गुरुवार, 13 मार्च 2014

स्वामी सुजनानंद जी महाराज


Swami Sujnand
स्वामी सुजनानंद जी महाराज (पूर्व नाम श्री हीरालाल शास्त्री) का जन्म धमधा तहसील के अरसी नामक ग्राम में संपन्न मालगुजार ब्राम्हण परिवार में हुआ था। आपके पिता श्री कल्याण प्रसाद शर्मा एवं माता जी का नाम श्रीमती केशर बाई था। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती कस्तूरी देवी शर्मा (माता जी) है। सुपुत्र श्री संतोष शर्मा, सुपुत्री सरोज, सविता, निर्मला, प्रतिमा, भारती स्वामीजी के कार्यों को आगे बढ़ाने में समिति का सहयोग करते रहते हैं। 

स्वामीजी की जीवन-शैली, कार्य-शैली व विचारधारा कुछ, इस प्रकार की रही कि आज धर्म के नाम पर शोषित-पीड़ित जनसमुदाय को ऐसे निःस्पृह, समाजसेवी संत पूज्यपाद श्री हीरालाल शास्त्री उपनाम स्वामी सुजनानंद के माध्यम से धर्म की सही परिभाषा से परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ था। मूर्तिपूजा व मात्र कर्मकाण्ड को ही स्वर्ग प्राप्ति का साधन माननेवाले लोगों को स्वामीजी के विचारों ने नई दृष्टि से देखने को विवश कर दिया। सनातन धर्म जो कि सच्ची मानवता का मार्ग प्रशस्त करने वाला ज्योति-पुंज है, विश्‍व के समस्त मानव समाज के लिये धरोहर है, उसे भी संकीर्णता प्रदान कर सीमित लोगों का धर्म बतानेवाले लोगों की कलाई खोलनेवाले स्वामीजी ८२ वर्ष की आयु में १० अगस्त १९९६ श्रावण कृष्ण एकादशी को प्रातः अपने हजारों अनुयायियों को रोते बिलखते छोड़ चले गये। 

संत विनोबा भावे का सानिध्य प्राप्तकर सर्वोदयी विचारधारा से प्रभावित ग्राम स्वराज करने की दिशा में चिंतन करनेवाले शास्त्री जी ने श्रीरामचरित मानस के माध्यम से समाज में ऐसी क्रांति पैदा करने की कोशिश की जिसके परिणामस्वरूप सुखी व स्नेहयुक्त परिवार व समाज की स्थापना हो सकती है। समाज की निःस्वार्थ भाव से सेवा करनेवाले दिवंगत स्वामीजी जैसे व्यक्तित्व ईश्‍वर के सच्चे सपूत का इस धरातल पर यदाकदा ही अवतरण हुआ करता है। ‘‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च’’ । जन्म लेनेवाले की मृत्यु निश्‍चित है, और मरनेवाले का जन्म भी निश्‍चित है। मृत्युलोक में अमर वे कहलाते हैं, जो सूक्ष्म रूप में मानव-समाज को प्रेरणा प्रदान करते हैं गुरुदेव श्रद्धेय श्री शास्त्रीजी आज हमारे बीच नहीं है, किंतु उनके विचार उनके द्वारा स्थापित प्रेरणा केंद्र दोनों आश्रम आनेवाली पीढ़ियों को ज्ञान का प्रकाश देते रहेंगे। 

आदरणीय शास्त्रीजी अपने जीवन के प्रारंभ में परतंत्र भारत में अंग्रेज़ी शासन में एक सैनिक रहे। भारतीय फौज़ में एक सैनिक के रूप में एवं इसके पहले के उनके आचार व्यवहार को देखनेवाला कभी यह अन्दाज़ नहीं लगा सकता था कि वे आगे चलकर समाज का मार्गदर्शन एक संत के रूप में करेंगे श्रद्धेय गुरुजी अपने पूर्व जीवन का उल्लेख करते हुये बताया करते थे कि उनके प्रारंभिक जीवन में जुआ, शराब, नशापान आदि समस्त बुराइयॉं रही। वे अरसी नामक ग्राम के एक धन-संपन्न मालगुजार के पुत्र थे। पैसे की अधिकता ने बुराइयों के दलदल में फँसने को मजबूर कर दिया। किसी दिन किसी कारणवश पिता से डॉंट पड़ी एवं प्रारंभ से तेज-तर्रार एवं हृष्ट-पुष्ट शरीरवाले श्री शास्त्रीजी घर से नाराज होकर फौज़ में भर्ती हो गये, किंतु उनके अर्ंतमन में देशभक्ति एवं करूणा का बीज विद्यमान था जो कि भौतिकता की चकाचौंध एवं मॉं बाप के लाड़ प्यार के कारण अंकुरित नहीं हो पा रहा था, किंतु फौज़ के अंदर अंग्रेज़ी शासन की भारत विरोधी नीति ने शास्त्री जी के हृदय को उद्वेलित किया एवं उन्होंने अपने साथियों को अंगे्रज़ी शासन के विरोध में भड़काना शुरू किया। सैनिक अधिकारी शास्त्री जी से क्रुद्ध हो गये एवं उनके द्वारा गिरफ्तारी का वारण्ट जारी होने से शास्त्री जी भूमिगत हो गये। आदरणीय गुरुजी संस्मरण सुनाते हुये बताया करते थे कि वे राजस्थान के बामन बड़ोदरा गॉंव के जंगलों में पशुओं को चराया करते थे। अंग्रेज़ सैनिक इन्हें ढूँढते रहे, किंतु इन्हें वे खोजने में असमर्थ रहे। 

बाद में आप भिलाई इस्पात कारखाने में एक अच्छे पद पर नौकरी पा गये। करीब २ वर्ष नौकरी करने के पश्‍चात् आपको अपने गुरु स्वामी विमलानंद जी महाराज जिनकी आयु वर्तमान में १२३ वर्ष बताई जाती है, द्वारा जनसेवा का आदेश मिला। गुरु आज्ञा से आपने भिलाई की नौकरी छोड़ दी और तुलसीकृत रामचरितमानस को माध्यम बनाकर सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन को अपना ध्येय बनाकर समाज सेवा में लग गये। उनका दृढ़ विश्‍वास था कि मनुष्य सुखी तभी बन सकता है, जब वह रामभक्त बनें और रामभक्त वही कहलाता है जो जन-जन में परमात्मा का दर्शन करें एवं जनता-जनार्दन को सुखी बनाने का प्रयास करें। मानस की यह पंक्ति ‘‘परहित सरिस धरम नहि भाई पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। ’ ‘ वे सदैव दुहराया करते। उनका मृत्यु पर्यंत सारा जीवन इसी पर केंद्रित रहा। दूसरों की भलाई में लगे रहे। भूलकर भी किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाये। मूर्ति-पूजन से ही कोई सच्चा भक्त नहीं बन सकता है। ईश्‍वर तक पहुँचने के साधनों का वह एक छोटा सा हिस्सा हो सकता है। यही सब कुछ नहीं है। ‘‘विश्‍व बंधुत्व की भावना एवं सर्वेभवंतु सुखिनः सर्वेसंतु निरामयाः’’ जैसे सनातन धर्म की मूल भावना को आत्मसात करते हुये प्रत्येक मनुष्य प्राणी जो कि ईश्‍वर के द्वारा बनाई गई जीती-जागती मूर्ति है, उसकी पूजा करनी होगी, सेवा करनी होगी। सच्चा भक्त बनने के लिये घर-द्वार का त्याग नहीं, बल्कि वशिष्ठ, विश्‍वामित्र, जनक एवं दशरथ के आदर्शों पर चलते हुए, मानवसेवा, जनसेवा को अपना लक्ष्य बनाना होगा। 

श्रद्धेय गुरुजी सच्चे संत थे। करूणा, दया, परोपकार, सादगी, सौम्यता, शीलता, आदि गुणों से परिपूर्ण उनका व्यक्तित्व हजारों व्यक्तियों के जीवन निर्माण में सहायक हुआ एवं होता रहेगा। उपरोक्त गुणों की आप साक्षात् मूर्ति रहे। आपके हर कार्यकलापों में इन गुणों का दिग्दर्शन होता रहता था। मुसीबत में पड़े कई परिवारों को आर्थिक सहायता पहुँचाना, विद्यार्थियों के लिये भोजन एवं अन्य सुविधायें उपलब्ध कराना, आश्रम में भोजन के समय पहुँचा हुआ कोई भी व्यक्ति बिना भोजन के न जाने पावें आदि कार्य उनकी दिनचर्या के अंग थे। प्रातः ४ बजे उठकर रामायण प्रवचन के साथ प्रार्थना सभा का कार्यक्रम उनके नित्य के कार्यकलापों में से रहे। 

श्रद्धेय शास्त्री जी ने गोस्वामी तुलसीदास को सारी दुनियॉं के लिये मसीहा माना। आप कहा करते कि-गोस्वामीजी का रामचरितमानस सभी ग्रंथों का सार है, एवं मनुष्य को हर विषम परिस्थिति में संकट से बचाने की क्षमता रखता है। शर्त इतनी है कि वक्ता एवं श्रोता निःस्वार्थ भाव से निष्कपट होकर इसका विश्‍लेषण करें व श्रद्धा एवं विश्‍वास के साथ उसके आदर्शों को ग्रहण करें। आपने रामचरितमानस के आदर्शों को अपने जीवन में प्रयोग करके देखा। परिणाम स्वरूप वे जीवनपर्यंत सुखी रहे एवं उनके संपर्क में आनेवाले भी लाभान्वित होते रहे। यही कारण है कि आज हजारों लोगों की उनके प्रति प्रगाढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा है। उनके अनुयायीगण जो छत्तीसगढ़ के हर अंचल में है, उनके कार्यक्रमों का आयोजन अपने क्षेत्रों में करते रहे एवं उनके आदर्शों को प्रचारित करने में सहभागी बने। शास्त्रीजी की यह अभिलाषा रही कि वे अपने जीवन के अंदर सही सिद्धान्तों का प्रचार अधिक से अधिक करें। प्रवचन के लिये समय का कोई बंधन नहीं। सुननेवाले हो तो पूरे दिन एवं रात में भी लगातार बोलने को वे तत्पर रहा करते। उनमें कुछ ऐसी कलायें भी थी जिनका उपयोग वे अपने आदर्शों के प्रचार के लिये साधन के रूप में किया करते थे पहली कला अद्भुत धनुषविद्या थी। रस्सी पर लटकती किसी वस्तु की रस्सी को दूर से काटना, शब्द-भेदी बाण, पैरों से धनुष पकड़कर निशाना आदि से लोगों को स्तंभित कर दिया करते। वे कहा करते कि वे इस खेल का प्रदर्शन कर के लोगों को एकत्र करते हैं, ताकि अपनी बात उन तक पहुँचाने में उन्हें सरलता हो जाती। इसी तरह वे स्लाइड के माध्यम से भी अपनी बातों को प्रभावी ढंग से समझाया करते थे। 

रामचरित मानस के आदर्शों को सनातन आदर्श मानते हुये आपने ‘रामायण सेवा समिति’ नामक संस्था का गठन १९६४ में किये। स्वामीजी की मान्यता रही कि जब तक जीवन से बुराइयों का जड़ मूल से नाश नहीं होगा तब तक जीवन में पवित्रता नहीं आ सकती है। ‘‘ईश्‍वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुखराशी। ’ ‘ वे कहा करते थे कि-जीव ईश्‍वर का अंश है। ईश्‍वर चैतन्यमय, निर्मल एवं सहज ही सुख स्वरूप है। अतः उसके अंश जीव में भी वही गुण विद्यमान है, किंतु बुराइयों को हमने अपने जीवन में अपना रखा है, इसलिये हम सुखी नहीं हो रहते हैं। आप कहा करते थे कि तुलसीकृत रामचरित मानस एक ऐसा अद्भुत एवं अमूल्य ग्रंथ है जिसके आदर्शों को सहजता से स्वीकार करने पर हमारे जीवन से बुराइयॉं निकल जायेगी और हमारे लिये सुखी जीवन का मार्ग प्रशस्त होता चला जायेगा। आपने रामायण सेवा समिति की सदस्यता ग्रहण करने हेतु जो शर्तें रखी उनमें व्यभिचार, मांसाहार, बिड़ी, तम्बाकू शराब जैसे नशीली वस्तुओं का सेवन आदि का परित्याग प्रमुख था आपने व्यसनमुक्ति अभियान चलाया। रामायण के उपदेशों को बोधगम्य व सरल शैली में प्रस्तुतकर हजारों व्यसनी लोगों के जीवन में आनंद व सुख का संचार आपने किया। संत महात्माओं के विचारों को जन-जन तक पहुँचाने के लिये आपने दो आश्रमों की स्थापना की। जीवन भर आप गॉंव-गॉंव जाकर अपने विचार लोगों तक पहुँचाते एवं कथा श्रवण के पश्‍चात् श्रद्धाभाव से लोग जो भी धन स्वामीजी को देते, वह आप इन आश्रमों के विकास एवं कार्यक्रमों के आयोजन में लगा देते। पहला आश्रम दुर्ग से ४० कि.मी. दूर बालोद मार्ग पर पैरी नामक ग्राम में तांदुला नदी के किनारे ‘श्री विमल वैदिक सेवा आश्रम पैरी’ एवं दूसरा दुर्ग से धमधा रोड पर २४ कि.मी. पर कोड़िया से पश्‍चिम दिशा में सगनी नामक ग्राम में शिवनाथ नदी के किनारे ‘‘श्रीराम जानकी आश्रम सगनी’ ‘ की स्थापना की। इन दोनों आश्रमों के लिये कई उदार दानदाताओं ने भूमि एवं धन स्वामीजी को उपलब्ध कराये। आपके जीवनकाल में ये दोनों आश्रम धर्म की सही ब्याख्या, जन-जन तक पहुँचाते हुये अपने उद्देश्य की पूर्ति में लगे रहे। ये दोनों आश्रम न केवल छत्तीसगढ़ या मध्यप्रदेश अपितु संपूर्ण भारतवर्ष में अन्य हजारों तीर्थों से अलग पहचान रखते हैं। इन केंद्रों पर धन की नहीं सदाचरण की प्रतिष्ठा है। राजनैतिक नेताओं व विचारों को किसी प्रकार का प्रश्रय नहीं। मात्र सादा, सरल, छलरहित, पवित्र जीवन जीने की कला सिखानेवाले केंद्र है। वर्ष भर इन दोनों आश्रमों में संस्कार, समाधि, साधन व अन्य अनेकानेक आध्यात्मिक कार्यक्रम संचालित होते रहते हैं। प्रतिवर्ष पौष पूर्णिमा के अवसर पर श्रीराम जानकी आश्रम सगनी में ५ दिन के कार्यक्रम एवं माघ पूर्णिमा के अवसर पर विमल वैदिक सेवा आश्रम पैरी में ३ दिन के कार्यक्रम स्वामीजी के संरक्षण एवं संयोजकत्व में आयोजित होते रहे हैं। इन अवसरों पर यहॉं के धर्मप्रेमी, सत्संग प्रेमी जनता को श्रद्धेय ओमप्रकाशानंद जी शंकराचार्य, शिवानंद जी हरिद्वार, राघव किशोर (उ.प्र.) श्री महेश मिश्रा भोपाल, बालयोगी विष्णु अरोड़ा जी रतलाम, सुश्री उमाभारती व स्वर्णलता जैसी महान विभूतियों से कथा-श्रवण का लाभ प्राप्त हुआ। साथ ही साथ अनेकानेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन भी होते रहे जिनकी यादगार दिवंगत शास्त्री जी के साथ जुड़े रहेंगें। श्री विमल वैदिक सेवा आश्रम पैरी ११ वर्षीय अखंड गायत्री महायज्ञ एवं श्रीराम जानकी आश्रम आनंदधाम सगनी को महालक्ष्मी यज्ञ के लिये सदैव याद किया जाता रहेगा। इन दोनों तपोभूमि की प्राकृतिक शोभा, भव्य मंदिर, विशाल यज्ञ शालायें किसे अपनी ओर आकर्षित नहीं करेंगी?

पूज्यपाद श्री शास्त्री जी को संत बिनोबा भावे एवं परम पूज्य गुरुदेव श्रीराम शर्मा आचार्य का सानिध्य प्राप्त हुआ। आपने ग्राम स्वराज्य की प्रेरणा संत बिनोबाजी से प्राप्त की। इन्ही भावनाओं से प्रेरित होकर आपने आश्रम स्थल पैरी में श्रीराम उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की स्थापना की। आश्रम में जरुरतमंद गरीब विद्यार्थियों को आश्रय मिलता। आश्रम में शुद्ध हवन सामग्री, गुरुकृपा दंतमंजन व आँख की दवाई बनाने का प्रशिक्षण सदस्यगण लेते रहे जिससे समाज को सस्ते दर पर शुद्ध दवायें प्राप्त हो सके व ग्रामीणों को छोटे उद्योग प्रारंभ करने की प्रेरणा मिलें। जहॉं तक श्रीराम शर्मा जी आचार्य के सानिध्य का प्रश्‍न है। उनके आदर्शों व विचारों को आत्मसात कर मूर्तरूप देने में ही तो आपने अपना सारा जीवन खपा दिया। मॉं गायत्री की उपासना एवं निश्छल जीवन जीने की कला अपने हजारों अनुयायियों को सिखाई। अपने अनुयायियों को माता-पिता का स्नेह व प्यार देनेवाले स्वामी सुजनानंद जी आज हमारे बीच नहीं रहे, किंतु पूज्यनीय वंदनीया माताजी कस्तूरबा देवी के मातृत्व की साया हमारे सिरों पर है, एवं परम पूज्य गुरुदेव का सूक्ष्म संरक्षण हम सबको मिलता रहेगा। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। 

अंत में हम उनके हजारों अनुयायियों एवं ब्रम्हलीन शास्त्रीजी के संपर्क में आनेवाले जन-समुदाय से अपेक्षा करेंगें कि हम सब उनके आदर्शों पर चलकर अपने जीवन को सफल बनायें एवं उनके विचारों को चारों दिशाओं में प्रचारित करनेवाले दोनों केंद्र श्री विमल वैदिक सेवा आश्रम पैरी एवं रामजानकी आश्रम सगनी को अधिकाधिक विकसित करने का प्रयास करें। यही परम पूज्य स्वामीजी के प्रति सच्ची श्रद्धाँजलि होगी। आपने अपने जीवनकाल में गुरुबोध, नामबोध, भक्तिबोध, धर्मबोध, नारीबोध, तीर्थबोध व नित्य प्रार्थना पुस्तकें लिखी। आपकी हस्तलिखित कई पुस्तकें प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं। इन्हें प्रकाशित करने का उत्तरदायित्व भी हम सबका बनता है। 

भगवान की कृपा एवं श्रद्धेय स्वामी सुजनानंद महाराज के आशीर्वाद के फलस्वरूप समिति अपने ‘स्वर्ण जयंती समारोह’ के अवसर पर ‘सुजन-दर्पण’ नाम पत्रिका प्रकाशित कर आपके हाथों में पहुँचा रही है। हमें आशा है, भावी पीढ़ी को इसका लाभ अवश्य ही प्राप्त होगा। 

-तेजराम कृपाण
पूर्व प्राचार्य,
शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, जामगॉंव (आर)
एवं अध्यक्ष श्रीरामायण सेवा समिति दुर्ग

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