बुधवार, 21 अगस्त 2013

रक्षाबंधन

बहना ने भाई की कलाई से प्यार बाँधा है, प्यार के दो तार से संसार बाँधा है... सुमन कल्याणपुर द्वारा गाया या यह गाना रक्षाबंधन का बेहद चर्चित गाना है। भले ही ये गाना बहुत पुराना न हो पर भाई की कलाई पर राखी धने का सिलसिला बेहद प्राचीन है। रक्षाबंधन का इतिहास सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ा हुआ है। वह भी तब जब आर्य समाज में सभ्यता की रचना की शुरुआत मात्र हुई थी। 

रक्षाबंधन पर्व पर जहाँ बहनों को भाइयों की कलाई में रक्षा का धागा बाँधने का बेसब्री से इंतजार है, वहीं दूर-दराज बसे भाइयों को भी इस बात का इंतजार है कि उनकी बहना उन्हें राखी भेजे। उन भाइयों को निराश होने की जरूरत नहीं है, जिनकी अपनी सगी बहन नहीं है, क्योंकि मुँहबोली बहनों से राखी बंधवाने की परंपरा भी काफी पुरानी है। 

असल में रक्षाबंधन की परंपरा ही उन बहनों ने डाली थी जो सगी नहीं थीं। भले ही उन बहनों ने अपने संरक्षण के लिए ही इस पर्व की शुरुआत क्यों न की हो लेकिन उसी बदौलत आज भी इस त्यौहार की मान्यता बरकरार है। इतिहास के पन्नों को देखें तो इस त्यौहार की शुरुआत की उत्पत्ति लगभग 6 हजार साल पहले बताई गई है। इसके कई साक्ष्य भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।

इतिहास के पन्नों से... 

रक्षाबंधन की शुरुआत का सबसे पहला साक्ष्य रानी कर्णावती व सम्राट हुमायूँ हैं। मध्यकालीन युग में राजपूत व मुस्लिमों के बीच संघर्ष चल रहा था। रानी कर्णावती चितौड़ के राजा की विधवा थीं। उस दौरान गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह से अपनी और अपनी प्रजा की सुरक्षा का कोई रास्ता न निकलता देख रानी ने हुमायूँ को राखी भेजी थी। तब हुमायूँ ने उनकी रक्षा कर उन्हें बहन का दर्जा दिया था। 

दूसरा उदाहरण अलेक्जेंडर व पुरू के बीच का माना जाता है। कहा जाता है कि हमेशा विजयी रहने वाला अलेक्जेंडर भारतीय राजा पुरू की प्रखरता से काफी विचलित हुआ। इससे अलेक्जेंडर की पत्नी काफी तनाव में आ गईं थीं। 

उसने रक्षाबंधन के त्यौहार के बारे में सुना था। सो, उन्होंने भारतीय राजा पुरू को राखी भेजी। तब जाकर युद्ध की स्थिति समाप्त हुई थी। क्योंकि भारतीय राजा पुरू ने अलेक्जेंडर की पत्नी को बहन मान लिया था। 

इतिहास का एक अन्य उदाहरण कृष्ण व द्रौपदी को माना जाता है। कृष्ण भगवान ने दुष्ट राजा शिशुपाल को मारा था। युद्ध के दौरान कृष्ण के बाएँ हाथ की अँगुली से खून बह रहा था। इसे देखकर द्रौपदी बेहद दुखी हुईं और उन्होंने अपनी साड़ी का टुकड़ा चीरकर कृष्ण की अँगुली में बाँधा जिससे उनका खून बहना बंद हो गया। तभी से कृष्ण ने द्रौपदी को अपनी बहन स्वीकार कर लिया था। वर्षों बाद जब पांडव द्रौपदी को जुए में हार गए थे और भरी सभा में उनका चीरहरण हो रहा था तब कृष्ण ने द्रौपदी की लाज बचाई थी।

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

पशुधन


चंडीगढ़ से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर सतलुज नदी के किनारे गाँव है बहादूरपुर। जहाँ हर घर को रसोई गैस मुफ्त में मिलती है। ऐसा, संभव किया है गाँव के दिलबीर सिंह और उनके परिवार ने। वे फार्म पर डेयरी चलाते हैं। 120 गायें हैं। इन्हीं गायों के गोबर और गोमूत्र को साइंटिफिक ढंग से एकत्रित करके, उसमें से कार्बन डाई ऑक्साइड निकाली जाती है। बची हुई मिथेन गैस को प्रोसेस करके गाँव के हर घर को सप्लाई कर दी जा रही है। 

गाँव में 75 घर हैं। हर घर में गैस पहुँचाने के लिए दिलबीर सिंह ने अपने खर्च से पाइप लाइन डाली है। दिन में तीन बार 2-2 घंटे के लिए सभी के लिए गैस सप्लाई होती है। दिलबीर सिंह के परिवार का दुबई में स्क्रैप का कारोबार है। दिलबीर कहते हैं, ‘हम गोबर को बर्बाद क्यों कर रहे हैं? क्यों गैस और बिजली के लिए अरब मुल्कों के हाथ जोड़ रहे हैं। हर गाँव 70 फीसदी खाद, बिजली और गैस के लिए आत्मनिर्भर हो सकता है।’ दिलबीर के पास अभी 120 गायें हैं, वे इसे 200 तक ले जाना चाहते हैं। पहले से ही प्लानिंग करके उन्होंने अपना फार्म उसी तरह का बनाया है। गोबर से गैस निकालने के बाद बचा अवशेष खाद में बदल जाता है, जो वह बेचते हैं। उन्होंने बताया, इसे सिलेंडरों में भरकर भी सप्लाई किया जा सकता है लेकिन उसके लिए भारत सरकार से लाइसेंस लेने की जरूरत पड़ती है। हम उस दिशा में काम कर रहे हैं। दिलबीर पैक्ड दूध की सप्लाई करते हैं और बचे हुए दूध से मिठाइयॉं भी बनाते हैं। इंटरनेशनल स्टैंडर्ड की। अपनी जमीन पर फैक्टरी बना ली है जहॉं से दुबई आदि में ये मिठाइयॉं सप्लाई की जाएँगी। वे कहते हैं, डेयरी कारोबारी दूध को मुख्य बिजनेस बना रहे हैं, जबकि हमारे लिए दूध डेयरी का बायप्रोडक्ट है। डेयरी फार्मिंग से हम ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। 

मान गए आई.आई.टी. के प्रोफेसर..
आईआईटी दिल्ली का फार्मूला गोबर को पहले ही दिन प्रोसेसिंग में डालकर गैस निकालने का है। दिलबीर सिंह दूसरे दिन इसे प्रोसेस करते हैं। ताकि पहले दिन आग बुझाने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड निकल जाए, फिर इसमें रह जाती है सिर्फ मिथेन, जो ज्वलनशील है। जब इस बात का पता आई.आई.टी. दिल्ली के प्रोफेसरों को चला तो उन्होंने दिलबीर का पूरा प्रोजेक्ट समझा और सराहा।

प्रेक्टिकल से ही आया ये आइडिया...
दिलबीर ने बताया, कार्बन डाई ऑक्साइड को निकालने का आइडिया प्रेक्टिकल से आया। अब गैस की क्षमता और बढ़ाने के लिए मिथेन का तापमान बढ़ाने पर काम कर रहा हूँ। यदि इसे 45 डिग्री तक ले जाने में कामयाब हो गया तो इसी गैस प्लांट की क्षमता दोगुनी हो जाएगी।

उपरोक्त उदाहरण की तरह हमारे गाँवों में 2-3 चरवाहों के अधिनस्‍थ बरदियों (मवेशियों के समूह) में 500 से भी अधिक गाय, बैल, भैंस रहते हैं । ये चरवाहे चार-पाँच माह ही मवेशियों को घास के मैदानों में चराते हैं शेष अवधि में मवेशी सड़कों-गलियों में घूमते रहते हैं । इनका गोबर व मूत्र व्यर्थ बह जाता है । 

यदि इन्हें बारहों मास ग्राम पंचायत के अधीन लेकर सामुदायिक सहभागिता से पशुपालन व देखरेख को विकसित करें तो हर एक गाँवों में बड़े स्तर पर गोबर गैस प्लांट, कम्पोस्ट एवं गोबर खाद की फैक्टरियाँ गौमूत्र के अमृत का विशाल संग्रह एवं जैविक कृषि में क्रांतिकारी परिवर्तन संभव है । 

आप और भी कुछ कर सकते हैं, देश की खुशहाली के लिए है। आप और क्या कर सकते हैं- इस ब्लाग के जरिए अपना विचार भेजिए-

रविवार, 18 अगस्त 2013

समर्पित कला साधक

छत्तीसगढ़ी लोकनृत्य परंपराओं के रक्षण हेतु पूरा शिद्दत के साथ समर्पित एक लोक कलाकार है नीलमदास मानिकपुरी। नीलम ने छत्तीसगढ़ी फोक नृत्य को प्रदेशव्यापी प्रतिष्ठा दिलाने में अहम भूमिका निभाई है। लोककला जगत से जुड़े लोगों के बीच उनका एक विशिष्ट स्थान रहा है। नृत्य साधना को समर्पित नीलमदास मानिकपुरी लोककला मंच ‘‘पहाती सुकवा’’ के माध्यम से शुरू किया है। उनका कोई गुरू नहीं है बल्कि उन्हें बहन रामेश्वरी यादव से बहुत कुछ सीखने को मिला है। वर्तमान में ‘‘अनुराग धारा’’ लोककला मंच से जुड़कर लोकनृत्य की प्रचार-प्रसार में जुटे हुए हैं, ताकि अगली पीढ़ी तक फोक नृत्य को पहुँचायी जा सके। लोककला के प्रति समर्पित नीलम से हुई दरवेश आनंद की बातचीत—

अपना बचपन व शिक्षा- दीक्षा के संबंध में बताइए तथा लोकनृत्य की ओर कैसे विचार गया?
विद्यार्थी जीवन से ही कला में रूचि लेना शुरू कर दिया था, गाँव की लीला मंडली में। ‘‘सोनचिरइया’’ कार्यक्रम सन् 1980-81 में हो रहा था। उसे देखकर मन में कला प्रदर्शन करने का विचार आया।

आपकी कला यात्रा कहाँ से और कैसे शुरू हुई एवं किस-किस लोककला मंच से जुड़े रहकर प्रदर्शन करते आ रहे हैं आप?
‘‘पहाती सुकवा’’ खलारी से मेरी कला यात्रा शुरू हुई। इसके बाद शेखर साहू के साथ भुँइयाँ के सिंगार दल्लीराजहरा, सीताराम साहू के साथ सूरजमुखी पेण्ड्री में डांस व प्रहसन करता रहा। बाद में ‘‘लोकमंजरी’’ संस्था भिलाई से जुड़ गया और यहाँ से एक नाम मिला, पिछले 16 वर्ष तक ‘‘चंदैनी गोंदा’’ में काम किया। वर्तमान में गायिका कविता वासनिक के साथ अनुराग धारा राजनांदगाँव से जुडक़र कला यात्रा जारी है।

किसे अपना आदर्श मानते हैं?
विश्वनाथ धारगे जो सोनहा बिहान में लोरिक का किरदार निभाते थे, उससे मैं प्रभावित रहा।

आप क्लासिक डांस या फिर फोक डांस को ज्यादा महत्व देते हैं?
फोक डांस को महत्व देता हूँ लेकिन क्लासिक डांस की शिक्षा लोक कलाकार को जो डांस में रूचि रखते हैं लेना चाहिए। इससे ताल व भाव में तादात्म्य बैठता है नृत्य में कहीं चूक नहीं होती और फोक नृत्य तो अंतरात्मा की आवाज होती है इसे सीखने की जरूरत नहीं है।

आजकल छत्तीसगढ़ी एलबम का दौर चल रहा है इससे कितना संतुष्ट है एवं खुद को कहाँ पाते हैं?
वर्तमान में छत्तीसगढ़ी संगीत का स्वरूप ही बदल चुका है बंबइया ढर्रे पर चल रहा है, अपने आप को कहीं नहीं पाता। छत्तीसगढ़ी की जो मिठास है वो एकदम खो गया है। लगता है मधुर गीतों का युग खत्म हो चला है।

छत्तीसगढ़ी गीतों में इन दिनों बेहूदा शब्दों का धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है, कौन जिम्मेदार है व इससे बचने क्या प्रयास किया जा सकता है?
इसे बचाने के लिए साहित्यकारों को आगे आने की जरूरत है। एक वैचारिक क्रांति की चाहिए। ऐसे गीत संगीत से कलाकारों को भी परहेज करने की आवश्यकता है। तभी लोक संस्कृति बचायी जा सकती है।

लोककला और लोक सर्जकों को बचाए रखने की दिशा में सरकार की क्या भूमिका है तथा क्या होनी चाहिए?
लोक कलाकारों के प्रति सरकार की सोच कोई खास नहीं है। पेंशन योजना भी पर्याप्त नहीं है। जीवनभर एक कलाकार घर बार त्यागकर लोगों के मनोरंजन करने व लोक विलुप्त हो रही कला को बचाने में गवाँ देता है। उसे पेंशन के बतौर चंद रूपये दिया जाता है।

आज लोककला मंच का अस्तित्व खोता जा रहा है ऐसे आयोजन में भीड़ कम होती जा रही है?

टी. वी. सीरियल प्रभावित कर रहा है। भीड़ जरूर कम होती है लेकिन आज भी कहीं पर लोककला आयोजित होती है लोग देखने आते हैं। नई पीढ़ी में रूचि कम तो है किन्तु पुराने दर्शक आज भी है।
छत्तीसगढ़ी फिल्मों के प्रति आपकी नजरिया व कितने फिल्म में अभिनय कर चुके है?
डांड़ नामक फिल्म में अभिनय व ग्रुप डांस कर चुका हूँ। इसके अलावा 3-4 फिल्म में भी काम करने का मौका। मिला अभिनय भी किया लेकिन छत्तीसगढ़ की महक नहीं मिलती। मोर छंइया भूंइया के बाद लोक संस्कृति की छाप छोडऩे वाली फिल्म नहीं बनी। साउथ इंडियन व बंबइया पैटर्न में ज्यादातर फिल्म बन रही है।

सरकार द्वारा दिए जाने वाले सम्मान को कैसे देखते हैं?
ऐसे कलाकारों को ढूंढकर सम्मान दिए जाने की जरूरत है जो 20-25 साल से लोककला के क्षेत्र में कार्य करते आ रहे हैं। सरकार गिने-चुने लोगों को ही सम्मान बाँट रही है यह कलाकारों की उपेक्षा है। इसी तरह राज्योत्सव व जिला उत्सव के आयोजन पर स्थानीय कलाकार को स्थान नहीं दिया जाता है। बाहरी कलाकारो पर करोड़ों खर्च कर दिया जाता है ऐसा करने के बजाय राज्य के बेरोजगार कलाकारों की रोजी रोटी के बारे में सरकार को सोचना चाहिए।

छत्तीसगढ़ी संस्कृति का दूसरे प्रांतों में कितना दखल अथवा प्रभाव देखते हैं आप?
छत्तीसगढ़ के कलाकार अन्य प्रांतों से प्रभावित होते हैं, दूसरे नहीं, जबकि हमारी संस्कृति बेहद प्रभावशील है। छत्तीसगढ़ में आकर गुजर बसर करने वाले लोग चाहे वह राजस्थानी हो बिहारी हो उड़िया, तेलगू, बंगाली हो अपना लोक गीत सुनते हैं लेकिन छत्तीसगढ़िया ऐसा नहीं करते। जब हम अपनी संस्कृति का सम्मान नहीं करेंगे, तो कोई व्यक्‍ति बाहरी कैसे करेगा।

टीपागढ़


धार्मिक आस्था का पर्व माघ पूर्णिमा के पावन अवसर पर टीपागढ़ पहाड़ पर वृहद मेले का आयोजन लंबे अरसे से होता आ रहा है। छत्तीसगढ़ प्रदेश के राजनादगाँव जिले के अंतिम छोर पर महाराष्ट्र सीमा पर स्थित धूर नक्सल प्रभावित मानपूर वनांचल ब्लाक के बार्डर के उस पार महाराष्ट्र के ग्यारहपत्ती थानांतर्गत घनघोर कानन के मध्य मेले का आयोजन होता है। जहाँ महाराष्ट्र के ही नहीं अपितु छत्तीसगढ़ के हजारों श्रद्धालु अति प्राचीन तालाब में डुबकी लगाने और मेले का लुत्फ उठाने उमड़ते हैं। तीन दिनों तक चलने पाले इस मेले में लोग परिवार सहित व इष्ट मित्रों के साथ समूहों में पहुँचते हैं। पूर्णिमा की भोर सूर्योदय के पूर्व तालाब के लिर्मल जल में शाही स्नान कर यहाँ पर स्थित विभिन्न मंदिरों में टीपागढ़ वाली माता व विराजमान देवी-देवताओं के आगे माथा टेक अपनी खुशहाली व समृद्धि की दुआ माँगते हैं।

पर्वत श्रृँखलाओं के मध्य सूर्योदय का विहंगम नजारा
घनघोर जंगल में आकाश चूमते पर्वत श्रृँखलाओं के मध्य अति प्राचीन विशाल सरोवर है। लंबे वर्षों से धार्मिक आस्था का केन्द्र बना हुआ है। यहाँ पहुँचकर लोगों की मनोकामनाएँ पूर्ण होती है। सुबह की पहली किरण के साथ सूर्योदय का विहंगम नजारा आकर्षण का केन्द्र बन जाता है, ऐसा लगता है कि मानो जंगल की गोद से निकलकर सूर्य पर्वतों का आश्रय ले आसमान की ओर कूच कर रहा है। इतना ही नहीं यहाँ पर विशालकाय चट्टानों के बीच कई सुरंग, गुफाएँ और वनाच्छादित नयनाभिराम दृश्य यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य का अमूर्तपूर्ण अहसास दिलाती है। चट्टानों से होकर जान जोखिम में डालकर भी लोग प्रकृति के इस मनोरम मंजर को देखने पर्वतों के शीर्ष चोटियों पर चढ़ते हैं।


राजाओं के जमाने से स्थापित है मूर्तियाँ
अति प्राचीन तालाब के किनारे दो मंदिरें हैं, जहाँ राजाओं के जमाने से स्थापित टीपागढ़ माता व विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियाँ है, वहीं पहाड़ों के ऊपर एवं सुरंग के भीतर व वाह्य विशाल चट्टानों में भी भिन्न-भिन्न आकृतियाँ उभरी हुई है। स्थापित मूर्तियाँ किस शताब्दी की है स्पष्ट नहीं है। यह पुरातात्विक दृष्टिकोण से भी काफी महत्वपूर्ण हो सकता है। जहाँ लंबे अरसे से क्षेत्र के जनमानस में इसे लेकर धार्मिक आस्था बनी हुई है। लिहाजा बड़ी संख्या में क्षेत्रवासी सहित दोनों राज्य के दूर-दराज के लोग पैदल यात्रा से लेकर साइकिल, दोपहिया एवं चारपहिया वाहनों से यहाँ पहुचते हैं।

तीन दिवसीय माघी पूर्णिमा मेले का आयोजन
वर्ष में एक बार तीन दिवसीय मेला माघी पूर्णिमा के अवसर पर लगता है, बाकी दिनों में सौन्दर्य से आपूरित स्थल वीरान सा रहता है किन्तु सैलानी व घुम्मकड़ प्रकृति के लोग यहाँ जरूर पहुँचते रहते हैं। खास बात है कि नक्सलियों का गढ़ होने के बाद भी लोग बेखौफ मेले में बड़ी संख्या भाग लेते हैं, जो कि धार्मिक आस्था के अतिरिक्त प्राकृतिक सुन्दरता का एवं सौहार्द्रता का जीवंत उदाहरण है। मेले में लोगों की बड़ी संख्या में आगमन को देखते हुए वर्तमान में आसपास के गाँवों की समिति मेले के आयोजन में रूचि लेने लगे हैं। प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा के अवसर पर मेला भरता है, जहाँ पूर्णिमा की रात्रि चौथे पहर सूर्योदय के पहले विशाल तालाब में डुबकी लगाकर देवी-देवताओं के दर्शन व पूजा-अर्चना कर सुख-शांति व समृद्धि की कामना करते हैं। यहाँ यह बताना मैं लाजिमी समझता हूँ , मेले को छोडक़र आसपास के लोग अन्य अवसरों पर यहाँ उत्सव मनाने भी आते रहते हैं, खास तौर पर होली के एक-दो दिन पहले एक जनजाति समुदाय के लोग इकट्ठे होकर एक विशेष पर्व मनाते हैं ये होली का त्योहार नहीं मनाते हैं। जिसमें शराब प्रतिबंधित होता है, लेकिन विभिन्न प्रकार के मांसाहारी भोजन प्रसाद के रूप में पकाते हैं अपने इष्टों को होम देकर गाँव की खुशहाली के लिए टीपागढ़वाली माता से दुआ माँगते हैं।

घोर नक्सल क्षेत्र होने के बाद भी उमड़ता है जनसैलाब

अटपटे, बेहिसाब घने जंगल और छोटे-बड़े, ऊंचे-नीचे दर्जनों पर्वत श्रृँखलाएँ हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि नक्सलियों का गढ़ माने-जाने वाले मानपूर वनांचल ब्लाक और महाराष्ट्र का सीमावर्ती यह इलाका माओवादियों के लिए निश्चित तौर पर महफूस शरणस्थली हो सकता है, यही वजह है कि माओवादियों के महाराष्ट्र इकाई का एक बड़ा दल टीपागढ़ दलम के नाम से सक्रिय है।

कैसे किस साधन से पहुँचे
जिला मुख्यालय राजनांदगाँव से मानपूर तक बस से सफर कर जाना पड़ता है दूरी है 100 किलोमीटर। यहाँ से टीपागढ़ लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थ्ति है। राजनांदगाँव जिला व प्रदेश के वनांचल विकास खण्ड के अंतिम छोर में महाराष्ट्र सीमा पर है। राजनांदगाँव से मानपुर के लिए हर घंटे बस की सुविधा है। इसी प्रकार बालोद जिला के दल्लीराजहरा एवं कांकेर जिला के भानुप्रतापपुर से भी बस समय-समय पर है। मानपूर पहुँचने के बाद मानपूर से गढ़चिरौली मार्ग पर बस चलती है, लेकिन काफी अंतराल के बाद। उक्त मार्ग पर छत्तीसगढ़ सीमा समाप्त होने के बाद पहला स्टापेज सावरगाँव पड़ता है। यहाँ से कोटगुल मार्ग पर मुख्य मार्ग से 10-12 किलोमीटर दूर स्थित है टीपागढ़। इस मार्ग पर एक-दो बस दिन भर में चलती है। अत: निजी साधन से जाना प्रत्येक दृष्टि से बेहतर है। टीपागढ़ वाली माता का मंदिर मार्ग से पर्वत मालाओं से पैदल चलकर जाना पड़ता है, जिसकी लंबाई 3 किलोमीटर है। उबड़-खाबड़ पथरीला रास्ते का सफर बड़ा ही रोमांचक अनुभव प्रदान करता है। कभी ऊंचाई चढऩा पड़ता है तो कहीं लंबे ढलान उतरना होता है। बांस के ऊंचे घने बियाबान अपने ओर बेहद आकर्षिक करता है, साथ ही अन्य कई प्रजातियों के विशाल वृक्ष सागोन, कलमी, तेंदू, कर्रा, आम एवं अनाम झाड़ियाँ दृश्य को और भी नयनाभिराम बनाते हैं।

पर्वतमालाओं के मध्य राह चलते हुए डोंगरी के नीचे दूर बसे छोटी बस्तियाँ एवं कहीं-कहीं का हरा मैदानी भाग आखों को सुकूंन देता है। रास्ते में सफर के दौरान छोटे कद की लाल मुँह वाले बंदर भी समूह में उछल-कूद करते दिख पड़ते हैं। पहाड़ी राह कई स्थानों पर बेहद संकरे हो जाते हैं। मंदिर व मेला स्थल पहुँचने में लगभग 2 घंटे का वक्त लग जाता है छोटे बड़े पर्वत श्रृँखलाओं से घिरा हुआ है। जिसके मध्य में एक विशाल अति प्राचीन सरोवर है, जिसका पानी इतना स्वच्छ-साफ है, यदि कोई पानी में सिक्का फेंक दे तो पाँच-सात फीट गहराई तक पहुँचते सिक्का चमकता हुआ नजर आता है। तालाब का पानी ही एकमात्र पीने के लिए है वहाँ पर। गर्मी के दिनों में तालाब का निर्मल पानी देखकर प्यास पर काबू रख पाना कठिन है, बरबस ही आदमी तालाब का पानी पी ही लेता है।

पर्यटन के रूप में हो सकता है विकसित यदि छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र सरकार संयुक्त रूप से प्रयास कर, उक्त क्षेत्र को संरक्षित करते हुए एसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है। पर्यटन की सभी खूबियाँ यहाँ पर मौजूद है। सैलानियों के लिए यह क्षेत्र बेहद रोमांचक और महफूज़ है। टीपागढ़ के लिए सावरगाँव से पक्की सडक़ है जो कि, ऊंचे-नीचे व घुमावदार अदने पठारनुमा घने जंगलों से होकर जाती है। इन राहों से गुजरना दिलो-दिमाग को बड़ा सुकूंन देता है। एक बार यदि आप टीपागढ़ का भ्रमण कर लिए तो निश्चित है वहाँ की हसीन व मनमोहक वादियों में जाने का मन यकीनन बार-बार करेगा। जरूरत है, शासन को इस ओर गंभीरता से ध्यान देने की। इससे टीपागढ़ एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो सकता है एवं विशाल चट्टानों में उभरी आकृतियों का संरक्षण व संवर्धन हो सकेगा। 


-दरवेश आनंद

रविवार, 4 अगस्त 2013

मैं हूँ ना..!


वो सपने भी क्या, जो कभी न सच हुए.
दरअसल वो ख़्वाब तुमने देखा होगा रात में..!

इश्क से तुम तरबतर, ज़िन्दगी के धूप-छाँव में.
न हुए तो कहना,- जरा मिलो तो बरसात में..!

तकरार बाद प्यार है, दरवेश कहा करते हैं.
ये आदत भी तेरी है भली,- जो लड़ती हो बात-बात में..!

मिलो किसी से तुम, तो ख़्याल रखें ये उसूल.
चार मिलें, चौसठ खिलें,- पहली ही मुलाकात में..!

खोलिए न हाथ, तेरी बंद मुट्ठी लाख की.
हमने तो चाँद छू लिया,- रहकर औक़ात में..!

बीच भँवर में भी किनारे का नाप-जोख,
गर्दिश पे ये ग़ज़ल,- ऐसे हालात में..!

चलो और देखें ख़्वाब,- कुछ नये रंग के ‘सुमन’,
इस बार कोई और नहीं, मैं हूँ ना- तेरे साथ में..!

चन्द्रकिशोर साहू ‘सुमन’ गुण्डरदेही

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

अलसी में ऐसी क्या खास बात है।

अलसी पोषक तत्वों का खज़ाना

चमत्कारी, आयुवर्धक, आरोग्यवर्धक व दैविक भोजन अलसी में ऐसी क्या खास बात है। अलसी का बोटेनिकल नाम लिनम यूज़ीटेटीसिमम यानी अति उपयोगी बीज है। अलसी के पौधे में नीले फूल आते हैं। अलसी का बीज तिल जैसा छोटा, भूरे या सुनहरे रंग का व सतह चिकनी होती है। प्राचीनकाल से अलसी का प्रयोग भोजन, कपड़ा, वार्निश व रंगरोगन बनाने के लिये होता आया है। हमारी दादी माँ जब हमें फोड़ा-फुंसी हो जाती थी, तो अलसी की पुलटिस बनाकर बाँध देती थी। अलसी में मुख्य पौष्टिक तत्व ओमेगा-3 फेटी एसिड एल्फा-लिनोलेनिक एसिड, लिगनेन, प्रोटीन व फाइबर होते हैं। अलसी गर्भावस्था से वृद्धावस्था तक फायदेमंद है। महात्मा गाँधी जी ने स्वास्थ्‍य पर भी शोध की व बहुत सी पुस्तकें भी लिखीं। उन्होंने अलसी पर भी शोध किया, इसके चमत्कारी गुणों को पहचाना और अपनी एक पुस्तक में लिखा है, “जहाँ अलसी का सेवन किया जायेगा, वह समाज स्वस्थ व समृद्ध रहेगा।”


आवश्यक वसा अम्ल ओमेगा-3 व ओमेगा-6 की कहानी

अलसी में लगभग 18-20 प्रतिशत ओमेगा-3 फैटी एसिड ALA होते हैं। अलसी ओमेगा-3 फैटी एसिड का पृथ्वी पर सबसे बड़ा स्रोत है। हमारे स्वास्थ्य पर अलसी के चमत्कारी प्रभावों को भली भांति समझने के लिए हमें ओमेगा-3 व ओमेगा-6 फेटी एसिड को विस्तार से समझना होगा। ओमेगा-3 व ओमेगा-6 दोनों ही हमारे शरीर के लिये आवश्यक हैं यानी ये शरीर में नहीं बन सकते, हमें इन्हें भोजन द्वारा ही ग्रहण करना होता है। ओमेगा-3 अलसी के अलावा मछली, अखरोट, चिया आदि में भी मिलते हैं। मछली में DHA और EPA नामक ओमेगा-3 फेटी एसिड होते हैं, ये अलसी में मौजूद ALA से शरीर में बन जाते हैं। ओमेगा-6 मूंगफली, सोयाबीन, सेफ्लावर, मकई आदि तेलों में प्रचुर मात्रा में होता है। ओमेगा-3 हमारे शरीर के विभिन्न अंगों विशेष तौर पर मस्तिष्क, स्नायुतंत्र व आँखों के विकास व उनके सुचारु रुप से संचालन में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। हमारी कोशिकाओं की भित्तियाँ ओमेगा-3 युक्त फोस्फोलिपिड से बनती हैं। जब हमारे शरीर में ओमेगा-3 की कमी हो जाती है तो ये भित्तियाँ मुलायम व लचीले ओमेगा-3 के स्थान पर कठोर व कुरुप ओमेगा-6 फैट या ट्रांसफैट से बनती है। और यहीं से हमारे शरीर में उच्च रक्तचाप, मधुमेह प्रकार-2, आर्थ्राइटिस, मोटापा, कैंसर, आदि बीमारियों की शुरुआत हो जाती है।

शरीर में ओमेगा-3 की कमी व इन्फ्लेमेशन पैदा करने वाले ओमेगा-6 के ज्यादा हो जाने से प्रोस्टाग्लेन्डिन-ई 2 बनते हैं जो लिम्फोसाइट्स व माक्रोफाज को अपने पास एकत्रित करते हैं व फिर ये साइटोकाइन व कोक्स एंजाइम का निर्माण करते हैं। और शरीर में इनफ्लेमेशन फैलाते हैं। जिस प्रकार एक अच्छी फिल्म बनाने के लिए नायक और खलनायक दोनों ही आवश्यक होते हैं। वैसे ही हमारे शरीर के ठीक प्रकार से संचालन के लिये ओमेगा-3 व ओमेगा-6 दोनों ही बराबर यानी 1:1 अनुपात में चाहिये। ओमेगा-3 नायक हैं तो ओमेगा-6 खलनायक हैं। ओमेगा-6 की मात्रा बढ़ने से हमारे शरीर में इन्फ्लेमेशन फैलते हैं तो ओमेगा-3 इन्फ्लेमेशन दूर करते हैं, मरहम लगाते हैं। ओमेगा-6 हीटर है तो ओमेगा-3 सावन की ठंडी हवा है। ओमेगा-6 हमें तनाव, सरदर्द, डिप्रेशन का शिकार बनाते हैं तो ओमेगा-3 हमारे मन को प्रसन्न रखते हैं, क्रोध भगाते हैं, स्मरण शक्ति व बुद्धिमत्ता बढ़ाते हैं। ओमेगा-6 आयु कम करते हैं। तो ओमेगा-3 आयु बढ़ाते हैं। ओमेगा-6 शरीर में रोग पैदा करते हैं तो ओमेगा-3 हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं। पिछले कुछ दशकों से हमारे भोजन में ओमेगा-6 की मात्रा बढ़ती जा रही हैं और ओमेगा -3 की कमी होती जा रही है। मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा बेचे जा रहे फास्ट फूड व जंक फूड ओमेगा-6 से भरपूर होते हैं। बाजार में उपलब्ध सभी रिफाइंड तेल भी ओमेगा-6 फैटी एसिड से भरपूर होते हैं। हाल ही हुई शोध से पता चला है कि हमारे भोजन में ओमेगा-3 बहुत ही कम और ओमेगा-6 प्रचुर मात्रा में होने के कारण ही हम उच्च रक्तचाप, हृदयाघात, स्ट्रोक, डायबिटीज़, मोटापा, गठिया, अवसाद, दमा, कैंसर आदि रोगों का शिकार हो रहे हैं। ओमेगा-3 की यह कमी 30-60 ग्राम अलसी से पूरी कर सकते हैं। ये ओमेगा-3 ही अलसी को सुपर स्टार फूड का दर्जा दिलाते हैं। स्त्रियों को संपूर्ण नारीत्व तभी प्राप्त होता है जब उनके शरीर को पर्याप्त ओमेगा-3 मिलता रहता है।

 हृदय और परिवहन तंत्र के लिए गुणकारी

अलसी हमारे रक्तचाप को संतुलित रखती है। अलसी हमारे रक्त में अच्छे कॉलेस्ट्रॉल (HDL-Cholesterol) की मात्रा को बढ़ाती है और ट्राइग्लीसराइड्स व खराब कॉलेस्ट्रॉल (LDL-Cholesterol) की मात्रा को कम करती है। अलसी दिल की धमनियों में खून के थक्के बनने से रोकती है ओर हृदयाघात व स्ट्रोक जैसी बीमारियों से बचाव करती है। अलसी सेवन करने वालों को दिल की बीमारियों के कारण अकस्मात मृत्यु नहीं होती। हृदय की गति को नियंत्रित रखती है और वेन्ट्रीकुलर एरिद्मिया से होनेवाली मृत्युदर को बहुत कम करती है।

कैंसर रोधी लिगनेन का पृथ्वी पर सबसे बड़ा स्त्रोत

अलसी में दूसरा महत्वपूर्ण पौष्टिक तत्व लिगनेन होता है। अलसी लिगनेन का सबसे बड़ा स्रोत हैं। अलसी में लिगनेन अन्य खाद्यान्नों से कई सौ गुना ज्यादा होते हैं। लिगनेन एन्टीबैक्टीरियल, एन्टीवायरल, एन्टी फंगल और कैंसर रोधी है और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है। लिगनेन कॉलेस्ट्रोल कम करता है और ब्लड शुगर नियंत्रित रखता है। लिगनेन सचमुच एक सुपर स्टार पोषक तत्व है। लिगनेन पेड़ पौधों में ईस्ट्रोजन यानी महिला हारमोन के तरह कार्य करता है। रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं में ईस्ट्रोजन का स्त्राव कम हो जाता है और महिलाओं को कई परेशानियाँ जैसे हॉट फ्लेशेज़, ओस्टियोपोरोसिस आदि होती हैं। लिगनेन इन सबमें बहुत राहत देता है।

लिगनेन मासिक धर्म संबंधी अनियमितताएं ठीक करता है। लिगनेन हमें प्रोस्टेट, बच्चेदानी, स्तन, आंत, त्वचा आदि के कैंसर से बचाता हैं। यदि मां के स्तन में दूध नहीं आ रहा है तो उसे अलसी खिलाने के 24 घंटे के भीतर स्तन में दूध आने लगता है। यदि मां अलसी का सेवन करती है तो उसके दूध में प्रर्याप्त ओमेगा-3 रहता है और बच्चा अधिक बुद्धिमान व स्वस्थ पैदा होता है।

एड्स रिसर्च असिस्टेंस इंस्टिट्यूट (ARAI) सन् 2002 से एड्स के रोगियों पर लिगनेन के प्रभावों पर शोध कर रही है और आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए हैं। ARAI के निर्देशक डॉ. डेनियल देव्ज कहते हैं कि जल्दी ही लिगनेन एड्स का सस्ता, सरल और कारगर उपचार साबित होने वाला है।

पाचन तंत्र और फाइबर

अलसी में 27 प्रतिशत घुलनशील (म्यूसिलेज) और अघुलनशील दोनों ही तरह के फाइबर होते हैं अतः अलसी कब्ज़ी, मस्से, बवासीर, भगंदर, डाइवर्टिकुलाइटिस, अल्सरेटिव कोलाइटिस और आई.बी.एस. के रोगियों को बहुत राहत देती है। कब्जी में अलसी के सेवन से पहले ही दिन से राहत मिल जाती है। हाल ही में हुई शोध से पता चला है कि कब्ज़ी के लिए यह अलसी इसबगोल की भुस्सी से भी ज्यादा लाभदायक है। अलसी पित्त की थैली में पथरी नहीं बनने देती और यदि पथरियाँ बन भी चुकी हैं तो छोटी पथरियाँ तो घुलने लगती हैं।

प्राकृतिक सौंदर्य प्रसाधन

अलसी त्वचा की बीमारियों जैसे मुहाँसे, एग्ज़ीमा, दाद, खाज, खुजली, छाल रोग, बालों का सूखा व पतला होना, बाल झड़ना आदि में काफी असरदायक है। अलसी में पाये जाने वाले ओमेगा-3 बालों को स्वस्थ, चमकदार व मजबूत बनाते हैं। अलसी खाने वालों को कभी भी रुसी नहीं होती है। अलसी त्वचा को आकर्षक, कोमल, नम, व गोरा बनाती है। नाखूनों को स्वस्थ व सुंदर बनाती हैं। अलसी खाने व इसके तेल की मालिश से त्वचा के दाग, धब्बे, झाइयाँ, झुर्रियाँ दूर होती हैं। अलसी आपको युवा बनाये रखती है। आप अपनी उम्र से काफी वर्ष छोटे दिखते हो। अलसी उम्र बढ़ाती हैं।

रोग प्रतिरोधक क्षमता

अलसी हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है। गठिया, गाउट, मोच आदि में अत्यंत लाभकारी है। ओमेगा-3 से भरपूर अलसी यकृत, गुर्दे, एडरीनल, थायरायड आदि ग्रंथियों को ठीक से काम करने में सहायक होती है। अलसी ल्यूपसनेफ्राइटिस और अस्थमा में राहत देती है।

मस्तिष्क और स्नायु तंत्र के लिए दैविक भोजन

अलसी हमारे मन को शांत रखती है, इसके सेवन से चित्त प्रसन्न रहता है, विचार अच्छे आते हैं, तनाव दूर होता है, बुद्धिमत्ता व स्मरण शक्ति बढ़ती है तथा क्रोध नहीं आता है। अलसी के सेवन से मन और शरीर में एक दैविक शक्ति और ऊर्जा का प्रवाह होता है। अलसी एल्ज़ीमर्स, मल्टीपल स्कीरोसिस, अवसाद ( Depression ), माइग्रेन, शीज़ोफ्रेनिया व पार्किनसन्स आदि बीमारियों में बहुत लाभदायक है। गर्भावस्था में शिशु की आँखों व मस्तिष्क के समुचित विकास के लिये ओमेगा-3 अत्यंत आवश्यक होते हैं।

ओमेगा-3 से हमारी नज़र अच्छी हो जाती है, रंग ज्यादा स्पष्ट व उजले दिखाई देने लगते हैं। आँखों में अलसी का तेल डालने से आँखों का सूखापन दूर होता है और काला पानी व मोतियाबिंद होने की संभावना भी बहुत कम होती है। अलसी बढ़ी हुई प्रोस्टेट ग्रंथि, नामर्दी, शीघ्रपतन, नपुंसकता आदि के उपचार में महत्वपूर्ण योगदान देती है।

डायबिटीज़ और मोटापे पर अलसी का चमत्कार

अलसी ब्लड शुगर नियंत्रित रखती है, डायबिटीज़ के शरीर पर होने वाले दुष्प्रभावों को कम करती हैं। चिकित्सक डायबिटीज़ के रोगी को कम शर्करा और ज्यादा फाइबर लेने की सलाह देते हैं। अलसी व गेहूँ के मिश्रित आटे में 50 प्रतिशत कार्ब, 16 प्रतिशत प्रोटीन व 20 प्रतिशत फाइबर होते हैं। यानी इसका ग्लायसीमिक इन्डेक्स गेहूँ के आटे से काफी कम होता है। डायबिटीज़ के रोगी के लिए इस मिश्रित आटे से अच्छा भोजन क्या होगा? मोटापे के रोगी को भी बहुत फायदा होता है। अलसी में फाइबर की मात्रा अधिक होती है। इस कारण अलसी सेवन से लंबे समय तक पेट भरा हुआ रहता है, देर तक भूख नहीं लगती है। यह बी.एम.आर. को बढ़ाती है, शरीर की चर्बी कम करती है और हम ज्यादा कैलोरी खर्च करते हैं।

डॉक्टर योहाना बुडविज का कैंसर रोधी प्रोटोकोल

डॉ. योहाना बुडविज की चर्चा के बिना अलसी का कोई भी लेख अधूरा रहता है। ये जर्मनी की विश्व विख्यात कैंसर वैज्ञानिक थी, जिन्होंने अलसी के तेल, पनीर, कैंसर रोधी फलों और सब्ज़ियों से कैंसर के उपचार का तरीका विकसित किया। उन्होंने सभी प्रकार के कैंसर, गठिया, हृदयाघात, डायबिटीज आदि बीमारियों का इलाज अलसी के तेल व पनीर से किया। इन्हें 90 प्रतिशत से ज्यादा सफलता मिलती थी। इसके इलाज से वे रोगी भी ठीक हो जाते थे जिन्हें अस्पताल में यह कहकर डिस्चार्ज कर दिया जाता था कि अब कोई इलाज नहीं बचा, सिर्फ दुआ ही काम आयेगी। अमेरीका में हुई शोध से पता चला है कि अलसी में 27 से ज्यादा कैंसररोधी तत्व होते हैं। डॉ. योहाना का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए 7 बार चयनित तो हुआ पर उन्हें मिला नहीं क्योंकि उनके सामने शर्त रखी गई थी कि वे अलसी पनीर के साथ-साथ कीमोथेरेपी व रेडियोथेरेपी भी काम में लेंगी जो उन्हें मंजूर नहीं था।

बॉडी बिल्डिंग के लिए भी नंबर वन

अलसी बॉडी बिल्डर के लिए आवश्यक व संपूर्ण आहार है। अलसी में 20 प्रतिशत आवश्यक अमाइनो एसिड युक्त अच्छे प्रोटीन होते हैं। प्रोटीन से ही मांस-पेशियाँ बढ़ती हैं। अलसी भरपूर शक्ति देती है। कसरत के बाद मांस पेशियों की थकावट चुटकियों में ठीक हो जाती है। बॉडी बिल्डिंग पत्रिका मसल मीडिया 2000 में प्रकाशित आलेख “बेस्ट आँफ द बेस्ट” में अलसी को बॉडी के लिए सुपर फूड माना गया है। मि. डेकन ने अपने आलेख ‘आँस्क द गुरु’ में अलसी को नम्बर वन बॉडी बिल्डिंग फूड का खिताब दिया। अलसी हमारे शरीर को भरपूर ताकत प्रदान करती है, शरीर में नई ऊर्जा का प्रवाह करती है तथा स्टेमिना बढ़ाती है।

सेवन का तरीका

हमें प्रतिदिन 30-60 ग्राम अलसी का सेवन करना चाहिये। रोज 30-60 ग्राम अलसी को मिक्सी के चटनी जार में पीसकर आटे में मिलाकर रोटी, पराठा आदि बनाकर खायें। इसकी ब्रेड, केक, कुकीज़, आइसक्रीम, लड्डू आदि स्वादिष्ट व्यंजन भी बनाये जाते हैं। अंकुरित अलसी का स्वाद तो कमाल का होता है। इसे आप सब्ज़ी, दूध, दही, दाल, सलाद आदि में भी डाल कर ले सकते हैं। बेसन में भी मिला कर पकोड़े, कढ़ी, गट्टे आदि व्यंजन बनाये जा सकते हैं। इसे पीसकर नहीं रखना चाहिये। इसे रोजाना पीसें। ये पीसकर रखने से खराब हो जाती है। बस 30 ग्राम का आंकड़ा याद रखें। अलसी के नियमित सेवन से व्यक्ति के जीवन में चमत्कारी कायाकल्प हो जाता है।

अधिक जानकारी दिये गये लिंक पर क्‍िलक करके पढ़ें-

Hanuman


दोहा

निश्चय प्रेम प्रतीति ते, विनय करैं सनमान।
तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान।।

चौपाई

जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी।।
जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै।।
जैसे कूदि सिन्धु वहि पारा। सुरसा बदन पैठि विस्तारा।।
आगे जाय लंकिनी रोका। मारेहु लात गई सुर लोका।।
जाय विभीषण को सुख दीन्हा। सीता निरखि परम पद लीन्हा।।
बाग उजारि सिन्धु मंह बोरा। अति आतुर यम कातर तोरा।।
अक्षय कुमार को मारि संहारा। लूम लपेटि लंक को जारा।।
लाह समान लंक जरि गई। जै जै धुनि सुर पुर में भई।।
अब विलंब केहि कारण स्वामी। कृपा करहु प्रभु अन्तर्यामी।।
जय जय लक्ष्मण प्राण के दाता। आतुर होई दुख करहु निपाता।।
जै गिरधर जै जै सुख सागर। सुर समूह समरथ भट नागर।।
ॐ हनु-हनु-हनु हनुमंत हठीले। वैरहिं मारू बज्र सम कीलै।।
गदा बज्र तै बैरिहीं मारौ। महाराज निज दास उबारों।।
सुनि हंकार हुंकार दै धावो। बज्र गदा हनि विलम्ब न लावो।।
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुँ हुँ हुँ हनु अरि उर शीसा।।
सत्य होहु हरि सत्य पाय कै। राम दुत धरू मारू धाई कै।।
जै हनुमन्त अनन्त अगाधा। दुःख पावत जन केहि अपराधा।।
पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत है दास तुम्हारा।।
वन उपवन जल-थल गृह माहीं। तुम्हरे बल हम डरपत नाहीं।।
पाँय परौं कर जोरि मनावौं। अपने काज लागि गुण गावौं।।
जै अंजनी कुमार बलवन्ता। शंकर स्वयं वीर हनुमंता।।
बदन कराल दनुज कुल घालक। भूत पिशाच प्रेत उर शालक।।
भूत प्रेत पिशाच निशाचर। अग्नि बैताल वीर मारी मर।।
इन्हहिं मारू, तोंहि शमथ रामकी। राखु नाथ मर्याद नाम की।।
जनक सुता पति दास कहाओ। ताकी शपथ विलम्ब न लाओ।।
जय जय जय ध्वनि होत अकाशा। सुमिरत होत सुसह दुःख नाशा।।
उठु-उठु चल तोहि राम दुहाई। पाँय परौं कर जोरि मनाई।।
ॐ चं चं चं चं चपल चलन्ता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनु हनुमंता।।
ॐ हं हं हांक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल दल।।
अपने जन को कस न उबारौ। सुमिरत होत आनन्द हमारौ।।
ताते विनती करौं पुकारी। हरहु सकल दुःख विपति हमारी।।
ऐसौ बल प्रभाव प्रभु तोरा। कस न हरहु दुःख संकट मोरा।।
हे बजरंग, बाण सम धावौ। मेटि सकल दुःख दरस दिखावौ।।
हे कपिराज काज कब ऐहौ। अवसर चूकि अन्त पछतैहौ।।
जन की लाज जात ऐहि बारा। धावहु हे कपि पवन कुमारा।।
जयति जयति जै जै हनुमाना। जयति जयति गुण ज्ञान निधाना।।
जयति जयति जै जै कपिराई। जयति जयति जै जै सुखदाई।।
जयति जयति जै राम पियारे। जयति जयति जै सिया दुलारे।।
जयति जयति मुद मंगलदाता। जयति जयति त्रिभुवन विख्याता।।
ऐहि प्रकार गावत गुण शेषा। पावत पार नहीं लवलेषा।।
राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।।
विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।।
तुम सम नहीं जगत बलवाना। करि विचार देखउं विधि नाना।।
यह जिय जानि शरण तब आई। ताते विनय करौं चित लाई।।
सुनि कपि आरत वचन हमारे। मेटहु सकल दुःख भ्रम भारे।।
एहि प्रकार विनती कपि केरी। जो जन करै लहै सुख ढेरी।।
याके पढ़त वीर हनुमाना। धावत बाण तुल्य बनवाना।।
मेटत आए दुःख क्षण माहिं। दै दर्शन रघुपति ढिग जाहीं।।
पाठ करै बजरंग बाण की। हनुमत रक्षा करै प्राण की।।
डीठ, मूठ, टोनादिक नासै। परकृत यंत्र मंत्र नहीं त्रासे।।
भैरवादि सुर करै मिताई। आयुस मानि करै सेवकाई।।
प्रण कर पाठ करें मन लाई। अल्प-मृत्यु ग्रह दोष नसाई।।
आवृत ग्यारह प्रतिदिन जापै। ताकी छाँह काल नहिं चापै।।
दै गूगुल की धूप हमेशा। करै पाठ तन मिटै कलेषा।।
यह बजरंग बाण जेहि मारे। ताहि कहौ फिर कौन उबारे।।
शत्रु समूह मिटै सब आपै। देखत ताहि सुरासुर काँपै।।
तेज प्रताप बुद्धि अधिकाई। रहै सदा कपिराज सहाई।।


दोहा

प्रेम प्रतीतिहिं कपि भजै। सदा धरैं उर ध्यान।।
तेहि के कारज तुरत ही, सिद्ध करैं हनुमान।।

भारतीय गणना

आप भी चौक गये ना? क्योंकि हमने तो नील तक ही पढ़े थे..!