दाँतों तले उँगली दबाते, लेकिन किसी की क्या बिसात, जो सुहागिन को ताना मारते, ठाकुर की इकलौती बेटी जो ठहरी। मैट्रिक की कक्षा जब उत्तीर्ण की तब ठाकुर रामलाल कॉलेज में प्रवेश कराया और अपनी बेटी को स्कूटर सौंप दिया। रामलाल सुहागिन को बड़े प्यार से ‘छबीली’ कहता था और यही छबीली नाम की प्रसिद्धि चारो ओर थी। कॉलेज में भी प्राध्यापक से लेकर प्राचार्य तक छबिली को चाहते थे। छबिली अपने जन्मदिन पर पूरे कॉलेज स्टॉफ के साथ छात्र-छात्राओं का भी मुँह मीठा कराती थी, तब से सबकी चहेती थी। उम्र की तकाजा को नकारा नहीं जा सकता है। छबिली की मुस्कान और उसकी अदा से सुमेश का दिल खिल उठा था। सुमेश एक गरीब का बेटा था। गरीबी में भी अपनी पहचान बना लिया था। बड़ा हँसमुख दिलफेंक जो ठहरा।
कॉलेज के गेट पर प्रतिदिन छबिली का इंतजार किया करता था। छबीली भी दिल से सुमेश को चाहती थी। धीरे-धीरे दोनों का मन कब तक रूकने वाला था। एकांत में घण्टों बतियाते थे, तथा बात के साथ ही साथ तन पर भी एक दूसरे का साथ देते देर न लगी। ऐसी बातें कहाँ छुपती है। सारे कॉलेज के साथ शहर में भी आग की तरह बात फैल गई। धीरे से ठाकुर रामलाल के कानों में बात चली गई। सहसा विश्वास नहीं हुआ, चूँकि छबीली पर उसे नाज़ था। कहा करता था बेटी हो तो मेरी बेटी की तरह। छबीली, बेटा का अभाव ठाकुर रामलाल को नहीं होने देती थी।
लाख कोशिश के बावजूद रामलाल को छबीली और सुमेश के रिश्ते को मानना पड़ा। कहा भी गया है, प्यार के आगे एकदिन झुकना ही पड़ता है। सुमेश यह गाना अक्सर गुनगुनाता था- ‘कोई दिवाना कहता है, कोई पागल समझता है, मगर धरती के बेचैनी को बादल समझता है।’ इसी गाने की छबीली दिवानी थी।
सुमेश को दिलोजान से चाहती थी। एकदिन ठाकुर रामलाल को मंडप मजबूरी में सजाना ही पड़ा, अपनी बिटिया को डोली में बिठाकर सुमेश के साथ भीगी पलकों से विदा करना पड़ा। ठाकुर रामलाल और देवकी का जीवन बड़ा कष्टदेय हो गया। बुढ़ापा आने के पहले ही ठाकुर और देवकी बूढ़े से नजर आने लगे। सारी शानो-शौकत चरमरा गई। देखते ही देखते कल का अमीर आज फकीर हो गया। चेहरे की रौनक काफूर हो गया।
शहर के लोग जो ठाकुर रामलाल से आँख नहीं मिला सकते थे, अब अपने-अपने ढोल पीटने लग गये। रामलाल पर मजबूरी का नाम गाँधीजी कहावत चरितार्थ हुई। उधर छबीली बहुँत ही खुशहाल नजर आने लगे। ठाकुर रामलाल ने दहेज में काफी भेंट दिया था और अपनी बिटिया को दो पहिये की गाड़ी भी भेंट किया। जब सुमेश छबीली को लिवा लेकर चला तब पहली बार ठाकुर रामलाल को फूट-फूट कर रोते लोगों ने देखा था। देवकी ठाकुर रामलाल से बोली- देखो जी।।! बिटिया परायी धन होती है, गाय को एक न एकदिन कोठे में बाँधना ही पड़ता है। आप नाहक कितना विलाप कर रहे हैं। देवकी के लाख समझाने के बावजुद बाप का दिल नहीं मानता है। माँ का बेटा, बाप की बेटी होती है। सहसा इस तरह दिन गुजरे। छबीली के ससुराल वाले गरीबी में जो जीवन व्यतीत करते थे, दिन उलट जाने पर स्वभाव भी उलट गया।
सुमेश एवं उसके माता-पिता ठाकुर रामलाल से नाजायज फायदा उठाने लगे। बात-बात पर सुमेश का संदेश आता कि- हमें अमुक की कमी है। ठाकुर रामलाल ने हृदय खोलकर छबीली के लिये देना शुरू कर दिया। भिखारी को कितना भी दे दो, माँगना छोड़ता ही नहीं। देने वाले के दरवाजे जाना कहाँ छोड़ते हैं। दिन का चैन और रात की नींद ठाकुर रामलाल के आँखों से गायब हो गयी। अब तो लाठी का सहारा लेना पड़ गया। सोचा था एकदिन मेरी बिटिया सहारा बनेगी, लेकिन आशा निराशा में पलट गयी। बिटिया के घर जाना, पनाह पाना गुनाह मानते हैं। देखते ही देखते क्या हो गया। ठाकुर रामलाल चलते-चलते अपने आँगन में लुढ़क गया। पैर टूट गया। अस्पताल जाने की अपेक्षा बैगा-ओझा से फूँक-झाड़ कराने लग गये। बैगा, ओझा केवल बेवकूफ बनाकर ठाकुर रामलाल का धन लुटने लगे।
आखिर में ठीक नहीं हुआ, बल्कि पैर में सड़न प्रारंभ हो गया। हाथ पर हाथ धरे मन ही मन ठाकुर रामलाल पश्चाताप करने लगा। छबीली बाप की हालत देखकर चित्कार उठी। ठाकुर रामलाल का दुःख दोहरा हो गया, सोचा न था कि एकदिन ऐसा भी आयेगा। रेत की महल की तरह उसके सारे सपने बिखर गये, लगने लगा ठाकुर रामलाल ज्यादा दिन का साथी नहीं है। सुमेश, छबीली सेवा करने ठाकुर रामलाल के पास रह गये, लेकिन मृत्यु की कोई तिथि नहीं होती है। अचानक पंछी बिन बताये उड़ गया। आँगन में जो कल एक शोरगुल सुनाई देता, सुना हो गया। देवकी सारी क्रियाकर्म की व्यवस्था में जुट गई।
दसगात्र समाप्त होने के बाद जब छबीली, सुमेश जाने को तैयार हुये, तब सुमेश, ठाकुराइन देवकी से कहता है, अम्मा।।! अब साथ चलो, तब देवकी होठ दाँतों में काटते बोली- अब ठाकुर संसार से अलविदा हो गये। मुझे भी इसी तरह बिदा करना। मैं इसी आँगन की मिट्टी हूँ। यही कुल की मर्यादा होगी। जाओ छबीली।।! ‘अब पछताये क्या होय, जब चिड़िया चुग गई खेत।’ जाओ खुश रहो, माँग सिंदूर से सजा रहे और सदा सुहागिन रहो।।!
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