बचपन में पैर चंचल होते हैं, तो पल-पल माँ संभालती रहती है। गिरने से पहले ही थाम लेती है। जवानी में मन चंचल होता है। मन की चंचलता पर अंकुश लगाना यद्यपि बहुत कठिन है, पर महात्मा की शरण, सत्शास्त्र, सत्संगति, नीति-नियम पालन से सही दिशा दी जा सकती है।
जवानी नदी का मध्य भाग है, जहाँ अथाह जल ही जल है, भँवर हैं, तरंगें हैं। यहीं पर संभलना बहुत जरूरी है, यहाँ डूब गये तो उबरना बहुत मुश्किल है। पर संभल गये तो खुद भी तर गये और अन्यों को भी संभाल लिया।
बुढ़ापे में जुबान चंचल होती है। अन्य अंग तो असर्मथ हो जाते हैं कार्य करने में, पर जीभ ज्यादा चंचल हो जाती है, क्योंकि अब बैठे क्या करें? पर कोई सुनने वाला नहीं। सन्तानें तो आज के परिवेश में देखभाल ही नहीं करती क्योंकि उन्हें फुर्सत ही नहीं। और आदरभाव ही नहीं बुजुर्गों के प्रति। सो बुजुर्गों को चंचल जुबान पर अंकुश लगाने की जरूरत है।
यदि प्रारम्भ से ही कार्य के साथ-साथ उन्होंने प्रभु आराधना किया है तो तो ठीक है, मन रमेगा प्रभु ध्यान में जिससे जीभ की चंचचलता भी कम होगी अन्यथा कष्ट उठाने पड़ेगें।
खैर जीवन, तन-मन सब कुछ अपना ही है और इस की सही साज-संभाल, विवेक बुद्धि से खुद को ही करनी है। अन्यथा पभु की विशेष कृपा से पाया ये मानव तन फिर-फिर चौरासी के भ्रमण की ओर अग्रसर हो जायेगा।
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