ऐसी गलतफहमी फैलाई जा रही है कि न्यायपालिका को जन लोकपाल के नियंत्रण में लाया जा रहा है। यह बिल्कुल गलत धारणा है। जन लोकपाल के तहत प्रस्तावित किया गया है कि किसी भी न्यायाधीश के भ्रष्टाचार के खिलाफ एफ. आई. आर. दर्ज कराने की अनुमति भारत के मुख्य न्यायाधीश के बजाय सात सदस्यों वाली जन लोकपाल की एक पीठ देगी (इस पीठ में न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े सदस्यों की संख्या बहुमत में हो सकती है)। मौजूदा व्यवस्था और जन लोकपाल बिल में प्रस्तावित व्यवस्था में बस इतना ही वास्तविक फर्क है।
एफ. आई. आर. दर्ज होने के बाद अगर कोई मामला बनता है तो मौजूदा व्यवस्था के तहत पुलिस या सीबीआई मामले की जांच करती है और मुकदमा चलाती है । चूंकि हमारा प्रस्ताव है कि सीबीआई की भ्रष्टाचार निरोधी शाखा का जन लोकपाल में विलय कर दिया जाए इसलिए जाहिर है कि एफ. आईआर.दर्ज होने के बाद जांच एवं मुकदमा दायर करना लोकपाल की जांच एवं मुकदमें के लिए बनी नई शाखा करेगी। जांच के पूरा होने के बाद जन लोकपाल की पूरी पीठ यह तय करेगी कि मुकदमा कोर्ट में दायर किया जाए या नहीं। जन लोकपाल के पास न्यायाधीश को दंडित करने या उन्हें बर्खास्त करने की कोई शक्ति नहीं होगी। न्यायालय ही मामले में सुनवाई करके सज़ा सुनाएंगे।
(III) जन लोकपाल बिल के दायरे में उच्च न्यायपालिका को शामिल करने पर कुछ दोस्तों की आपत्तियां:
लोकपाल प्रस्ताव की आलोचना एवं की प्रतिक्रिया
आलोचना :यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करेगा।
प्रतिक्रिया : न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कैसे प्रभावित करेगा ? हम न्याय व्यवस्था का बहुत सम्मान करते हैं और चाहते है कि वह स्वतंत्रत रहे। उच्च न्यायपालिका के ज्यादातर न्यायाधीश ईमानदार हैं परंतु, कुछ लोगों द्वारा किये गये गलत कामों की वजह से पूरी न्यायपालिका का नाम बदनाम हो गयी है। ऐसे भ्रष्ट लोगों की पहचान होनी चाहिए और उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए। जन लोकपाल की व्यवस्था जो इसे प्रभावशाली तरीके से कर पाएगी। तब न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मजबूती मिलेगी और लोगों की नज़रों में उसकी विश्वसनीयता और भी बढ़ेगी। मौजूदा व्यवस्था में भ्रष्टाचारियों को शरण मिल रही है। इसलिए मौजूदा व्यवस्था में लोगों के जहन में न्यायपालिका की छवि और विश्वसनीयता को कम कर रही है और साथ ही अपनी स्वतंत्रता के साथ समझौता भी कर रही है। जन लोकपाल अधिनियम एक ऐसी व्यवस्था बनाएगा जो यह सुनिश्चित करेगा कि जज के खिलाफ प्राथमिकी और मुकदमा दर्ज करने की प्रक्रिया स्वतंत्र हो।
आलोचना : जन लोकपाल पर काम का बोझ बहुत ही बढ़ जाएगा।
प्रतिक्रिया : देश में 1000 से भी कम सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं। न्यायाधीश एस.पी. भरूचा ने एक बार कहा था कि उच्च न्यायपालिका में 20फीसदी से भी कम भ्रष्टाचारी हैं। जाहिर है कि उन सभी के खिलाफ एक ही समय पर शिकायतें नहीं आयेंगी। लेकिन अगर सभी शिकायतें एक साथ आ भी जाती हैं तो भी शिकायतें 200 से तो कम ही होंगी। यह बहुत ही छोटी संख्या है और इससे किसी भी मायने से जन लोकपाल पर काम का बोझ नहीं बढ़ेगा।
आलोचना : न्यायिक मामलें काफी पेचिदे पेचीदा होते हैं। इसलिए न्यायाधीशों के खिलाफ आने वाली शिकायतों को न्यायपालिका से जुड़े व्यक्ति द्वारा ही देखा जाना चाहिए।
प्रतिक्रिया : जन लोकपाल को न्यायिक मामलों में हस्तक्षेप करने या किसी भी न्यायिक प्रक्रिया या फैसलों पर सवाल करने का अधिकार नहीं होगा। जन लोकपाल को न्यायाधीशों के पेशेगत व्यवहार / दुर्रव्यवहार में झांकने की शक्ति नहीं है। जन लोकपाल सिर्फ किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ रिश्वत लेने के आरोपों के लिए प्राथमिकी (एफ. आई. आर.) दर्ज कराने की अनुमति दे सकेगा। रिश्वत लेना और देना दोनों ही दण्डनीय अपराध है। इसमें कोई तकनीकी पक्ष शामिल नहीं है। अगर इस तर्क को स्वीकार किया जाए तो फिर आयकर विभाग से जुड़े लोग भी कहेंगे कि आयकर एक बहुत पेचिदा पेचीदा मामला है और इस विभाग के अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों को उन्हीं लोगों को देखना चाहिए जो आयकर से जुड हों। नेताओं, सीमा शुल्क अधिकारियों और लोकशाही के दूसरे विभागों की भी मांगें इसी तरह की होंगी।
आलोचना : हमारे संविधान में न्यायधीशों के महाभियोग की प्रक्रिया पहले से ही दी हुई है। क्या आप संविधान में कोई संशोधन की सलाह दे रहें हैं?
प्रतिक्रिया : जन लोकपाल कानून संविधान में संशोधन की बात नहीं कह रहा है। हम संविधान में मौजूद न्यायाधीशों के महाभियोग से जुड़े प्रावधानों को जन लोकपाल कानून छू तक नहीं रहा है। महाभियोग की बात ही नही हो रही हैं। सिर्फ इतना कहा जा रहा हैं कि न्यायाधीशों के खिलाफ प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) दर्ज कराने की अनुमति मुख्य न्यायाधीश के बजाय जन लोकपाल की सात सदस्यों वाली पीठ को दे दी जाए।
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