पं. किशोरलाल शर्मा ख्यातिलब्ध प्रतिष्ठित रतनपुर गाँव के मालगुजार थे। एक जमाना था, पंडित जी के आसपास लोग मंडराया करते थे। नौकर चाकर हुकुम के पक्के थे। पंडिताइन शांति देवी सुशीला थी, कोई उनके दरवाजे से बिना खाये-पिये लौटते न थे। भिखारियों का ताँता लगा रहता था। उनके चौखट से यही कहते वापिस होते पंडित जी दीनबंधु हैं। भिखारी राम बड़ा गरीब आदमी रतनपुर का ही निवासी था, अचानक दुर्घटना का शिकार होकर एक पैर गवाँ बैठा था, वह प्रतिदिन पंडित जी के आँगन में जाकर रुपये पैसे लाकर अपनी गृहस्थी चलाता था, वह रहीम के दोहे दुहराता कहता था- ‘दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय। जो रहीम दिनहिं लखै दीनबंधु सम होय॥ यह दोहा सोलह आने पंडित जी पर ठीक बैठता था।
पंडित जी के महल में गाड़ी, घोड़ा से लेकर मोटरकार सड़कों पर दौड़ता, जो लोग पंडित जी के नजरों में आ जाते निहाल हो जाते थे। विधाता ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी थी। रचा-पचा कारोबार पंडित जी के थे पाँच बेटे, चार बेटियाँ सबके बालबच्चे, नाती-पोती से भरा पूरा परिवार था, लेकिन कहावतें सही होती है सब दिन होत न एक समान। पंडित जी भी शरीर से कमजोर लगने लगे। घने काले बाल, चढ़ी भौंहें, कमल, नयन, चमकते चेहरे में सिकुड़न होने लगी, तब पंडिताइन शांति देवी ने कहा क्यों न बेटों को दौलत को बाँट देते, कितने दिनों तक कारोबार को हाथ में रखे रहोगे, शरीर साथ देने वाला नहीं हैं।
पंडित जी जमीन, जायदाद, कारोबार बराबर पाँचो बेटों में बाँट दिये। लड़कियों को भी कुछ रुपये दे दिये और पंडित, पंडिताइन छोटे पुत्र के साथ रहने लगे, छोटा जो होता है कोख का पोंछना होता है। कहा गया है- ‘बड़ा भाई बाप का, छोटा भाई माँ का, मंझला भाई साँई का।’ पंडित जी का छोटा पुत्र लाडला था, सबका चहेता था, इसलिए हाथ उसका बढ़ा हुआ था, शौकिन था। पिता जी का प्यार होने के कारण बेफिक्र था। उसकी निहारिका आधुनिकता की कायल थी चित्रघर से लेकर शॉपिंग करने जाती थी। पंडित जी के लाख कहने के बाद भी मनमानी करती थी, आधुनिक परिधान से सज-धजकर बाजार जाती थी। पंडित और पंडिताइन को यह तनिक भी पंसद नहीं था। एक समय था कि घर की महिलायें पंडित जी के चौखट पर भी खड़ी नहीं हो पाती थी। लोग कहते पंडित जी कि छोटी बहू बड़ी रंगीली है, नौकर-चाकर होते हुए भी मार्केटिंग को जाती है। उसकी सहेलियाँ भी खूब हो गयी थी। जहाँ पर शक्कर होती है, चिटियाँ झूम जाती है, बात दिखाई देने लगी। पंडित किशोरीलाल ‘भई छुछन्दर गति’ की तरह होने लगे, बटवारा जो कर दिया था। पंडिताईन शांति देवी समझाती थी की बोलना, कहना बेकार है।
एकदिन बहू निहारिका के पास उसकी एक सहेली रमा आकर कानाफुसी करने लगी। कहने लगे मेरे आने से आपके बाबू जी को अच्छा नहीं लगता है, मैं आँख की कीरकीरी बनना नहीं चाहती। निहारिका बहुत खफा हो गई, मेरे बीच में बोलने वाले वे कौन होते हैं। आग बबूला हो गई और कह बैठी बाबू जी।।! मेरे निजी मामले में दखलंदाजी मैं पसंद नहीं करती। आप रोकने वाले कौन होते हैं, घर मेरा है, आप दोनों को दो वक्त की रोटी के सिवाय और क्या चाहिए और तो आपके बेटे हैं, हमारे माथे सब थोड़े हैं। यदि हमारा तौर-तरीका पसंद नहीं आता तो अपना रास्ता नाप लीजिए। एक समय था, पंडित जी के सामने बोलने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती थी। सिर पीट लिये और सोचने लगे मैंने ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारी है। तिलमिला उठे, लोकलाज के कारण कुछ कहते नहीं बना और किसी के साथ रहना उचित नहीं समझ कर किराये के मकान में रहना शुरू कर दिये।
छोटा बेटा, पत्नी का गुलाम था। कुछ नहीं बोल सका। चुपके-चुपके माँ-बाप से मिलकर अपना पीछा छुड़ा लेता था। छोटा-बेटा का एक बेटा और एक बेटी थी, जिसके बगैर पंडित, पंडिताइन का जीना दूभर था। बच्चे भी दादा-दादी के दुवारे आ जाते थे। पंडित जी का शरीर दिनोंदिन गिरते गया, चिंता की लकीरें चेहरे पर दिखाई देने लगी। एकदिन पंडित जी के पास दोनों बच्चे खेलते-खेलते आ गये।
सूरज अस्तचलगामी हो गया था, छोटी बहू निहारिका सिर खुला किये तमतमाते आ धमकी। पंडित जी हाथ माथे पर देकर ओंठ को दाँत पर दबाते रह गये। दोनों बच्चों को पंडित जी के पास से खींचकर मारना शुरू कर दी। पंडित जी से रहा नहीं गया बोल उठा- यदि इन बच्चों पर हाथ उठायी तो हाथ तोड़ के धर दूँगा। तुम्हारे माँ-बाप ने क्या यही संस्कार डाला है, कुल का भी ख्याल नहीं, आपे से बाहर हो रही हो औरत की एक मर्यादा होती है। पंडिताइन समझाने लगी, छोड़िये न।।! ये तो बात करने लायक नहीं और बेटा तो जोरू का गुलाम है। निहारिका होश खो बैठी और बोली- मेरे बच्चे हैं आप बोलने वाले कौन होते हैं। खबरदार, जो मेरे बच्चों में पुरानी घिसी-पिटी रिवाजों को सिखायेंगे। दोनों बच्चे निरीह प्राणी की तरह सब देख रहे थे। मम्मी का, दादा जी को खरी-खोटी सुनाते ठीक नहीं लगा। दोनों बच्चे बोल उठे- दादा जी।।! मम्मी के सामने खुद पापा, भिगी बिल्ली, की तरह रहते हैं। अत: आप कुछ न बोले, इसी बीच पंडित जी का छोटा बेटा रतन आ धमका।
लोगों की जमावाड़ा और आनंद लेते देख रतन भौंचक रह गया। उसने विचार किया ये सब गलती मेरी है, जो मैंने निहारिका को इतना छूट दे रखा था। आँखें खुली और सबके सामने रतन बोला- पिताजी।।! मैं आपका बेटा हूँ। आपके टुकड़ों पर हम आराम करते रहे हैं और पराये घर से आकर निहारिका अपना हक जता रही है। मेरे सारे अपराध क्षमा करें और जो आपने मुझे बटवारा दिया है उस संपत्ति को आपको सौंपता हूँ। आप लोग किराये के मकान छोड़ चलें। पंडित-पंडिताइन को और अपने दोनों बच्चों को साथ घर वापस ले आये।
निहारिका नाराज होकर अपने मायके रोते चली गई। निहारिका को देखकर पिता दीनबंधु हक्का-बक्का हो गया।।। बेटी, आज पगली की तरह कहाँ से आ रही हो। सारी बातों से अवगत होने पर निहारिका के पिता ने कहा- तुम्हारे लिये इस घर में जगह नहीं है, मैं नहीं रख सकता। बेटी का घर तो जिस दिन बाप बिदा करता है, उसी दिन से ससुराल ही उसका घर होता है। जीते-मरते एक शरण पति का ही है। इतना सुंदर घर छोड़कर घर ढूँढते आ गई। चार दिन की मायका है, पिया का घर नीक होता है। निहारिका की आँखें खुली। सारी गलतियाँ का एहसास की और लौटकर आ गई, सास-ससुर और पति के चरणों में गिरकर क्षमा माँगी और कहने लगी, अब मैं यहाँ की मिट्टी में ही संसार से बिदा लूँगी। अपना घर अपना ही घर होता है, पर अटारी किस काम की।
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