आँगन में अपने,
काँटे बो रहा है आदमी ।
लाश मानवता की,
काँधे ढो रहा है आदमी ॥
आँट दूसरे की बैठकर,
शेखी बघारता ।
अपनी बात पे,
धार-धार रो रहा है आदमी ॥
साख अपनी बिठाने को,
घूमता गली-गली ।
घर अन्दर पे तार-तार,
हो रहा है आदमी ॥
बैठ धरती पे,
मंगल ग्रह की सैर कर रहा ।
अपने दिल पे,
नहीं झाँक पा रहा है आदमी ॥
भारत और पाक के,
सभी अवरोध टल रहे ।
अपने मुल्क में नापाक,
हो रहा है आदमी ॥
कब्जों की अवैध बाढ़,
गाँव-गाँव चल पड़ी ।
बहती गंगा में मुँह-हाथ,
धो रहा है आदमी ॥
ऐतबार सहसा मत करो,
पड़ोस वालों पर ।
पलटते ही झट कटार,
घोंप रहा है आदमी ॥
रमेश यादव
ग्राम-पेण्ड्री, पोष्ट-कलंगपुर
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