स्व. शांतिदेवी हरमुख
शांति देवी का जन्म ग्राम-समोंदा के एक प्रतिष्ठित कूर्मि किसान परिवार में हुआ था। दाऊ बल्देव प्रसाद देशमुख एवं श्रीमती बेदबती बाई की वह तीसरी संतान थी शांति देवी नाम के अनुरूप सुन्दर, शांत-सरल तथा सहज थी पर स्वभाव से चंचल थी और बुद्धिमती थी। पढ़ने-लिखने में होशियार और होनहार थी पर गाँव में विद्यालय न होने के कारण दूसरी तीसरी से आगे नहीं पढ़ पाई। धार्मिक एवं ऐतिहासिक कथा कहानी सुनना तथा कौड़ी, तिरी-पासा खेलने की शौकीन रही, इसलिए माता-पिता का लाली और परिवार की चहेती थी, सभी प्यार से मुटकी बाई कहा करते थे घर तथा मामा परिवार में शांति देवी मुटकी बाई के नाम से ही जानी जाती रही लेकिन विवाह पश्चात ससुराल में समोंधिन बाई के नाम से जानी और पहचानी गई। बचपन से ही शांति देवी सेवाभावी तथा धार्मिक स्वभाव की संस्कारी और साहसी कन्या थी।
महज 15-16 वर्ष की उम्र में शांति देवी का विवाह सकरौद के प्रतिष्ठित मालगुजार प्रेमसिंह हरमुख के द्वितीय पुत्र जुगुल सिंह हरमुख से हुआ था। बहुत कम उम्र में ही उन्हे माँ, गृहणी और पत्नी की जिम्मेदारी निभार्इ और कुशलता पूर्वक निभानी थी जो एक चुनौती थी पति और परिवार की खुशियों के लिए संतानों के प्रति ममता, परिवार के प्रति निष्ठा और पति के लिए समर्पण पूर्ण जीवन को सफलतापूर्वक निर्वहन करते हुए शांति देवी स्वयं पाँच पुत्रियों और पाँच पुत्रों को माँ बनी इसी बीच संयुक्त परिवार का विभाजन का दौर चला। परिवार में लड़ाई झगड़े होते गये, बात कोर्ट कचहरी तक पहुँच गये जिससे दाऊ जुगल सिंह को संयुक्त मालगुजार परिवार के लगभग 400-500 एकड़ जमीन में से केवल 35 एकड़ जमीन पर एक व्यक्तिगत परिवार के रूप में गुजारा करने की नौबत आ गई।
एक सम्पन्न परिवार से सम्पन्न परिवार में बहू बन कर आई शांति देवी के लिए अचानक परिवार में हुए विभाजन एक कठिन अनुभव था। जायजद और जमीन की लड़ाई और कोर्ट कचहरी के लिए जमीन तथा जेवर बिक रहे थे तो इधर बच्चे बड़े होकर विवाह योग्य होते गए। कहा गया है- मुसीबत अकेली नहीं आती इस बड़े परिवार पर मुसीबत का दौर शुरू हुआ दाऊ जुगल सिंह जमीन आदि बेचकर संतानों की विवाह करते तो गये पर सदमें के शिकार भी हो गये और बीमार रहने लगे अनेक कोशिशों के बावजूद दाऊ जुगल सिंह भरापूरा परिवार को छोड़कर ईश्वर को प्यारे हो गये। शांति देवी के लिए यह समय सबसे कठिन समय था क्योकि उसका सुहाग तो उजड़ ही चुका था घर की खुशियॉं भी उजड़ चुकी थी।
शांति देवी के जीवन में अब शांति कहाँ उसके जीवन की कठिन दौर की शुरूआत हो चुकी थी। गरीबी, तंगहाली और आर्थिक विपन्नता के कारण घर के बड़े सदस्यों को मजदूरी का कार्य करना पड़ा। शांति देवी पूजा-पाठ-व्रत-उपवास करते हुए बच्चों के लालन-पालन, शिक्षा, संस्कार तथा उनके भविष्य पर ध्यान रखने लगी। घर की आर्थिक स्थिति खराब थी उधार बाढ़ी और कर्ज का द्वार खुला था पर शांति देवी ने स्वयं की प्रेरणा से परिवार के बड़े सदस्यों के साथ श्रम, मेहनत और ईज्जत का रास्ता अपनाया। कहा गया है- भूख जिंदगी की सबसे बड़ी इम्तिहान है शांति देवी के बड़े पुत्र रामेश्वर हरमुख पढ़ाई छो़कर नौकरी की तलाश मे निकले रामेश्वर, जहाँ प्राईवेट कृषि फार्मों में कार्य करते हुए घर की जिम्मेदारी सम्हाली वहीं जागेश्वर प्रसाद 8वीं तक ही पढ़कर भिलाई नगर के किराना दुकान में कार्यकर घर के सदस्यों के लिए सहारा और संबल बने, अन्य सदस्य खेत खलिहानों में मजदूरी का कार्य किए तथा दैनिक आवश्यकता की पूर्ति में सहायक बनें।
वैसे तो इस कठिन समय में शांति देवी बहुत सूझबूझ साहस और संयम से काम ली पर आर्थिक तंगहाली और बच्चों की स्थिति ने उन्हे विद्रोही बना दिया। उनकी सहन शीलता का बांध टूट गया उसे परिवार के मुखिया के सामने अपने हक के लिए विद्रोह करना पड़ा। शांति देवी नें बड़े दाऊ अर्थात परिवार के मुखिया के पास सामूहिक जमीन तथा तालाब से हिस्सा की माँग रखी। बहुत अनुनय विनय तथा कहा सुनी के बाद सामूहिक हिस्से से शांति देवी के परिवार को करीब नौ एकड़ परिया जमीन तथा सामूहिक तालाब के आय में हिस्सा मिला। शांति देवी की परीक्षा की घड़ी तथा जीवन के कठिन दौर की समाप्ति होने वाला था। कहा गया है- हर अँधेरी रात के बाद सुबह का सूरज उगता है शांति देवी की पूजा-पाठ-व्रत-उपवास-नियम-संयम तथा साहस काम आया, बड़े पुत्र रामेश्वर हरमुख को कॉपरेटिव बैंक में समिति सेवक की नौकरी मिल गई वहीं जागेश्वर हरमुख दुकानदारों का काम छो़कर भिलाई इस्पात संयंत्र में ऐनामार पर 4-5 वर्षो तक काम करते हुए बी.एस.पी. के नियमित कर्मचारी बन गये और स्वयं के मेहनत से परिवार के सदस्यों नें नौ एकड़ परिया जमीन को धनहा जमीन में बदलकर स्वयं खेती करने लगे जिससे घर में आय का स्रोत बढ़ने लगा। उत्पादन बढ़ा तथा सुखशाति और खुशियाँ भी बढ़ती गई।
माताजी की आशीर्वाद और बड़े भाईयों के छत्रछाया में चुनौतियों का सामना करते हुए छोटे पुत्र ओंकारेश्वर हरमुख भी बी.एस.सी., बी.ए., तथा डिप्लोमा इन सेनेटरी इंस्पेक्टर की डिग्री प्राप्त कर ली परिणाम स्वरूप उसे शासन के शिक्षा विभाग में शिक्षक के पद पर नौकरी मिल गई।
व्यक्ति के जीवन में सबसे बड़ी चाहत होती है दौलत, शोहरत, ईज्जत और कामयाबी इन सबको पुनः प्राप्त करने में शांति देवी को कठिन इम्तिहान की घड़ी से गुजरना पड़ा। शांति देवी और उसके परिवार चुनौतियों का मुकाबला करते हुए संघर्ष के रास्ते पर चलते गये वक्त गुजरता गया और हालात सुधरते गये, अब शांति देवी के जीवन में शांति और संतोष दोनों था सभी पुत्र-पुत्रियों की शादी अच्छे परिवार में हुए अच्छे सगे संबंधी और रिश्ते-नाते बनें और परिवार में खुशहाली आती गई शिक्षा और संस्कार में वृद्धि हुई नाती और पोतियों के किलकारियों से शांति देवी बीते जीवन की दुख भूलती गई और पाँच पौत्रियों को खुशियों की अश्रुपूर्ण नेत्रों से निहारते हुए सच्चे मन से आशीर्वाद देकर डोलियों में विदा करती गई। जीवन की अंतिम दौर में नियति की नियंता के मर्जी को स्वीकार करते हुए पाँच जनवरी 2006 को लगभग 80 वर्ष की उम्र में भरे पूरे परिवार को रोता-बिलखता छो़कर परमात्मा में लीन होकर पंचतत्व में विलीन हो गई।
शांति देवी की पुण्य स्मृति में पुत्र रामेश्वर हरमुख, जागेश्वर हरमुख एवं परिवार द्वारा विशेष सम्मान की घोषणा की गई जो समाज में उल्लेखनीय कार्य करने वाले महिला को प्रदान किया जाता है। शांति देवी हरमुख विशेष सम्मान एक संघर्षशील नारी की स्मृति में संघर्षशील नारी की संघर्षशीलता का सम्मान है।
-डॉ. प्रकाश
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें